पुष्पवती : डोगरी लोक-कथा
Pushpwati : Lok-Katha (Dogri/Jammu)
बहुत समय पहले पहाड़ों की तलहटी में बसे नगर में एक सौदागार रहता था। उसका बड़ा नाम था। नगर के प्रभावशाली लोग उसके मित्र थे। वे उसके कारोबार में उसकी मदद करते थे और वह अपनी चीजें घोड़ों पर लादकर छोटे-छोटे नगरों और आस-पास के क्षेत्रों में भेजा करता। उसकी पत्नी बहुत भली थी। वह लोगों की चहेती थी, क्योंकि उसका स्वभाव बहुत अच्छा था और वह बहुत सुंदर भी थी।
एक दिन सौदागर ने अपनी प्रिय पत्नी से कहा कि वह दूसरे देश की यात्रा करना चाहता है, ताकि उसका कारोबार और बढ़े। पत्नी ने हाँ कर दी। फिर उसने अपने मित्रों से कहा कि वह पहाड़ी क्षेत्र से बाहर जाएगा और व्यापार बढ़ाएगा। अपना सामान भी ले जाएगा और वहाँ की खास चीजें लाकर वहाँ अपने नगर के लोगों में बेचेगा। मित्रों ने भी हाँ कर दी। इस बीच यहाँ कारोबार को चलाने की जिम्मेदारी उसने अपने एक व्यापारी-मित्र को दे दी और कहा कि वह पूरा हिसाब-किताब बनाए रखे, जो भी मुनाफा हो, वह उसकी पत्नी को दिया करे। मित्र मान गया।
एक सप्ताह के बाद सौदागर अपने एक नौकर और घोड़ों पर सामान रखवाकर अपनी यात्रा पर निकल गया। उसकी यात्रा लंबी थी और कठिन भी। खैर, नदी-नालों और दुर्गम रास्तों को पार करता हुआ वह प्रवरसेन के क्षेत्र में पहुँचा, जिसका राज्य नर्मदा तक फैला था। वहाँ व्यापार की असीम संभावनाएँ थीं। वह वहाँ रुका और अपने परिश्रम तथा योग्यता से क्रय-विक्रय के काम में व्यस्त हो कर नाम कमाने लगा। कुछ ही समय में उसने खूब सारा धन कमा लिया। इधर उसका मित्र उसका कारोबार हड़पने के उद्देश्य से षड्यंत्र रचने लगा। वह न तो सौदागर की पत्नी को मुनाफे का पैसा ही देता न कोई हिसाब-किताब रखता। सौदागर की पत्नी ने दीवान के पास जाकर शिकायत की। उससे उसकी पति का मित्र और भी खफा हो गया। उसने सौदागर की पत्नी पुष्पवती को मारने की योजना बनाई, क्योंकि उसके जीवित रहते वह सारा कारोबार हड़प नहीं सकता था। उसने अपने खास नौकर को गुप्त रूप से बुलाकर पुष्पवती को तवी नदी में डुबाने की युक्ति बताई। उसने अपने नौकर से कहा कि जब वह सुबह-सुबह नदी के पास के देवी मंदिर में पूजा के लिए जा रही होगी तो तब वह उसे बाढ़ से उफनती नदी में किसी तरह फेंक दे।
नौकर मौके की तलाश में था और ज्यों ही पुष्पवती मंदिर से आकर घाट पर सूर्य नमस्कार करने लगी तो उसने पीछे से आकर उसे जोर का धक्का दिया। पुष्पवती चिल्लाई। पानी में गिरी और पानी के बहाव के साथ बह चली। एक माँझी सेतुबंध के पास अपनी नौका बाँधने के लिए आ रहा था। पुष्पवती डूबने ही वाली थी कि माँझी ने पानी में तैरते उसके बाल पकड़ लिये। ऊपर खींचा और नाव