राह में (कहानी) : जैनेंद्र कुमार
Raah Mein (Hindi Story) : Jainendra Kumar
रेल तेजी से दौड़ती चली जा रही थी। लेकिन मन की गति जैसे उसके साथ अन्दर एकाएक रुक गयी थी। वह उसके लिए तैयार न था । जानता था कि बहुत से लोग उसे जानते हैं और मानते भी हैं कि वह एक नेता है। जुलूस के वह आगे था । उसे बढ़कर अफसरों से सीधे बातें करनी थीं। इसी बीच जाने कहाँ से उसके पास दो- एक ईंट के टुकड़े आ पड़े। तभी लाठियाँ लेकर पुलिस के सिपाही भीड़ पर टूट पड़े। और देखा गया कि भीड़ तितर-बितर हो गयी। वह अफसरों के पास, उन अफसरों के अपने आदमियों के घेरे में, उस तमाम काल सुरक्षित बना रहा। उसने देखा कि अफसर लोग काफी शान्त हैं, प्रसन्न हैं और उसके प्रति नम्र भी हैं। उसने चाहा कि वह क्रोध करे, लेकिन सामने उसके किसी प्रकार की अभद्रता न आ सकी, बल्कि उलटे आगे पान की तश्तरी पेश की गयी। उसने जोर लगाकर कहा, "आप लोगों को शर्म नहीं आती!"
सुनकर किसी के पास कोई शर्म नहीं आयी। डिप्टी मजिस्ट्रेट श्री सिन्हा ने कहा, 'आप लोग सत्याग्रह करना चाहते हैं। लेकिन, क्या इसका पता नहीं रख सकते कि आपके साथ गुण्डे ज्यादा हैं या शरीफ आदमी । लीजिए, पान लीजिए। "
उसने पान नहीं लिया। कहा, "माफ कीजिएगा, मैं । "
"अजी लीजिए भी। कभी फिर हमारे गुनाह की सजा दे दीजिएगा। पान ने क्या गुनाह किया है, लीजिए।" उसने सोचा, सत्याग्रह में अवज्ञा सविनय होनी चाहिए। शिष्टता का जवाब अतिरिक्त शिष्टता से ही दिया जा सकता है।
कुछ देर वह असमंजस में रहा। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने फिर कहा, "जी हाँ, देखिए... जर्दा ?"
पान कुछ देर उसके हाथों में थमा रहा। जर्दे को उसने इनकार किया। फिर कुछ अनिश्चित भाव से पान को मुँह में रखकर एक अनिश्चित सी मुस्कराहट से उसने कह, “यह सही है कि हम-आप दुश्मन नहीं हैं लेकिन क्या आप नहीं देखते कि लाठियों से जिनको आपने अभी पीट- भगाया है, वे आपके भाई-बन्धु हैं। वे इसी धरती के हैं और आप भी किसी और धरती के नहीं हैं। क्या आप समझते हैं कि अँग्रेज आपको तनख्वाह देते हैं । वह इन्हीं लोगों की जेबों से आती है । अँग्रेजों की खैरख्वाही...।"
"जी हाँ... देखिए थानेदार साहब, आप अभी जाइएगा, लेकिन रमेश जी मेरे साथ चलते हैं। आप, मैं समझता हूँ, घण्टे भर में बंगले पर आ सकेंगे।"
थानेदार ने झुककर सलाम किया और सिन्हा साहब रमेश को अपनी कार में ... ।
फिर क्या हुआ, सोचकर रमेश का मन बैठा आता है। वह चुपचाप उस शहर सेरेल में बैठकर दूर चला जा रहा है। शहर, जरूर उसका अपना नहीं है। वह दूसरे जिले का रहने वाला है। लेकिन वह सब उसके मन को ढाढ़स नहीं दे पाता। पीछे लोग कुछ घायल होकर अस्पताल में पड़े हैं, कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुई हैं, लेकिन वह रेल में बैठकर अपने घर जा रहा है। ठीक है कि वह सिर्फ व्याख्यान के लिए उस नगर में बुलाया गया था; ठीक है कि वह जुलूस का जिम्मेदार नहीं था; ठीक है कि जुलूस के आगे उसका होना एक संयोगमात्र था; लेकिन यह सब समझकर वह अपने मन को समझा नहीं पाता। सिन्हा के घर पहुँचकर उसने बाकायदा खाना खाया। क्रान्ति की सम्भावना और उपयोगिता पर चर्चा की। उसने नहीं याद किया कि उसके भतीजे के साथ मिस्टर सिन्हा की छोटी कन्या के रिश्ते की बातचीत चल रही है। अपनी तरफ से उसने सख्त - सुस्त कहने में कसर नहीं रखी। लेकिन अन्त में उसने पाया कि चुपचाप रेल में बैठकर वह दुर्घटना के स्थल से दूर चला जा रहा है।
