Purana Jamana : Naya Jamana (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
पुराना जमाना : नया जमाना (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
पुराने जमाने में सभ्यता का अर्थ आत्मा की सभ्यता और आचार की सभ्यता होता था। वर्तमान युग में सभ्यता का अर्थ है स्वार्थ और आडंबर। उसका नैतिक पक्ष छूट गया। उसकी सूरत बदल कर अब वह हो गई है जिसे हमारे पुराने लोग असभ्यता कहते। शारीरिक बनाव-संवार और टीमटाम पुराने तर्ज की निगाहों में कभी अच्छी न समझी जाती थी। भोगविलास के सामान इकट्ठा करना कभी पुरानी सभ्यता का लक्ष्य नहीं रहा। पुराने लोग सजावट और बनावट को घृणा की दृष्टि से देखते थे। उस समय सभ्य कहलाने के लिए यह जरूरी नहीं था कि आपका बैंक में इतना हिस्सा हो, आपके बाल एलबर्ट फैशन के कटे हुए हों, आपकी दाढ़ी इटालियन या फ्रेंच हो, आपका कोट शिकारी हो या टेनिस हो, कैम्ब्रिज हो या चीनी या जापानी हो, आपके जूते डर्बी या पंप हों। आपकी शेरवानी या सलीमशाही जूते पर उनकी निगाह न जाती थी। वे उसे शान कहें, प्रदर्शन कहें, शेखी कहें लेकिन सभ्यता हर्गिज न कहते, सभ्यता के नाम को बट्टा न लगाते। सभ्यता से उनका अभिप्राय नैतिक, आध्यात्मिक, हार्दिक था। उस समय वह व्यक्ति सभ्य था जिसका आचार पवित्र हो, जो धैर्यवान हो, गंभीर हो, हँसमुख हो, विनयशील हो। बड़े-बड़े राजा-महाराजा संन्यासियों को देखकर आदरपूर्वक खड़े हो जाते थे। उनका सम्मान करते थे और केवल औपचारिक या प्रदर्शनपूर्ण सम्मान नहीं, हृदय से उनकी चारित्रिक शुद्धता और आध्यात्मिकता को सिर झुकाते थे, उनसे अपनी भेंट होने को जीवन का एक बड़ा प्रसाद समझते थे। इसका असर उनके मन पर होना जरूरी था। सिद्धार्थ, अशोक शिलादित्य, जनक की उपासना, वैराग्य, तपस्या इन्हीं सत्संगों का परिणाम थी। उन लोगों की आजादी को देखिये कि वे अपने सिद्धांतों के सामने सिंहासन और मुकुट की परवाह न करते थे। और एक यह स्वार्थपरता का युग है कि राजा-महाराजा पाँवों में जंजीर होते हुए भी बादशाही के नाम पर मरते हैं। मिस्र, ईरान और यूरोप के पुराने इतिहासों में जनक और अशोक के उदाहरण मिलते हैं लेकिन आज अगर कोई अपना राज्य छोड़कर एकांतवास करने लगे तो लोग यह समझेंगे कि उसका दिमाग खराब हो गया है।
पुरानी सभ्यता सर्वजन-सुलभ, प्रजातांत्रिक थी। उसकी जो कसौटी धन और ऐश्वर्य की आँखों में थी वही कसौटी साधारण और नीच लोगों की आँखों में भी थी। गरीबी और अमीरी के बीच उस समय कोई दीवार न थी। वह सभ्यता गरीबों को अपमानित न करती थी, उसको मुँह न चिढ़ाती थी, उसका मजाक न रचती थी। ज्ञान और उपासना का, गंभीरता और सहिष्णुता का सम्मान राजा भी करता था और किसान भी करता था। उनके दार्शनिक विचार अलग-अलग हों लेकिन सभ्यता की कसौटी एक थी। पर आधुनिक सभ्यता ने विशेष और साधारण में, छोटे और बड़े में, धनवान और निर्धन में एक दीवार खड़ी कर दी है। किसी बिसाती की दुकानपर जाइये, किसी दवाफरोश या सौदागर की दुकानको देखिए और आपको मालूम हो जायेगा कि वर्तमान सभ्यता कितनी सीमित और सविशेष है। आपके साबुन, बिस्कुट, लवेंडर की शीशियाँ, कुँतल कौमुदी, दस्ताने, कमरबन्द, टाई, कालर, बैग, ट्रंक और भगवान जाने विलास की और कौन कौन-सी सामग्रियाँ दुकानों में सजी नजर आयेंगी पेटेंट दवायें चुनी हुई हैं, लेकिन आपके कितने देशवासी उनसे लाभान्वित होते आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट से देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें