राजण्णा-लच्चण्णा : कर्नाटक की लोक-कथा
Raajanna-Lachanna : Lok-Katha (Karnataka)
एक गाँव था। वहाँ पर एक परिवार, जिसमें पति-पत्नी ही थे। बेचारे बहुत गरीब थे। पति जंगल जाकर लकड़ी काटकर लाता, उसे बाजार ले जाकर बेचता, उससे जो पैसे मिलते, उसी से उनका गुजारा चलता।
पत्नी गर्भिणी बनी थी। लकड़ी बेचने से एक या दो रुपए ही मिलते थे। उतने में उन्हें सेर-आधा सेर अनाज मिलता था। वह अनाज पीसकर पत्नी चूल्हे में पकाती, पकाकर उसमें से तीन विष्ट पिंड बनाती, खुद दो विष्ट खा लेती, एक विष्ट पति को देती थी।
एक दिन की बात है, मियाँ ने बीवी से प्रश्न किया कि क्या बात है, जंगल जाकर लकड़ी काटने का काम मैं करता हूँ, उसे बाजार ले जाकर मैं बेचता हूँ और तुम हो कि विष्ट के दो गोले खुद खा लेती हो और मुझे एक की गोला देती हो। यह क्यों?
इस बात पर उसकी बीवी जवाब देती है कि एक गोला मैं अपने लिए रखती हूँ, दूसरा गोला जो है, वहे मेरे पेट के अंदर जो बच्चा है, उसे खिलाती हूँ।
मियाँ चुप रह गया, मगर बात मन में रखी।
वह दिन बीता, अगली सुबह बीवी ने ही खाना पकाया। आज दोनों जंगल साथ मिलकर जानेवाले थे। जंगल जाकर मियाँ ने और दिनों की तरह आज भी लकड़ी काटी। सिर्फ यह था कि आज लकड़ी का गट्ठा बीवी बाँध रही थी। जब सब लकड़ी बँध गई तो मियाँ ने और लकड़ी काटी, तभी मियाँ को बहुत भूख लगी। उसने कहा, "पहले हम खाना खा लेते हैं।"
बीवी ने खाना परोसा। उसने अपने लिए दो गोले रखे। मियाँ को एक गोला परोसा।
अब मियाँ की बारी थी। कटी लकड़ी का उसने तीसरा एक गट्ठा बनाया। बीवी ने पूछा, "दो गठे काफी हैं, तीसरा गट्ठा किसलिए?"
मिया ने जवाब दिया, "एक गट्ठा मेरे लिए और दो गट्टे तुम्हारे लिए। एक तुम ढोओगी, दूसरा तुम्हारे गर्भ में जो बच्चा है, वह उसे ढोएगा।"
इस तरह दोनों लकड़ी के गट्टे उठाकर निकलते हैं। उतने में बीवी के पेट में दर्द शुरू होता है। बीवी कहती है, "शायद बच्चा अभी बाहर निकलनेवाला है, क्या करें?" मियाँ कहता है कि "ठीक है, तुम वहाँ उस पेड़ के नीचे चली जाना। बच्चा हुआ तो ठीक है। उसे लेकर घर आ जाना, अगर बच्ची हुई तो उसे यहीं छोड़कर आ जाना।"
इस तरह कहकर वह गाँव लौट आया। बीवी पेड़ के नीचे बैठी। उसके बच्चा नहीं, बच्ची ही पैदा हुई। उसने अपनी साड़ी फाड़कर उस पेड़ की डाली से बाँधा। उसका झूला बनाकर बच्ची को उसमें सुलाया।
वह पेड़ बरगद का था, पेड़ से उसने कहा, "वृक्ष माँ, मैं अपने पति के घर जा रही हूँ। मेरे पति ने इसे यहीं पर छोड़ आने को कहा है। बच्ची रोई तो दया कर उसे दूध पिलाकर पालना।"
घर लौटने पर मियाँ पूछता है, "क्या संतान हुई-बच्चा कि बच्ची ?"
