रहस्य और रहस्योद्घाटन (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा
Rahasya Aur Rahasyodghatan (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma
लखनऊ के शनिवार क्लब के सदस्य तो सोलह हैं, लेकिन उस दिन कुल चार आदमी ही एकत्र हो पाए थे। जनवरी महीने की सर्दी वैसे ही काफी तेज होती है, लेकिन उस दिन तो सुबह से ही बर्फीली हवा चलने लगी थी और दोपहर के बाद हल्की बूँदा बाँदी शुरू हो गई थी।
पहले मैं आपको अपना परिचय दे दूँ । ज्ञानगुप्त गौतम के नाम से हरेक देशवासी को परिचित होना चाहिए क्योंकि मेरे खिलाफ गाँजे की स्मगलिंग का जो मुकदमा चला था, उसे लेकर देश के सभी प्रमुख पत्रों में मेरे चित्र छपे थे, मेरे सम्बन्ध में न जाने क्या-क्या लिखा गया था। सरकार के भरसक प्रयत्न के बावजूद नीचे की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक से निर्दोष ही साबित होता रहा । पाँच लाख रुपया खर्च हो गया था मेरा उस मुकदमे में, लेकिन इज्जत का मामला था। कहावत है कि 'जान है तो जहान है,' सो अपने दो सुपुत्रों की परवाह न करके मैंने अपनी इज्जत बचाई। मेरी एक्सपोर्ट और इम्पोर्ट की फर्म 'गुप्त गौतम ब्रदर्स' बम्बई में है, लेकिन इस मुकदमेबाजी के बाद उस फर्म का नाम बदलकर 'समृद्धि और विकास' कर दिया है। मुझे जबर्दस्ती लखनऊ भेज दिया गया है स्वास्थ्य लाभ के लिए, क्योंकि उस मुकदमेबाजी में मैं जीता तो था लेकिन तन्दुरुस्ती टूट गई थी और डॉक्टरों ने लम्बे विश्राम की सलाह दी थी। यहाँ लखनऊ में मैं अपनी कोठी में जम गया हूँ। मेरी कोठी 'शोभा सदन' लखनऊ की शानदार कोठियों में अग्रगण्य मानी जाती है। अब मैं पूर्णतः स्वस्थ हूँ, लेकिन मेरे पुत्रों ने मुझे बम्बई जाने से रोक दिया है। धीरे-धीरे उनकी साख बढ़ने लगी है और उन्हें खतरा इस बात का है कि कहीं पुलिस का टंटा फिर से न शुरू हो जाए। तो मैंने निश्चय कर लिया कि व्यापार-धन्धे से संन्यास लेकर अपने पुराने पापों का प्रक्षालन करूँ और देश की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दूँ। यानी मैं पार्लियामेंट का सदस्य बनकर देश को समृद्ध बनाऊँ, अपनी फर्म 'समृद्धि और विकास' को समृद्ध बनाऊँ और अपने मित्रों एवं शुभचिन्तकों को समृद्ध बनाऊँ। तो किसी राजनीतिक पार्टी के टिकट पर मैं लोकसभा का चुनाव लड़नेवाला हूँ। मेरे सुपुत्रों ने दो लाख की रकम मेरे पास भेज दी है ।
मैंने अपने इस इरादे की खबर सिवा अपने सुपुत्रों के और किसी को नहीं दी है, लेकिन उस दिन सुबह ही प्रसिद्ध तान्त्रिक एवं भविष्यवक्ता चमन चांडाल मेरे यहाँ पधारे। आते ही उन्होंने मुझसे कहा - "दुर्दिन समाप्त, शुक्र में राहु, राहु में शनि, मन्त्री बनेगा, मन्त्री । ये ले भभूत।" और जबर्दस्ती मेरे माथे पर एक चुटकी भभूत मलकर वह उलटे पैरों तेजी से चले गए, बिना बैठे, बिना मिठाई -नाश्ता किए बिना दान-दक्षिणा लिये ।
दोपहर के समय जनसंघ के एक प्रमुख कार्यकर्ता पधारे - " आप बड़े आस्थावान प्राणी हैं, हम आपको अपनी पार्टी का प्रत्याशी बनाना चाहते हैं, आप अपनी स्वीकृति दे दीजिए।"
'जल्दी का काम शैतान का' मुझे यह कहावत याद है, सो मैंने कहा था – “दो दिन का समय दीजिए, सोचकर उत्तर दूँगा, वैसे राजनीति में आकर देश सेवा का जी तो चाहता है..." और मैंने उनको अच्छा जलपान कराके विदा किया।
शाम के समय कांग्रेस कमेटी के एक विशिष्ट मन्त्री ने मुझे फोन किया- “लखनऊ की कांग्रेस कमेटी लखनऊ नगर से अपने प्रत्याशियों की जो एक सूची बना रही है उसमें आपका नाम सर्वप्रथम रखना चाहती है, आपको इसमें आपत्ति तो नहीं होगी ?"
“मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती है, मैं तो देश का एक तुच्छ सेवक हूँ, लेकिन चुनाव-खर्च मैं सिर्फ अपना दूँगा। दूसरे का चुनाव खर्च देने की अवस्था में नहीं हूँ ।"
“हें-हैं, क्यों मजाक करते हैं, हमारी पार्टी को क्या भिखमंगों और कंगालों की पार्टी समझ लिया है आपने? हमें इसी से सन्तोष है कि आप अपना चुनाव खर्च स्वयं बर्दाश्त कर लेंगे।"
मैंने तत्काल अपने साले के लड़कों को, जो इन दिनों प्राइवेट सेक्रेटरी भी है, बुलाकर पचास रुपए के फूल, मेवे और मिठाइयाँ तथा पचास रुपए नकद तान्त्रिक चमन चांडाल के यहाँ भिजवा दिए और फिर तुलसीदास का यह पद 'जब जानकीनाथ सहाय करें तब कौन बिगाड़ सके नर तेरो' गुनगुनाते हुए कपड़े बदले । ड्राइवर से मैंने कहा - "शनिवार क्लब की तरफ ।"
क्लब के बाहर सन्नाटा था। चौकीदार बुधई पासी गुरसी जलाए हुए बरामदे में बैठा आग ताप रहा था और भीतर से मिस्टर भोलानाथ टंडन निहायत बिगड़े हुए मूड में मौसम को और सदस्यों को गालियाँ देते हुए निकल रहे थे। मुझे देखते ही वह रुक गए, “अरे मिस्टर गौतम, बड़े अच्छे आ गए, मैं तो जा ही रहा था । यह साला मौसम भी क्या है, साढ़े सात बज गए हैं, और यहाँ सन्नाटा..."
मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा, “किसी को गाली देने से क्या मिल जाएगा, आप एक और मैं एक, एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं, तो आइए जमा जाए।"
“आऊँगा नहीं तो जाऊँगा कहाँ ? हफ्ते में एक शाम का समय निकालता हूँ तफरीह के लिए, वैसे दम मारने की फुर्सत नहीं ।" हम लोग एक मेज के दोनों तरफ बैठ गए थे। बेयरा रामदीन ने लपककर हम दोनों को सलाम किया, “क्या लावें सरकार ?” और मैंने उत्तर दिया- “एक-एक पेग छोटा व्हिस्की ।"
बैरिस्टर टंडन ने ताश की गड्डी उठाई और रमी के पत्ते बाँटने लगे, तब तक एक आवाज सुनाई दी- "तीन जगह बाँटिएगा, मैं भी आ गया।" और मैंने देखा कि मिस्टर लोकनाथ मिश्र कमरे में प्रवेश कर रहे हैं। आते ही उन्होंने पुकारकर कहा - "एक बड़ा पेग रम का।" और बैठते हुए मानो वह अपने ही अन्दर मुनमुनाए - “साले मिनिस्टर क्या हुए, हमें गुलाम और कंगाल समझ लिया। दिन-भर देहातों में घूमते रहे, दोपहर को मक्के की रोटी, दही और साग, शाम के वक्त चिउड़ा और मूँगफली के साथ चाय । मिठाई देहात के सड़े हुए खोए की और चाहता है कि मैं उसे देश का निर्माता, भारत का भाग्य-विधाता बनाऊँ। हाथ-पैर अकड़ गए हैं।"
श्री लोकनाथ मिश्र, 'स्टॉर्म एंड थंडर' नामक दैनिक पत्र के विशेष संवाददाता हैं। और उस पत्र की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति है । उनकी उम्र कोई पचास साल की रही होगी। निहायत काले और हब्शी से दिखनेवाले आदमी, लेकिन कलम में बला की ताकत। लोग उनका जितना आदर करते थे उससे अधिक उनसे डरते थे।
ताश बाँट दिए गए थे। तीनों के सामने शराब के गिलास थे। तभी डॉक्टर महेश्वरनाथ ने प्रवेश किया। मोटे से आदमी, उम्र करीब सत्तावन अट्ठावन साल, मुँह में सिगार लगा हुआ, बड़े इत्मीनान के साथ चौथी कुर्सी पर बैठे, फिर उन्होंने लोकनाथ मिश्र से कहा - "क्यों मिश्रजी, कल मैं आपका इन्तजार ही करता रह गया, अपने असिस्टेंटों को इकट्ठा कर रखा था मैंने उनसे कह दिया कि आपकी आँखें देश की आँखें हैं, उनका ठीक तौर से इलाज होना चाहिए। अगर आप जल्दी चश्मा नहीं लेते, तो आपकी आँखों की खैर नहीं ।"
डॉक्टर महेश्वरनाथ मेडिकल कॉलेज में नेत्र विभाग के प्रोफेसर हैं, जल्दी ही रिटायर होनेवाले हैं। घर में काफी जमा जथा है, ज्यादा मेहनत करने में उन्हें विश्वास नहीं। बड़े खुशमिजाज, दवा- इलाज की अपेक्षा विभिन्न सांस्कृतिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में दिलचस्पी । लोकनाथ ने उत्तर दिया- "माफ कीजिएगा डॉक्टर साहब, कल सूफी हफीज मुहम्मद शरीफ उल-उलेमा से मुलाकात हो गई। उन्होंने ममीरे का सुरमा दिया है, कहा है कि पन्द्रह दिन बाद दिन में तारे दिखने लगेंगे। पहुँचे हुए पीर, औलिया, न जाने क्या-क्या हैं।"
बेयरा रामदीन बिना पूछे ही डॉक्टर महेश्वरनाथ के सामने व्हिस्की रख गया था। एक घूँट पीकर डॉक्टर महेश्वरनाथ ने बड़े इत्मीनान के साथ कहा- “ठीक है, ठीक है, इन सन्तों और औलियों का क्या कहना अगर साथ में वैद्य या हकीम भी हुए। बड़े पहुँचे हुए लोग होते हैं । न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी। जड़ से साफ कर देते हैं मर्ज ।”
"क्या मतलब आपका ?" कुछ भड़ककर लोकनाथ मिश्र बोले ।
"जी, आपको तारे क्या, स्वर्गलोक, जन्नत और न जाने क्या-क्या दिखेगा, बाकी यह दुनिया भी कोई देखने की चीज है ?" मुँह बनाते हुए डॉक्टर महेश्वरनाथ ने कहा- “मैं कहता हूँ हजरत, चश्मा लीजिए, इन अनाड़ियों के फेर में मत पड़िए।”
मिस्टर मिश्र ने मुस्कुराते हुए कहा- "डॉक्टर साहब, आप लोग साइंसवाले आदमी हैं, हर चीज को मैटेरियल नजर से देखते हैं, लेकिन इस मैटेरियल यानी भौतिक तत्त्व से भी ऊपर चीजें होती हैं।"
बैरिस्टर टंडन ने ताशों की गड्डी एक तरफ रखते हुए कहा, “हाँ मिश्रजी, होती हैं, मैंने खुद देखी हैं।”
“आपको क्या कोई अनुभव हुआ है ऐसा ?" डॉक्टर महेश्वरनाथ ने पूछा।
"जी हाँ, कहिए तो सुनाऊँ ?”