से नहीं हैं, हम उनके नहीं हैं। फिर आप चाहे कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हांक लगायें वह आपकी ओर ध्यान नहीं देता। वह आपको पराया समझ लेता है। आपके सर्कस और थियेटर में वह सहज सौंदर्य कहाँ हैं जो पुराने जमाने के मेला और तमाशों में होता था? आपके काव्य में वह आकर्षण कहाँ है जो पुराने जमाने के भजनों में होता था जिन्हें सुनकर अमीर और गरीब, राजा और रंक सबके सब सिर धुनने लगते थे? आधुनिक प्रणाली ने जनसाधारण को अपनी परिधि से बाहर कर दिया है। उसने अपनी दीवार आडंबर पर खड़ी की है। भौतिकता और स्वार्थपरता उसकी आत्मा है। इसके बावजूद जनतांत्रिकता ही आधुनिक सभ्यता की सबसे प्रधान गुण कही जाती है।
वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है। उसे इस पर गर्व है और उचित गर्व है। लेकिन पुराने जमाने में भी राष्ट्रीयता की भावना बिल्कुल लुप्त न थी। यूनान और ईरान की लड़ाइयाँ, स्पेन और अरब की लड़ाइयाँ, हिन्द और अफगानिस्तान के झगड़े किसी न किसी हद तक राष्ट्रीयता के उदय और राष्ट्र-गौरव पर आधारित थे लेकिन आधुनिक सभ्यता ने इस भावना को एक संगठित, अनुशासित, एकताबद्ध और व्यवस्थित रूप दे दिया है। पुराने जमाने में इसका बोध विशेष अवसरों पर होता था। किसी अपमान का बदला, किसी ताने की चुभन या केवल वीरता का प्रदर्शन और विजयी बनने का उत्साह कुछ व्यक्तियों को एकता की डोर में बाँध देता था। एक उबाल था जो थोड़ी देर के लिए दिल को हिला देता था, एक तूफान था कि जो कुछ देर तक पानी की ठहरी हुई सतह में हलचल डाल देता था लेकिन उबाल के उतरते ही, तूफान का जोर खत्म होते ही अलग-अलग तत्त्व अपनी-अपनी स्वाभाविक स्थिति पर आ जाते थे और कुछ दिनों के बाद इन लड़ाइयों की याद भी खत्म हो जाती थी या जिंदा रहती थी तो कवीश्वरों के कवित्तों में। बहुत बार धर्म के प्रचार के लिए जबान से खंजर की मदद ली जाती थी। पुरानी रवायतें आज तक नारए तकबीर व तकफीर से गूंज रही हैं मगर वे अस्थायी, क्षणिक उद्गार होते थे। उन्होंने सल्तनतें तबाह कर दीं, राष्ट्रों को गारत कर दिया, प्रलय के दृश्य खड़े कर दिये, संस्कृति के चिह्न मिटा दिये मगर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वे वैयक्तिक और अस्थायी चीजें थीं। इसके विपरीत आधुनिक राष्ट्र एक स्थायी, टिकाऊ, सामूहिक और अनिवार्य भावना है। उसकी बुनियाद न व्यक्तिगत सत्ता पर है न धार्मिक प्रचार पर बल्कि निश्चित समुदायों की भलाई और सेवा, शांति और दृढ़ता पर। वह पारिवारिक, सांस्कृतिक या धार्मिक संबंधों से पृथक है। वह बाह्यतः भौगोलिक सीमा पर आधारित है और आंतरिक रूप से उद्देश्यों की एकता पर। वह शहद और दूध की नदी अपने कब्जे में रखना चाहती है और किसी दूसरे को उसका एक घूँट भी देना नहीं चाहती। वह खुद आराम से अपना पेट भरेगी चाहे दुनिया भूखों मरे, खुद हँसेंगी चाहे दुनिया खून के आँसू रोये। अगर उसे लाल कपड़े पहनने की धुन हो जाये और लाल रंग खून से निकलता हो तो उसे दूसरों का खून करने में भी झिझक न होगी। अगर इंसान के दिल का टुकड़ा उसके शरीर को ताकत पहुँचाने वाला हो तो निश्चय ही हजारों आदमी उसके खंजर के नीचे तड़पते नजर आयेंगे। उसे अपना अस्तित्व संसार में आवश्यक मालूम होता है। बाकी दुनिया मिट जाये, उसे इसकी परवाह नहीं। स्वार्थपरता उसका धर्म, उसकी पुस्तक, उसका रास्ता सब कुछ है। सारी मानवीय भावनायें, सारे नैतिक प्रश्न इस हवस के पुतले के आगे सिर झुका देते हैं। यह कल और मशीन का