में रख लिया। शायद पुष्पवती के शरीर के अंदर पानी घुस गया था। वह साँस नहीं ले पा रही थी। माँझी ने बेसुध सी महिला को अपने घर की ओर ले जाना चाहा, ताकि उसका इलाज करा सके। मगर जब उसके हाथों और गले में आभूषण देखे तो समझ गया कि यह महिला जरूर किसी धनवान घर की है। कौन है? लेकिन इसको बचाना तो होगा! माँझी नाव को अपने गाँव की तरफ ले जाने लगा। उसका चप्पू तेज-तेज चलने लगा और गाँव के पास पहुँचते ही उसने नाव किनारे से बाँध दी और कंधे पर उठाकर इस महिला को अपनी झोंपड़ी में ले गया। अपनी पत्नी को पुकारने लगा। उसकी पत्नी भागती-भागती आई।
“कौन है, किसकी लाश उठा लाए हो?” पत्नी ने पूछा।
“न जाने कौन है। मैंने डूबते देखा। पानी में सिर्फ इसके बाल नजर आ रहे थे। मुश्किल से नाव में खींच पाया।”
“इसका मतलब इसके फेफड़ों में पानी भर गया है, बचेगी नहीं।”
“शायद साँस अभी रुकी नहीं है।”
दोनों ने मिलकर उसकी गरदन टेढ़ी करके पानी निकालने की केाशिश की। माँझी की पत्नी, महिला के मुँह में साँस देने लगी। पुष्पवती पुनर्जीवित सी होने लगी। दोनों ने उठाकर उसे बिस्तर पर लिटाया और उसके शरीर को गरम रखने की कोशिश की।
माँझियों की बस्ती में सब जान गए कि एक डूबती महिला को बचाया गया। कुछ दिनों में पुष्पवती स्वस्थ हो गई। उसने माँझी और माँझी की पत्नी को बताया कि वह कौन है और उसके पति का मित्र कैसे-कैसे षड्यंत्र रचने लगा है। इस पर माँझी की पत्नी बोली कि पुष्पवती के पति के लौटने तक उसे उनके साथ ही रहना चाहिए। नगर में जाना सुरक्षित नहीं है। इसलिए पुष्पवती उनके साथ ही रहने लगी। वह उनका धन्यवाद देती थकती नहीं थी। वह उनके काम में हाथ बँटाने लगी। कभी चप्पू ठीक करती, कभी खाना बनाने में सहायता करती और कभी गेहूँ पीसने चक्की लेकर बैठती।
एक दिन वह झोंपड़ी के बाहर चटाई पर बैठकर एक कपड़ा बिछाकर गेहूँ पीस रही थी कि वहाँ से गाँव का सरदार घोड़े पर आया। उसने जब पुष्पवती का सुंदर रूप देखा तो घोड़े से उतर गया और उसके समीप आया।
“तुम यहाँ की तो लगती नहीं हो?”
“हाँ, मैं कहीं दूसरी जगह से आई हूँ।”
“तुमने माँझी से ब्याह किया है क्या?”
“नहीं।”
“तो तुम सरदार की रानी बनोगी?”
उसने उसका हाथ पकड़ लिया और घोड़े पर बिठाने लगा। पुष्पवती चिल्लाई। अंदर से माँझी की पत्नी बाहर आ गई। वह सरदार के पास आई और कहा, “सरदार, इसे छोड़ दीजिए, यह एक भली औरत है।”
“तभी तो ले जा रहा हूँ।” यह कहकर सरदार ने घोड़ा भगाया और कुछ ही देर में ओझल हो गया।
सरदार का घर छोटी पहाड़ी पर था। उसने पुष्पवती को आँगन में बनी एक कोठरी में बंद किया और बाहर से साँकल चढ़ा दी। “कल ही तुम्हारे साथ ब्याह करूँगा और फिर अपनी रानी बना के रखूँगा।” यह कहकर वह बड़े मकान में घुस गया।
