प्यार : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Pyar : Acharya Chatursen Shastri

(रूप की पिपासा जब प्यार में परिणत हो जाती है तो पुरुष अपनी प्रेमिका को पाने में क्या कुछ नहीं कर बैठता! वातावरण का चित्रण इसमें सुन्दर बन पड़ा है।)

भादों की भरी रात। घना अन्धकार। दामोदर नद का सीमाहीन विस्तार। समस्त प्रकृति जड़, स्तब्ध। समीप ही एक राजोद्यान, विविध विटप-लता-वेष्टित। अन्धकार में अन्धकार। मेंढक, झींगुर और दूसरे जीवों का तीव्र स्वर दामोदर की उत्तुंग तरंग-राशि के हुंकार में मिला हुआ। जब-तब किसी विहंग का करुण क्रन्दन। निस्तब्धता का आर्तनाद। उद्यान की मध्य -भूमि में एक धवल प्रासाद, अन्धकार पर मुस्कान बिखेरता हुआ, गगनचुंबी किन्तु स्तब्ध। नीरव, निस्पन्द। अर्द्धरात्रि।

कक्ष में दीप जल रहा था। एक भद्र-वेशधारिणी वृद्धा बहुत-सी छोटी-बड़ी पोटलियां कभी खोलती, कभी बांधती, कभी आप ही आप बड़बड़ाती। वृद्धा के बाल श्वेत थे, शरीर गौर था, आंखें बड़ी-बड़ी थीं, वस्त्र सादा, निरलंकार शरीर कुछ स्थूल था। नाक जरा ऊंची, दृष्टि पैनी, और इस वेला चंचल। हवा के झोंके से दीप बुझने को हो जाता। उसकी लौ कांपती, और फिर स्थिर हो जाती। कुछ पोटलियां बंधी थीं, कुछ खुली पड़ी थीं। उनमें से किसीमें हीरे-मोती, मणि, माणिक, किसीमें स्वर्ण की मुहरें, किसीमें जड़ाऊ गहने, किसी में बहुमूल्य कम-खाब और जरबफ्त की पोशाकें। सभी कुछ सामने फैला पड़ा था। क्या साथ ले, क्या छोड़ दे, वृद्धा इसी असमंजस में बैठी, बड़बड़ाती हुई, कभी इस और कभी उस पोटली को बांध और खोल रही थी।

इसी समय एक कृशांगी बाला ने निःशब्द कक्ष में प्रवेश किया। वाला की आयु कोई इक्कीस बरस की थी। लम्बा, छरहरा कद, बड़ी-बड़ी उज्ज्वल आंखें। चांदी-सा चमकता श्वेत माथा, सीप-से दमकते हुए कपोल, जैसे हिलते ही रक्त टपक पड़ेगा, ऐसे होंठ। मलिनमुखी, मलिनवसना, करुणा की सजीव मूर्ति-सी। वृद्धा को उसके आने का भान नहीं हुआ। वह उसी भांति उन मूल्यवान कंकड़-पत्थरों को जल्दी-जल्दी इधर-उधर करती, खोलती-बांधती, साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी।

रमणी ने देखकर दीर्घ निःश्वास छोड़ा। फिर आहिस्ता से कहा-मरजाना, यह सब क्या है?

'जो-जो साथ ले चलना है, वही सब बांध-बूंध रही हूं।'

'तो तू समझती है कि मैं ससुराल जा रही हूं?'

वृद्धा की आंखों में आंसू आ गए। उसने एक बार रमणी की ओर देखा, फिर आंखें नीची करके कहा-बीबी, यह सब आगरा में काम आएंगे।

'तुझसे किसने कहा कि मैं आगरा जाऊंगी?'

'तो फिर नाव क्यों मंगाई है?'

'उस पार जाने के लिए।'

'उस पार कहां जानोगी?'

'जहां आंखें ले जाएं।'

रमणी ने बांदी के सामने कातर भाव प्रकट नहीं होने दिया। आंसुओं को आंखों ही में पी लिया।

बूढ़ी दासी बीबी को प्यार करती थी। उसने गुस्सा होकर कहा-आगरा भी नहीं जानोगी, यहां भी नहीं रहोगी। तो फिर इस दुनिया में तुम्हारे लिए ठौर कहां है?

बरवस एक आंसू रमणी की आंख से टपक ही पड़ा । पर उसे मरजाना ने देखा नहीं। उसने आहिस्ता से कहा-बीबी जान, जितना ज़रूरी है, वही ले चल रही हूं।

'आखिर किसलिए?'

'अपने काम आएगा, बीबी, अभी ज़िन्दगी बहुत है।'

'बोझ तो ज़िन्दगी का ही काफी है। इन कंकड़-पत्थरों का बोझ लादकर क्या करेगी?'

'ज़िन्दगी का बोझ हलका करूंगी। बीबी, तुम्हें नहीं लादना होगा। मैं ही ले चलूंगी।'

'नहीं, मरजाना, यह सब दामोदर के पानी में फेंक दे।'

बांदी ने खीझकर कहा-यह सब दामोदर के पानी में फेंक दोगी, तो खाओगी क्या?

'हाथी से चींटी तक को जो देता है, वही दाता इस यतीम बेवा को भी देगा। न होगा तो राह-बाट में कहीं भूख से मर जाऊंगी। कुत्ते और सियार जिस्म को ठिकाने लगा देंगे।'

'तौबा, तौबा! यह क्या कलमा कहा बीबी?'

