पुष्पित होता वृक्ष : कर्नाटक की लोक-कथा
Pushpit Hota Vriksh : Lok-Katha (Karnataka)
किसी शहर में एक राजा था। उसकी तीन संतानें थीं। वे क्रम से एक लड़का और दो लड़कियाँ थीं। बड़ी बेटी की शादी हो चुकी थी।
उसी शहर में एक बुढ़िया रहती थी। उसके भी दो बेटियाँ थीं। वह बुढ़िया छोटे-छोटे काम कर, उस कमाई से लड़कियों का पालन कर रही थी। लड़कियाँ अब जवान हो गई थीं। एक दिन छोटी लड़की ने अपनी दीदी से कहा, "दीदी, माँ को रोज दूसरों के यहाँ नौकरी कर हम लोगों को पालने में बहुत कष्ट झेलना पड़ता है। मैं उनकी मदद करना चाहती हूँ। मैं फूलों का पेड़ बन जाऊँगी। तुम वे फूल चुनकर बाजार में बेचकर पैसे कमा लेना।"
छोटी बहन की बात सुनकर बड़ी बहन को आश्चर्य हुआ। पूछा, “अरी, बता, तू कैसे फूलवाला पेड़ बनेगी?"
"वह सब मैं तुम्हें बाद में कहूँगी। तुम सबसे पहले घर में झाड़-पोंछा कर साफ करो। फिर नहा लो। कुएँ से दो घड़े पानी भरकर लाओ, मगर ध्यान रखना, अपने नाखूनों से भी उसका पानी नहीं छूना।"
छोटी बहन की बातों को बड़ी बहन ने बड़े ध्यान से सुना। झाड़-पोंछा कर उसने सारा घर साफ किया, नहाई, फिर छोटी बहन के निर्देश के अनुसार कुएँ से दो घड़ा पानी भरकर ले आई।
उनके घर के आगे एक बड़ा पेड़ था। उसके नीचे की जगह बड़ी बेटी ने झाड़ लगाकर साफ कर दी। तब छोटी बहन ने कहा, "दीदी, मैं अब इस पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान करूँगी। तुम ऐसा करना कि इस घड़े का पानी मेरे शरीर पर उड़ेलो। तब मैं पुष्पित वृक्ष में परिवर्तित हो जाऊँगी। तुम जितने चाहो, उतने फूल तोड़ लेना, मगर याद रखना, पेड़ की कोई भी डाली तोड़ना नहीं, पत्ते नहीं तोड़ना। फूल चुन लेने के बाद मेरे ऊपर, यानी पेड़ पर एक घड़ा भर पानी डाल देना। तब मैं फिर लड़की बन जाऊँगी।"
छोटी बहन ने अब पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान किया। दीदी ने उसके ऊपर पानी डाला। वह फूलों से भरा पेड़ बन गई। दीदी ने जरा भी चोट पहुँचाए बिना फूल तोड़े। दो टोकरियाँ फूलों से भर गईं। फिर उस पर उसने घड़ा भर पानी उड़ेला। पेड़ अब फिर से लड़की बन गया। पेड़ की जगह पर छोटी बहन खड़ी थी। उसने अपने बाल झाड़कर पानी की बूंदों को गिरा दिया। वे दोनों फूलों की टोकरियाँ उठाकर घट लौटीं। फूलों की खुशबू चारों तरफ फैल रही थी। दोनों ने मिलकर फूलों से मालाएँ बनाईं।
दीदी ने अपनी बहन से पूछा कि इन फूलों को अब किसके पास जाकर बेचें। छोटी बहन बहुत चतुर थी। उसने अपनी दीदी की इस चिंता को भी दूर कर दिया। उसने सलाह दी कि इन फूलों को ले जाकर राजमहल में बेचा जा सकता है। दोनों इस बात से सहमत थीं, तो वे फूलों की माला राजमहल के आगे ले जाकर आवाज देने लगीं कि फूल! ताजा फूल! कोई यह फूल खरीदना चाहे तो -फूल बेच रहे हैं, हम फूल! किसको चाहिए फूल! फूल!
इन लड़कियों की आवाज राजकुमारी के कमरे को पार कर गई। तो उसने अपनी माँ को बुलाकर कहा, "माँ, कोई फूल बेच रही है। उसकी खुशबू यहाँ तक पहुँच रही है। खरीद लो न." रानी ने बात मानकर नौकरानी से कहकर उन दो लड़कियों को बुलाकर फूल खरीदे, पूछा, "कितने पैसे देने हैं?"