जवाब में बीवी कहती है, "बच्ची।"
सुनकर मियाँ कहता है, "ठीक है।"
उसी जंगल में राजण्णा-लच्चण्णा, दोनों ने भी अपना मकान बना लिया था। वे दोनों बातचीत करते इसी रास्ते आए। बच्ची ने रोना शुरू किया। बरगद के पेड़ से बूंद-बूंद दूध बच्ची के मुँह में गिरा।
ये दोनों मित्र शिकार के लिए इधर जा रहे थे तो उनके कानों में बच्ची के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। दोनों भाई बरगद के पेड़ के पास आए, बच्ची को देखा। सूर्य और चंद्रमा की तरह बच्ची चमक रही थी। दोनों ने आपस में बातचीत कर इस बच्ची को अपनी बहन की तरह पालने का निर्णय लिया और उसे अपने घर ले गए।
बच्ची को उन दोनों ने बड़े प्रेम से पाला। उनका घर गाँव से थोड़ी दूर पर था। उन्हें कभी-कभी वहाँ पर आते-जाते रहना पड़ता था। उन दोनों ने अपने घर एक बिल्ली और एक कुत्ते को पाल रखा था। एक दिन जब उन्हें बाहर गाँव जाना पड़ता है, तो बहन से कहते हैं, “देखो, ये दोनों जानवर तुम्हारे साथ रहते हैं। इन्हें इस तरह का खाना खिलाना कि कुत्ते को विष्ट ठंडा करके खिलाना, बिल्ली को दूध ठंडा करके पिलाना।"
यह बच्ची उनकी अनुपस्थिति में उनके आदेश का पालन करती है।
एक दिन की बात है कि वह भूलकर कुत्ते को गरम विष्ट खिला देती है, बिल्ली को गरम दूध पिला देती है।
इससे कुत्ता और बिल्ली दोनों रुष्ट होकर आपस में बात करते हैं। कुत्ते ने कहा, "पता नहीं आज दीदी को क्या हो गया, मुझे गरम विष्ट पिला दिया। इसका बदला लेना चाहिए।"
बिल्ली ने कहा, "मेरी इस सौत को क्या हो गया, पता नहीं? इसने मुझे गरम दूध पिला दिया। इसको अब मैं अच्छी सीख दूंगी। शाम को दोनों भैया आएँगे, तब तक उनके लिए खाना तैयार रहना चाहिए। मैं ऐसा करूँगी कि चूल्हे में पेशाब कर उसे गंदा कर दूंगी। यह कैसे खाना बनाएगी? मैं देख लूँगी।" यह कहकर बिल्ली ने चूल्हे को खराब कर दिया।
शाम हुई। दोनों भाइयों के आने से पहले खाना तैयार करने के मन से लड़की रसोई में गई। जाकर देखती क्या है कि आग बुझ गई है। बिल्ली से पूछा तो उसने जवाब दिया कि उसे कुछ भी मालूम नहीं है।
अब लड़की को चिंता गई कि भाइयों के लौटने से पहले अगर खाना तैयार नहीं हुआ तो फिर मार खानी पड़ेगी। आग के अभाव में वह कुछ नहीं कर पाएगी।
वह आग की तलाश में निकली, पास ही एक टेकरी थी। टेकरी के ऊपर से धुआँ निकलता नजर आया, तो वह उस तरफ आगे बढ़ी, टेकरी पर चढ़ गई। वहाँ पर एक गुफा थी। गुफा से ही धुआँ निकल रहा था। वह गुफा एक राक्षसी की थी। उस राक्षसी की एक बेटी थी। बड़ी राक्षसी खाने के लिए एक लाश की तलाश में निकली थी। छोटी राक्षसी घर पर रहकर खाना बनाने में लगी थी।
लड़की ने बाहर से पूछा, "घर के अंदर कौन है?"
छोटी राक्षसी ने आवाज से पता लगाया कि कोई इनसान यहाँ पर आया है।
उसने सोचा, इनसान का भेष बनाकर जाऊँगी तो ठीक रहेगा।
तो भेष बदलकर वह बाहर आई। दरवाजा खोलकर, “मैं अंदर हूँ, आओ," कहकर लड़की को बुलाया। लड़की अंदर गई।
लड़की ने उससे आग माँगी।
जवाब में छोटी राक्षसी ने कहा, "जरूर दूंगी। अभी बैठो। मेरी माँ बाहर गई है, अभी आ जाएगी। मैं भी जच्चा हूँ। अभी तीन दिन पहले मैंने एक बच्चे को जन्म दिया है। मुझे भी भूख लगी है। कोई खाना बनानेवाला भी नहीं है। थोड़ा सा मोरधन कूटकर पकाना है।"
इस तरह कहकर राक्षसी ने सोचा, मोरधन कूटकर उसका माड़ बनाने तक माँ राक्षसी आ जाएगी। तब इस लड़की को पकाकर खाया जा सकता है।
राक्षसी ने लड़की के बारे में सोचा कि यह तो कच्ची पतली ककड़ी जैसी है। खाने में मजा आएगा।
उसने इस लड़की को मोरधन कूटने को कहा। बहुत कूटने के बाद भी उसके छिलके नहीं उतरे। तब 'भैया लोगों के आने का वक्त होने को है' कहकर उसने उन दोनों को याद किया। उसने कुटा मोरधन देकर राक्षस कन्या से कहा, "हमें आए बहुत देर हो गई। आग दे दो, हमें जाना है।"
तब राक्षस कन्या ने लड़की को रोके रखने का एक और उपाय सोचा। उसने कहा, “घर में पानी नहीं है, मैं तुम्हें रस्सी दे देती हूँ। तुम कुएँ से पानी खींचकर ला दो ना?"