'तेरा इन कंकड़-पत्थरों पर मोह है, तोतू इन्हें ले जा। तुझे छुट्टी है।'

'खूब छुट्टी दी बीबी! छाती पर बोझ लेकर दामोदर के पानी में डूब मरने में इस बदबख्त बुढ़िया को कुछ तकलीफ न होगी।'

'नाराज़ हो गई मरजाना? राह में चोर-डाकुओं का क्या डर नहीं है? हम औरत जात किस-किस मुसीबत का सामना करेंगी? यह भी तो सोच।'

मरजाना की आंखों से टप से दो बूंद आंसू टपक पड़े।

रमणी ने देखा, न देखा। उसने कहा-अब देर न कर। तीन पहर रात बीत चुकी। दिन निकलने पर निकलना न हो सकेगा।

मरजाना ने झटपट सब हीरे-जवाहर कूड़े के ढेर की तरह एक गठरी में बांधे, और उसे बगल में दवाकर उठ खड़ी हुई। फिर एक दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा चलो, बीबी। लेकिन बच्ची सो रही है। तुम यह गठरी लो। मैं बच्ची को लिए लेती हूं।

'नहीं, बच्ची को मैं ही ले चलती हूं।'

युवती ने बच्ची को गोद में ले लिया, काले वस्त्र से शरीर को अच्छी तरह लपेटा, एक नज़र उस भव्य अट्टालिका पर डाली, एक गहरी सांस छोड़ी, और चल दी। पीछे-पीछे मरजाना थी।

दोनों असहाय स्त्रियां प्रासाद की सीढ़ियां उतर, निविड़ अन्धकार में पौरी, द्वार, प्रांगन, दालान पार कर, बाग की रविशों पर चलती हुई, नदी-तीर की ओर बढ़ चलीं। सामने दामोदर का विशाल विस्तार है। हवा तीर की तरह चल रही है। हवा के एक झोंके ने बाला का वस्त्र उड़ा दिया। उसे अच्छी तरह शरीर से लपेट, और बच्ची को छाती से लगा, बाला ने कदम बढ़ाए। पीछे से आंचल खींचकर मरजाना ने कहा-बीबी, बड़ा डर लग लग रहा है। चलो, लौट चलें।

'लौट चलने को घर से नहीं निकली हूं। और पास आ जा। किनारा दूर नहीं है। वह सामने किश्ती है। किश्ती पर चिराग जल रहा है।'

'लेकिन यह पैरों की आहट कैसी है? कोई आ रहा है!'

'जंगल है। सियार-कुत्ते रात में घूमते ही हैं।'

'बड़ी खौफनाक रात है बीबी। कोई हरबा-हथियार भी साथ नहीं लिया। बड़ी गलती की।

'सबसे बड़ा हथियार है मेरे पास-तेज़ ज़हर। आनन-फानन तमाम डर-खतरों को दूर करने की इसमें ताकत है।'

'यह तो अपनी ही जान खोना हुआ। दुश्मन का इससे क्या बिगड़ेगा?'

'मैं यतीम बेवा औरत दुश्मन का क्या बिगाड़ सकती हूं? फिर बिगाड़-सुधार जो होना था, हो चुका। किस्मत में जो लिखा है, वही तो होगा। फिर दुश्मन पर गुस्सा क्या, किसी से शिकायत क्या?'

भय से मरजाना की चीख निकल गई। उसने कहा-बीबी, वह क्या है?

काली-काली भूत-सी दो मूर्तियां अंधकार में आगे बढ़ रही थीं। देखकर बाला रुक गई। बच्ची को उसने ज़ोर से छाती पर कस लिया। पास आने पर बाला ने देखा-आनेवाले दो पुरुष थे। दोनों उच्च सैनिक पदाधिकारी प्रतीत होते थे। उनकी कीमती पोशाक पर शस्त्र अंधेरे में भी चमक रहे थे।

जो आगे था, उसीने रोब-भरे स्वर में कहा-आप लोग कौन हैं? इधर से किसीने कोई जवाब नहीं दिया। उस पुरुष ने फिर वैसे ही स्वर में कहा-आप जो कोई भी हों; जहां हैं, वहीं खड़े रहें।

उसने अपने साथी को मशाल जलाने को कहा। साथी के एक हाथ में नंगी तलवार थी, और दूसरे में मशाल। तलवार म्यान में करके उसने मशाल जला दी। मशाल के पीले, कांपते प्रकाश में उस व्यक्ति ने देखा, दो स्त्रियां हैं। आगे एक अनिंद्य सुन्दरी बाला है।

वह दो कदम आगे बढ़ पाया।

बाला ने जलद-गम्भीर स्वर में कहा-तुम लोग कौन हो? और किसके हुक्म से तुमने हमारे बाग में घुस आने की जुर्रत की?'

'मुआफ कीजिए! मैं आज्ञाकारी सेवक हूं।'

"किसके?'

'नूरुद्दीन गाज़ी मुहम्मद जहांगीर शहनशाहे-हिन्द का।'

'लेकिन यह तो शहनशाहे-हिन्द का दौलतखाना नहीं है।'

'जी, जानता हूं।'

तुम क्या मुझे पहचानते हो?'

'पहचानता हूं।

'तुम्हारा रुतबा क्या है?'

'मैं शाही सेना का एक सिपहसालार हूं।'

'तो हज़रत बादशाह ने तुम्हें मेरा घर-बार लूटने के लिए भेजा है?'

'जी नहीं। बेअदबी मुसाफ हो। हम लोग आपको बाइज्जत दिल्ली ले जाने के लिए आए हैं।'

'तुम्हारे साथ फौज कितनी है?'

'पांच हज़ार सवार।'

'एक बेबस बेवा को कैद करने के लिए शहनशाहे-हिन्द ने इतनी बड़ी फौज भेजी है? यह तो शहनशाह की शान के खिलाफ है।'

'बेअदबी माफ हो! कैद करने के लिए नहीं। शहनशाहे-हिन्द का हुक्म है कि आपको बाइज़्ज़त दिल्ली ले जाया जाए।

'लेकिन तुम तो चोर की तरह रात को मेरे महल में घुसे हो । क्या यह शर्म की बात नहीं ? तुम शाही सेनापति हो, फिर भी...'

'गुलाम हुक्म का बन्दा है। इसमें हमारा कुसूर नहीं है।'

'खैर, तो तुम मेरे साथ कैसा सलूक किया चाहते हो? तुमने कहा था-बा-इज्ज़त

'जी हां। बादशाह का हुक्म है कि आपके साथ हर तरह एक मलिका के दर्जे का व्यवहार किया जाए। 'तो तुमने महल क्यों घेरा?'