युग है और राष्ट्र इस युग की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। यह देव-जैसी मशीन दिन-रात पागलों जैसी तेजी मगर सिपाहियों जैसी पाबंदी के साथ चलती रहती है। कोई इसके घेरे में आ जाएँ यह उसे देखते-देखते निगल जायेगी, उसे पीस डालेगी। वह किसी पर दया नहीं करती किसी के साथ रिआयत नहीं करती। वह एक भीमकाय रोलर है जिसमे व्यापार और प्रभुत्व की दो लाल-लाल आँखें घूर-घूरकर बेखबर लोगों को चेतावनी देती हैं कि खबरदार सामने न आना वर्ना पलक झपकते भर में मारे जाओगे। इस आधुनिक राष्ट्र ने संसार में एक रक्ताक्त जीवन-संघर्ष छेड़ दिया है। जिन मानव समुदायों ने अभी तक राष्ट्र का रूप नहीं ग्रहण किया वे उसके अत्याचारों का क्षेत्र हैं। वह अफ्रीका में जाती है और वहाँ के जंगलों और घाटियों को काले रंग के काफिरों से पाक कर देती है। वह एशिया में आती है और सभ्यता व शिक्षा का नारा बुलंद करती है। उसके नेक इरादों में शक नहीं। वह किसी को गुलामी का तौक नहीं पहनाती, मर्दों और औरतों को गुलाम नहीं बनाती, शहरों को जलाकर खाक नहीं करती मगर एक विचित्र- सा संयोग है कि जो `अ-राष्ट्र` प्रदेश इस राष्ट्र के हाथों बंदी हुआ, उसका जीवन निराशा और अपमान की भेंट चढ़ जाता है।
प्राचीन युग को अंधकार युग कहा जाता है मगर उस अंधकार युग में सैनिक सेवा हर एक व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर थी। बादशाह किसी को जबर्दस्ती लड़ने पर मजबूर न कर सकता था। बहादुरी के मतवाले कर्त्तव्य या मित्रता या विशुद्ध लालच की पुकार सुनकर खड्ग-हस्त हो जाते थे लेकिन इस प्रकाशवान युग ने हर व्यक्ति को हत्या के लिए तत्पर बना दिया है। नारा व्यक्ति-स्वाधीनता का बुलंद किया जाता है लेकिन सच तो यह है कि राष्ट्र ने व्यक्ति को मिटा दिया, व्यक्ति का अस्तित्व राष्ट्र या स्टेट में समाहित हो गया है। हम अब रियासत के गुलाम हैं। उसको अधिकार है चाहे हमको कत्ल व खून पर मजबूर करे चाहे झगड़े-फसाद पर। लंका में विभीषण ने अपने भाई रावण के खिलाफ रामचन्द्र की मदद की थी मगर विभीषण पूरी आजादी के साथ लंका में रहता था। रावण को कभी इतना साहस न हुआ कि वह विभीषण का एक बाल भी बांका कर सके । आज लड़ाई के जमाने में इस तरह का राजद्रोह कोर्टमार्शल का कारण बन जाता। विदर कौरवों से वजीफा पाता था लेकिन एलानिया पांडवों का साथ देता था। तो भी कौरवों ने, यद्यपि वे कर्त्तव्य भावना से रहित कहे जाते हैं, इस निर्भीक स्पष्टता के लिए विदर को मार डालने के योग्य नहीं समझा। मगर आप कुछ भी कहें वह अंधेरा युग था, गुलामी और बदहाली से घायल और दुखी। और यह जमाना जब दुश्मन की खूबियों को स्वीकार करना भी कुफ्र है, जब राष्ट्रीय धर्म से जौ भर भी इधर-उधर होना अक्षम्य पाप है, प्रकाशवान, रौशन ! अगर रोशनी का मतलब बिजली या गैस की रोशनी है। लेकिन अगर रोशनी का मतलब आत्मिक स्वतंत्रता, बौद्धिक और सामाजिक शांति है तो वह अंधेरा युग इस रौशन जमाने से कहीं अधिक प्रकाशवान था। ‘राष्ट्र’ की शक्ति और प्रभुत्व पर ये सब पतिंगे न्योछावर हैं। और क्या यह व्यापार और कल-कारखानों की उन्नति, तरह-तरह के यंत्रों का आविष्कार, जिस पर नये युग को इतना गर्व है, विशुद्ध सौभाग्य है जब कि सिगरेट कौड़ियों के मोल बिकता है, बटन और टीन के खिलौने मारे- मारे फिरते हैं मगर दूध और घी , मकई और ज्वार का स्थायी अकाल पड़ा हुआ है, जबकि देहात उजड़ते जाते हैं और शहर की आबादियाँ बढ़ती जाती हैं, जबकि प्रकृति की दी हुई सम्पदा को