प्यादा : गोविंद उपाध्याय
Pyada : Govind Upadhyay
दोपहर का समय है । बाहर चिलचिलाती धूप है । तापमान पैंतालीस पार कर चुका है । शुक्र है कि प्रशासनिक भवन का सेंट्रल ए सी बढ़िया काम कर रहा है । बद्री बाबू आंखे बंद किए हुए कुर्सी पर ऊंघ रहे हैं । लंच खत्म हुए पंद्रह मिनट बीत चुका है । जो लोग लंच करने घर जाते हैं, कोई भी ढ़ाई बजे से पहले नहीं आने वाला है । इस समय उनके अलावा चपरासी देव है । उसके खर्राटों की आवाज पूरे आफिस में सुनाई दे रही है । देव आखिरी लाइन वाले मोड्यूल फर्नीचर पर सिकुड़कर सो जाता है । उसकी नींद सबसे अंत में खुलती है ।
अचानक आफिस के किनारे वाले दरवाजे के खुलने की आवाज आई । बद्री बाबू चौंक कर देखें । निकेत बेहरा दरवाजा खोलकर अंदर झांक रहा है । वो तीन साल पहले तक इसी आफिस में था । लेकिन फिर उसका ट्रांसफर उत्पादन विभाग में हो गया था । वो अक्सर समय काटने के लिए यहां आ जाता था । उसके पास मिल की ढ़ेर सारी खबरें होती हैं, जिन्हें वह नमक मिर्च लगा कर सुनाता । उसकी दी हुई सूचनाओं को बहुत विश्वासनीय नहीं कहा जा सकता । लेकिन सत्तर प्रतिशत तक सही ही निकलती थी । निकेत की नजर बद्री बाबू टकराई और फूहड़ ढंग से दांत निपोरते हुए अंदर गया, “अरे सर…! कैसे हैं आप …! हम बहुत दिनों बाद मिल रहे हैं । काफी दिनों बाद दिख रहे हैं । छुट्टी पर थे क्या…?”
दरअसल निकेत के बात करने की भूमिका थी । बद्री बाबू प्रतिउत्तर में मुस्करा दिए ।निकेत बेहरा बगल की सीट खींचते हुए बैठ गया । उसने शरीर को ढीला छोड़ते हुए गहरी-गहरी दो-तीन सांसे खींची, “ओह ! क्या गरमी है । आसमान साला आग उगल रहा है । यहां तो राहत है । अभी लोग लंच करके ही आए नहीं है । सचमुच आफिस वालों के मजे हैं । उत्पादन में तो आदमी फेचकूर फेंक देता है । दिन-रात चौबीस घंटे बस काम ही काम …। रात में भी शाप फ्लोर से फोन आ जाता है… और तब आना पड़ता है । कोई बहाना नहीं चलता है ।”
बद्री बाबू को इस समय उसका आना अच्छा नहीं लग रहा है , “ बिना सिर-पैर की बकचोदी करके दिमाग चाट डालेगा । इसके पहले की उसके बातों की रफ्तार में तेजी आए, बद्री बाबू ही बोलना शुरू कर दिए, “ अरे बेहरा जी, कैसे आना हुआ ..? सब खैरियत तो है न …।”
“कुछ नहीं सर, स्टोर तक गया था । अभी लोग लंच मनाकर वापस ही नहीं आए हैं । नए वाले साहब जबसे आए हैं, पूरा मिल ही बे-खौफ हो गया है । लगता है अपने बाप की मिल है । जब आओ, जब जाओ….। तभी सरकार सब कुछ प्राइवेट कर रही है ।” बेहरा का आबनूसी चेहरा पूरी तरह पसीने से लथपथ था । बद्री बाबू जबरदस्ती चेहरे पर मुस्कान चिपकाते हुए उनिंदी आंखों से उसकी तरफ देख रहे हैं ।
बेहरा तो टाइम पास करने आया था । लेकिन तुरंत ताड़ लिया किया की बद्री बाबू इस समय उसकी बातें सुनने के मूड में नहीं हैं, “सारी सर, कहीं मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया..?”