'मुझे खबर मिली थी कि आप आज रात बर्दवान छोड़ रही हैं। अगर आप चली जातीं, तो मेरा सिर धड़ से उड़ा दिया जाता।'

'तुम्हारा नाम क्या है?

'रहमतखां।'

'कै हजारी का रुतबा है?'

'तीनहज़ारी।'

'क्या तुम मेरी एक आरजू पूरी कर सकते हो?'

'आपके हर हुक्म को बजा लाने का मुझे शाही हुक्म है।'

'तो मेरे पास जो ज़र-जवाहिर है, वह सब मैं तुम्हें देती हूं। इसके अलावा दस हजार अशर्फियां और। तुम मुझे चली जाने दो।'

'बादशाह को क्या जवाब दूंगा?'

'कह देना कि कैदी ने रास्ते में जहर खा लिया। इतमीनान रखो, तुम फिर कभी यह सूरत दुनिया में न देखोगे।'

'शहनशाहे-हिन्द के जांनिसार नौकर नमकहराम और दगाबाज़ नहीं होते।'

'खैर, देखूं, शाही फरमान कहां है?'

'रहमतखां ने अंगरखे की जेब से निकालकर फरमान रमणी के हाथ में दे दिया। मशाल की रोशनी में उसने पढ़ा। लिखा था:

'शेरअफगन की बेवा को बाइज़्ज़त ले आओ।'

फरमान पढ़कर एक वक्र मुस्कान रमणी के होंठों पर खेल गई। उसने घृणा से फरमान रहमतखां को वापस देते हुए कहा-यह तो मेरे नाम नहीं, तुम्हारे नाम है। जब तक मेरे नाम फरमान नहीं पाता, मैं दिल्ली नहीं जाऊंगी।

'आपका हुक्म मुझे बसरोचश्म मंजूर है। आप महल में तशरीफ ले जाएं। दूसरा शाही परवाना मंगाता हूं।'

सेनापति ने झुककर सलाम किया, और पीछे हट गया। रमणी क्षण-भर खड़ी रही, और फिर पीछे लौट पड़ी। पीछे-पीछे मरजाना थी।...

'मरजाना, बूढ़ा पूरा घाघ है। झुककर मीठी बातें बनाता है। मगर नज़र किस कदर सख्त है कि महल को तातारी बांदियों ने घेर रखा है। बाहर फौज का घेरा है। महल में पंछी भी पर नहीं मार सकता।'

रात बीत रही थी। आसमान में बादल छाए थे। सुबह का धुंधला प्रकाश चारों ओर फैल रहा था। उस प्रकाश में सामने फैला हुआ दामोदर नद समुद्र-सा लग रहा था। बगीचे में चम्पा, चमेली, रजनीगन्धा, जुही, नागकेसर के फूलों की महक भर रही थी। एकाध पक्षी जगकर कभी-कदा बोल उठता था। मरजाना ने कहा-अब क्या होगा बीबी?

'तुझे अभी जाना होगा।'

'कहां?'

'काटवा।'

'काटवा किसलिए?'

'महारानी कल्याणी के पास जा, और उन्हें संग ले आ। ले, खर्च के लिए दस अशर्फी। एक पालकी ले आना।'

'लेकिन जाऊंगी कैसे? महल तो हथियारवन्द तातारी बांदियों ने घेर रखा रमणी कुछ देर सोचती रही। फिर उसने दस्तक दी। एक तातारी बांदी हाथ बांधकर आ खड़ी हुई। उसने कोर्निश करके पूछा-क्या हुक्म है, बेगम साहबा?

'रहमतखां सिपहसालार को अभी हाज़िर कर।'

बांदी सिर झुकाकर चली गई।

थोड़ी देर में वृद्ध रहमतखां ने ड्योढ़ी पर आकर सलाम किया। रमणी ने परदे की आड़ ही से कहा-एक कैदी के साथ इस कदर अदब-आदाब की ज़रूरत नहीं। मैंने एक बात जानने के लिए तुम्हें तकलीफ दी है।

'मैं आपका गुलाम हूं। हुक्म दीजिए।'

'मेरी बांदी एक जगह जा रही है। किसी सिपाही को उसके साथ भेज दो। वहां से मेरी एक सहेली आएंगी। खबरदार, उनकी पालकी की जांच कोई न करे।'

'यह तो मुमकिन नहीं है, बेगम साहबा।'

रमणी की त्योरियों में बल पड़ गए। उसने कहा-क्या मुमकिन नहीं है

'बगैर जांच-पड़ताल के कोई पालकी भीतर नहीं आ सकती।'

'बादशाह ने क्या तुम्हें ऐसा भी हुक्म दिया है?'

'जी नहीं। लेकिन हिफाज़त के खयाल से हमें मजबूरन यह करना पड़ता है।'

'लेकिन तुमपर हमारे हर हुक्म की तामील लाजिम है। क्या तुम्हें बादशाह ने ऐसा हुक्म नहीं दिया है?'

'दिया है, बेगम साहबा।'

'तो मेरा हुक्म है कि जो सवारी आ रही है, उसकी जांच-पड़ताल न की जाए, और वह बाइज्जत हमारे पास आने दी जाए।'

'सवारी कहां से आ रही है?'

'काटवा से।

'काटवा से कौन आ रही हैं?'

'काटवा के किलेदार महाराज जगपतिसिंह की महारानी कल्याणी देवी। वह मेरी सहेली हैं। आड़े वक्त पर मैं उनसे सलाह-मशविरा लेती हूं। दिल्ली की बाबत मैं उनसे मशविरा करना चाहती हूं।'

'बहुत खूब! मैं खुद काटवा जाकर महारानी को साय ले आता हूं। आप आराम फरमाएं।"

वृद्ध सेनापति दाढ़ी में मुस्कराता हुआ चला गया।

बाला ने एक दीर्घ निःश्वास खींचा।...

महल के झरोखे में खड़ी बाला अस्तंगत सूर्य की शोभा निहार रही थी अमराई में आम के बड़े-बड़े वृक्ष हवा के झोंकों के साथ झूम रहे थे। उनपर सूर्य की लाल किरणें पड़कर उनमें लज्जा से लाल नववधू के मुख की सी लालिमा उत्पन्न कर रही थीं। पक्षी अपने घोंसलों को लौट रहे थे।

किसीने पुकारा-मेहर!