कोठरी के भीतर पुष्पवती रोती-सिसकती रही, मगर उसकी सहायता को कौन आ सकता था। संध्या के समय सरदार की एक सेविका मोटे अनाज की खिचड़ी लेकर आई। पुष्पवती ने सोचा, यही मौका है यहाँ से निकलने का। उसने सेविका से कहा, “बहन, प्यास बहुत लगी है। थोड़ा पानी लाकर दोगी।”
नौकरानी पानी लेने दूसरी तरफ गई तो पुष्पवती ने मौका देखकर चुपचाप बिना कोई आहट किए निकलने का रास्ता ढूँढ़ा। वह आँगन से बाहर आई और पेड़ों के पीछे छिपकर पहाड़ी से उतरने लगी। उसका दिल धड़क रहा था कि सरदार ढूँढ़ता हुआ बाहर न आए और उसे दोबारा न पकड़ ले।
उधर प्रवरसेन की नगरी में सौदागर अपनी पत्नी पुष्पवती के लिए आभूषण खरीद रहा था और अपनी आखिरी पोटली खोलकर उसे बेचने के लिए वहाँ के एक व्यापारी के साथ चुकौती कर रहा था।
पूरी रात मंदिर में बिताने के बाद पुष्पवती देर तक पहाड़ियों में चलती रही। न ठोर न ठिकाना। तभी उसे कुछ आवाज सुनाई दी। देखा तो दूर से कुछ घोड़े पहाड़ी रास्ते पर चले आ रहे थे। हाँफती हुई पुष्पवती रुक गई। घोड़ों पर सामान लदा था। घोड़ों को हाँकता हुआ एक व्यक्ति आ रहा था, जब उसने पुष्पवती को देखा तो वह रुक गया। “कहाँ जाना है?” उसने पूछा।
“इस जंगल से बाहर कहीं भी ले चलो। किसी गाँव या बस्ती में।” पुष्पवती ने कहा।
“मुझे यह सामान लेकर तो उधौनगर जाना है। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते शाम हो जाएगी।”
“कोई बात नहीं।”
“क्या तुम मुझ पर विश्वास कर सकोगी?”
“क्यों नहीं! तुम अच्छे आदमी लगते हो।”
“तुम भी भली औरत लग रही हो। मगर दुखियारी सी हो।”
“हाँ!”
“आओ, बैठो इस घोड़े पर। इसकी पीठ पर सामान कम है।”
“ठीक है भाई!”
“तो बहन, मुझे अपनी व्यथा-कथा सुनाओगी? हो सकता है, मैं कुछ मदद कर सकूँगा।”
“क्यों नहीं?”
पुष्पवती घोड़े पर और वह व्यक्ति घोड़े की लगाम पकड़कर पैदल उस सँकरे रास्ते पर ध्यान से जा रहा था और उस स्त्री की व्यथा-कथा सुन रहा था।
श्रमिक घुड़सवार ने घोड़े रोके और एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठकर बाजरे की रोटियाँ पुष्पवती को दीं।
“बहन, इसमें बस ये रोटियाँ ही हैं। मैं यही खाता हूँ। तुम भूखी लग रही हो।”
भूखी पुष्पवती को वे सूखी रोटियाँ किसी दावत से कम न लगीं। उन सूखी रोटियों में स्वाद था और ताकत भी। रोटी खाकर पुष्पवती तृप्त भी हुई और संतुष्ट भी।
“बहन, मैं तो उधौनगर पहुँचकर, सामान उतरवाकर घोड़ों को घुड़साल में रखूँगा। फिर घोड़े वालों के लिए बने विवर में सो जाऊँगा। बाकी घुड़सवार भी वहीं आकर सो जाते हैं, फिर अगले दिन अपने-अपने घरों को चले जाते हैं।”
“उस विश्रामगृह के सिवा वहाँ कोई धर्मशाला नहीं है?”