जवाब में बड़ी लड़की कहती है, "हम गरीब लोग हैं। आपको जितना देने का मन करे, दीजिए।" उन लोगों ने खूब पैसा देकर इन लड़कियों से फूलमालाएँ खरीद ली। बुढ़िया घर लौटी। छोटी लड़की ने बड़ी से कहा, "दीदी, पैसों को कहीं छिपाकर रख दो। अभी माँ से कुछ मत कहना।"
इस तरह वे रोज फूल निकालती और बेच आती थीं। उनके पास काफी पैसे जमा हो गए। एक दिन दीदी ने पूछा, “अब तो हमारे पास काफी पैसे जमा हो गए हैं, क्या हम माँ को बता दें?" छोटी ने कहा, "नहीं, अभी नहीं। माँ को गुस्सा आ गया तो हम कहाँ जाएँगी? गुस्से में वह हमारी पिटाई भी कर सकती हैं।"
पैसे जमा होते गए और दोनों लड़कियों का लालच भी बढ़ता गया।
एक दिन राजकुमार ने इन फूलों को देखा। उसने इससे पहले कभी इन फूलों को नहीं देखा था। फूलों की खुशबू भी बहुत आकर्षक थी। उसने सोचा कि ये फूल कहाँ से आते हैं, यहाँ कौन लाता है, किस पेड़ से फूल निकलते हैं? इस सोच के साथ उसने एक बार इन लड़कियों को फूल लाते हुए देखा। फिर उनका पीछा कर उनके घर तक गया, मगर इन फूलों का पौधा या पेड़ उसे कहीं भी दिखाई न दिया। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। बहुत सोचने पर भी उसे कोई समाधान नहीं मिल सका।
अगले दिन तड़के ही वह बुढ़िया के घर तक जाकर उसके आगे जो एक पेड़ था, उसमें छिपकर गया। उस दिन भी लड़कियों ने पेड़ तले की जमीन झाड़ लगाकर साफ कर दी। फिर पहले जैसे ही छोटी लड़की फूलों का पेड़ बन गई। बड़ीवाली ने फूल चुने, फिर पेड़ लड़की में बदल गया। राजकुमार ने यह सब अपनी आँखों से देखा।
राजकुमार सीधे राजमहल लौट आया, बिस्तर पर पड़ गया। राजा-रानी ने आकर उसकी सेहत के बारे में पूछताछ की। मंत्री का बेटा उसका मित्र था। उसने भी आकर पूछा। माता-पिता के आगे जो बात छिपाई थी, मित्र के आगे उसे नहीं छिपा सका। सारी घटना का उसके सामने विस्तार से वर्णन किया।
मंत्री-कुमार ने राजा के पास जाकर सारी बात बता दी। राजा ने मंत्री-कुमार को बुढ़िया को बुलाने भेजा। बुढ़िया को तो आगे-पीछे कुछ भी मालूम नहीं था। वह डर गई। काँपते-काँपते राजा के पास गई। राजा ने उससे शांति से बात की। अपने बेटे के लिए उसने बुढ़िया की लड़की को माँगा, कहा, "तुम्हारे दो बेटियाँ हैं। उनमें से एक की हम अपने बेटे के साथ शादी रचाएँगे?” बुढ़िया अब और ज्यादा घबरा गई। उसने सोचा कि राजा को मेरी बेटियों के बारे में कैसे पता चला? बहुत मुश्किल से काँपती आवाज में उसने जवाब दिया, "जी, प्रभु, मैं गरीबन, अपनी बेटी को आपके घर देने में मैं कैसे इनकार कर सकती हूँ।"