'आह, जो पुरुष अब दुनिया में नहीं रहा, वही तो इस तरह पुकारता था!' मेहर ने मुंह फेरकर देखा। और वह दौड़कर रानी कल्याणी के गले से लिपट गई।

कल्याणी ने व्यथावरुद्ध स्वर में कहा-इतना हो गया, और मुझे खबर भी नहीं दी! दो ही दिन में यह सूरत बन गई। चेहरा स्याह हो गया। बिखरे-रूखे बाल, सूखे होंठ। जैसे कमल पर बिजली गिरी हो! बहिन, मुझे खबर क्यों नहीं दी?

मेहर के मुंह से बात नहीं फूटी। कल्याणी के वक्ष पर सिर रखकर वह फफक-फफककर रोने लगी।

'अब रोने-धोने से क्या होगा? जो होना था, हो गया। अब आगे की बात सोचो।'

'जो हुआ वह शायद काफी न था। इसीसे उस संगदिल बादशाह ने मुझे गिरफ्तार करके आगरा ले जाने के लिए फौज़ भेजी है।' मेहर ने रुंधे कंठ से कहा।

'आगरा तो अब तुम्हें जाना ही होगा और उपाय ही क्या है?'

'मैं रास्ते में जहर खा लूंगी, पर उस संगदिल बादशाह का मुंह न देखूंगी!'

रानी कल्याणी सोचने लगीं। उनका मुंह भरे बादलों जैसा गम्भीर हो उठा। उन्होंने कहा-कौन जाने, तुम्हारी किस्मत में शायद हिन्दुस्तान की मलिका होना ही लिखा हो।

'आप इस कदर बेरहम न बनें महारानी। मैंने बड़ी बहिन समझकर इस बिपता में आपको मशविरा करने के लिए बुलाया है।'

'मेहर, मैं भाग्य में विश्वास करती हूं। जो कुछ हुआ, सब भाग्य का खेल था। अब आगे जो भाग्य में है, उसे कौन मेट सकता है? तुम जानती हो कि जन्नतनशीन बादशाह अकबर यदि ज़िद न पकड़ते, तो तुम शाहजादा सलीम की बीवी बनतीं, और आज हिन्दुस्तान की अधीश्वरी होतीं। लेकिन भाग्य बड़ा प्रबल है। उसने तुम्हारे लिए अब फिर भारत की अधीश्वरी होने का द्वार खोल दिया है। जाओ, आगरा जाओ। बर्दवान का यह पुराना महल तुम्हारे रहने के योग्य नहीं है।'

'नहीं महारानी, मैं उस संगदिल बादशाह की मर्जी का खिलौना नहीं बनूंगी। मेरे नेक, बहादुर खाविन्द के खून का दाग उसके दामन पर है।'

'मेहर, तुम्हें आगरा ले जाने के लिए फौज आई है। अब तुम क्या कर सकती हो?'

'रास्ते में जहर खा लूंगी। मेरी मिट्टी ही आगरा पहुंचेगी!'

'छि:, छिः! तुम अपनी ज़िन्दगी को इतनी बेकार चीज़ समझती हो? मरने से तुम्हारा सब कुछ नष्ट हो जाएगा और बादशाह का क्या बिगड़ेगा? "नहीं, मेहर, तुम्हें एक बार बादशाह के सामने जाना ही चाहिए।'

'तो मैं उसकी छाती में लात मारकर कहूंगी-तुम दीनो दुनिया के बादशाह हो, लेकिन मैं तुमसे नफरत करती हूं! तुमने एक हंसती-खेलती दुनिया को बरबाद किया है-एक मासूम, बेगुनाह औरत को बेवा बनाया है।'

'मेहर, लात खाकर भी अगर बादशाह इन चरणों को चूम ले, और इनका सदा के लिए दास बन जाए, तो?'

'ऐसी बात मत कहो, बहिन।'

'तो बहिन, किस्मत के दरिया में अपनी ज़िन्दगी की किश्ती को छोड़ दो और देखो कि वह कहां जाकर ठहरती है। पहले ही से कोई इरादा पक्का न करो। जब जैसा देखना, वैसा ही करना। तुम समझदार औरत हो।'

'तो आप क्या सलाह देती हैं?'

'आगरा जाओ, और अवसर मिले तो हिन्दुस्तान की मलिका बनो, और ऐसी हकूमत करो कि हिन्दुस्तान तुम्हारी एक नज़र से कांप उठे। बादशाह को अपने चरणों का गुलाम बनायो। लेकिन अनादर ही पायो, तो बेशक जहर पी लो।'

मेहर निरुत्तर हो गई। वह सिर नीचा करके सोचने लगी। उसे अपनी छाती के निकट खींचकर रानी ने कहा-मेहर, भारत की अधीश्वरी होकर तुम बहुतों का भला करोगी। इतिहास में तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा। आशीर्वाद देती हूं। जाओ, एक दिन तुम्हें सलाम करने मैं भी आगरा पाऊंगी।"

आगरा के रंगमहल में रूप और धन-रत्न का अटूट भण्डार भरा था। हीरा, मोती, माणिक कंकड़-पत्थरों की भांति समझे जाते थे। षोडशी रूपवती नवयुवतियों का वहां जमघट था। देश-देश के एलची, सूबेदार, कारबरदार सालाना खिराज़ और नज़राने के तौर पर अपने प्रदेशों की षोडशी अनिन्द्य सुन्दरी कुमारियों को बादशाह के हरम में भेजते रहते थे। उन्हें नाचने, गाने, सेवा करने और कसीदाकारी तथा चित्रकारी के फन में निपुण किया जाता था। और तब उन्हें शाही खिदमत में ले लिया जाता था। जिन लड़कियों को शाही खिदमत करने का सौभाग्य प्राप्त होता था, उनकी किस्मत खुल जाती थी। उनका परिवार सोने और हीरे-मोतियों से लद जाता था। लेकिन हरम से बाहर कदम रखने का उन्हें हुक्म न था। बाहरी हवा में सांस लेना उनके लिए निषिद्ध था। हरम के भीतर वे फूलों से भरी क्यारियों में किल्लोल करतीं, फौवारों से अठखेलियां करती, इत्र में स्नान करतीं, ऐश्वर्य और आनन्द की बहार लूटतीं। परन्तु हरम से बाहर निकलने पर खूख्वार कुत्तों से नुचवा डाली जाती थीं। यही सज़ा उनकी भी थी, जो किसी मर्द से बातें करती या हंसती-वोलती देखी जाती थीं। शाही हरम के सभी रंग-ढंग निराले थे, जहां अकेला बादशाह स्वतन्त्र था, और सब लोग उसकी इच्छा के दास थे।