अब क्या बोलते बद्री बाबू । तीन-चार महीने बाद नौकरी से सेवानिवृत्ति होने जा रहे हैं । बाहर तो ऐसे नमूने कम ही मिलेंगे । मिलेंगे भी तो रिटायर्ड आदमी को भला कौन पूछेगा । वह चेहरे पर चिपकी मुस्कराहट को बढ़ाते हुए बोलें, “अरे नहीं बेहरा भाई …। और सुनाओ आजकल मिल में क्या चल रहा है ।”
इतना सुनते ही उसके बांछे खिल गए। उसने अपनी कुर्सी उनके और नजदीक खींच लिया । इतना नजदीक कि उसके शरीर से निकलने वाला डियो मिश्रित पसीने के भभका, उनके नाक से टकाराया । बेहरा अपना मुंह लगभग उनके पास लाते हुए बोला, “श्रीनिवास खत्री का तो काम लग गया सर…। गए पौने तीन के भाव…। विजिलेंस केस है । हेडक्वाटर से फैक्स आया है । इंदौर ब्रांच में ट्रांसफर है ।”
बद्री बाबू की सारी इंद्रियां एक साथ जग गईं । उनके कान चौकन्ने हो गए । ये कोई मामूली खबर नहीं थी । मिल में भूचाल आ जाना चाहिए था । श्रीनिवास खत्री कोई साधारण आदमी थोड़े ही है । लोग उसे मिल के बड़े साहब के बाद दूसरा हेड मानते हैं । अगर इस खबर में जरा भी दम था, तो आने वाले समय में और भी कई लोगों का सर कलम होना था ।
बद्री बाबू उत्सुकता से निकेत बेहरा की तरफ देखने लगें । उसकी आंखें सिकुड़ी हुई है और उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहा है । खत्री बहुत खुशमिजाज बंदा है । पैकिंग एण्ड डिसपैच्ड विभाग का ईंचार्ज है । मिल के सारे उत्पाद उसीके विभाग से होकर बाहर जाते है । सबको मालूम है कि इस विभाग में ट्रांसपोर्ट से लेकर पैकिंग तक सब काम ठेके पर होता है । अब जहां ठेका और ठेकेदार हैं, वहां ’पैसा’ भी है । कहीं नमक बराबर है …तो कहीं दाल बराबर…। श्रीनिवास खत्री पिछले बीस-बाईस वर्ष से इसी विभाग में ही काम कर रहा है । नियुक्ति से लेकर आजतक…। पहले वह छोटे उत्पादों की पैकिंग की लाइन देखता था । तब वह सुपरवाइजर हुआ करता था । उस जमाने में वह दुबला-पतला सा… गेहुएं रंग का… पांच फीट पांच इंच का लप्पुक झन्ना जैसा आदमी हुआ करता था । उसके चेहरे पर एक अजीब तरह की दीनता टपकती थी । लोगों को न चाहते हुए भी उससे सहानुभूति हो जाती थी । उस समय सेक्सन ईंचार्ज देव कुमार थे । उन्होंने तो उसके बारे में भविष्यवाणी कर दिया था, “बंदा काफी आगे तक जाएगा । जैसा वह दिखाई देता है । वैसा वह बिलकुल नहीं है । मेहनती है, चापलूस है… पर मौकापरस्त भी है । अपने फायदे के लिए कहीं भी जा सकता था ।”
तब खत्री की एक और विशेषता और भी हुआ करती थी । वह छोटे-बड़े सभी को ’जी साहेब ’ बोलता था । शायद उसकी विनम्रता ही उसके लोकप्रियता का कारण था । लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल गया । अब उसके देह पर ढ़ेर सारी चर्बी जमा हो चुकी है । बात में भी एक अजीब सा अक्खड़पन आ गया है । ’तू’ करके बात करता है । जबसे नए वाले बड़े साहब आए हैं । सीनियर आफिसर तक को ज्यादा भाव नहीं देता है ।
बेहरा दस मिनट ही बैठा था । उसके अनुभाग से फोन आ गया था और वह बडबड़ाता हुआ चला गया, “साले …! दो मिनट भी चैन से नहीं रहने देते हैं ।”
बद्री बाबू इस मिल में चालीस साल से काम कर रहे है । मैनुअल से कम्प्यूटर युग आ गया । पदोन्नति के साथ लोगों को गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए देखा था । यहां कोई ’फंसना’ नहीं चाहता , लेकिन दूसरों को ’फंसाने’ में कोई परहेज नहीं है ।
फंसने-फंसाने के इस खेल में प्रशासन कब, किसको और कैसे लपेट ले , यह भला कौन जानता है । लेकिन खत्री इस तालाब का पुराना खिलाड़ी था । फिर वह कैसे फंस गया । बद्री बाबू न चाहते हुए भी श्रीनिवास खत्री के बारे में सोंचने लगे । शादी वाली बात तो खुद श्रीनिवास ने ही उन्हें बताई थी ।
तब श्रीनिवास को आए हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे । ज्याद से ज्यादा तीन-चार साल …
पाठक जी श्रीनिवास के सीनियर थे । एक दिन लंच में उसके साथ खाना खा रहे थे । अचानक खत्री से बोलें, “श्रीनिवास शादी कब कर रहे हो ?”