लात मार कर लोग बनावटी नुमायशी ढकोसलों पर जान दे रहे हैं, जब कि आदम के बेशुमार बेटे बदबूदार और अंधेरी कोठरियों में जिंदगी बसर करने के लिए मजबूर हैं, जबकि लोग अपनी बिरादरी और पड़ोसियों की सीख न मानकर वासना के शिकार होते जाते हैं, जब कि बड़े-बड़े व्यावसायिक नगरों में सतीत्व आवारा और परीशान रोता फिरता है (लंदन में चालीस हजार से ज्यादा वेश्याएँ हैं और कलकत्ते में सोलह हजार से ज्यादा) जब कि आजाद मेहनत की रोटी खाने वाले इंसान पूंजीपतियों के गुलाम होते जाते हैं, जब कि महजर पैसे वाले व्यापारियों के नफे के लिए खूनी लड़ाइयों में कूदने से भी लोग बाज नहीं आते, जब कि विद्या और कला और आध्यात्मिकता भी नफे-नुकसान के भंवर में फँसी हुई है, जब कि कुशल राजनीतिज्ञों का पाखंड और छल-कपट हंगामा बर्पाकिये हुए है और न्याय और सच्चाई का शोर सिर्फ जुल्म के मारे हुओं की कमजोर पुकार को दबाने के लिए मचाया जाता है, नयी सभ्यता का कोई दीवाना भी इन मुसीबतों और गुलामी के दौर को ख़ालिस बरकत कहने की हिम्मत नहीं कर सकता। इसमें शक नहीं कि देश के नेता इसके दोषों से परिचित हो गये हैं और इसके सुधार की कोशिशें की जा रही हैं लेकिन उस जहर को जो समाज-व्यवस्था में घुल गया है, निकालने की कोशिश नहीं की जाती, सिर्फ उसके ऊपरी प्रभावों, ऊपरी विकृतियों को छिपाने और मिटाने में लोग लगे हुए हैं। कोढ़ी जिस्म को रंगीन कपड़ों से ढँका जा रहा है।
नये जमाने ने मानवीय सद्गुणों का भी मनमाना विभाजन कर दिया है। पुराने जमाने में भी श्रेणियों और हैसियतों का विभाजन था मगर नैतिक सिद्धांतों में विशेष और साधारण, विजेता और विजित का कोई भेद न था। नम्रता और सहिष्णुता, शर्म और हया, सदाचार और मुरव्वत-इन गुणों का सब आदर करते थे चाहे वह मुगल हों या तुर्क, ब्राह्मण हों या शूद्र। लेकिन आज हालत कुछ और है। ये निर्बलों के गुण हैं। नम्रता को आज निर्बलता की स्वीकृति समझा जाता है। लाज-शर्म नामरदाँ के गुण हैं। मीठा बोलना, सुंदर आचरण और आँख का लिहाज इस नई टकसाल के फेंके हुए सिक्के हैं। दया और प्रार्थना, संयम और नर्मी को कायरता और पस्तहिम्मती समझा जाता है। अब डीगें मारने और शेखी बघारने का जमाना है। गुस्सा, नफरत, घमंड, जबान का कडुआपन – ये मर्दाना खूबियाँ हैं। अगर किसी से इंकार करना है तो मुलायमियत से कहने की जरूरत नहीं, साफ और बेलाग कहिए। इसमें अक्खड़पन जितना ही ज्यादा हो उतना हो अच्छा। नाक पर मक्खी न बैठने पाये, तलवार हमेशा म्यान से बाहर रहे, जरा कोई बात तबीयत के खिलाफ हो, बस, जामे से बाहर हो जाइये। गुस्सा एक मर्दाना जौहर है। उसे रोकना बुजदिली की दलील है। आपको चाहे किसी खास बात में जरा भी दखल न हो मगर जबान से कहिए कि मैं इस फन का अरस्तू हूँ। मुरव्वत और इंसानियत और लिहाज को पास न फटकने दीजिए। ये गरीब और मजबूर लोगों के गुण हैं। आप अपने बर्ताव में दिलेराना साफगोई से काम लीजिए। आपको किसी की भावनाओं से कोई प्रयोजन नहीं, और शर्म का तो नाम लेना भी गुनाह है। यह हैं इस नये जमाने की खूबियाँ।