राजा ने तुरंत ही एक चाँदी की थाली में पान-पत्ता और नारियल देकर सम्मान किया और शादी तय कर दी। फिर बुढ़िया घर लौटी। घर लौटते ही उसने अपने हाथ में एक झाड़ ली, उससे बेटियों को मारकर डाँटा, “कमअक्कल, बता, तुम दोनों कहाँ गई थीं? राजा ने तुम लोगों के बारे में पूछा है। बता, तुम दोनों रोज कहाँ जाती रही हो?" लड़कियाँ दिग्भ्रमित थीं। उनकी समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो रहा है ? सिसककर पूछा, "अम्मा, हमें क्यों मार रही हो? हमें गाली क्यों दे रही हो?" बुढ़िया ने कहा, "मैं और किसको मारूँ बता, तुम दोनों कहाँ गई थीं, तुम्हारे बारे में राजा को कैसे पता चला?" बोलते-बोलते बुढ़िया का गुस्सा बढ़ता ही गया। घबराई हुई लड़कियों ने अपनी माँ के आगे सारा राज खोल दिया। उन दोनों ने सोचा, माँ चकित हो जाएगी, यह सोचकर सारी जमा पूँजी बुढ़िया के आगे उन्होंने रख दी, मगर बुढ़िया शांत न हुई। उसका पारा चढ़ता ही गया। उसने पूछा, "घर में मेरे रहते तुमने ये सब कैसे-क्यों किया, क्या किसी ने कभी इस तरह की कहानी सुनी होगी? मेरे आगे पेड़ बनकर दिखा तो मैं मानती हूँ।"
चीखकर बुढ़िया ने दोनों को फिर से मारा। बुढ़िया को शांत कराने की कोशिश में असफल होकर छोटी लड़की को उसका पेड़ बनना ही पड़ा।
अगले दिन राजभट (दूत) दुबारा बुढ़िया के पास आए। दूत राजा का संदेश लेकर आए थे। भटों ने उन्हें राजमहल आने का निमंत्रण दिया।
राजमहल पहुँचकर बुढ़िया ने राजा से पूछा, “प्रभु, अब मुझसे क्या चाहते हो?"
राजा ने विवाह का दिन तय करने के लिए बुढ़िया का सहयोग चाहा। मगर बुढ़िया ने इतना ही कहा, "प्रभु की जैसी इच्छा होगी। वे जब चाहें, शादी रखवा लें।"
शादी की तैयारियाँ हुईं। आकाश जैसी बड़ी-विस्तृत रंगोली लगाई गई। सभी रिश्तेदार और प्रियजन आए। शुभ मुहूर्त में शादी का मंडप सज गया। पेड़ बननेवाली लड़की से राजकुमार की शादी हुई। शादी हो गई। इन पति-पत्नी को एकांत में रहने देकर सभी लोग अपने-अपने स्थान के लिए निकल गए, मगर राजकुमार दो दिनों तक अपनी पत्नी से नहीं बोला। अकेला बैठा रहा। कुछ नहीं, वह चाहता था कि पत्नी पहले बातचीत शुरू करे और लड़की चाहती थी कि उसका राजकुमार बातचीत शुरू करे।
फिर तीसरे दिन रात को लड़की को चिंता हुई कि अपना राजकुमार बात ही नहीं कर रहा है। तब उसने इससे शादी क्यों की? फिर उसने उससे (राजकुमार) पूछ ही लिया-
"किस खुशी में तुमने मेरे साथ शादी की?"
वह भी तो यही चाहता था कि वह पहले मुँह खोले, जवाब में उसने कहा, "तुम अगर मेरी बात मानकर काम करोगी, तो ही मैं तुमसे बात करूँगा।"
"तुमसे किसने कहा कि मैं तुम्हारी बात नहीं मानूँगी, कहो, तुम क्या चाहते हो, मुझे तुम्हारे लिए क्या करना है?"
"क्या तुम नहीं जानती कि फूल खिलनेवाला पेड़ कैसे बनना है, मैं देखना चाहता हूँ कि तुम फूल खिलता पेड़ कैसे बनोगी? उन फूलों पर मैं लेटूँगा। फूलों की चादर बनाकर सोऊँगा। वह बहुत खुशी देनेवाला होता है।"
"जी, मैं भुतहा नहीं, देवता नहीं, मैं भी औरों जैसे ही एक सामान्य जवान लड़की हूँ। क्या इनसान कभी पेड़ बन सकता है?"