“हाँ, हाँ !” हमने एक स्वर में कहा, और मिस्टर टंडन ने प्रारम्भ किया...
अभी दो साल पहले की बात है, वह जो यहाँ सुप्रसिद्ध सेठ घसीटेमल हैं, जी वही, एक दिन सुबह बड़े घबराए हुए मेरे यहाँ आए, बोले- " बैरिस्टर साहब, बड़ा गजब हो गया, बाबा देवमलंग हवालात में बन्द हैं।"
"यह बाबा देवमलंग कौन हैं, और हवालात में क्यों बन्द हैं ?" मैंने पूछा ।
“बड़े पहुँचे हुए सिद्ध हैं। कल रात करीब एक बजे बटलर रोड पर आई.जी. के बँगले के पास से होते हुए, लम्बे-लम्बे डग भरते हुए बनारसी बाग जा रहे थे कि पुलिसवालों ने उन्हें रोककर उनसे पूछताछ की। लेकिन बाबा ने चुप्पी साध ली। तो पुलिसवालों ने उन्हें हवालात में बन्द कर दिया। तब से बाबाजी मौन हैं, न खाते-पीते हैं, न बोलते हैं।"
तो लाला घसीटेमल बात कर ही रहे थे कि एक आदमी मेरे कमरे में घुस गया, जिसके पीछे मेरे मुंशी उसे रोकते हुए आ रहे थे। लम्बा-चौड़ा आदमी, निहायत मैले कपड़े पहने हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई, आँखें लाल-लाल चेहरा डरावना। हाथ में एक बड़ा सा झोला । उस आदमी की बदतमीजी पर मुझे बड़ा गुस्सा आया, लेकिन तभी सेठ घसीटेमल उठकर उनके पैरों पर गिर पड़े। उस आदमी ने घसीटेमल को उठाया - "क्यों रे घसीटे, बैरिस्टर साहब से मुझे छुड़वाने आया था। तो मैं खुद ही आ गया हूँ। हवालात में वैसे का वैसा ताला लगा है, ढूँढ़ रहे होंगे साले मुझे।" और वह एक खाली कुर्सी पर बैठता हुआ मुझसे बोला- “देख क्या रहे हो, दो दिन का भूखा हूँ, मँगवाइए कुछ खाने को । आध सेर जलेबी और एक सेर दूध-बस इतने से काम चल जाएगा।"
मैं समझ गया कि यही बाबा देवमलंग हैं। मैंने मुंशी को दौड़ाया दूध-जलेबी लाने के लिए। बाबा देवमलंग मुझसे बोले - "क्या सोचता है भगत, वैसे सब कुछ यहीं मँगवा सकता हूँ, लेकिन हरेक चीज की कीमत देनी पड़ती है, जो चीज चाहे वह इसी वक्त यहाँ मँगवा दूँ, लेकिन उसे वापस कर देना होगा।"
"मैंने सुन रखा था कि कुछ बाबालोग अपने झोलों में तरह-तरह के सामान रखते हैं और वह लोगों पर सम्मोहन डालकर उनसे यह चीजें मँगवाने को कहला देते हैं, जो उनके झोलों में हो। फिर झोलों से वही चीजें निकालकर लोगों को चकित कर देते हैं । तभी मुझे अपने समधी लाला बलराज खन्ना की याद हो आई, जो दो-तीन दिन पहले मेरे यहाँ आए थे। उनके गले में सोने की एक खूबसूरत माला थी, जिसमें भगवान कृष्ण की मूर्ति थी। तो मैंने बाबा देवमलंग से कहा कि वह बलराज खन्ना के गले की माला मँगवा दें तो हम जानें।"
"अभी लो, पहले जलपान हो जाए," और बाबा पद्मासन लगाकर तख्त पर जम गए ।
मुंशी दूध और जलेबी ले आया। बाबाजी ने डटकर नाश्ता किया, इसके बाद उन्होंने कहा- “भगत, वह माला चाहता है, तो ले।" और उन्होंने हवा में हाथ हिलाया और माला उनकी मुट्ठी में थी । उन्होंने माला मुझे पकड़ा दी।
लोकनाथ मिश्र चौंक उठे - “आपने गौर से देखी, वही माला थी ?"