हम यह नहीं कहते कि वह पुरानी बातें सबकी सब तारीफ करने के काबिल हैं मगर वह कितना ही बुरा क्यों न हों और कितने ही ताने उसे क्यों न दिये जायँ, वह इस नई स्वार्थपरता, घमंड और आडंबर से कई गुना अच्छा है। मजा यह है कि बचपन ही से इन नैसर्गिक गुणों को मिटाने की कोशिश की जाती है। यह मर्दाना गुण लड़कों को उनके दूध के साथ पिलाये जाते हैं। नये जमाने का राग अलापने वाला कहेगा यह इकतरफा तस्वीर है। देखिए आज राष्ट्रीय मेल-जोल ने मानव संबंधों को कितना दृढ़ बना दिया है। एक अंग्रेज व्यापारी के साथ चीन में कोई बेइंसाफी होती है और सारे इंगलिस्तान में शोर मच जाता है। खून की कीमत और कानूनी जंग की दुहाई मचने लगती है। एक फ्रांसीसी अखबार का प्रवेश किसी राज्य में बन्द कर दिया जाता है और फ्रांसीसी दुनिया में उथल-पुथल मच जाती है। यह हमदर्दी , यह एकता कभी पहले भी थी? राजपूत मुसलमानों की मातहती में राजपूतों का खून करते थे, मुसलमान सिक्खों के कन्धे से कन्धा मिलाकर मुसलमानों का कत्ल करते थे। निस्संदेह यह नये युग का एक अच्छा पहलू है। इसके जोर पर हम दुनिया के हर कोने में चैन से रह सकते हैं, हर प्रदेश में व्यापार कर सकते हैं। मगर सच्चाई यह है कि यह एकता और सहमति इंसानियत की बनिस्बत राष्ट्रीय प्रभुत्व पर अधिक निर्भर है वर्ना क्या वजह है कि किसी दूर-दराज मुल्क में एक आदमी की तकलीफ या बेइज्जती कौम के दिल को हिला देती है मगर अपने हो पडोसी और अपने दोस्तों की भूख और गरीबी पर जरा भी दिल नहीं पसीजता? क्या वजह है कि यूरोपियन पूँजीपति धन और ऐश्वर्य की शानदार नैया पर बैठा हुआ उन अनाथों की परवाह नहीं करता जो गरीबी और बदहाली के भंवर में पड़े हुए हैं? यही कि स्वार्थपरता, इंद्रिय परायणता राष्ट्र की आत्मा है।
वह विशुद्ध सांसारिकता है, सुंदर भावनाओं से रहित, जिसने दिलों को कठोर और संकीर्ण और भावना-शून्य बना दिया है। वह पैसों वालों का एक जत्था है जो नैतिक, भावनात्मक, आत्मिक वस्तुओं को व्यावसायिक लाभ और हानि की दृष्टि से देखता है, जिसके निकट वही नेकी आचरण करने योग्य है जो दौलत के ढेर में कुछ वृद्धि करे, वही भाव अच्छे हैं जो अपना प्रभुत्व बढ़ायें। वह आत्मा को भी तराजू के पलड़ों पर तौलता है। उसे जनतंत्र कहना गलती है। बराबरी और भाइचारे को उसने पैरों तले इस तरह रौंदा है कि अब उसकी शक़्ल भी पहचानी नहीं जाती। इंसान की कीमत उसके नजदीक इतनी ही है कि वह एक रुपया कमाने का साधन है। वह कसाई की तरह इंसान के गोश्त और खाल का अंदाजा करके उसकी कीमत लगाता है। कहने का मतलब यह है कि पुराना जमाना अमीरों और सुल्तानों का जमाना था और नया जमाना बनियों और व्यापारियों का जमाना है। इसने दौलत के महल खड़े कर दिये, दौलत की तलाश में जल- थल को छानता हुआ आसमानों के पार तक जा पहुँचा और अब सारी दुनिया उसका कार्यक्षेत्र है।
इस नये जमाने में एक ऐसा रोशन पहलू भी है जो उन काले दागों को किसी हद तक ढंक देता है और वह है ‘बेजबानों की ताकत का ज़ाहिर होना।’ हाल के योरोपीय महायुद्ध ने इस पहलू को और भी उजागर कर दिया है। स्वार्थपरता के तूफान ने बड़े-बड़े गरीटील पेड़ों को ही नहीं, सोये हुए और लुटे हुए हरे भरे मैदानों को भी जगा दिया है। अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा हौ और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सिर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सिर झुकाकर सब कुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।
