पुश्किन के गद्य पर एक दृष्टि
Pushkin Ke Gadya Par Ek Drishti
कथा - साहित्य का सृजन महाकवि पुश्किन के कृतित्व के विकास का नया चरण था ।
तीसरे दशक के मध्य में पुश्किन गद्य की ओर उन्मुख हुए । १८२७ में उन्होंने 'पीटर महान का सेवक' ऐतिहासिक उपन्यास लिखना आरम्भ किया जो अधूरा ही रह गया ।
तीसरे दशक के अन्त में उन्होंने १८१२ के महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध और १८२५ के दिसम्बरवादियों के विद्रोह के विषय से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित कई गद्य रचनाओं के अंश लिखे और पाण्डुलेख तैयार किये ।
१८३० में पुश्किन ने बोल्दीनो गांव में एक के बाद एक पांच लम्बी कहानियां लिखीं और उन्हें 'बेल्किन की कहानियां' शीर्षक के अन्तर्गत सूत्रबद्ध किया । रूसी साहित्य में पुश्किन ही ऐसे पहले लेखक थे जिन्होंने रूसी लोगों की विभिन्न सामाजिक श्रेणियों के जीवन और रहन-सहन का चित्रण आरम्भ किया। भूदासों की स्थिति की ओर कवि ने विशेषतः बहुत ध्यान दिया । जीवन के अन्तिम वर्षों में उनके प्रचारलेखों तथा कलात्मक गद्य-रचनाओं – 'गोर्यूखिनो गांव की कहानी' 'दुब्रोव्स्की', 'कप्तान की बेटी' आदि में किसानों का विषय उनके कृतित्व का मुख्य विषय बन गया ।
अत्यधिक स्पष्टता, अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता और यथातथ्यता, अलंकृत करनेवाले किसी भी प्रकार के रूपकों और विशेषणों का सर्वथा अभाव, जल्दी से बढ़ता हुआ कथानक - ये हैं पुश्किन की शैली के यथातथ्यता और संक्षिप्तता - गद्य के ये दो प्रथम गुण मुख्य लक्षण । हैं । गद्य विचारों, और अधिक विचारों की मांग करता है - उनके बिना अभिव्यक्ति के अधिकतम सौन्दर्य से भी कोई बात नहीं बनेगी," पुश्किन ने लिखा है।
रूसी साहित्य के महान संशोधक पुश्किन यथार्थवादी गद्य के जनक बने ।
दिवंगत इवान पेत्रोविच बेल्किन की कहानियां
पुश्किन ने ये कहानयां १८३० की पतझर में बोल्दीनो गांव में लिखीं। इनमें से पहली कहानी 'ताबूतसाज़' ९ सितम्बर को, उसके बाद १४ सितम्बर को 'डाक-चौकी का मुंशी', २० सितम्बर को 'प्रेम - मिलन', १२ और १४ अक्तूबर को 'पिस्तौल का निशाना', और २० अक्तूबर को 'बर्फ़ीली आंधी' लिखी गयी। ९ दिसम्बर को पुश्किन ने “सर्वथा गुप्त रूप से" यह सूचित किया कि उन्होंने “पांच गद्य - कहानियां" लिखी हैं । १८३१ के अप्रैल में कवि ने ये कहानियां मास्को में पढ़कर सुनायीं । पुश्किन ने अपने नाम के बजाय कल्पित "दिवंगत बेल्किन" के नाम से इन्हें प्रकाशित करवाने का निर्णय किया और 'सम्पादक की ओर से' भूमिका भी इन कहानियों के साथ जोड़ दी और लेखन - तिथियों वाला क्रम बदलते हुए 'पिस्तौल का निशाना' तथा ' बर्फ़ीली आंधी' को संग्रह के आरम्भ में स्थान दिया ।
ये कहानियां १८३१ के अक्तूबर के अन्त में प्रकाशित हुईं। पुश्किन के नाम से १८३४ में छपीं ।
हुक्म की बेगम
यह लघु-उपन्यास १८३३ की पतझर में बोल्दीनो में लिखा गया । पुश्किन के समकालीनों के कथनानुसार इस रचना का मुख्य ताना-बाना कल्पित नहीं है। बूढ़ी काउंटेस मास्को के गवर्नर-जनरल मीत्री ब्लादी- मिरोविच की मां नताल्या पेत्रोव्ना गोलीत्सिना है जिसने सचमुच ही पेरिस में उस ढंग का जीवन बिताया था जैसा कि पुश्किन ने चित्रित किया है। उसके पोते गोलीत्सिन ने पुश्किन को बताया कि एक बार वह जुए में हार गया और दादी से पैसे मांगने के लिये उसके पास आया । उसने पैसे तो नहीं दिये, मगर उसे तीन पत्ते बता दिये ... "पोते ने पत्ते चले और जीत गया। आगे का कथानक मनगढ़न्त है ।"