श्रीनिवास चौंककर उनकी तरफ देखा ।
पाठक हंस दिए, “इसमें चौंकने वाली क्या बात है । अरे भाई तीस के आस-पास के हो ही गए हो । सरकारी नौकरी कर रहे हो । देखने में भी ठीक ही ठाक हो । तुम्हारा बाजार भाव भी ऊंचा ही होगा । कायदे से तुम्हे शादी कर लेनी चाहिए । ऐसा कोई इरादा हो तो बताना । इसी मिल में एक लड़की है । मेरे मित्र की बेटी है । पिता की आकस्मिक मृत्यु हो जाने के बाद उसे यह नौकरी मिली है । तुम्हारे ही ग्रेड की है ।”
श्रीनिवास खत्री के चेहरे पर दीनता का भाव और गहरा हो गया, “जी साहेब …। शादी तो करनी ही है । पापा की कई जगह बातचीत चल रही है । जो मेरी मुक्कदर में होगी, वह लड़की मेरे घर आ जाएगी …।”
पाठक जी थोड़ा गंभीर हो गए, “ तुम्हारी बात सही है श्रीनिवास । रिश्ते तो कई जगह से आते हैं ,लेकिन होता तो सिर्फ एक जगह ही है । मेरी बात को अन्यथा मत लेना । भाई तुम सरकारी नौकरी में हो । ऐसे लड़कों का शादी की मंडी में बाजार भाव भी बाढ़िया है । जाहिर है भाई तुम्हारे पिता ने भी ढ़ेर सारी आशाएं बांध रखी होंगी । जो रिश्ता मैं बता रहा हूं, उसमें दहेज तो नहीं है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारी सेलरी दूनी समझो …। यदि बात समझ में आए तो मुझे बता देना ।”
लड़की का नाम अंकिता था । वह श्रीनिवास के उम्र की ही थी । परिवार में सिर्फ मां-बेटी ही थे । एक बड़ी बहन भी थी, जिसकी शादी हो चुकी थी और वह दो बच्चों की मां थी । श्रीनिवास खत्री को रिश्ता बुरा नहीं लगा था ।
अंकिता साधारण नाक-नक्श की सीधी-सादी लड़की थी । पिता की असमय मृत्यु ने उसे थोड़ा गंभीर बना दिया था । मां को पेंशन मिलती थी । लेकिन बुढ़ापे में उन्हें एक सहारा चाहिए था । जाहिर है अंकिता की शादी के बाद वह भी उनके साथ ही रहेंगी । उनके रहने में भी भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है । वह कोई बोझ तो थी नहीं । उल्टे जब वे दोनों काम पर जाएगें तो वह घर भी संभाल लेंगी ।
श्रीनिवास ने अपने पिता से संपर्क किया, “ पापा एक शादी का आफर आया है । मेरे ही मिल में काम करती है और मेरे ही रैंक में है । अपनी बिरादरी की लड़की है । क्या ऐसी शादी ठीक रहेगी …?”