जी, अच्छी तरह उलट-पुलटकर देखा, वही माला थी। तो उसके बाद एक घंटे बैठे बाबा मेरे यहाँ । मैंने वह माला अपने गले में पहन ली थी। एक घंटे बाद बाबाजी उठे...‘“भगत, तेरे कचहरी जाने का वक्त हो गया है और मुझे भी रामेश्वरम् जाना है मध्याह्न काल की आरती में बाबा भूतनाथ पर गंगाजल चढ़ाने के लिए। भगत घसीटेमल, फिर कभी आऊँगा, तेरी सेवा स्वीकार करने के लिए।" और देवमलंग बाबा तीर की तरह मेरे कमरे से बाहर हो गए। हमलोग उनके पीछे दौड़े, लेकिन बाबा देवमलंग की धूल का पता नहीं । गले पर हाथ लगाया, लाला बलराज खन्नावाली माला वहीं मौजूद थी ।
तो उसके बाद मैं गया कचहरी, एक सेशंस का मामला था। दो बजे तक मुकदमे में लगा रहा। वहाँ से मैं अपने चेम्बर में लौटा। बड़ी थकावट मालूम हो रही थी, आरामकुर्सी पर बैठ गया और लगता है मुझे झपकी आ गई। मुश्किल से पाँच मिनट की झपकी आई होगी, ढाई बजे दूसरा केस था न । मुअक्किल ने मुझे आवाज दी। मैं उठा अपनी टाई ठीक करते हुए, और कलेजा धक्क से रह गया। माला मेरे गले में न थी। रात में घर लौटते ही मैंने बलराज खन्ना को फोन मिलाया और उन्होंने बताया कि उस दिन सुबह के समय जब वह स्नान करने गए तो उन्होंने अपनी माला बाथरूम की खूँटी पर टाँग दी थी। स्नान करके जब वह माला लेने को मुड़े तब उन्होंने देखा कि माला खूँटी पर नहीं थी । इधर-उधर ढूँढ़ा, कहीं नहीं मिली। उन्हें जल्दी थी, ऑफिस कुछ खास लोगों से मिलना था तो चले गए। शाम को जब वापस लौटे तो बाथरूम में गए, माला वहीं खूँटी पर टँगी हुई मिली ।
खुद मिस्टर भोलानाथ टंडन के साथ यह घटना घटी, विश्वास तो नहीं होता था, लेकिन अविश्वास भी नहीं किया जा सकता था। थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। फिर मिस्टर लोकनाथ मिश्र ने कहा— “दैवी शक्ति पर तो मुझे विश्वास नहीं, लेकिन सोने की माला इलाहाबाद से आपके कमरे में आ गई और उसे आते किसी ने देखा नहीं, वैज्ञानिक ढंग से उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।"
इसके पहले कि बैरिस्टर टंडन कोई उत्तर देते, डॉक्टर महेश्वरनाथ बोल उठे-
"डॉक्टर हूँ और मैंने साइंस पढ़ी है, लेकिन मैं उस पर विश्वास कर सकता हूँ एक वैज्ञानिक के नाते । "
मैं चौंक उठा - " आप विश्वास करते हैं ! अजीब बात है !"
"बिल्कुल साधारण बात है," डॉक्टर महेश्वरनाथ ने सिगार की राख झाड़ी- "आप लोग जानते ही हैं कि वैज्ञानिकों ने अणु का विस्फोट कर दिया है। पदार्थ अणुओं से बना है, और अणु के विस्फोट पर इनर्जी या ऊर्जा रह जाती है। यह ऊर्जा अदृश्य है । इतनी तो विज्ञान को उपलब्धि हो चुकी है। अब ऊर्जा से अणु बने और अणु से पदार्थ बने, विज्ञान यह नहीं कर सका है। तो बाबा देवमलंग ने यह किया होगा कि सोने की माला को एक अणु-समूह में बदल दिया होगा, और फिर उस अणु-समूह को ऊर्जा बना दिया होगा। वह ऊर्जा इलाहाबाद से लखनऊ - और यहाँ आते ही ऊर्जा के अणु बने, अणु से फिर पदार्थ बन गया। यानी सोने की माला, वैसी की वैसी बन गई।"
बैरिस्टर टंडन ने ताली बजाते हुए कहा - "वाह डॉक्टर ! कितना वैज्ञानिक विश्लेषण कर दिया है तुमने !"
मैं तेजी के साथ सोच रहा था । हिन्दुस्तान में अणु बम बनाने की बात चल रही है। लेकिन अरबों-खरबों का खर्च है इसमें। फिर विदेशी मशीनें, विदेशी मुद्रा, विदेशी विशेषज्ञ। और बाबा देवमलंग यहाँ मौजूद हैं। पल में लखनऊ, पल में रामेश्वरम् । तो अगर बाबा देवमलंग को किसी फैक्टरी में बैठाकर धड़ाधड़ एटम बमों के निर्माण का काम आरम्भ हो जाय तो क्या कहना ! मैंने मिस्टर टंडन से कहा, “दोस्त टंडन ! बाबा देवमलंग का पता लगाओ, आदमी बड़े काम के साबित होंगे हमारे लिए। यह अमेरिका, रूस, चीनवाले - एक हाथ में साफ !"