पुश्किन के ही कथनानुसार यह लघु उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुआ - "मेरी 'हुक्म की बेगम' का बड़ा चलन है। खिलाड़ी तिक्की, सत्ती और इक्के पर दांव लगाते हैं ।"
कप्तान की बेटी
चौथे दशक के आरम्भ से पुश्किन ने किसानों के विद्रोह की विषय- वस्तु में विशेष रुचि ली। इस विषय पर चिन्तन करते हुए येमेल्यान पुगाचोव ( १७४४ - १७७५ ) के विद्रोह की ओर उनका ध्यान गया । कवि के मस्तिष्क में पुगाचोव के विद्रोह और कुलीन अनुयायी के बारे में उपन्यास लिखने के विचार ने जन्म लिया । जनवरी १८३३ में पुश्किन ने उपन्यास की पहली योजना तैयार की। शुरू में उन्होंने एक वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति मिखाईल अलेक्सान्द्रोविच श्वानविच को उपन्यास का नायक बनाना चाहा । श्वानविच ग्रेनादेर रेजिमेंट में अफ़सर था, पुगाचोव के साथ हो गया था और बाद में उसे साइबेरिया में निर्वासित कर दिया गया था ।
पुश्किन ने ऐतिहासिक उपन्यास ' कप्तान की बेटी' और वैज्ञानिक ग्रन्थ 'पुगाचोव के विद्रोह का इतिहास' पर एकसाथ काम करते हुए लेखागारों की सामग्री का अध्ययन किया और कभी विद्रोह की लपेट में आनेवाले स्थानों पर जाकर साक्षियों से बातचीत की ।
उपन्यास की प्रारम्भिक योजना में बहुत काफ़ी परिवर्तन हुआ । पुगाचोव के विद्रोह का विषय अधिकाधिक सशक्त होता गया और साथ ही इसकी “रोमानी घटना" - उपन्यास के नायक और दुर्गपति की बेटी के प्रेम की दास्तान - ठोस शक्ल हासिल करती गयी ।
उपन्यास धीरे-धीरे लिखा गया और १८३६ की पतझर में समाप्त हुआ। सेंसर के सामने इसे पेश करते हुए पुश्किन ने २५ अक्तूबर, १८३६ को सेंसर - अधिकारी प० कोर्साकोव को लिखा "मिरोनोव कल्पित नाम है। मेरा उपन्यास मेरे द्वारा कभी सुनी गयी इस दन्त - कथा पर आधारित है कि मानो एक अफ़सर अपने फ़र्ज़ के प्रति ग़द्दारी करते हुए पुगाचोव के गिरोहों में शामिल हो गया था और उसके बूढ़े पिता के सम्राज्ञी के क़दमों पर जा गिरने के फलस्वरूप उसे क्षमा कर दिया गया था। जैसा कि आप देख सकते हैं, उपन्यास 'सचाई' से बहुत दूर चला गया है।"
'कप्तान की बेटी' उपन्यास में पुश्किन ने १७७३ - १७७५ के किसान विद्रोह का एक बहुत प्रभावपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया है। उन्होंने पुगाचोवी आन्दोलन के सच्चे जनवादी और भूदासप्रथा - विरोधी स्वरूप को स्पष्ट किया है । स्वयं पुगाचोव को किसान विद्रोह का प्रतिभाशाली और साहसी नेता चित्रित किया गया है । कवि ने पुगाचोव की समझ- बूझ, हाज़िरजवाबी, बहादुरी, दिलेरी और मानवीयता पर जोर दिया है । १ नवम्बर १८३६ को पुश्किन ने प० अ० व्याज़ेम्स्की के यहां आयोजित गोष्ठी में अपना उपन्यास पढ़कर सुनाया । 'कप्तान की बेट १८३६ में 'सोव्रेमेन्निक' ( समकालीन ) पत्रिका में पहली बार छपा ।
पुश्किन के समकालीन, महान रूसी आलोचक बेलीन्स्की ने 'कप्तान की बेटी' का बहुत ऊंचा मूल्यांकन किया । 'कप्तान की बेटी ' उन्होंने लिखा, “ एक तरह से गद्य में 'येगेनी ओनेगिन' है । कवि ने उसमें येकातेरीना द्वितीय के शासन काल के रूसी समाज के जीवन का चित्रण किया है। अनेक चित्र वास्तविकता, विषय-वस्तु की सचाई और वर्णन की कलाकुशलता की दृष्टि से पूर्णता का चमत्कार हैं । निकोलाई गोगोल (१८०६ - १८५२ ) 'कप्तान की बेटी' को कथा- साहित्य की श्रेष्ठतम रचना मानते थे । “इसमें सचाई और कृत्रिमहीनता ऐसी पराकाष्ठा पर पहुंच गयी हैं कि स्वयं वास्तविकता उनके सामने कृत्रिम और उपहास - चित्र - सा प्रतीत होती है,” उन्होंने लिखा है । (मूल रूसी भाषा से अनुवाद : डॉ. मदनलाल 'मधु')