"इस तरह झूठ बोलकर धोखा देना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। उस दिन सुंदर सा वृक्ष बनते मैंने तुम्हें देखा है। तुम मेरे लिए पेड़ नहीं बनोगी तो बताओ, किसके लिए पेड़ बनोगी?" उसने उसे छेड़ा।
लड़की ने अपनी साड़ी के आँचल से अपने आँसू पोंछे, फिर कहा, “आप गुस्सा न हों। आप इतना जोर दे रहे हैं तो मैं जरूर आप जो चाहेंगे, वह बनूँगी। अब दो घड़ा पानी भरकर ले आओ।" राजकुमार पानी ले आया। लड़की ने पानी को मंत्र पूरित किया। राजकुमार ने बात को गोप्य बनाने के लिए खिड़कियाँ, दरवाजे आदि सब बंद किए।
लड़की ने कहा, “आप मन चाहे फूल चुन लेना, मगर याद रखना, किसी भी हालत में पेड़ की किसी भी डाली को तोड़ना फोड़ना नहीं।"
फिर वह कमरे में ध्यान लगाकर बैठ गई। बाकी सारा क्रम उससे सीखकर राजकुमार ने ठीक समय पर पानी उड़ेला। वह फूल खिलता पेड़ बन गई। कमरे में फूलों की खुशबू फैल गई। उसने खूब फूल चुन लिये। फिर पेड़ के ऊपर घड़े से पानी उड़ेला। तब फिर से लड़की बाल झाड़कर उठ बैठी।
वह फूल फैलाकर उनका गद्दा बनाकर लेट गया। कुछ दिनों तक उन दोनों के बीच यही चलता रहा। रोज सुबह वह मुरझाए फूलों को खिड़की के बाहर फेंकता रहा। अब सूखे फूलों का इतना बड़ा ढेर बन गया कि वह एक पहाड़ सा दिखने लगा।
एक दिन राजकुमार की छोटी बहन ने यह ढेर देखा और अपनी माँ से जाकर कहा, "माँ, देखो, भैया-भाभी बहुत सारे फूल लगाकर सुबह होते ही खिड़की से बाहर फेंक देते हैं, मगर देखो, मुझे आज तक एक फूल भी नहीं दिया।" सुनकर रानी माँ ने कहा, "चिंता मत कर बेटी, मैं उससे कहकर तुम्हें भी फूल दिला दूंगी।"
एक दिन की बात है। राजकुमार किसी काम से बाहर गया हुआ था। राजकुमारी ने किसी तरह राज जान लिया। अपनी सहेलियों से उसने कहा, "हम सब पारिजात वृक्ष के पास जाकर खेलेंगा। अपनी भाभी को भी साथ लेकर चलेंगी। वह फूलोंवाला पेड़ बनती है। तुम सब मेरे साथ चलोगी तो तुम सबको खुशबूदार फूल दूंगी।"
फिर उसने भाभी को अपने साथ ले जाने के लिए माँ की अनुमति माँगी।
रानी ने बेटी को तो स्वीकृति दे दी, कहा, "कौन मना करता है, जाओ," बहू को साथ भेजनको लेकर उसने कहा, "अपने भैया से स्वीकृति लेकर जाओ।" तब तक राजकुमार भी वहाँ आ गया। उसने अपने भैया से कहा, "भैया, हम सब सहेलियाँ पारिजात पेड़ के नीचे खेलने जा रही हैं। मैं भाभी को भी साथ ले जाना चाहती हूँ, भेज दो न?" राजकुमार ने कहा, “मेरी बात मानकर ले जाना कोई बड़ी बात नहीं। तुम्हें माँ की स्वीकृति लेनी होगी। फिर राजकुमारी रानी के पास गई। यह क्या बात है माँ ? मुझे तुम स्वीकृति नहीं देती, भैया के पास भेज देती हो। उधर भैया तुम्हारे पास भेज देता है। मैं भी तो तुम्हारी बेटी हूँ। गेंद तो नहीं। तुम्हें बेटी से ज्यादा बहू प्यारी हो गई।"
तब रानी ने कहा, “बेटी, इस तरह कठोर बातें नहीं कहते। अपनी भाभी को अपने साथ ले जाओ। उसे बहुत ध्यान से रखना। शाम को उसे सुरक्षित ले आना।" रानी ने बेमन से ही उसे स्वीकृति दी। वे सब लड़कियाँ पारिजात के पेड़ के पास गईं। बड़े-बड़े पेड़ों पर रस्सी बाँधकर शाम होने तक झूला झूलती रहीं। राजकुमारी ने फिर एकदम खेल बंद कर दिया। अपनी सहेलियों को उसने अंदर बुलाया। अपनी भाभी को बुलाकर उसने कहा, "भाभी, सुना है कि तुम फूलोंवाला पेड़ बनती हो। देखो न, यहाँ मेरी सहेलियों में से किसी के बालों में फूल नहीं हैं।"
भाभी ने भी चिढ़कर जवाब दिया, "ऐसा तुमसे किसने कहा, मैं तुम जैसी ही इनसान हूँ कि नहीं? पागल जैसी बात मत करो।"
राजकुमारी ने उससे कहा, "देख रही हो न, मेरी किसी भी सहेली के बालों में फूल नहीं हैं। तुम हमारे लिए फूलोंवाला पेड़ बनने को तैयार नहीं। सिर्फ अपने प्रिय के लिए ही तुम पेड़ बनोगी न?"