हरम का प्रत्नेक कक्ष अतिशय भव्य होता था, और ऐश्वर्य और विलास की सामग्री से भरपूर रहता था। वहां बादशाह की चहेतियां यद्यपि बन्दिनी का जीवन व्यतीत करती थीं, परंतु वे बड़े ठाट-बाट से मलिकाओं की भांति रहती थीं। हीरा, मोती उनके लिए कंकड़-पत्थर के समान थे। लेकिन यह सब ठाट-बाट तभी तक रहता था, जब तक उनका रूप-यौवन उभार पर होता था। रूप-यौवन के ढलान पर उनका जादू खत्म हो जाता था, और उनकी कोई पूछ न रह जाती थी।

मेहरुन्निसा आगरा पहुंची। लेकिन बादशाह ने उससे मुलाकात नहीं की। उसने उसे हरम के एक साधारण कक्ष में रहने की आज्ञा दी, और उसे अपनी माता की सेवा में नौकर रख दिया।

मेहर यद्यपि बादशाह से अत्यन्त रुष्ट थी, पर उसे उससे ऐसे निष्ठुर व्यवहार की आशा न थी। उसके भावुक और गर्वीले हृदय को इससे ठेस पहुंची। उसे वे दिन भूले नहीं थे, जब बादशाह शाहज़ादा सलीम था, और उसने उसके प्रति प्रेम में अन्धे होकर कितनी विकलता प्रकट की थी। वह यह भी जानती थी कि उसी को प्राप्त करने के लिए बादशाह ने उसके प्यारे पति को मरवा डाला, और उसे सेना भेजकर आगरा बुलाया है। लेकिन आगरा आने पर उसके साथ ऐसा व्यवहार, उसकी ऐसी उपेक्षा!

उसने बादशाह की आज्ञा मानकर राजमाता की सेविका होना स्वीकार कर लिया। पर माहवारी मुशाहरा लेने से इनकार कर दिया। उसके पास काफी धन था। उसमें से बहुत-सा उसने बांदियों को बांट दिया। और स्वयं एक प्रतिष्ठित विधवा की भांति रहने लगी। वह अपने कक्ष की बारादरी में, जो राजमहल के बाग के सामने पड़ता था, कीमती ईरानी कालीन पर जरदोज़ी की मसनद पर बैठकर हुक्का पीती। उसकी जवाहिरात से जड़ी हुई सोने की मुनाल उसके सुन्दर मुख में लगी रहती।

उसने चुनकर सुन्दरीदासियां अपनी सेवा में रखी थीं। वे हर समय उसकी सेवा में उपस्थित रहतीं। पर वह बहुत कम उनसे सेवा लेती। वह उन्हें सखियों की भांति खूब ठाट से सजा-धजाकर रखती। यद्यपि वह स्वयं सादा वेश में रहती, पर अपनी दासियों को हीरे-मोती और जड़ाऊ पोशाक में सजाए रखती थी। वह अरब से लाए हुए बहुमूल्य इत्र-गुलाब का खास शौक रखती थी। उसके चारों तरफ का वातावरण निहायत खुशनुमा रहता था। परन्तु उसका हृदय उदास रहता। वह बहुधा फारसी के प्रसिद्ध कवि हाफिज़ का एक शेर गुनगुनाया करती, जिसका भावार्थ यों था: पछवा हवा का एक झोंका वातावरण को सुरभित कर देगा। और तब पुरानी दुनिया नई में बदल जाएगी। परन्तु उसके इस बन्दी-जीवन के दिन बीतते चले जा रहे थे। पर उसके निराश जीवन में न पछवा का वह झोंका आता था, और न उसकी दुनिया बदलती थी।

कलमी तस्वीरें बनाकर और कसीदाकारी का काम करके उसने अपनी आजीविका चलाना प्रारम्भ किया। शीघ्र ही उसके हाथ की बनी वस्तुएं दिल्ली और आगरा में ऊंचे मूल्य पर बिकने लगीं। राजधानी में इन वस्तुओं का बड़ा महत्त्व हो गया। दिल्ली और आगरा की ऊंची घराने की महिलाएं और अमीर-उमरा मेहरुन्निसा के हाथों से रेशम पर बने चित्रों और कसीदों के प्रशंसक हो गए। दिल्ली और आगरा की महिलाओं में उसने एक नये फैशन और सुरुचि का प्रसार किया।

जिस-जिससे उसका सम्पर्क हुआ, उसपर उसने उच्च चारित्र्य-सम्बन्धी प्रभाव डाला। परन्तु उसकी आशाएं मुझी रही थीं। वह चिड़चिड़ी हो गई थी, और शीघ्र ही क्रुद्ध हो जाती थी। वह सुखी नहीं थी। अपने बेबस बन्दी-जीवन को वह भार समझती थी। अपने जीवन और जीवन के ध्येय के सम्बन्ध में वह बहुधा विचार करती। वह समझती थी कि वह इस प्रकार अपने जीवन को नष्ट करने के लिए पैदा नहीं हुई है। वह उपेक्षिता थी, परन्तु वह अपनी आत्मा के तेज और अहं के दर्प से परिपूर्ण थी।

अचानक उसने सुना कि हरम में एक ऐसी औरत आई है, जो भविष्यवाणी करती है, और मनुष्य के भाग्य के रहस्यों को बताती है। उसने उसे बुलाया।