यह उन चीजों की मंदी का युग है और वह भी उन्हें हाथ नहीं लगाता। वह भी आराम, निश्चिंतता और खुशहाली की माँग करता है। वह भी अच्छे मकानों में रहना चाहता हैं, अच्छे खाने खाना चाहता है और मनोरंजन के लिए अवकाश की माँग करता है। और वह अपने दावों को ऐसे प्रभावशाली ढंग से प्रकट करने लगा है कि अधिकारी वर्ग उससे नखरे नहीं कर सकता। वह पूंजी का दुश्मन है, व्यक्तिगत संपत्ति की जड खोदने वाला और व्यापारियों की जत्थेबंदी का हत्यारा। यह सच है कि वह भी अपने प्रभाव का क्षेत्र भौगोलिक सीमाओं के अंदर रखना चाहता है मगर अपनी अमलदारी में बराबरी और सच्चाई का समर्थक है। वह अपने राष्ट्र को एक अकेली सत्ता बनाना चाहता है। हर व्यक्ति के लिए एक जैसा अवसर, एक जैसी सुविधाओं, एक जैसे उन्नति के साधनों की माँग कर्ता है। सबकी एकता उसका जेहाद का नारा है। वह ऊँच-नीच को मिटाकर सारी जमीन को समतल बनाने की कोशिश करता है। वह ऐसी राज्य व्यवस्था स्थापित करना चाहता है जो धनोपार्जन के समस्त साधन अपने हाथ में रक्खे और हर व्यक्ति को उसकी मेहनत और योग्यता के अनुसार बराबर बाँटे। वह जमींदारों को एक गंदी और बेकरार चीज समझता है और उसकी सम्पत्ति को उनके कब्जे से निकालकर जनता के कब्जे में रखना चाहता है। संक्षेप में, वह सारी संपत्तियों, कारखानों, रेलों , जहाजों पर एक विशेष व्यवस्था के द्वारा जनता के अधिकार की माँग करता है और कौन कह सकता हे कि यह काम बेहद मुश्किल नहीं हैं। व्यक्तिगत अधिकार का विचार मनुष्य के स्वभाव का अंग हो गया है। वह उसकी सबसे सशक्त प्ररेक शक्ति है इसी पर उसके जिंदगी के सारे मंसूबे, सारे इरादे सारी इच्छायें कायम हैं।
‘व्यक्ति’ की सता मिटाना दुष्कर है। पूंजी और सम्पत्ति से खूब लड़ाइयाँ लड़नी पड़ेंगी (कुछ दशा में जारी हैं) और यद्यपि रंग ढंग से मालूम होता है कि उसकी इस लड़ाई में हार हो गई लेकिन उसका असर जिंदा है और बढ़ता जाएगा। पूँजी उसे अपने काबू में रखने के लिए कुछ और रिआयतें करेगी, कुछ बल खायेगी, इधर कुछ उड़ायेगी, उससे लड़ाई करके अपनी हस्ती खतरे में न डालेगी।
जनता की यह हलचल और माँग चाहे नाजुक कानों को कितनी ही नागवार मालूम हो लेकिन वह इस निस्तब्ध मौन की तुलना में कुछ अधिक जीवनदायक हैं जो पुराने युग की अपनी विशेषता थी और अभी तक कुछ एशियाई देशों में चल रही है, जो आग में जलकर, तलवार की चोटें खाकर भी उफ नहीं करती, सहना और तड़पना जिसकी विशेषता है। नये समय ने इस सबसे नाजूक पहलू ने यूरोप और अमरिका वगैरह देशों में शूद्रों का खात्मा कर दिया है!। अब वहाँ कोई ऐसा नहीं जिसके छूने से ब्राह्मणों का पवित्र अस्तित्व कलंकित हो जाये, ऐसा नहीं जो क्षत्रियों के अत्याचार की फरियाद करे, जो वैश्यों के स्वर्ण सिंहासन का ढोने वाला बने।
मगर यह खयाल करना कि जनतंत्र का यह नया पहलू अपनी भौगोलिक परिधि से बाहर निकलकर निर्बलों और अनाथों की हिमायत करेगा या पूँजीपति ‘राष्ट्र’ की बनिस्बत ‘अ राष्ट्रों’ के साथ ज्यादा इंसानियत और हमदर्दी का बर्ताव करेगा, शायद गलत साबित हो। उस राज सिंहासन और स्वर्णमुकुट से प्रेम नहीं लेकिन राजकीय अधिकार-भावना और राज्यसंचालन की वासना से वह भी मुक्त नहीं। बहुत संभव है कि ‘अ-राष्ट्रों’ पर इस जनतंत्र का अत्याचार पूँजीपतियों से कहीं अधिक घातक सिद्ध हो। जब कुछ थोड़े से पूँजीपतियों की स्वार्थपरता दुनिया को उलट-पलटकर रख दे सकती है तो एक पूरे राष्ट्र की सम्मिलित स्वार्थपरता क्या कुछ न कर दिखायेगी। वह भी जत्थेबंदी की एक सूरत है, ज्यादा ठोस। वह अपने देश के व्यक्तिगत प्रभुत्व को मिटाकर उसके बदले जनता के प्रभुत्व का झंडा लहरायेगी मगर यह स्पष्ट है कि उसका आधार भी स्वार्थपरता है और जब तक उसके पैरों से यह जंजीर दूर न होगी वह इस इंसानी भाईचारे की मंजिल से एक जौ भी और करीब न होगी , जो संस्कृति का लक्ष्य है। लेकिन नये जमाने की इस खींचतान और आपसी होड़, अहंकार और भौतिकता के