पिता व्यापारी थे । उन्हें ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं पड़ी । उन्होंने सारा गुणा-भाग कर लिया । फोन पर जवाब न पाकर श्रीनिवास को यही लगा कि पिता शायद इस तरह के रिश्ते के लिए सहमत नहीं हैं ।
“क्या बात है पापा ….? आपने जवाब नहीं दिया ।” श्रीनिवास को पिता की राय जानने की तीव्र उत्सुकता थी ।
पिता कुछ सोंचते हुए बोलें, “ अबे तेरा कोई प्यार-मोहब्बत का लफड़ा तो नहीं है ।”
श्रीनिवास हंस दिए, “ नहीं पापा ऐसा कुछ भी नहीं है । वह बहुत गंभीर किस्म की लड़की है । पिता की अचानक मौत हो जाने के कारण उसे नौकरी में आना पड़ा । मेरी तो आजतक उस लड़की से बात भी नहीं हुई है । उसके पिता के एक मित्र हमारे साथ ही काम करते हैं । यह प्रस्ताव उनकी तरफ से ही आया था । उन्होंने ही कहा कि पहले आप की सहमति ले लूं, फिर वह आगे बात बढाएंगे ।”
पिता की फोन पर ठहाके की आवाज सुनाई दी, “ साथ में तो तुम्हें रहना है , यदि लड़की तुम्हें पसंद है, तो पाठक जी को बोल दो आगे बात चलाएं ।”
श्रीनिवास और अंकिता परिणय-सूत्र में बंध गए ।घर की आमदनी दूनी हो गई । जाहिर है, श्रीनिवास के रहन-सहन खान-पान यहां तक कि बोलने का अंदाज भी बदलने लगा । इसके बाद भी उसके व्यवहार कुशलता के सभी कायल थे ।पैकिंग एण्ड डिसपैच्ड विभाग के छोटे उत्पाद के बाद एसेम्बली लाइन का भी इंचार्ज उसे बना दिया गया । लोगों का तो यही मानना था कि बंदे ने ऊपर तगड़ी सेटिंग कर ली है । आए दिन पीने-पिलाने वाली पार्टी करता था । अब इस जामने में ऐसे ही लोगों की ‘पूछ’ होती है । जबकि उससे वरिष्ठ तीन लोग थे । असेम्बली हमेशा वरिष्ठता के आधार पर मिलता था । वह ज्यादा मलाई वाला लाइन था । यहां से उत्पाद बाहर भेजा जाता था । उसमें प्राईवेट ट्रांसपोर्ट भी शामिल था । रोज आठ-दस ट्रक यहां से उत्पाद लेकर विभिन्न शहरों में जाते थे ।
श्रीनिवास जिन तीन लोगों को लांघ कर वह एसेम्बली लाइन का ईंचार्ज बना था, दो की नौकरी थोड़ी ही बची थी । इसलिए वे खामोश रहे, लेकिन तीसरा इस बात को पचा नहीं पाया । उसने लिखा-पढ़ी शुरू कर दी । जिसका परिणाम दो हफ्ते में ही आ गया । तीसरे व्यक्ति को तत्काल प्रभाव से उत्पादन अनुभाग में स्थानातंरित कर दिया गया । अब उसके दावे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया था । श्रीनिवास ही ट्रांसफर लेटर लेकर उनके पास गया, “क्या मिश्रा जी आप भी न.. चैन से नहीं रह पाए । क्या जरूरत थी लिखा-पढ़त करने की …? कुछ नहीं रखा है इन सब बातों में …। मुझसे बोल देते, साहब से हाथ पैर जोड़कर मैं वैसे ही उस लाइन से हट जाता । साली बड़ी सरदर्दी इस लाइन में…। बड़े साहब को साप्ताहिक प्रगति की सूचना देनी होती है । जरा सा गड़बड़ हुआ नहीं कि पैंट उतर जाती है । पता नहीं क्यों मुझसे काबिल सीनियर लोगों के रहते हुए , यह फंदा मेरे गले में पहना दिया गया । वैसे भी मिश्रा जी आप तो इतने अनुभवी आदमी हैं । इतना तो आप भी जानते ही हैं कि प्रशासन जो ठान लेता है । वही करता है । इसे कोई रोक ही नहीं सकता है ।”