आश्चर्य से मिस्टर टंडन ने मेरी ओर देखा, तब लोकनाथ मिश्र बोल उठे - " वाह मिस्टर ज्ञानगुप्त गौतम ! बात बड़े पते की कही है तुमने । क्यों डॉक्टर महेश्वरनाथ, यहीं लखनऊ में भैंसाकुंड से कुछ आगे बढ़कर भारतवर्ष की सबसे बड़ी एटमबम की फैक्टरी बन जाए। न कोई मैशिनरी, न वैज्ञानिक, न मजूदर, न लोहालंगड़, न यूरेनियम । अपने बाबा देवमलंग बैठे हैं उसमें और दे धड़ाधड़ दे धड़ाधड़ एटमबम तैयार हो रहे हैं ।"
डॉक्टर महेश्वरनाथ ने गम्भीरतापूर्वक सर हिलाते हुए कहा - "यह सब आध्यात्मिक और पारभौतिक बातें हैं मिश्रजी, इतनी आसानी से नहीं हो सकेगा। सबसे पहली बात बाबा देवमलंग की है, कब वह सेठ घसीटेमल या मिस्टर टंडन के हाथ लगेंगे - यह नहीं कहा जा सकता। वह स्वयं एक जगह से गायब होकर हजारों, लाखों या करोड़ों मील की दूरी पर प्रकट हो सकते हैं। वह इस समय चन्द्रमा या मंगल में हों कोई नहीं कह सकता। लेकिन अगर उनके फेर में पड़कर मिस्टर टंडन या आप लोग गायब हो गए, तो फिर आप लोग प्रकट हो सकेंगे- इस पर मुझे शक है । तो मेरी सलाह तो यह है कि आप लोग इस चक्कर में न पड़ें, इन पहुँचे हुए सिद्धों के चक्कर में पड़े हुए एक आदमी का मैं दुखद अन्त देख चुका हूँ ।"
बाहर अब तेजी से वर्षा होने लगी थी। रह-रहकर बिजली चमक रही थी । वातावरण कुछ अजीब डरावना हो गया था। मैंने कहा - "एक-एक पेग मेरी तरफ से । हाँ डॉक्टर, किस आदमी का और कैसा दुखद अन्त देखा है आपने ?”
रामदीन पीछे ही खड़ा था उसने तत्काल हम लोगों के गिलास भरे और डॉक्टर महेश्वरनाथ ने कहानी आरम्भ की :
बात सन् 1950 की है। मैं मेडिकल कॉलेज में लेक्चरर था लेकिन नेत्र चिकित्सा में मेरी ख्याति काफी अधिक हो गई थी। तो एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा आराम कर रहा था कि एक गोरा सा और लम्बा सा आदमी मेरे कमरे में घुस आया। बड़ा सुन्दर चेहरा, लेकिन मुख पर एक अजीब उदासी । उसकी अवस्था करीब पच्चीस-छब्बीस वर्ष की रही होगी। सफेद धोती-कुरता पहने, सिर पर सफेद पगड़ी, नंगे पैर, गले में रुद्राक्ष की माला, मत्थे पर त्रिपुंड । इस तरह उसके मेरे कमरे में घुस आने पर मुझे कुछ क्रोध हुआ, लेकिन उस आदमी की उदास मुद्रा को देखकर मैंने अपना क्रोध दबाया । मैंने उनसे कहा - "कहिए क्या काम है आपको ?”
“आपको अपनी आँखें दिखानी हैं डॉक्टर साहब। यह जग विख्यात है कि आप कुशल और धर्मनिष्ठ डॉक्टर हैं, आप मेरी आँख के चश्मे का नम्बर दे दें।”
मैं उसे क्लिनिक में ले गया और मैंने उसकी आँखों की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके चश्मे का नम्बर दे दिया। इस परीक्षा के दौरान मुझे ऐसा लगा कि उस आदमी का रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ है, उसके शरीर के अन्य भागों में भी कुछ विकार हो सकता है। आँख की कमजोरी उन्हीं विकारों के कारण हो सकती है। मैंने उससे कहा—“अपनी पूरी तरह से परीक्षा करा लो, मैं अपने मित्र डॉक्टर धर्मेन्द्रनाथ गौड़ को फोन किए देता हूँ। कल करीब दो-तीन बजे तुम मुझसे आकर चश्मे का नम्बर ले लेना ।”
मैंने उसे डॉक्टर गौड़ के पास भेज दिया। उन्होंने उसकी अच्छी तरह परीक्षा की, इसके बाद उन्होंने मुझे फोन पर बतलाया - "रक्तचाप बढ़ा हुआ है, लेकिन किसी तरह की और बीमारी नहीं दिखाई देती, असाधारण प्रक्रिया है इसके शरीर की, मेरी समझ में नहीं आता। एक हफ्ते बाद फिर देखना होगा इसे ।"
दूसरे दिन वह आदमी फिर मेरे यहाँ आया, न जाने क्यों, उस आदमी से इस कदर प्रभावित हुआ था कि मैंने उसका चश्मा मयफ्रेम के उसी दिन अपने पैसों से बनवा दिया था। उसके आते ही मैंने उसका चश्मा देते हुए कहा- "यह रहा आपका चश्मा, मेरी तरफ से आपको भेंट। एक हफ्ते बाद आप डॉक्टर गौड़ से मिल लीजिएगा !"
एक ठंडी साँस लेकर उसने उत्तर दिया- "बहुत-बहुत धन्यवाद, आप वास्तव में धर्मात्मा हैं - भगवान आपका भला करे। डॉक्टर गौड़ से मुझे नहीं मिलना, आज के ग्यारह मास के बाद मेरी मृत्यु हो जाएगी उसे कोई नहीं रोक सकता । आँखों से कुछ कम दिखाई देने लगा है तो मैं चश्मा लेने आपके यहाँ चला आया था।"
मेरी उत्सुकता जाग उठी, मैंने कहा- "यह कैसे कहते हैं आपको कोई बीमारी नहीं है !"