रेल तेजी से जा रही थी। पेड़ अँधेरे निशान से खिड़की में से पीछे की तरफ भागते हुए दीखते थे । डिब्बा सेकण्ड क्लास का था और सामने की बेंच पर एक अधेड़ वय की यूरोपियन महिला के सिवा और कोई न था । खम्भों से बँधे हुए बिजली के तार रेल की रफ्तार में ऊँचे-नीचे होते हुए उसे दीख आते। कभी छिपते और कभी एकाएक नीचे की तरफ झूल आते। महिला अखबार को पूरा खोले इस तरह पढ़ रही थी कि उसका सब-कुछ उसकी आँखों से छिपा था। किसी कदर मोटी पिंडलियों पर कसी बैठी जुर्राबें उसे नजर आयीं, जिनको फिर ऊपर साये के छोर ने ढँक लिया था। उसने चाहा कि अखबार बीच में न होता तो अँग्रेज जाति के अत्याचार पर इन मेम साहब को कुछ तो लज्जित करने की कोशिश करता। वह अपने रोष को चाहता था कहीं डाल सके, किसी के ऊपर थोप दे सके। लेकिन बाहर भागते दीखते पेड़, ऊपर-नीचे झूलते तार, आर-पार अवकाश देनेवाली खिड़की, रेल का डिब्बा, बेंच और उस पर बैठी अखबार में डूबी महिला... मानो कहीं कोई उसके इस रोष में साझा बँटाने को तैयार न था ।
उसने पोर्टफोलियो को पास खींचा और खोलकर दो-एक हल्की किताबें बाहर कीं। इधर-उधर सफे पलटे... पढ़ना चाहा, लेकिन पाँच - एक मिनट में किताबें एक तरफ होकर लेट गयीं। अभी तक स्टेशन नहीं आया था। स्टेशनों में इतना फासला क्यों रखा जाता है! स्टेशन पर उतरकर वह पानी लेगा, नहीं तो कुछ फल । सन्तरे से ताजगी रहेगी। उसका गला सूखा जा रहा है, गले पर सहसा उसका हाथ गया तो मालूम हुआ कि शेरवानी उसे कस रही है। उसने शेरवानी को उतारा और टाँग दिया। उसे अजब मालूम हुआ कि शेरवानी के उतारते ही जैसे गर्मी लगने लगी। कमीज वह उतार नहीं सकता था लेकिन बटन उसने सब खोल लिये।
पर नहीं। कहीं उसका मन नहीं अटक सका। न बाहर खेतों में, और न मेड़ों में, न अन्दर महिला की कसी जुर्राबों में। सब तरह से लौट लौट आकर मानो उसका मन उसी से पूछने लगा कि वह क्यों वहाँ जा रहा है। इसीलिए न कि वहाँ उसका घर है। यानी एक स्त्री है जिसको वह अपनी स्त्री कह सकता है; कुछ बच्चे हैं जिनको अपने बच्चे कहता है; मकान है, सामान है, इज्जत है, जिनको वह अपनी कहता है। इसलिए वहाँ जा रहा है ! और जो लाठियों से घायल हुए हैं, जिन्होंने उसे अपना अगुआ माना वे अपने नहीं हैं, गैर हैं ! गैर-जिले के हैं ! उनके नाम-धाम वह नहीं जानता । संख्या तक नहीं जानता। अगुआ है तो होगा। लेकिन पत्नी के प्रति पतित्व की और बच्चों के प्रति पितृत्व की उस पर जो जिम्मेदारी है, उस तरह अगुआपन की कोई जिम्मेदारी उस पर नहीं आती। क्यों, यही न ? सब तरफ देखकर अनदेखा - सा वह अपने अन्दर यही देखने लगा कि जो अपना नहीं है, वहाँ से वह उनकी तरफ जा रहा है जो अपने हैं और सगे हैं!
छाती पर टटोल कर देखा कि कमीज और आगे नहीं खुल सकती है। और वह उसे फाड़ भी नहीं सकता। लेकिन उसे गर्मी मालूम हो रही है।
उसकी आँखों के आगे वह भली, सुन्दर और तेज कन्या आयी जो निश्चय ही बहू बनकर उसके घर की श्री और शोभा को बढ़ानेवाली होगी। साथ उसके उसे अपने भतीजे का चेहरा दिखाई दिया जो इस सम्बन्ध पर प्रसन्न और सौभाग्यशाली होगा। जोड़ी तो अच्छी है। ठीक रहेगी। लेकिन एकाएक जोर से अलग लेटी किताब को उसने खींचा और चाहा कि उसके शब्द और वाक्य ही उसे दीखें, बाकी कुछ भी और न दीखे ।
धीरे-धीरे ट्रेन की चाल धीमी हुई और स्टेशन पास आया। रमेश को चैन का साँस आया। तेजी से वह प्लेटफार्म पर उतरा। कुछ दूर गया, लेकिन मालूम हुआ पानी के लिए पात्र तो कोई वह लाया नहीं है। लौटकर झपटकर गिलास निकाला और करीब दौड़कर पानी के लिए चला। लेकिन तभी व्याघात पड़ा। एक युवक आया और गिलास की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा, "लाइए, मैं लिए आता हूँ। प्रणाम । "
कमीज के सब बटन खुले थे। रमेश की हालत लीडराना नहीं थी । वह असमंजस में कुछ देर उस युवक को बिना पहचाने देखता रह गया ।
"लाइए - लाइए, मैं अभी ले आता हूँ।” युवक ने मानो गिलास बलात छीन लिया और दौड़कर पानी ले आया। उसके आने पर रमेश ने मुस्कराकर कहा, “तुमने व्यर्थ कष्ट किया । "
युवक लज्जित हुआ। शरमाकर कष्ट होने को उसने अस्वीकार किया। पूछा, "कहाँ से पधार रहे हैं ! "
"कुछ नहीं, यहीं पास ही से...! "
"सुना है, बाबूजी, मायापुर में बड़े जोर का लाठी चार्ज हुआ है। "
"कहाँ ? हाँ, मायापुर में! आओ-आओ, कहाँ बैठे हो ?"