संसारव्यापी अंधकार में आशा की एक किरण दिखाई दे रही है। वह प्रेसीडेंट विल्सन की प्रस्तावित लीग आफ नेशन्स या राष्ट्र संघ है। हम अपनी अनाथ और बेबस आँखों से उस किरण की ओर खड़े ताक रहे हैं। हमारे पैरों की कमजोरी हमें उस तरफ बढ़ने नहीं देती। हमारा दिल उम्मीद से भरा हुआ डै। यह किरण हमारी कठिन मंजिल के किसी आश्रयस्थल का पता दे रही है या केवल मरीचिका है, आने वाली घडियाँ जल्दी ही इसका फैसला कर देंगी। लेकिन अगर वह मरीचिका ही हो तो क्या हमें शिकायत का कोई मौका है? यह उन राष्ट्रों का संघ होगा जिन्होंने जनतंत्र का स्थान प्राप्त किया है, जहाँ बहुत से लोग मुट्ठी भर लोगों के हाथों लुटते नहीं, जहाँ ब्राह्मण और शूद्र का विचार या भेद नहीं है। हम अभी राष्ट्रीयता के लक्ष्य तक भी नहीं पहुँचे, जनतंत्र की तो बात ही करना व्यर्थ है। ऐसी हालत में अगर हम इस संघ में दाखिल किये जाने के काबिल न समझे जायँ तो हमें ताज्जुब या शिकायत न करनी चाहिए। जब इंगालिस्तान को इस संघ में आने के लिए अपना घेरा बहुत फैलाना पड़ा यहाँ तक कि अब उनकी स्त्री जाति को भी राजनीतिक अधिकार मिल गये, जब आस्ट्रिया और जर्मनी जैसे देश जिनकी राजनीतिक स्थिति हमसे कहीं अच्छी है इस संघ में केवल इसलिए प्रवेश पाने के योग्य नहीं समझे जाते कि वहाँ अभी तक व्यक्तिगत प्रभाव सिद्धांतों पर भारी पड़ता है और विशाल जनता थोड़े से लोगों के अधीन है तो हिन्दुस्तान किस मुँह से इस संघ में शरीक होने की माँग कर सकता है जहाँ जनता एक बेजान और बेहिस ढेर से ज्यादा कुछ नहीं। इस बर्बादी का इल्जाम हम गवर्नमेंट के सिर नहीं रख सकते। गवर्नमेंट की कार्य-प्रणाली अब तक हमेशा जबर्दस्तों की हिमायत करती आयी है। जनता को इस जड़ता की स्थिति में रखने का सारा दोष शिक्षित और सम्पन्न लोगों पर है। हमारे स्वराज्य के नेताओं में वकील और जमींदार ही सबसे ज्यादा हैं। हमारी कौंसिलों में भी यही दो समुदाय आगे-आगे दिखाई पड़ते हैं। मगर कितने शर्म और अफसोस की बात है कि उन दोनों में से एक भी जनता का हमदर्द नहीं। वे अपने ही स्वार्थ और प्रभुत्व की धुत में मस्त हैं। वह अधिकार और शासन की माँग करते हैं और धन और वैभव के इच्छुक हैं, जनता की भलाई के नहीं। कितने बड़े-बड़े ताल्लुकेदार, बड़े-बड़े जमींदार, पैसे वाले रईस लोग उन बेज़बान करोडों काश्तकारों के साथ हमदर्दी , इंसानियत और देशभाईपने का बर्ताव करते हैं जिन्हें संयोग या गवर्नमेंट की गलती या खुद जनता की बेजबानी ने उनकी तकदीर का मालिक बना दिया है। आप स्वराज्य की हांक लगाइये, सेल्फ गवर्नमेंट की माँग कीजिए, कौंसिलों को विस्तार देने की माँग कीजिए, उपाधियों के लिए हाथ फैलाइये, जनता को इन चीजों से कोई मतलब नहीं है। वह आपकी माँगों में शरीक नहीं है बल्कि अगर कोई अलौकिक शक्ति उसे मुखर बना सके तो वह आज जोरदार आवाज में, शंख बजाकर आपकी इन माँगों का विरोध करेगी। कोई कारण नहीं है कि वह दूसरे देश के हाकिमों के मुकाबले में आपकी हुकूमत को ज्यादा पसंद करे। जो रैयत अपने अत्याचारी और लालची जमींदार के मुँह में दबी हुई है, जिन अधिकार-सम्पन्न लोगों के अत्याचार और बेगार से उसका हृदय छलनी हो रहा है उनको हाकिम के रूप में देखने की कोई इच्छा उसे नहीं हो सकती।