“वहाँ एक मठ है, जहाँ साधु तथा संन्यासी रहते हैं।”
“तो तुम मुझे वहीं पर छोड़ देना।” यह कहकर वह घोड़े की तरफ आई और दोनों ने आगे की यात्रा प्रारंभ की।
प्रवरसेन के क्षेत्र से निकलने की तैयारी में जुटा सौदागर बहुत ही उत्सुक था कि उसे अब वापिस घर जाना है और अपनी पत्नी से मिलना है। उसने सोने की मोहरें एक थैली में रखीं। रेशम और पाट के कीमती वस्त्र अलग से रखे तथा वहाँ के व्यापारी को धन्यवाद देता हुआ अगले दिन सुबह-सुबह अपने देश लौटने की तैयारी करने लगा।
मठाधीश ने एक संन्यासिन से कहा कि वह पुष्पवती को सभी नियम बताए और अपने सदन में ले जाए, जहाँ और भी संन्यासिनें रहती हैं। पुष्पवती संन्यासिन के साथ-साथ मठ के साथ बने मकान में गई। उसे वहाँ सभी स्त्रियाँ दीपक की रोशनी में कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ती हुई नजर आईं। संन्यासिन ने पुष्पवती को गेरुए वस्त्र पहनाए और एक विशाल कक्ष में बाकियों के साथ रहने की जगह दे दी। प्रशिक्षुणियाँ उसी कक्ष में सोतीं और ध्यान करती थीं। बहुत हिचहिचाकर पुष्पवती ने गेरुआ वस्त्र पहने थे और ध्यान व ज्ञान की बातें समझने की कोशिश की थी। परंतु कुछ ही दिनों में उसे तत्त्वज्ञान, आत्मा और जगत् के विषय में जानने की इच्छा हुई।
प्रवरसेन की नगरी से निकला हुआ सौदागर जब पाँच सौ कोस की यात्रा के बाद अपने घर पहुँचा तो वहाँ उसने नए ही लोग देखे। न उसकी पत्नी, न उसका कोई नौकर। उसका सारा कारोबार और उसका घर उसके मित्र ने हड़प लिया था। सौदागर को अपनी पत्नी पुष्पवती की चिंता सताने लगी। वह कहाँ और कैसे होगी, यह कौन बताता? उसने कुछ सोने की मोहरों से एक नया घर खरीदा। जिस नौकर को अपने साथ ले गया था, उसे घर में रखा और जो कीमती चीजें अपने साथ लाया था, उन्हें सँभाल के रखा और फिर पुष्पवती को ढूँढ़ना शुरू किया। उसने अपने पड़ोसियों से, रिश्तेदारों से और कुछ खास मित्रों से पूछा तो पता चला कि जब वह देवी के मंदिर गई थी, तब कोई ऐसी घटना घटी होगी कि जिसका उन्हें कोई ज्ञान नहीं, क्योंकि वह मंदिर से लौटी ही नहीं।
सौदागर देवी मंदिर के पुजारी से मिला। पुजारी ने भी कहा कि पिछले आठ महीनों से वह मंदिर आई ही नहीं है, मगर उसे विश्वास है कि वह जीवित है। पुजारी ने उसे उत्तर दिशा में जाकर ढूँढ़ने के लिए कहा। इसलिए सौदागर त्रिकुटा की पहाड़ियों को पार करता हुआ जय घाटी में पहुँचा और किसी अनजान स्त्री के बारे में स्थानीय लोगों से पूछता रहा, मगर कोई कुछ न बता सका।
इधर सौदागर के नौकर को अपने मालिक के मित्र का वही सेवक मिला, जिसने पुष्पवती को नदी में धकेला था। उस सेवक ने सौदागर के नौकर को सबकुछ बता दिया और यह भी बताया कि वह पश्चाताप की अग्नि में जल रहा है। उसे ग्लानि और अनुताप ने अंदर ही अंदर भस्म कर डाला है, क्योंकि उसने एक निर्दोष स्त्री को बिना कारण अपने लालची मालिक के कहने पर नदी में डुबोया था।
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सौदागर उधौनगर पहुँचा। अब वह इतना निराश हो गया था कि उसने निश्चित किया कि कल वह इस क्षेत्र से निकल जाएगा। वह एक पेड़ के नीचे बैठा विश्राम कर रहा था। उसके पास धन था, मगर मन की शांति नहीं थी। वह अपनी पत्नी को ढूँढ़ते हुए थक गया था। गेरुआ वस्त्रों में एक टोली वहाँ से गुजर रही थी। एक भिक्षुक सामने आया और भिक्षा का पात्र सामने किया। सौदागर ने चाँदी का एक सिक्का उसके पात्र में डाला। भिक्षुक ने कहा, इसका वह क्या करेगा? कुछ अन्न, फल इत्यादि है तो दे दे। सौदागर ने कहा, वह तो खुद भूखा है, अन्न कहाँ से लाएगा। इस पर भिक्षुक ने उसे मठ का रास्ता दिखाया और भिक्षुकों की टोली भिक्षा पात्र लिये दूसरी दिशा में चली गई।
मठ के पास पहुँचते ही सौदागर ने घोड़े को बाहर बाँधा और मठाधीश के पास जाकर दंडवत् प्रणाम किया। मठाधीश ने कहा, “वत्स, तुम भूखे हो!”
“जी महाराज!”