"छिह ! तुम भी कैसी लड़की हो? मैंने तुम्हारे साथ आकर गलत किया।” इतना कहकर भी राजकुमारी के चुप न होने पर वह पेड़ बनने के लिए तैयार हो गई।
दो घड़ों में पानी मँगवाया। मंत्र जाप किया। लड़कियों को सावधान करते हुए उसने पानी डालने का सारा क्रम बताया। फिर उन्हें नहाने के लिए भी कहा। लड़कियों ने उसके मार्गदर्शन की तरफ ध्यान नहीं दिया।
वह जब ध्यान करती बैठ गई तो लड़कियों ने मनचाहे तरीके से उस पर पानी उड़ेला। इसका यह नतीजा निकला कि वह अधूरा पेड़ बन सकी।
तब तक शाम हो चुकी थी, बिजली कड़कने के साथ बारिश भी शुरू हो गई। फूल चुनते हुए जल्दी में लड़कियाँ सावधान नहीं रहीं। पत्ते भी तोड़ दिए, फूल बालों में लगाकर लौटने की उन्हें जल्दी थी तो पेड़ की डालियों को भी तोड़ दिया। घर लौटने की आतुरता में दूसरे घड़े का पानी भी शांति से नहीं डाला। वे अपने-अपने घर की तरफ भाग खड़ी हुईं। राजकुमार की पत्नी फिर से इनसान बनी, मगर उसके इनसान का वह आकार ही नहीं था। अब उसके हाथ-पाँव नहीं थे। बदन पर घाव थे।
बारिश के बहते पानी में किसी तरह मोरी में उसका शरीर सरककर गिर पड़ा। पानी बह रहा था। उसके बचने की कोई उम्मीद न बची थी।
एक मोड़ पर एक चौड़े पत्थर से टकराकर उसका बहना रुक गया, वह बच गई। घर तो दूर ही रह गया। अगले दिन सुबह उधर से कपास की सात-आठ गाड़ियाँ गुजर रही थीं। गाड़ीवालों को मोरी में गिरे आधे से मनुष्य की आकृति से कराह सुनाई पड़ी। पहली गाड़ीवाले ने दूसरी गाड़ीवाले से कहा कि देखो, पता लगाओ, यह कैसी आवाज है ? दूसरे गाड़ीवाले ने जवाब में कहा, "नहीं, नहीं भैया, वह तो हवा की आवाज होगी या कौन जाने कोई वेताल होगा?"
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इतना बताकर वह ध्यानस्थ होकर बैठी। एक घड़े का पानी उस पर डालने से वह पेड़ बन गई, पर पेड़ की शाखाएँ टूट चुकी थीं। पत्ते फटे थे। उसने बड़ी सावधानी से उन्हें सँजोया। फिर उसने धीरे से दूसरे घड़े का पानी उस पर उड़ेला। तब वह फिर से पहले जैसी ही युवती बन गई। वह उठ खड़ी हुई और अपने बालों पर गिरे पानी को झाड़ा। पति के चरण स्पर्श किए।
उसके बाद वह महल के अंदर गई। रानी भाभी को जगाकर उन्हें प्रणाम किया। रानी दिग्भ्रमित हुई, मगर उसने अपनी आपबीती कही। रानी खुश हो गई। आनंदाश्रुओं के साथ उसको गले लगाया। पति-पत्नी दोनों का राजोपचार कर स्वागत किया। वहाँ पर वे दोनों कुछ सप्ताहों तक सुख से रहे, फिर रानी ने खूब सारे उपहार देकर उन्हें वापस घर भेजा।
बहुत दिनों से राजा अपने बहू-बेटे को तलाश रहे थे। अब इनके लौटने से बहुत खुश हो गए। राजमहल के फाटक पर इनका धूमधाम से स्वागत किया गया।
इन दोनों के साथ घटी घटना से कुपित होकर राजा ने अपनी छोटी बेटी को जलते चूने के गड्ढे में डालकर दंडित किया। जिसने भी इसे देखा, यही कहा, "अपराध का सही दंड यही है।"
(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)