मिश्रा जी बेचारे क्या बोलते …। खून का घूंट पीकर रह गए । श्रीनिवास से कागज लिया और अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर उत्पादन विभाग में चले गए । सभी की सहानुभूति मिश्रा के साथ थी, लेकिन बोलने की हिम्मत कोई नहीं कर पाया । हां ! कामरेड निखिल चौरसिया ने जरूर श्रीनिवास से कहा था, “ सर जी , ये तो आप भी मानते हैं मिश्रा जी के साथ अच्छा नहीं हुआ । लेकिन आप भी सावधान रहियेगा । सह और मात के इस खेल में चाहें जितना भी बड़ा खिलाड़ी क्यों न हो । कभी-न-कभी हारता भी है और ऐसा तभी होता है जब वह आत्मविश्वास के चरम पर होता है ।”
श्रीनिवास का चेहरा उतर गया था, “क्या नेता जी…! आपकी फिलासफी तो हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है । अब हमारी समझदानी इतनी मजबूत नहीं है कि आपकी बातों को कैच कर सके ।”
निखिल सिर को हिलाकर आगे बढ़ गए , “ सर जी आप तो ऐसा मत बोलिए …। बिना दिमाग के इतनी तेज भला कोई दौड़ सकता है ।”
कामरेड निखिल तो अब इस दुनिया में नहीं है ।कैंसर ने उन्हें असमय ही निगल लिया । लेकिन उन्होंने जो कहा था आज सच हो गया था । अत्याधिक आत्म विश्वास ही तो ले डूबा श्रीनिवास को …। जिस आदमी को नियुक्ति के बाइस वर्ष बाद भी इस अनुभाग से कोई हिला नहीं पाया , उसे सीधे दूसरी यूनिट में फेंक दिया गया । स्थानान्तरण तो नौकरी का हिस्सा है । लेकिन श्रीनिवास पर विजिलेंस केस था । कल तक जो लोग दबी जुबान से बोलते थे , अब खुलकर बोलने लगे थे, “ खूब मलाई काटी है । अब झेलो….।”
“अबे खुरचन बोलो…। मलाई तो ऊपर वालों ने काटी है । फंसने लगे तो फंदा इनके गले में डाल दिया ….। साला यह भी तो अपनी औकात भूल गया था । उसे तो यही लगता था कि जब ‘सैंया भये कोतवाल, तो डर काहें का…’ । और जब साला कोतवाल ही फंस रहा हो तो…? ”
ये ‘कोतवाल’ थे सुशील कुमार …। यानि मिल के बड़े साहब …. । यानि चीफ मैनेजर….। यह इनकी दूसरी पारी थी । इसके पहले भी वह लंबे समय तक रहे थे । कुछ वर्षों तक वह पैकिंग एण्ड डिसपैच्ड विभाग के भी अधिकारी रहे थे । श्रीनिवास उनके चहेते स्टाफ थे । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वह सुशील कुमार के ‘खास चमचे’ थे । सुशील कुमार की छवि एक कुशल,निर्भीक और परिश्रमी अधिकारी की थी । वह मेहनती लोगों की के प्रति उदार थे । श्रीनिवास भी परिश्रमी थे और चापलूस भी … यानी ‘सोने में सुहागा’…।
सुशील कुमार ईमानदार अधिकारी तो नहीं थे । लेकिन कभी किसी ‘घपले’ में पकड़े नहीं गए ।उनकी पकड़ भी काफी ‘ऊपर’ तक थी । सरकारी व्यवस्था के हिसाब से जब तक कोई पकड़ा नहीं जाय, वह ईमानदार ही माना जाएगा । सुशील कुमार की एक विशेषता और थी । जब भी कोई उनका विरोध करता, उसे वह पूरी दबंगई के साथ कुचल देते । नौकरी सबको प्यारी होती है । लोग उनसे डरते भी थे । भले वह तब बहुत जूनियर थे, इसके बावजूद मिल में उनका दबदबा तो था ।
श्रीनिवास के मुंह से कई बार लोगों ने सुना था, “ सुशील कुमार साहब तो राजा आदमी हैं । सारे कंडक्ट रूल तो जेब में रखते हैं । बंदा हमेशा अपने मन की करता है । खुश हो गया तो सौ जान से निछावर और नाराज हो गया तो ऐसा डंडा करेगा कि आदमी की आंखें बाहर निकल आयेगी । फिर वह दुबारा पंगा लेने की हिम्मत ही नहीं करेगा ।”
तो सुशील कुमार, श्रीनिवास पर भी ‘सौ जान से निछावर’ थे । इस निछावर होने के पीछे मिल में कई तरह की कहानियां सुनाई जाती थी । जिस पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है । जाहिर है ये वो लोग थे, जो श्रीनिवास से जलते थे । उन दोनों की तबसे पटती है, जब सुशील कुमार राजा तो क्या वजीर भी नहीं थे । उन्हें ऊंट या घोड़ा मान लिजिए … और श्रीनिवास…?