मठाधीश ने एक संन्यासी को बुलाया और कहा कि वह सौदागर को अच्छे से भोजन और विश्राम कराए। सौदागर प्रणाम करके संन्यासी के साथ बाहर की एक पर्ण कुटीर में गया।
दोपहर के बाद जब सौदागर बाहर बँधे अपने घोड़े की रस्सी खोल रहा था, तब पुष्पवती ने अपने पति को देख लिया। समझ गई कि उसका पति उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ तक आया है। वह भागती हुई संन्यासिन के पास गई और उसे बताया कि उसका पति बाहर है। संन्यासिन ने उसी समय एक भिक्षुक को मठ के द्वार के पास भेजा और कहा कि आगंतुक को जाने न दे।
भिक्षुक ने सौदागर को बताया कि संन्यासिन ने उसे रुकने को कहा है। भिक्षुक उसे वापिस पर्ण कुटीर में ले आया। संन्यासिन पुष्पवती को और भिक्षुक सौदागर को मठाधीश के पास ले आई। सौदागर ने जब अपनी पत्नी को गेरुआ वस्त्रों में देखा तो घबराया। सोचने लगा कि अब शायद वह उसके साथ नहीं आएगी। वह अपने भाग्य को कोसने लगा कि उसका कारोबार गया, उसकी पत्नी भी उससे बिछुड़ गई। तभी मठाधीश मुसकराते हुए सौदागर से बोले, “वत्स, चिंता में मत पड़ो। कुछ नहीं खोया है। ईश्वर गुणातीत है। उसके कारण ही तथा उसकी कृपा से तुम्हारी सद्गुणी पत्नी इस स्थान तक पहुँची है। यदि यह बाहर रहती तो न जाने इसे क्या-क्या संकट झेलना पड़ता। इसने ज्ञान और ध्यान की बातें सीखी हैं। ऐसा नहीं है कि ईश्वर का स्मरण केवल धर्म-स्थलों पर ही हो। यहाँ नियम है, अनुशासन है, जो साधक के लिए अच्छा रहता है, मगर प्रभु को तो गृहस्थी धर्म निभाते-निभाते भी याद किया जा सकता है। इस कारण मैं तुम दोनों को आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा गृहस्थ जीवन सुखमय हो।” मठाधीश का आशीर्वाद पाकर वे दोनों वहाँ से निकल आए।
घर पहुँचते ही जब सौदागर के नौकर ने अपनी मालकिन को देखा तो उसे यकीन ही नहीं हुआ। उसने उनको सेवक से मिलने की बात बताई। सेवक को पकड़ा गया और कोतवाल के पास ले जाया गया। उसने कोतवाल को सब कुछ साफ-साफ बताया। सौदागर के मित्र को भी कोतवाल ने पकड़कर फिर दोनों को राजा के पास प्रस्तुत किया। राजा ने दोनों को मृत्युदंड की सजा सुनाई। सौदागर को उसका पुराना घर और उसका कारोबार लौटाया गया।
पुष्पवती अपने पति के साथ वापिस अपने पुश्तैनी घर में आ गई। नौकरों और रिश्तेदारों ने उनका स्वागत किया। सौदागर ने घर में प्रवेश करने से पहले सात घोड़ों पर अनाज, दालें इत्यादि लदवाकर अपने चहेते नौकर को इस सामान के साथ उधौनगर के मठ में भेजा और कहा कि उस भिक्षुक को ढूँढ़ लेना, जिसने भिक्षा माँगी थी। उसे कहना कि तब मेरे पास अन्न था ही नहीं तो मैं भिक्षा-पात्र में क्या डालता। नौकर ने अपने मालिक के आदेश का पालन करते हुए उधौनगर की ओर प्रस्थान किया।
उसके बाद पुष्पवती अपने पति के साथ अपने घर में सुखी जीवन बिताने लगी और वे हँसते-खेलते अपना जीवन धर्मशीलता के साथ व्यतीत करते रहे। कभी-कभी उधौ नगर जाते और पुण्य पुरुष का आशीर्वाद प्राप्त करते। अब उनका चहेता नौकर भी अपनी पत्नी के साथ उनके ही समृद्ध परिवार में रहने लगा। इस प्रकार स्नेह और नैतिकता का आचरण निभाते हुए वे तब तक जीवित रहे, जब तक उनके पोते-पोतियों के भी विवाह नहीं हो गए।