पुत्र-प्रेम (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद
Putra-Prem (Hindi Story) : Munshi Premchand
1
बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्यवहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गांवों में उनकी जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वभावतः: प्रश्न होता था - इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपकार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। 'व्यर्थ' को वे विष के समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धांत उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक श्रेणी का अन्तर था। दोनों ही चतुर, होनहार युवक थे। किन्तु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएं थीं। वे उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।
2
किन्तु कुछ ऐसा संयोग हुआ कि प्रभुदास को बी०ए० की परीक्षा के बाद ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डॉक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी न हुई दूसरे डॉक्टर का इलाज होने लगा, पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था। उठने-बैठने की शक्ति न थी यहां तक कि परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-संवाद सुनकर भी उसके चेहरे पर हर्ष का कोई चिन्ह न दिखाई दिया। वह सदैव गहरी चिन्ता में डुबा रहाता था । उसे अपना जीवन बोझ सा जान पड़ने लगा था। एक रोज चैतन्यदास ने डॉक्टर साहब से पूछा यह क्या बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा का कोई असर नहीं हुआ ?
डाक्टर साहब ने सन्देह जनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नहीं डालना चाहता। मेरा अनुमान है कि यह टयुबरक्युलासिस है ।
चैतन्यदास ने व्यग्र होकर कहा - तपेदिक ?
डॉक्टर - जी, हां! उसके सभी लक्षण दिखायी देते है।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा मानों उन्हें विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो -तपेदिक हो गया !
डॉक्टर ने खेद प्रकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुप्त रीति से शरीर में प्रवश करता है।
चैतन्यदास - मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डॉक्टर - सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु ) मिले हो।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले- अब क्या करना चाहिए ।
डॉक्टर -दवा करते रहिये । अभी फेफड़ों तक असर नहीं हुआ है इनके अच्छे होने की आशा है ।
चैतन्यदास - आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डॉक्टर - निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता । लेकिन तीन चार महीने में वे स्वस्थ हो जायेंगे । जाड़ों में इस रोग का जोर कम हो जाया करता है ।
चैतन्यदास - अच्छे हो जाने पर ये पढ़ने में परिश्रम कर सकेंगे ?
डॉक्टर - मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास - किसी सेनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थयालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डॉक्टर - बहुत ही उत्तम ।
चैतन्यदास तब ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएंगे?
डॉक्टर - हो सकते है, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले - तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।
3
गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये, प्रभुदास की दशा दिनों दिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े- बड़े डाक्टरों की व्याख्याएं पढ़ा करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता। पहले कुछ दिनों तक तो वह अस्थिर-चित सा हो गया था। दो-चार दिन भी दशा संभली रहती तो पुस्तकें देखने लगता और विलायत यात्रा की चर्चा करता । दो चार दिन भी ज्वर का प्रकोप बढ़ जाता तो जीवन से निराश हो जाता । किन्तु कई मास के पश्चात जब उसे विश्वास हो गया कि इस रोग से मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी चिन्ता छोड़ दी पथ्यापथ्य का विचार न करता , घरवालों की निगाह बचाकर औषधियां जमीन पर गिरा देता मित्रों के साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य के विषय में कुछ पूछता तो चिढ़कर मुंह मोड़ लेता । उसके भावों में एक शान्तिमय उदासीनता आ गई थी, और बातों में एक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी । वह लोक रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी निर्भीकता से आलोचनाएँ किया करता । यद्यपि बाबू चैतन्यदास के मन में रह-रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय करने से क्या लाभ तथापि वे कुछ तो पुत्र-प्रेम और कुछ लोक-मत के भय से धैर्य के साथ दवा-दर्पन करते जाते थे ।
जाड़े का मौसम था। चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डॉक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख रहे थे। जब डॉक्टर साहब टेम्परेचर लेकर (थर्मामीटर लगाकर ) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा- अब तो जाड़ा आ गया। आपको कुछ अन्तर मालूम होता है ?
डॉक्टर - बिलकुल नहीं , बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।
चैतन्यदास ने कठोर स्वर में पूछा - तब आप लोग क्यो मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे कि जाड़े में अच्छे हो जायेंगे ? इस प्रकार दूसरों की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो इसे सज्जनता कदापि नहीं कह सकते।
डॉक्टर ने नम्रता से कहा- ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते है और अनुमान सदैव सत्य नहीं होते। आपको जेरबारी अवश्य हुई पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने के नहीं थी ।
शिवादास बड़े दिन की छुटिटयों में आया हुआ था, इसी समय वह कमरे में आ गया और डॉक्टर साहब से बोला - आप पिता जी की कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं । अगर उनकी बात नागवार लगी तो उन्हें क्षमा कीजिएगा।
चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से देखकर कहा-तुम्हें यहां आने की जरूरत थी? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहाँ मत आया करो । लेकिन तुमको सबर ही नहीं होता ।
शिवादास ने लज्जित होकर कहा- मैं अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों । मैं केवल डॉक्टर साहब से यह पूछना चाहता था कि भाई साहब के लिए अब क्या करना चाहिए ।
डॉक्टर साहब ने कहा- अब केवल एक ही साधन और है इन्हें इटली के किसी सेनेटारियम में भेज देना चाहिये ।
चैतन्यदास ने सजग होकर पूछा- कितना खर्च होगा?
'ज्यादा से ज्यादा तीन हजार । साल भर रहना होगा?'