नियम के हिसाब से बहुत ज्यादा दिन रुक गए थे सुशील कुमार …। जब तीसरी पदोन्नति हुई तो साथ में स्थानान्तरण भी था…। सुशील कुमार सीनियर मैनेजर हो गए । अब आप उन्हें ‘वजीर’ कह सकते हैं । श्रीनिवास ने बहुत भव्य ढंग से उनकी बिदाई की थी । उन्हें फूलों से सजे रथ पर बैठाकर उनके बंगले तक लाया गया । आगे-आगे बैंड बाजा था और पीछे-पीछे मिल की जनता …। यूं तो इस पूरी व्यवस्था में कई लोग शामिल थे । लेकिन सारा श्रेय श्रीनिवास खत्री ने ले लिया । इसमें कोई संदेह नहीं था कि मिल ने एक योग्य और कर्मठ अधिकारी खो दिया था । सुशील कुमार जिस अनुभाग में रहें , वहां निरंतर प्रगति होती रही । वह विभाग मैनुअल से कम्प्यूटराइज्ड हो गया । जो वक्त के हिसाब से बहुत जरूरी भी था । सरकारी बजट के ‘भरपू्र’ उपयोग के लिए सुशील कुमार को याद किया जाता रहा …।
वैसे तो अधिकारी आते-जाते रहते हैं । जब तक रहते है, तभी तक संपर्क रहता है । उनके जाते ही ‘रात गई, बात गई’ के अनुसार थोड़े दिन बाद सम्पर्क समाप्त हो जाता है । लोग नए अधिकारी की जी हजूरी में लग जाते हैं । लेकिन श्रीनिवास और सुशील कुमार के बीच का सम्पर्क कभी खत्म नहीं हुआ । तब श्रीनिवास ने थोड़े ही सोचा होगा कि सुशील कुमार दुबारा फिर इसी मिल में आ जाएंगे । आठ साल बाद, अपने तमाम वरिष्ठों को लांघकर सुशील कुमार वापस आ गए । अब वह चीफ मैनेजर यानि बड़े साहब थे ।
श्रीनिवास तब पैकिंग और डिसपैच्ड अनुभाग के ईंचार्ज यानि सर्वेसर्वा हो चुके थे । सुशील कुमार की बिदाई जितने शानदार ढंग से हुई थी । उससे ज्यादा शानदार ढंग से उनके आगमन का स्वागत किया गया । मिल के मुख्य द्वार से चीफ मैनेजर के आफिस तक दोनों तरफ लोग खड़े होकर ‘सुशील कुमार जिंदाबाद’ के नारे लगा रहे थे और उनके ऊपर फूलों की वर्षा होती रही थी । सुशील कुमार मालाओं से लदे हुए थे । बगल में श्रीनिवास और बाकी सारे आधिकारी पीछे-पीछे … ।
आफिस में घुसने के पहले पंडित जी ने श्लोक पढ़ा और नारियल फोड़ा गया । सजी-धजी महिला कर्मचारियों के एक समूह ने मंगलगान किया, जिसका नेतृत्व श्रीनिवास की पत्नी अंकिता कर रह थी । सुशील कुमार गदगद थे । उन्हें याद नहीं कि उनके पूरे सेवाकाल में किसी चीफ मैनेजर का स्वागत इतना भव्य तरीके से हुआ हो । वह श्रीनिवास के श्रधा भाव के कायल हो गए । मिल के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी बड़े साहब और श्रीनिवास की घनिष्ठता को देखा और एक ही रात में श्रीनिवास मिल के ‘आम’ से ‘खास’ हो गए ।