रम्माला बुढ़िया बहुत बूढ़ी थी। उसके बाल सन के समान सफेद थे। इस उम्र में भी उसकी दृष्टि सतेज थी। शेरअफगन की विधवा को देखते ही उसने अपने दोनों दुबले-पतले हाथ ऊपर उठाए, और दोनों हाथों की उंगलियों को पर-स्पर उमेठते हुए विक्षिप्त-सी मुद्रा में असम्बद्ध शब्द कहने आरम्भ किए। वे शब्द बड़े प्रभावशाली थे।

मेहरुन्निसा ने कुछ-कुछ भीत मुद्रा में कहा-बड़ी बी, तुम्हारी इन बातों का मतलब क्या है? मैं अपने भाग्य और भावी जीवन के सम्बन्ध में कुछ जानना चाहती हूं। क्या तुम मुझे इस सम्बन्ध में कुछ बता सकती हो? यदि नहीं बता सकतीं, तो यह लो, और यहां से चली जाओ।—यह कहकर उसने उसके हाथ पर सोने की एक मुहर रख दी।

चमचमाती मुहर को हथेली पर देखकर, वृद्धा की आंखों में चमक आ गई। उसने कहा-ऐ नेकबख्त, तू रेगिस्तान में पैदा हुई, लेकिन तेरी मौत तख्त पर होगी। बचपन में जिसे भूखी रहना पड़ा, जवानी में वह दुनिया को रोज़ी देगी। भरोसा रख, और इस दूसरी हथेली पर अपने विश्वास का सबूत दे। और उसने दूसरी हथेली फैला दी।

मेहरुन्निसा ने कांपते हाथ से एक और मुहर उसकी दूसरी हथेली पर रख दी। वृद्धा पागलों की भांति हंसती और बड़बड़ाती चली गई।

मेहरुन्निसा भविष्यवाणी जैसी बातों को यद्यपि संदिग्धं मानती थी, फिर भी कहीं उसके अन्तस्तल में इनपर विश्वास भी था। बुढ़िया की अटपटी भविष्यवाणी सुनकर उसका कलेजा उछलने लगा। उसके मन में निराशा और अवसाद का जो अन्धकार बढ़ता चला आ रहा था, वह जैसे छिन्न-भिन्न होने लगा। एक अज्ञात आशा वृद्धा की अटपटी बातों से पल्लवित हो उठी। वह महत्त्वाकांक्षिणी स्त्री थी, और उसके मन में हुकूमत की लालसा थी। एक शहनशाह से उसके मानसिक दांव-पेंच चल रहे थे। वह शक्ति-भर अपनी प्रतिष्ठा-वृद्धि का कोई अवसर न चूकती थी। वह जानती थी कि उसके अप्रतिम सौन्दर्य, सुरुचि और उच्च चरित्र की चर्चा हरम में दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी।

इसी तरह दिन बीतते गए। इसी बीच एक असाधारण घटना घटी। एका-एक यह अफवाह फैल गई कि एक अत्युच्च अमीर उससे प्रेम करता है, और उसने उससे विवाह का प्रस्ताव किया है, जिसे मेहर ने स्वीकार कर लिया है। एक दिन वह अधीर, उतावला प्रेमी उसके कक्ष में बिना उसकी अनुमति के जा पहुंचा, और अत्यन्त नग्न और बेतुके ढंग से अपना प्रेम प्रकट करने लगा। मेहर ने उसे तुरन्त बाहर चले जाने का आदेश दिया। पर वह वासना का पुतला उसके आदेश की परवाह न करके उसे ज़बर्दस्ती आलिंगन करने को बढ़ा। मेहर ने सिंहनी की भांति उछलकर अपनी कटार मूंठ तक उसकी छाती में भोंक दी। आक्रमणकारी खून से लथपथ होकर फर्श पर छटपटाने लगा। आग की तरह यह खबर हरम में फैल गई।...

पूर्व-स्मृतियां दोनों तरफ हृदयों को आन्दोलित कर रही थीं। बादशाह जब युवराज थे, और मेहरुन्निसा नवयुवती थी, तभी दोनों का प्रथम साक्षात्कार हुआ था। उन क्षणों की झांकियां मधुर स्वप्न की भांति दोनों की आंखों में छा जाती थीं।

उस समय सलीम की आयु छब्बीस बरस की थी। उसे युवराज का पद मिल चुका था। एक दिन गयासबेग उसे सादर आमंत्रित कर अपने घर ले गया। युवराज के स्वागत-सत्कार में बहुत-से अमीर-उमरा आए। नाच-गाने हुए। मनो- रंजन की अनेक व्यवस्थाएं की गईं। ठाटदार दावत हुई। जब जश्न खत्म हो गया, और बाहरी मेहमान विदा हो गए, तो एकान्त-कक्ष में शाहज़ादा को ले जाकर बैठाया गया। शराब के जाम पेश किए गए और रस्म के मुताबिक घर की महिलाएं शाहजादे के सामने सलाम करने को हाज़िर हुईं। उस समय मेहरुन्निसा की आयु केवल चौदह बरस की थी। उसने भी नीची आंखें किए उठकर शाहज़ादे के सामने आकर कोर्निश की। सुर्ख-सफेद रंग, ताज़ा काश्मीरी सेब के समान मुख, उज्ज्वल हीरे के समान दमकती आंखें, अर्धविकसित यौवन, फूलों के ढेर के समान शरीर-सम्पत्ति, सांचे में ढला एक-एक अंग, तिसपर लज्जा, भावुकता, सुकुमारता, भोली अल्हड़ता। सलीम ने देखा, आपा खो दिया। वह उसे अपलक देखता ही रह गया। उसने गाया, तो वह सकते के पालम में आ गया। उसने नृत्य किया, तो उसे अपने प्रासन पर बैठे रहना दूभर हो गया। शाहजादे की जलती हुई नज़रें जब उस मुग्धा पर पड़ रही थीं, अकस्मात् ही उसका दुपट्टा हवा के एक झोंके से उड़ गया, और सलीम की आंखों में सौन्दर्य के जादू का समुद्र लहरा उठा। शेष समय वह खामोश बैठा रहा।