उसने बड़े उदास भाव से सिर हिलाया - " मैं जानता हूँ कि मेरी मृत्यु निश्चित है । आपने मेरे साथ जो उपकार किया उसके लिए आपको आशीर्वाद । एक महीने बाद आप विदेश यात्रा करेंगे, वहाँ से लौटकर आपकी पदोन्नति होगी ।"
मैंने उससे कहा- "महाराज, आप अपने रहस्य को अपने अन्दर ही रखते हुए नहीं जा सकते, क्या बात है ? आप मुझे बताएँ, कुपात्र मैं नहीं साबित हूँगा ।”
मेरे आग्रह को वह नहीं टाल सका। उसने कहा- "डॉक्टर साहब, आपकी इतनी ममता पाकर मैं धन्य हो गया हूँ। अच्छी बात है, सुनिए मेरा नाम है शिवकुमार अग्निहोत्री, मेरे पिता रामकुमार बाराबंकी में कर्मकांडी पुरोहित हैं। मुझे भी वह पुरोहित बनाना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने मुझे अंग्रेजी से दूर रखकर संस्कृत पढ़ाई लेकिन युग बदल रहा था। मुझे जिन्दगी से शौक... घर से पैसे चुराकर मैं सिनेमा देखता था, शराब पीता था। तो एक दिन मेरे पिता ने मुझे बहुत पीटा। दूसरे दिन मैं अपनी माता के गहने चुराकर बम्बई भागा। मैंने सोचा कि फिल्म में मैं हीरो बनूँगा । ठाठ की जिन्दगी रहेगी। खैर, हीरो तो मैं क्या बनता, जैवन्ती नाम की एक अभिनेत्री से मुझे प्रेम हो गया। जितनी पूँजी लाया था सब उसे अर्पित कर दी। करीब सात-आठ महीने राग-रंग में बीते। और फिर जमा-पूँजी खत्म हो गई। फिर भला वेश्या भी कहीं प्यार करती है ? इधर मेरा रुपया खत्म हुआ और उधर उसने मुझे जूते मारकर अपने घर से निकाल दिया। तो मैं कर्मकांडी कुल का कान्यकुब्ज ब्राह्मण एक वेश्या के जूते खाकर क्षोभ और ग्लानि से भर गया । हृदय ताप से जल रहा था - मैं चोर, अधम, मुझे अपने जीवन का अन्त कर लेना चाहिए। उस दिन रात के समय मैं मलाबार हिल के पीछे जो श्मशान है, वहाँ सन्नाटे में प्राण त्यागने गया । बारह बजे रात का घुप अँधेरा । समुद्र की लहरें भयानक गर्जन के साथ मुझे बुला रही थीं और मैं समुद्र में घुस पड़ा। तब तक किसी ने मुझे समुद्र से खींचते हुए कहा - "क्यों बे, यहाँ आत्महत्या कर रहा है ? ब्रह्मराक्षस बनकर मेरी तपस्या में विघ्न डालेगा, कायर कहीं का, भाग यहाँ से ।”
मेरे सामने एक विशालकाय योगी खड़ा था - घुटने तक पहुँचती हुई दाढ़ी, और पीछे एड़ी तक उसकी जटाएँ, निर्वस्त्र, मुख बालों से ढका हुआ, केवल अंगारों की तरह जलती हुई दो आँखें दिखाई दे रही थीं। मैं उनके हाथ से छूटकर समुद्र की लहरों में बहने का प्रयत्न कर रहा था और वह मुझे समुद्र तट की ओर ढकेल रहे थे। मैंने उनके चरणों पर गिरकर कहा - " अब मैं जीवित नहीं रहूँगा, मुझे मरने दीजिए। योगिराज !”