मिल में काम करने वाले लोगों में भी सुशील कुमार के आगमन को लेकर काफी उत्साह था । मिल की हालत अच्छी नहीं थी । उत्पादन का लोड पहले से बहुत कम हो गया था । लोगों को बहुत आशा थी कि कुछ नया उत्पाद आएगा और मिल में फिर पहले जैसी रौनक लौट आएगी । इसके पहले वाले चीफ मैनेजर का कार्यकाल अच्छा नहीं रहा था । मिल की यह यूनिट डेढ़ वर्ष में ही टाप से दसवें नंबर पर आ गयी थी । ऐसे में सुशील कुमार का आना कामगारों के लिए आशा की किरण जैसा था । वे इस मिल की नस-नस से वाकिफ थे । उनका पहले का कार्यकाल शानदार रहा था । जिस विभाग में जाते थे वही चमकने लगता था ।
जब उत्पादन कम हो गया तो जाहिर है पैकिंग एण्ड डिसपैच्ड विभाग पर भी उसका असर पड़ना ही था । वर्तमान सरकार की नीति भी सरकारी संस्थानों के हित में नहीं थी । सरकार को यह बोझ लगने लगे थे और वह धीरे-धीरे निजीकरण की तरफ बढ़ रही थी । रेलवे, एअरपोर्ट और संचार माध्यमों पर इस सरकारी नीतियों का प्रभाव दिखने भी लगा था । देश के कुछ चुनिंदा कार्पोरेट घरानों ने उसे धीरे-धीरे हथियाना शुरू कर दिया था । यह भय अब धीरे सभी सरकारी संस्थानों में था । यह मिल और इसका समूह भी इस भय से ग्रस्त था । ऐसे में सुशील कुमार से लोगों को बहुत आशाएं थी ।
लेकिन मंत्र और मंगलाचार भी मिल का कोई भला नहीं कर पाए । मिल की स्थिति और जर्जर होती जा रही थी।उसमें कोढ़ के खाज की तरह करोना महामारी का आगमन हो गया । पूरा देश सम्पूर्ण लाक डाउन में चला गया। जब मिल खुला तो लोगों के अंदर बीमारी की दहशत थी । मिल को हफ्ते में दो दिन सेनेटाइज्ड करना पड़ता था । हर विभाग के आगे सेनेटाइजर की बोतलें रखी जाने लगी ….और इन सबका इंचार्ज श्रीनिवास को बना दिया गया था । स्वच्छता अभियान के ईंचार्ज भी श्रीनिवास ही थे ।
ठेकेदारों की फौज दिन-रात मिल में इन सारे कामों का अंजाम देती थी । धीरे-धीरे लोगों के अंदर सुशील कुमार के आने का उत्साह ठंडा पड़ने लगा । खुश थे तो वे लोग, जो उनके पिछले कार्यकाल में नजदीक आ गए थे । जब वे शहर में होते, उनका दरबार लगता था । जिसमें या तो उनकी चापलूसी होती या फिर इस बात की चर्चा होती कि मिल में उनके खिलाफ कौन-कौन जा रहा है । सुशील कुमार खूब मजा लेते । मिल में अनुशासन नाम की चीज ही नहीं रह गई थी । नियमों की धज्जियां उड़ी पड़ी थी । सारे वरिष्ठ अधिकारी भी लगभग निष्क्रिय थे । जो थोड़ा गुर्राने और पंजा दिखाने की कोशिश करना चाहा, उसके सारे नाखून ही उखाड़ दिए गए ।
श्रीनिवास के दो बेटे थे । बच्चे होनहार थे । बड़ा बेटा डाक्टरी की तैयारी कर रहा था । छोटा अभी स्कूल में पढ़ रहा था । श्रीनिवास उसे अमेरिका भेजना चाहते थे । उसके लिए बहुत पैसा चाहिए था । अब जब ईश्वर ने मौका दिया था तो दोनों हाथों से बटोरने में लगे थे । वह खुले आम कहने लगे थे, “साला …नौकरी का मजा तो अब आ रहा है । राजा जैसी फिलिंग होने लगी है । मुंह खोलता नहीं हूं कि काम हो जाता है । किसी अधिकारी में इतनी हिम्मत नहीं है कि मेरी फाइल रोक ले ।”