चिराग जल गए। शराब के प्याले पेश किए जा रहे थे। और वह चुपचाप पीता जा रहा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे उसकी रगों में खून नहीं, पिघला हुआ सीसा बह रहा हो।

वह प्रेम का घाव खाकर लौटा। खाना, पीना, सोना उसके लिए दूभर हो गया। वह ठंडी सांसें लेता और बेचैनी से करवटें बदलता रहता। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। वह इतनी बड़ी बादशाहत का उत्तराधिकारी था, पर इस समय वह एक दीन-हीन, आकुल-व्याकुल प्रेमी था।

बादशाह अकबर से भी शाहजादे की यह दशा छिपी न रही। वह एक दूरदर्शी बादशाह ही न था, नई जातीयता और नई भावनाओं को जन्म देने की आकांक्षा भी रखता था। भारत में हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त जीवन का महत्त्व उसने समझ लिया था। सात सौ वर्ष से चले आते हुए धर्मविग्रह को उसने त्यागकर हिन्दुओं के सामने मैत्री का हाथ बढ़ाया था। वह चाहता था कि हिन्दू-मुसलमानों में रोटी-बेटी के सम्बन्ध जारी हों, और दोनों जातियां एक हो जाएं। इसीसे उसने सलीम का ब्याह एक राजपूत राजकुमारी से किया था। वह नहीं चाहता था कि शाहज़ादे की इस नवीन आयु में ही राजपूत बाला के प्रेम पर डाका पड़े। उसने राजपूत बाला को सलीम की प्रधान बेगम बना दिया था, और तय किया था कि उसी का पुत्र बादशाह होगा। उसका दृष्टिकोण शुद्ध राजनीतिक था। उसे सलीम के प्रेम को जानकर चिन्ता हुई। उसने तत्काल शेरअफगन के साथ मेहरुन्निसा की निस्वत पक्की करा दी।

यह खबर सलीम के लिए मौत से बढ़कर थी। उसने पिता के कदमों में गिरकर निवेदन किया कि वह मेहर की शादी उससे करा दे। सलीम ने कहा-बिना मेहर के मैं ज़िन्दा न रहूंगा। सलीम अकबर का बड़ी साध का बेटा था। फिर भी बादशाह ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। उसने अपने वज़ीर अबुल-फज़ल से सलाह ली। मेहरुन्निसा का निकाह शेरअफगन के साथ कर दिया गया। और शेर-अफगन को बर्दवान का हाकिमे-आला बनाकर बंगाल भेज दिया गया।

सलीम छटपटाकर रह गया। उसी क्षण से वह अपने प्रतिद्वंद्वी का जानी दुश्मन बन गया। अपने पिता बादशाह अकबर के प्रति भी वह उद्धत और क्रुद्ध हो उठा। उसने पिता से विद्रोह किया। जिस समय अकबर दक्षिण में असीरगढ़ के किले का मुहासिरा कर रहा था, सलीम ने इलाहाबाद में अपने को बादशाह घोषित कर दिया। इस सलीम की आयु तैंतीस बरस की थी।

अकबर का साम्राज्य अब सुसंगठित हो चुका था, और साम्राज्य की वार्षिक आय साढ़े सत्रह करोड़ रुपयों के लगभग थी। जिस अबुलफज़ल ने अकबर को मेहर की शादी शेरअफगन से करने की सलाह दी थी, उसे भी सलीम ने ओरछा के राजा बीरसिंह बुंदेला के हाथ से मरवा डाला। अकबर इन सब बातों से सलीम पर एकदम अप्रसन्न हो गया। बादशाह का एक पुत्र मुराद अत्यधिक शराब पीने से पहले ही मर चुका था और अब दूसरा दानियाल भी शराब पीने से मर गया। तब बेगमात के कहने-सुनने से उसने सलीम को क्षमा कर दिया। अब वही उसका इकलौता उत्तराधिकारी था। यद्यपि वह भी अपने भाइयों के समान शराबी था, परन्तु उसकी आयु शेष थी, उसके भाग्य में बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटना का केन्द्र होना बदा था।

बाहशाह अकबर और अधिक दिन जीवित न रहे। सलीम के विद्रोह के तीन वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। जिस समय सलीम ने सिंहासन पर आरोहण किया, उसकी आयु छत्तीस बरस की थी। वह एक सुन्दर, छरहरे बदन और लम्बे कद का आकर्षक व्यक्ति था। रंग उसका गोरा था। वह गलमुच्छे रखता था, और आंखें उसकी तेज़ और चमकदार थीं। शिष्टाचार वह खूब जानता था, स्वभाव का सरल, और बातचीत में पटु था। दरबार के सब लोगों को उसने अपने व्यवहार से प्रसन्न कर लिया। अपने विरोधियों को भी उसने क्षमा कर दिया। उसकी न्यायप्रियता की शीघ्र ही लोगों पर धाक बैठ गई।

जहांगीर को अब सब कुछ मिल गया था, पर मेहरुन्निसा का कांटा उसके कलेजे में अब भी कसक रहा था। मेहरुन्निसा को वह नहीं भूल सका था। उसके रंगमहल में अनगिनत सुन्दरियां थीं, पर वह चौदह बरस की अल्हड़ मेहर, जिसका अकस्मात् ही दुपट्टा उड़ गया था, और क्षण-भर के लिए जिसके यौवन का सम्पूर्ण खज़ाना प्रकट हो गया था, उसके दिल से दूर नहीं हो सकी थी।