-निश्चय है कि वहां से अच्छे होकर आंवेंगे?
-जी नहीं, यहाँ तो यह भयंकर रोग है साधारण बीमारियों में भी कोई बात निश्चय रुप से नहीं कही जा सकती ।'
-इतना खर्च करने पर भी वहां से ज्यों के त्यों लौट आये तो?
-तो ईश्वर की इच्छा। आपको यह तसकीन हो जाएगी कि इनके लिए मैं जो कुछ कर सकता था। कर दिया ।
4
आधी रात तक घर में प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता रहा। चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्ध फल के लिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवदास उनसे सहमत था । किन्तु उसकी माता इस प्रस्ताव का बड़ी दृढ़ता के साथ विरोध कर रही थी। अंत में माता के धिक्कारो का यह फल हुआ कि शिवदास लज्जित होकर उसके पक्ष में हो गया बाबू साहब अकेले रह गये । तपेश्वरी ने तर्क से काम लिया । पति के सद्भावों को प्रज्वलित करने की चेष्टा की ।ध न की नश्वरता की लोकोक्तियां कहीं इन शस्त्रों से विजय लाभ न हुआ तो अश्रु वर्षा करने लगी । बाबू साहब जल-बिन्दुओं क इस प्रहार के सामने न ठहर सके । इन शब्दों में हार स्वीकार की- अच्छा भाई रोओ मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेश्वरी - तो कब ?
'रुपये हाथ में आने दो ।'
'तो यह क्यों नहीं कहते कि भेजना ही नहीं चाहते?'
भेजना चाहता हूँ किन्तु अभी हाथ खाली हैं। क्या तुम नहीं जानतीं?'
'बैक में तो रुपये है? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?'
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खा जायेंगे और एक क्षण के बाद बोले - बिलकुल बच्चों की सी बातें करती हो। इटली में कोई संजीवनी नहीं रक्खी हुई है जो तुरन्त चमत्कार दिखायेगी । जब वहां भी केवल प्रारब्ध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेंगे । पूर्व पुरुषो की संचित जायदाद और रखे हुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते - डरते कहा- आखिर, आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?
बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले - आधा नहीं, उसको मैं अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती, वह खानदान की मर्यादा और ऐश्वर्य बढ़ाता और इस लगाये हुए धन के फलस्वरूप कुछ कर दिखाता । मैं केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता ।
तपेश्वरी अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई ।
इस प्रस्ताव के छ: महीने बाद शिवदास बी.ए पास हो गया। बाबू चैतन्यदास ने अपनी जमींदरी के दो आने बन्धक रखकर कानून पढ़ने के निमित्त उसे इंग्लैड भेजा । उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये । वहां से लौटे तो उनके अतं: करण में सदिच्छायों से परिमित लाभ होने की आशा थी उनके लौटने के एक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषओं को लिये हुए परलोक सिधारा ।
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चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने सम्बन्धियों के साथ बैठे चिता - ज्वाला की ओर देख रहे थे । उनके नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी । पुत्र-प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ-सिद्धांत पर गालिब हो गया था। उस विरक्तावस्था में उनके मन में यह कल्पना उठ रही थी । सम्भव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता । हाय! मैंने तीन हजार का मुंह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के बाणों से बेध रही थी । रह रहकर उनके हृदय में वेदना की शूल-सी उठती थी । उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता -ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अकस्मात उनके कानों में शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होंने आंख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उन्होंने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे । उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा -किस मुहल्ले में रहते हो?
युवक ने जवाब दिया- हमारा घर देहात में है । कल शाम को चले थे । ये हमारे बाप थे । हम लोग यहां कम आते हैं, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना ।
चैतन्यदास -ये सब आदमी तुम्हारे साथ है?
युवक -हाँ, और लोग पीछे आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहां तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढे पिता की मुक्ति तो बन गई । धन और है किसलिए ?
चैतन्यदास- उन्हें क्या बीमारी थी ?
युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा हो। 'बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढ़ा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे । चित्रकूट हरिद्वार प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे । वैद्यों ने जो कुछ कहा उमसे कोई कसर नहीं की।
इतने में युवक का एक और साथी आ गया। और बोला -साहब, मुंह देखा बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे । इसने रुपयों को ठीकरे समझा ।
घर की सारी पूंजी पिता की दवा दारु में स्वाहा कर दी । थोड़ी सी जमीन तक बेच दी पर काल-बलि के सामने आदमी का क्या बस है।
युवक ने गदगद स्वर से कहा - भैया, रुपया पैसा हाथ का मैल है। कहां आता है, कहां जाता है, मुनष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाऊंगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गयी कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते। हम तो कहते है कि कोई हमारा सारा घर द्वार लिखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे । इसी माया-मोह का नाम जिन्दगानी हैं , नहीं तो इसमें क्या रक्खा है? धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान । बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता । नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति से रहेगी तो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए ये बाते सुन रहे थे । एक-एक शब्द उनके हृदय में शूल के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्म-शून्यता अपनी भौतिकता अत्यन्त भयंकर दिखायी देती थी । उनके चित्त पर इस घटना का कितना प्रभाव पड़ा यह इसी से अनुमान किया जा सकता हैं कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होंने हजारों रुपये खर्च कर डाले उनके सन्तप्त हृदय की शान्ति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।
(सरस्वती - जून, 1920)