और उन्होंने उत्तर दिया- "तुझे मैं जाने देता अगर आत्महत्या करने के बाद उच्चकुलीन कान्यकुब्ज ब्राह्मण के ब्रह्मराक्षस बनने का प्रश्न न होता, तू बड़े जबर्दस्त किस्म का ब्रह्मराक्षस बनेगा। वहाँ दूर, समुद्र से निकली हुई उस शिला पर नित्य-प्रति सारी रात मैं तपस्या करता आ रहा हूँ डेढ़ सौ वर्ष से । अब तू ब्रह्मराक्षस बनकर वहाँ उत्पात मचाएगा। मैं तुझे किसी हालत में मरने नहीं दूँगा। योगबल द्वारा मुझे पूरा पता चल गया है तेरी विपत्ति का । मैं तुझे एक मन्त्र बताता हूँ, सन्ध्या के समय ठीक चार बजे स्नान करके इस मन्त्र का पाँच बार जाप करना और उसी समय तेरी आँखों के सामने एक संख्या आ जाएगी। वह उस दिन रात में ग्यारह बजे खुलनेवाला सोने का भाव होगा । तो यहाँ जो लोग सोने का सट्टा करते हैं उनमें से किसी एक को उचित दक्षिणा लेकर तू वह संख्या बता दे। लेकिन केवल एक व्यक्ति को ही यह बताना। इस संख्या का उपयोग तू स्वयं अपने लिए नहीं करेगा, अन्यथा एक वर्ष के अन्दर तेरी मृत्यु हो जाएगी। जो धन तुझे मिलेगा वह व्यय के लिए, संचय के लिए नहीं, संचय ब्राह्मण का गुण नहीं है।" और योगिराज मेरे कान में मन्त्र देकर समुद्र के जल पर चलते हुए पीछे लौट गए। मैं विमूढ़ सा बैठा था। थोड़ी देर बाद मैंने समुद्र की ओर देखा - गहरा अन्धकार । लेकिन दूर एक शिला का धुँधला सा आकार मुझे दिख रहा था और कुछ ऐसा प्रतीत होता था कि योगिराज उस शिला पर मौन खड़े तपस्या कर रहे हैं ।
वहाँ से मैं लौट आया। दिन भर मैं अपने कमरे में बन्द सोता रहा, शाम को चार बजे मैंने स्नान करके उस मन्त्र का पाँच दफे जाप किया, और मेरी आँखों के आगे एक संख्या आ गई। मैंने वह संख्या एक कागज के पुर्जे पर लिखकर रख ली। फिर मैं सट्टा बाजार पहुँचा। भीड़ इकट्ठा हो रही थी। एक निहायत मरियल सा मारवाड़ी वहाँ खड़ा कुछ सोच रहा था और इधर-उधर देख रहा था । मैंने समझ लिया कि यह सट्टे में हारा हुआ आदमी है। मैंने उसे अलग ले जाकर पूछा कि क्या वह रात खुलनेवाले भाव जानना चाहता है, सौ रुपए लूँगा और भाव बता दूँगा । उसने कहा कि दो लाख में उसके पा अब पाँच सौ बचे हैं। मैंने कहा - " सेठ लगा दे यह पाँच सौ रुपए, आ गया तो मुझे सौ रुपए दे देना।" और मैंने उसे संख्या बता दी ।
उसने पाँच सौ रुपए लगा दिए, रात ग्यारह बजे भाव खुला और पागल सा दौड़कर वह मारवाड़ी मेरे गले से लिपट गया। वह जीत गया था। उसने सौ रुपए मेरे हाथ पर रख दिए। तो इस तरह मैं सौ रुपए रोज पैदा करने लगा । और दिन-भर खुले हाथों से खर्च करता था। मेरी प्रेमिका ने जो यह खबर सुनी कि मैं रुपए लुटा रहा हूँ तो वह मेरे पास दौड़ी आई, बड़ी-बड़ी माफी माँगी, बड़ी रोई और गिड़गिड़ाई भी । फिर से हम दोनों का मेल हो गया।
एक दिन मेरी प्रेमिका ने बड़े आँसू बहाते हुए मुझसे कहा कि फिल्मों में वह हीरोइन तभी बन सकती है जब उसके प्रेमी की खुद कम्पनी हो। मैं उसकी कथा से द्रवित हो गया, मैंने कहा - "कौन सी बड़ी बात है, एक महीने के अन्दर फिल्म कम्पनी खोले देता हूँ ।" मैं योगिराज की चेतावनी भूल ही गया था कि अपने लिए उस संख्या का उपयोग न किया जाए। जब दुर्दिन आता है तब मति भ्रष्ट हो जाती है। और मैं उस संख्या पर खुद दाँव लगाने लगा ।
एक महीने में ही मेरे पास पाँच लाख रुपए हो गए - शानदार फ्लैट, शानदार कार । तो एक रात मैं अपनी प्रेमिका के साथ जुहू समुद्र तट पर घूमने गया । मेरी प्रेमिका स्नान करके कुछ हटकर कपड़े बदल रही थी और मैं अकेला बैठा था। तभी देखता हूँ कि एकाएक वही पुराने योगिराज समुद्र से निकलकर सामने खड़े हो गए। कड़ककर बोले – “क्यों बे शिवकुमार अग्निहोत्री, तूने अपने वचन का पालन नहीं किया, इस पापिनी के फेर में पड़कर तूने अपने ब्राह्मणत्व पर कलंक लगाया। एक साल के बाद आज के दिन ही तुझे यमलोक की यात्रा करके नरक भोगना पड़ेगा। अब तू ब्रह्म-राक्षस भी नहीं बन सकेगा।" मेरी तो घिग्घी बँध गई, जब तक मैं सँभलूँ तब तक योगिराज गायब हो चुके थे। उसी समय एक भयानक ग्लानि भर आई मेरे अन्दर । वहाँ से लौटकर मैंने वह जमा जथा जैवन्ती के हाथों सौंप दी और दूसरे दिन खाली हाथों, बिना किसी को कुछ बताए हुए मैं बम्बई छोड़कर चल दिया, अपने पापों का प्रक्षालन करने के लिए। सोचा, अपनी जन्मभूमि में चलकर अपने प्राण दूँगा । लेकिन यहाँ लखनऊ आकर मैं रुक गया। पिता के यहाँ जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। एक महीना हुआ यहाँ मुझे लखनऊ आए हुए । मेरे पिता को मेरा पता चल गया है, वह मुझे साथ ले चलने की जिद पकड़े हैं। जीवन के अब ग्यारह मास शेष हैं। इधर मेरी आँख खराब हो गई तो मैं आपसे अपना चश्मा लेने चला आया ।
मैंने शिवकुमार को गौर से देखा। बड़ी विचित्र कहानी सुनाई है उसने, उसमें कितना झूठ है मैं यही अन्दाजना चाहता था। लेकिन उसकी शान्त मुद्रा - निस्पृह भाव ! डॉक्टर होने के नाते मुझे मालूम था कि यह आदमी किसी भी वक्त मर सकता है, इसलिए झूठ नहीं बोलेगा, फिर भी विश्वास नहीं होता था, मैंने पूछा - "क्या आज रात खुलनेवाले सोने का भाव भी बतला सकते हो ?"