शेरअफगन अब बर्दवान में एक बहुत बड़े बाग में आलीशान महल बनवाकर रह रहा था। वह अपनी प्रिय पत्नी के दुर्लभ, अछूते यौवन का आनन्द दामोदर की तरंगित धाराओं के समान ले रहा था। दोनों सुखी थे, प्रसन्न थे। मेहर के हृदय में भी सलीम की वह नज़र खुब गई थी। वह कभी-कभी सलीम की उस चितवन के सम्बन्ध में सोचा करती थी। उसे यह भी ज्ञात था कि सलीम उससे विवाह करना चाहता था। वह कभी-कभी यह भी सोचती थी कि यदि ऐसा होता, तो वह एक दिन हिन्दुस्तान की मलिका बन जाती। परन्तु ये सब बातें धुंधली होती जा रही थीं। शेरअफगन का प्यार उसे झकझोर रहा था। वह अपने बर्दवान के महल में आनन्दित थी। अपने सौभाग्य पर उसे गर्व था। इसी समय उसे एक पुत्री की उपलब्धि हुई।

इस समय बंगाल राजविद्रोह का अड्डा बना हुआ था। बंगाल का सूबेदार इस समय कुतुबुद्दीन था। उसके पास एक गुप्त शाही फरमान पाया। कुतुबुद्दीन ने शेर-अफगन को अपने दरबार में बुलाकर कहा-तुमपर राजविद्रोह का अभियोग है। उसने शेरअफगन के साथ कुछ ऐसा अशिष्ट व्यवहार किया कि शेरअफगन क्रुद्ध हो उठा। दोनों आपस में तलवार लेकर जुट गए, और दोनों ही लड़कर मर गए। इसके बाद ही शेरअफगन की बेवा मेहरुन्निसा को आगरा ले जाने के लिए शाही फौज आई, और उसे जाना ही पड़ा।

तीन बरस बीत गए। इस बीच मानसिक द्वन्द्व ने दोनों को आन्दोलित किया। बादशाह बड़ी सावधानी से उसकी गतिविधि को देखता, और अप्रकट रूप से इस बात की व्यवस्था रखता कि उसे कोई कष्ट न होने पाए। सच पूछा जाए तो मेहरुन्निसा के कसीदों और चित्रों की इतनी प्रशंसा तथा अच्छे दामों में उनकी बिक्री होना भी बादशाह के संकेतों पर ही था।

मेहर की दुर्दमनीय महत्त्वाकांक्षा कह रही थी कि वह इस प्रकार कसीदे वगैरा बनाने के लिए पैदा नहीं हुई है। तभी वृद्धा की भविष्यवाणी से उसकी आशाओं को पर लग गए। उसके बाद ही वह अमीरवाली घटना हुई। बादशाह के कानों तक इसकी खबर पहुंची। मेहर ने सुना कि बादशाह ने उसके साहस की प्रशंसा की है। सुनकर उसके होंठ फड़कने लगे, और उसे एक नई वेचैनी सताने लगी, जैसे वह किसी आनेवाले की प्रतीक्षा कर रही हो। परन्तु वह पानेवाला कौन था, जिसके पैरों की आहट के लिए उसके कान चौकन्ने हो रहे थे?

ईद का दिन था, संध्या का समय। रंगमहल में जश्न मनाया जा रहा था। मेहरुन्निसा अपने कक्ष में कालीन पर बैठी, अस्तंगत सूर्य की नज़रबाग में पड़ती आड़ी-तिरछी सुनहरी किरणों को निहार रही थी। उसकी बांदियां लक-दक पोशाक पहने, उसके आसपास खड़ी थीं।

अचानक बांदियों के मुंह से चीख निकल गई। मेहर समझ गई कि कक्ष में कोई पाया है। उसने आंख उठाकर देखा-दीनो-दुनिया के मालिक शहनशाह जहांगीर थे।

बादशाह उसके रूप को देखकर धक रह गया। अब वह उसकी पुरानी परिचिता अस्फुट कली न थी, उसका यौवन भरपूर निखरा हुआ था। वह ऐसा प्रखर था कि उसकी चकाचौंध से आंखें झेप जाती थीं। मेहर ने उस समय कोई खास पोशाक नहीं पहन रखी थी। वह मस्लिन की सफेद सादा पोशाक पहने बैठी थी। किन्तु उसमें से छनकर भी उसका रूप अपनी अद्भुत छटा दिखा रहा था। कदाचित् रत्न-जटित पोशाक में वह इतनी सुन्दर न प्रतीत होती।

बादशाह को देखते ही मेहर हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। और उसने अपनी आंखें जमीन में गड़ा दीं। लाज की ललाई उसके सुन्दर मुंह पर फैल गई।

बादशाह दो कदम आगे बढ़े। उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा स्त्रियों में सूर्य के समान मेहर इस तरह बांदियों की पोशाक में क्यों है?

चारों ओर रंग-बिरंगी जड़ाऊ पोशाकें पहने बांदियां खड़ी थीं। मेहर ने सीने पर हाथ रखकर, और सिर झुकाकर, जवाब दिया-बांदियां उसकी मर्जी के अनुकूल रहती हैं, जिसकी सेवा में वे नियुक्त होती हैं। ये सब मेरी बांदियां हैं, और अपनी हैसियत के अनुसार मैं इन्हें सजाती-पहनाती हूं। लेकिन शहनशाह, मैं जिनकी बांदी हूं, वे मुझे जिस तरह रखना चाहते हैं, मैं उसी तरह रहने को मजबूर हूं!

'मेहर, शहनशाहे-हिन्द, तेरे रूप का पुजारी यह जहांगीर तेरे कदमों पर अपने प्रेम के फूल चढ़ाता है। क्या तुझे जहांगीर की सुलताना बनने में कोई उज्र है?'

मेहर ने नज़र उठाकर क्षण-भर बादशाह की ओर देखा, और फिर नज़र नीची करके कहा-ऐ शहनशाह, आपके जामे के बटन में जो लाल लगा हुआ है, उससे ऐसा लगता है कि जैसे किसी पीड़ित का खून शहनशाह से इन्साफ चाहता है!

बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़ा उसे निहारता रहा। फिर उसने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-ऐ शहनशाहे-हिन्द की सुलताना, अब से तू ही इन्साफ की तराजू को संभाल। जहांगीर तो सिर्फ तेरी मुहब्बत का भिखारी है।

और उसने उसे खींचकर हृदय से लगा लिया। मेहर ने बादशाह की छाती को आंसुओं से तर कर दिया।