फिर लड़की कुएँ के पास गई। तब भी हाट से बड़ी राक्षसी नहीं लौटी, छोटी राक्षसी ने सोचा, मेरी माँ आ गई होती तो इस लड़की को पकाकर खाया जा सकता था।
लड़की जब तक कुएँ से पानी लाती, राक्षसी ने टंकी में छेद कर दिया, लड़की कुएँ से पानी लाती गई। छेद से सारा पानी रिसता गया।
लड़की ने तब अपने भाई लोगों को याद किया। याद करते ही टंकी भर गई। तब उसने राक्षसी के पास जाकर, “अब तो काम हो गया। मुझे आग दे दो" कहा।
उस पर राक्षसी लड़की को रोककर कहती है, “रुक जाओ न, माँ अभी आ जाएगी। उसके बाद भी जा सकती हो। अभी ऐसा करो कि ये कुछ गंदे कपड़े हैं, इन्हें तब तक धो दो।"
राक्षसी सोचती है, 'यह पतली ककड़ी सी लड़की अब हाथ से निकल जाएगी। माँ अभी तक नहीं आई।'
लड़की ने कपड़े भी धो दिए। राक्षसी ने तब भी आग नहीं दी। तब बिल्ली को इस पर दया आई। उसने फुसफुसाकर लड़की से कहा, "दीदी, चिंता मत कर। मैं रसोई में जाकर आग उठा लाऊँगी।"
वही किया। फिर लड़की बिल्ली के साथ घर लौट आई।
लड़की के वहाँ से निकलते ही बड़ी राक्षसी लौटी। आते वक्त वह अपने साथ दो लाश उठा लाई थी। छोटी राक्षसी ने उसे बताया कि पतली ककड़ी सी लड़की आई थी और वह अब हाथ से निकल गई।
तब बड़ी राक्षसी भागकर आती है, मगर बहुत ढूँढ़ने के बाद लड़की नहीं मिलती। तभी उसे राजण्णा और लच्चण्णा का मकान दिख जाता है। तब यह सोचकर कि यही लड़की का घर होगा, वह दरवाजे पर आकर, “जी जरा दरवाजा खोलना," कहती है।
तब लड़की काणकण से (कौए से) कहती है कि देख तो कौन आया है ?
कौआ दी झाँककर देखती है तो पता चलता है कि यह राक्षसी आई है। वह लड़की को सावधान करती है।
दरवाजा नहीं खुलता। बहुत देर खटखटाने पर जब दरवाजा नहीं खुलता, तब राक्षसी को गुस्सा आता है और वह अपने मांसभक्षी दाँत बाहर निकालकर दरवाजे की देहली पर टिकाकर यह सोचती है कि जब यह लड़की बाहर निकलेगी है, तब इस पर पाँव रखेगी, चुभेगा तो मर जाएगी। राक्षसी फिर लौट जाती है।
तब राजण्णा-लच्चण्णा घर के पास आकर दरवाजा खटखटाते हैं। लड़की बिल्ली को पता लगाने के लिए भेजती है। बिल्ली से पता लगाकर लड़की दरवाजा खोलती है।
राजण्णा पाँव धोने को पानी माँगता है। लड़की उसे पानी देने आती है। दरवाजे पर लगे राक्षसी के दाँत पर पाँव रखने से वह मर जाती है। फिर रामण्णा-लचण्णा एक बक्सा मँगाकर उसमें लाश को रखते हैं। फिर उसे उसी बरगद के पेड़ तले रखते हैं।
राजा के एक ही बेटा रहता है। बेटे की वे शादी रचाना चाहते थे। राजकुमार भी लड़की की तलाश में निकलता है। उसी बरगद के पेड़ तले आराम करने लेटता है। उसे वह पेटी दिख जाती है।
वह पेटी खोलकर देखता है कि उसमें तो लाश है। देखता है, सूर्य-चंद्र के से चमकते चेहरेवाली लड़की की लाश है। वह इस लाश से आकर्षित होता है और लड़की की मौत की वजह को तलाशने निकलता है। राजण्णा-लचण्णा के घर पहुँचकर उस राक्षसी दाँत को देखता है। वह शिव-शिव कहकर मंत्रजल लाश के ऊपर डालता है। जल छिड़कने से लड़की में प्राण संचार होता है। वह उठकर बैठती है।
राजकुमार उस लड़की का अता-पता पूछता है। लड़की अपनी सारी कहानी कह सुनाती है।
राजकुमार उसके प्रति आकर्षित होकर उसे अपने राज्य में ले जाता है। वहाँ जाकर लड़की से धूमधाम के साथ विवाह कर लेता है। दोनों सुखी जीवन जीते हैं।
(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)