बड़े भोलेपन के साथ उसने उत्तर दिया- "इधर एक महीने से तो किसी को बताया नहीं, उस मन्त्र का जाप भी नहीं किया। सम्भव है अब भी बता दूँ लेकिन आप इस सबके चक्कर में मत पड़िए। यह सब पिशाचविद्या और पिशाचवृत्ति है, मैं तो अनजाने ही इसमें फँस गया हूँ, आप धर्मात्मा आदमी हैं, आप इससे दूर ही रहिए ।"
मेरे मन में खयाल आया कि शिवकुमार टाल रहा है, यह सब कहानी मनगढ़न्त है। तभी शिवकुमार बोल उठा - "डॉक्टर साहेब, आपके मन में मेरे प्रति अविश्वास पैदा हो गया है। तो अभी दोपहर के तीन बजे हैं, एक घंटा बाकी है चार बजने में। एक घंटा बाद मैं यहीं स्नान करके मन्त्र का जाप करूँगा और रात में खुलनेवाला सोने का भाव बता दूँगा।”
इधर शिवकुमार स्नान करके पूजा करने गया, उधर मैंने सेठ झुनझुनवाला को फोन मिलाकर उस दिनवाले सोने का भाव पूछा, फिर उनसे कहा कि रात ग्यारह बजे जो सोने का रेट आवे वह मुझे बतला दें। और शिवकुमार अग्निहोत्री ने जो रात को खुलनेवाला रेट था वह सही-सही बतला दिया ।
डॉक्टर महेश्वरनाथ के गिलास की व्हिस्की खत्म हो गई थी और वह घर लौटने की मुद्रा में थे, मैंने उनसे पूछा - "डॉक्टर साहब, फिर शिवकुमार का क्या हुआ ?”
"अरे होना क्या था, उसी बताई हुई तिथि पर वह मर गया। जैसा उसने कहा था, एक महीने बाद ही मुझे फिलाडेल्फिया में आँख के विशेषज्ञों की कांफ्रेंस में जाना पड़ गया। जाना तो प्रोफेसर अडवानी को था अपना पेपर पढ़ने के लिए, लेकिन वह पड़ गए बीमार, उन्होंने अपना पेपर पढ़ने के लिए मुझे भेज दिया। शिवकुमार अग्निहोत्री का आशीर्वाद या भविष्यवाणी, जो कुछ भी आप उसे समझें, ठीक निकली। मेरे अमेरिका जाने के एक दिन पहले वह मेरे घर पर आए थे। मेरे यहाँ उन्होंने भोजन भी किया । मुझे भेजने के लिए वह स्टेशन भी गए। ट्रेन में उन्होंने मुझसे कहा- "डॉक्टर साहब, जा तो रहे हैं: आप तीन हफ्ते के लिए लेकिन आप दस महीने बाद ही लौटेंगे। अमेरिकावाले आपको रोक लेंगे, कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान के सिलसिले में ... और जब आप वहाँ से लौटेंगे, यहाँ आते ही आपको ऊँचा पद मिलेगा। लेकिन उस समय मैं दुनिया में नहीं रहूँगा । तो इसीलिए मैं आपसे अन्तिम विदा लेने और आपको आशीर्वाद देने बाराबंकी से चला आया हूँ।”
“और उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। तो हुआ भी वैसा ही। दस महीने अमेरिका में रहकर मैं वापस लौटा, तब मैं यहाँ रीडर बन गया। और रामकुमार अग्निहोत्री ने आकर मुझे सूचना दी कि शिवकुमार अग्निहोत्री मर चुके हैं।"
डॉक्टर महेश्वरनाथ उठ खड़े हुए, उन्होंने लोकनाथ मिश्र से कहा - " अपनी आँखों की खैरियत चाहते हैं तो कल मेरे घर सुबह आ जाइए -इतवार है, आपकी आँखें एक्जामिन कर दूँगा अच्छी तरह से। इन पीरों और महात्माओं के चक्कर में न पड़िएगा, न जाने क्या से क्या हो जाए ?" और वह चलते बने।
उनके जाते ही हम तीनों उठ खड़े हुए। लोकनाथ मिश्र ने कहा - "दुनिया भी बड़ी अजीबो-गरीब जगह है, बड़े विचित्र अनुभव होते रहते हैं लोगों को ।”
और मिस्टर टंडन ने कहा - " इसमें क्या शक है, इन्हीं अनुभवों में तफरीह भी है । " और वह हँस पड़े ।
यह दोनों बाहर निकल गए - मैं इत्मीनान के साथ दरवाजे की ओर बढ़ा। तभी कहीं से आती हुई बेयरा रामदीन की आवाज सुनाई पड़ी - "ई पढ़े-लिखे मनई गदहा होते हैं, ई हमें नाहीं मालूम रहा।"
और उसके बाद मुझे चौकीदार की आवाज सुनाई पड़ी - "अरे ई गदहा न आएँ - हराम केर पैसा, हराम केर शौक, हराम केर लन्तरानी ! गदहा तो आन हम छुटकवा मनई ।”
मुझे क्रोध तो बहुत आया, लेकिन मैं चुपचाप अपनी कार में बैठ गया।