"मैं? जी ये सामने थर्ड में हूँ ।"
" अच्छा-अच्छा, पढ़ते हो ?"
"जी।"
"बेटा, इस तरह हम लोगों की आदत न बिगाड़ा करो। हमको एक गिलास पानी लेने का मौका न दोगे तो कैसे चलेगा। ऐसे क्या हम देश के काम के लायक रहेंगे। अच्छा-अच्छा।" कहकर तेजी के साथ रमेश अपने कम्पार्टमेण्ट में आया। महिला के सामने अब अखबार न था । देह कुछ स्थूल थी और रमेश ने उसकी तरफ घूरकर देखा । भारत की राष्ट्रीयता की शत्रु समूची अँग्रेज जाति की प्रतिनिधि ही यह क्यों न हुई, सिर्फ अधेड़ उम्र की फुसफुसी महिला ही होकर क्यों रह गयी कि अब किसी तरह का पौरुषपूर्ण आक्रोश भी उस पर नहीं उतारा जा सकता ! गिलास हाथ में लिए उसने पूछा, “आप कहाँ जा रही हैं ?"
"दिल्ली I"
महिला की नीली-सी आँखों को देखकर रमेश ने पूछा, “लीजिए ?”
साभार भाव से महिला ने कहा, "धन्यवाद ।"
ज्यों-का-त्यों गिलास महिला के हाथ में देकर उसके अपने कण्ठ को मालूम हुआ कि वहाँ प्यास एकदम नहीं रह गयी है।
एक घूँट में गिलास खाली कर आगे बढ़ाकर उस महिला ने पूछा, "आप काँग्रेसमेन हैं ?"
"जी, आपके कोपभाजन । "
गिलास लेकर उसने ऊपर बर्थ पर फेंक दिया। कहा- "माफ कीजिएगा। लेकिन सत्य तो सत्य है । "
महिला की आकृति पर कष्ट लिख आया। उसने कहा, "मैं जर्मन हूँ, लेकिन रंग की गोरी हूँ, इससे शायद आप मुझे भी माफ करना नहीं चाहेंगे।"
रमेश सुनकर एकाएक असमंजस में पड़ा, लेकिन सहसा अपने तनाव को वह खो नहीं सका। कहा, “आप यह तो मानेंगी ही कि गोरा रंग काले से ऊँचा है !"
महिला चकित और कुछ भीत, रमेश की ओर देखती रह गयी। कानों से उसने सुना, किन्तु मानो उसका विश्वास नहीं कर सकी। कहा, “परमात्मा को क्या आप एक नहीं मानते ? काले-गोरे क्या सब उसी एक के नहीं है ? लेकिन अँग्रेज ने गजब किया है कि आपके लिए अपने गोरे न होने की याद इतनी जरूरी बनी रहती है !"
रमेश ने कहा, "हिन्दुस्तान में क्या अब भी कुछ खून बचा है कि आप लोग सात समन्दर पार करके आते ही जाते हैं।"
स्तब्ध बनकर महिला रमेश को देखती रह गयी। घबराकर बोली, “मैं बहुत- बहुत खिन्न हूँ, मुझे माफ कीजिए।" और झटपट अपने साथ के थैले में से कुछ टाफी निकालकर रमेश की तरफ बढ़ाई। कहा, “लीजिए, यह सन्धि का हाथ है।"
रमेश ने कहा, “मैं बच्चा नहीं हूँ ।"
महिला ने खिलखिलाकर हँसते हुए कहा, "लेकिन मैं तो अभी बच्ची हूँ ।" और कहकर दो-तीन टॉफी अपने मुँह में भर लीं और हाथ बढ़ाकर भरे और बन्द मुँह से बोलने की कोशिश करते हुए कहा, "लो न, तुमसे बड़ी होकर मैं बच्ची बन सकती हूँ तो तुम भी बन सकते हो। नहीं, निराश मैं तुम्हें नहीं होने दूँगी।" रमेश देखता रह गया। कुछ समझा नहीं ।
महिला हँसती हुई अपनी जगह से उठ खड़ी हुई। अपने दोनों हाथों से उसको दोनों बाँहों पर पकड़ा और मानों देह के जोर से अपने पास बैठा लिया, और तेजी से एक-दो - तीन-चार टॉफी उसके मुँह में भर दीं।