राख वाली कन्या : लोककथा (उत्तराखंड)

Raakh Wali Kanya : Lok-Katha (Uttarakhand)

किसी गांव में एक औरत रहती थी । उसकी एक साथ चार कन्यायें जन्मी । उस गॉंव के लोग अंधविश्वासी थे । गाँव के लोगों में विश्वास प्रचलित था कि चार कन्याओं के एक साथ जन्म होने पर गाँव में अनिष्ट होता है । जब ये कन्यायें सोलह साल की हो जाती, तीन कन्याओं के लिए उपहार रखे जाते । चौथी कन्या के लिए राख की पुडि़या रखी जाती थी । इसके लिए कागज के चार टुकड़े तैयार किए जाते । तीन टुकड़ो में उपहारों का नाम तथा चौथे टुकड़े में राख लिखा जाता। एक-एक कर कन्याओं से आँखें बन्द कर कागज की पर्ची उठाने को कहा जाता । कागज की पर्ची में लिखा उपहार कन्याओं को दिया जाता । जिस कन्या के नाम राख लिखी पर्ची आती, उसे छरफूकि (राख वाली कन्या) कहा जाता । उसे भाग्यहीन माना जाता।

जब उस औरत की कन्यायें सोलह वर्ष की हो गई तो परम्परा के अनुसार चार कागज की पर्चियां तैयार की गई । एक पर्ची में मोती की माला, दूसरी में चाँदी के फूलों का हार तथा तीसरी में सोने का शीशफूल लिखा गया । चौथी पर्ची में राख लिया गया था । बारी-बारी से आँखें बन्द कर चारों बहनों ने पर्चियां उठाई । एक बहिन के भाग्य में मोती की माला, दूसरी के भाग्य में चाँदी के फूलों का हार तथा तीसरी के भाग्य में सोने का शीशफूल आया । चौथी बहिन के भाग्य में राख वाली पर्ची आई । उसे छरफूकि कन्या घोषित किया गया ।

चौथी बहिन के छरफूकि घोषित होने के बाद तीन बहिनें अपने को श्रेष्ठ समझने लगी । वे तीनों छरफूकि कन्या को बात-बात पर नीचा दिखाती रहती ।

एक बार उन कन्याओं की माँ ने चारों बेटियों से कहा - ’’बेटियों! जंगल में घास लाने जाओ । चारों बहिनें घास लेने जंगल चली गई । छरफूकि बहिन तीनों के पीछे-पीछे जंगल चली गईं । उसे जंगल में भूख लगी । उसने किनगोड़ की झाड़ी से एक टहनी तोड़ी और खाने लगी । उसकी बहिनों ने उसे देखकर धमकाया ’’तुम भाग्यहीन कन्या हो । किनगोड़ की यह टहनी हमें दों । हम खाएगें किनगोड़ ।’’

छरफूकि बहिन कुछ कहती, इससे पहले ही उन्होंने किनगोड की टहनी उसके हाथ से छीन ली । जब तीनों बहिनें किनगोड खाने लगी तो उन्होंने देखा सारे किनगोड में कीडे़ पड गए थे । उन्होंने किनगोड की टहनी फेंक दी । वह टहनी छरफूकि कन्या ने उठा दी । उसके हाथ में पकडते ही किसी भी किनगोड में कीड़ा नही दिखाई दिया । उसने खूब किनगोड़ खाए । थोडा आगे चलने पर छरफूकि कही जाने वाली लड़की ने हिसालु की झिल्ल (बेल) देखी। उसने बेल की एक टहनी काट दी। अब वह उसके हिसालु खाने लगी । तीनों बहिनों ने हिसालु की टहनी उससे छीन ली । वह उस टहनी के हिसालु खाने लगे । उन हिसालुओं में बहुत सारी चींटियां आ गई । उन्होंने हिसालु की टहनी को फेंक दिया । वह टहनी छरफुकि बहिन ने उठा दी । उसके हाथ में पड़ते ही सारी चीटियां हिसालुओं से गायब हो गई । शाम को चारों बहिने घास लेकर पहुँची ।

दूसरे दिन चारों बहिनें लकड़ी लेने जंगल चली गई । जंगल में उन्हें दूर एक महल दिखाई दिया । वे चारों महल के अन्दर चली गई । महल में एक घोड़ा बंधा था । वहाँ खाने-पीने के लिए व्यन्जनों के थाल सजे थे । चारों बहिनें उन थालों में सजे पकवानों को खाने लगी । तीनों बहिनो ने छरफुकि बहिन को पकवानों को खाने नही दिया । तीनो बहिने पकवानो को खाने लगी । छरफुकि बहिन वहाँ से उठकर चली गई । महल के अन्दर वह दूसरे कक्ष में गई । उस कक्ष में साज श्रृंगार की वस्तुएँ रखी थी । अच्छे-अच्छे वस्त्र रखे थे । छरफूकि बहिन ने उन कपडों को पहन लिया। वहाँ सोने की जूती भी रखी हुई थी । वह उसके पैरों में ठीक आ गई । छरफूकि बहिन श्रृंगार कक्ष से बाहर आई तो उसने आगे एक विशाल सभागार देखा । वहाँ पर उत्सव जैसा माहौल था । वहाँ एक राजकुमार खड़ा था । उसने सेहरा बांध रखा था । उसके बगल पर एक महात्मा खडे़ थे । छरफुकि लड़की को देखकर महात्मा उस राजकुमार से बोला, ’’राजकुमार अक्षत! देखो वह तुम्हारी दुल्हन आ रही है।‘‘

’’महात्मन ! वही मेरी दुल्हन है। मैं कैसे मान लूं ? हो सकता है कोई दूसरी कन्या सजधज कर आई हो।’’

’’देखो! मैंने तुम्हें बताया था जो कन्या श्रृगार कक्ष में रखी सामग्री से अपना श्रृंगार करेगी, वही तुम्हारी दुल्हन होगी । उसके पैरों में तो देखो वही सोने की जूतियाँ, बिल्कुल सही नाप की।’’ - महात्मा ने राजकुमार अक्षत को बताया।

महात्मा ने छरफुकि कन्या को फूलों की माला देते हुए कहा - ’’बेटी! तुम ही अक्षत की दुल्हन हो । दूल्हे के गले में माला डाल दो।’’

छरफूकि कन्या ने अक्षत के गले में माला डाल दी । थोडी देर में उसकी तीनों बहिनें भी वहाँ पहुँच गई । उनकी शादी राजकुमार के नौकरों से हो गई |

(साभार : डॉ. उमेश चमोला)

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