इसकी क्या जमानत है कि आपके पंजे में आकर उनकी हालत और भी बुरी न हो जायेगी ? आपने अब तक इसका कोई सबूत नहीं दिया कि आप उनकी भलाई चाहने वाले हैं। अगर कोई सबूत दिया है तो उनकी बुराई चाहने का , स्वार्थ का, लोभ का, कमीनेपन का। आप स्वराज्य की कल्पना का मज्जा ले लेकर खूब फूलें और बगलें बजायें मगर अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का ध्यान रखना भी जरूरी है। जाहिल रईसों या जमींदारों से हमें शिकायत नहीं। उनकी आँखें उस वक्त खुलेंगी जब उनकी गर्दनें जनता के हाथों में होंगी और वह बेबस निगाहों से इधर-उधर ताक रहे होंगे। शिकायत हमें उन लोगो से है जो पढ़े-लिखे हैं और जमींदार हैं, वकील हैं और जमींदार हैं। वह अपने दिल से पूछें कि वह प्रजा के साथ अपना कर्त्तव्य पूरा कर रहे हैं? कभी-कभी अपने कृत्यों और कमियों के बारे में अपने दिल से पूछना जरूरी होता है। उनका दिल साफ कहेगा कि तुम इस तराजू पर तौले गये और ओछे निकले। जरा शहर के शांतिपूर्ण कोने से निकलकर वहाँ जाइये जहाँ जनता की आबादी है, जहाँ आपके नब्बे फीसदी देशवासी बसते हैं। उस तड़प का आपके दिल पर एक निहायत रौशन असर पड़ेगा। आपकी आँखें खुल जायेंगी। अन्याय और अत्याचार के दृश्य आपका दिल हिला देंगे।
क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आंदोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। आपने सैंकड़ों मदरसे और कालेज बनवाये, यूनिवर्सिटियाँ खोलीं और अनेक आंदोलन चलाये मगर किसके लिए? सिर्फ अपने लिए, सिर्फ अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए। और शायद अपने राष्ट्र की जो कसौटी आपके दिमाग में थी उसको देखते हुए आपका आचरण जरा भी आपत्तिजनक न था। मगर नये जमाने ने एक नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ्तार इसका साफ सबूत दे रही है। हिन्दुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी। तब आपको अपनी बेइंसाफियाँ याद आयेंगी और आप हाथ मल कर रह जायेंगे। जनता की इस ठहरी हुई हालत से धोखे में न आइये। इन्कलाब के पहले कौन जानता था कि रूस की पीड़ित जनता में इतनी ताकत छिपी हुई है? हार के पहले कौन जानता था कि जर्मनी का एकछत्र स्वेछाचारी शासन जनता के ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है। निकट भविष्य में हिन्दुस्तान के लाखों मजदूर और कारीगर फ्रांस से वापस आयेंगे, लाखों सिपाही लड़ाई के बाद अपने-अपने घर लौटेंगे। क्या आप समझते हैं कि उन पर उन आजाद देशों की आबोहवा का कुछ भी असर न रोगा? अगर कौम में इंसानियत और लाज-शरम नहीं है तो खुद अपनी भलाई का तकाजा है कि हम अभी से जनता के दिल को अपने बस में करने की कोशिश करें। इस बात में हमारे ताल्लुकेदार और जमींदार , चाहे वे अंधेरे अवध के हों या उजाले बंगाल के, सबसे ज्यादा दोषी हैं। उचित है कि वे तात्कालिक हानि की चिंता न करके किसानों की भलाई और सुधार की कोशिश करें, स्वेच्छा से उन अधिकारों से हाध खींच लें जो उन्हें किसानों पर प्राप्त हैं। उनसे बेगार लेना छोड़ दें, उनके साथ आदमियत का बर्ताव करें, इज़ाफा और बेदखली से परहेज करें, ताकि जनता के दिलों में उनकी इज्जत और उनके प्रति श्रद्धा हो। हमारे कौंसिलरों और राजनीतिक नेताओं का कर्त्तव्य है कि अपने प्रस्तावों की परिधि को फैलायें और जनता (यानी काश्तकारों ) की हिमायत का एक प्रोग्राम तैयार करें और उसे अपनी कार्य-प्रणाली बना लें। स्वराज्य की बेकार और बेमतलब सदाओं पर तकिया करके बैठने का वक्त अब नहीं क्योंकि आने वाला जमाना अब जनता का है और वह लोग पछतायेंगे जो जमाने के कदम से कदम मिलाकर न चलेंगे।
[’दौर ए-जदीदो कदीम’ शीर्षक से उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, फरवरी 1919 ]