श्रीनिवास की विनम्रता को दंभ की चादर ने ढक लिया था । उनकी भाषा, चाल और व्यवहार …सब बदल चुका था । अकसर मिल के राउंड के समय भी वह सुशील कुमार के साथ ही चलते । श्रीनिवास के पास डायरी होती । बड़े साहब उन्हें जो भी निर्देश देते , वह उसे लिखते जाते …।
लेकिन सरकारी धन को खर्च करने के लिए नियमों का पालन करना पड़ता है । लूटतंत्र के भी कुछ नियम होते हैं। पर यहां तो पैसा बटोरने के चक्कर में सारे नियम की मिल में धज्जियां उड़ रही थी । विरोधी भी सक्रीय हो गए। सबूत इकठ्ठे किए गए और ऊपर शिकायतें पहुंचाई जाने लगी। धीरे-धीरे प्रशासन ने शिकायतों को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।
प्राथिमिक जांच में मामला संदेहजनक लगा और विजिलेंस की टीम सक्रीय हो गया । श्रीनिवास जांच के घेरे में आ गए और उनका ट्रांसफर इंदौर कर दिया गया । एक रात में ही वह धड़ाम से जमीन पर आ गए । उन्हें रातों रात आदेश भी मिल गया । श्रीनिवास फिलहाल घोषित भ्रष्ट्राचारी मान लिए गए । वैसे कई और लोग और भी लपेटे में आ गए थे । फटाफट उनका मिल के दूसरे विभागों में स्थानानंरित कर दिया गया ।
विरोधी खुश थे । फुसफुसाहट शुरू हो गई, “ अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे । सब अपने बाप की मिल समझ लिए थे । खुली लूट शुरू हो गई थी । अभी सब नपेगें..। सुशील कुमार भी…।
सुशील कुमार भी जांच के घेरे में आ गए थे और दो हफ्ते बाद उनके भी स्थानान्तरण का आदेश आ गया । वे राजस्थान के यूनिट में स्थानानंतरित किए गए थे । उनके सभी चहेतों के रंग उड़े हुए थे । सभी डरे हुए थे कि अब आगे क्या होगा ..?
सुशील कुमार लंबी छुट्टी पर चले गए थे । मिल में रोज कोई नई खबर जन्म लेती और शाम तक वह ‘अफवाह’ में बदल जाती । धीरे-धीरे समय खिसक रहा था । उत्पादन की हालत खस्ता थी । वरिष्ठ अधिकारी भी चाहते थे कि सुशील कुमार जल्दी गद्दी छोड़ें । फिर मिल में उनके चहेतों ने कहना शुरू किया, “कहीं कुछ होने वाला नहीं है । सुशील कुमार सच्चे हैं , उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता । जांच हो रही है । दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा । देखना खत्री भी वापस आ जाएगा …।”
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, विरोधी सुस्त पड़ने लगे थे, “ ऐसा होना तो नहीं चाहिए । लेकिन क्या भरोसा ..? इस हमाम में सभी तो नंगे ही हैं…।”
चहेतों की बात ही सही निकली । सुशील कुमार का ‘जुगाड़’ काम कर गया । उनकी ‘ऊपर’ तक वाली पकड़ काम कर गई थी । उन्होंने अपना स्थानान्तरण रुकवा लिया । थोड़ा झटका उन्हें जरूर लगा था । चहेतों ने राहत की सांस ली । जांच का क्या वह तो चलती रहेगी । पर श्रीनिवास…?
वह तो प्यादा ही था न, राजा की रक्षा में शहीद होना ही उसकी नियति है।