Punshcha (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
पुनश्च– : रामधारी सिंह 'दिनकर'
(भारतीय ज्ञानपीठ–पुरस्कार समारोह में 1 दिसम्बर, 1973 ई. को दिल्ली के विज्ञान भवन में प्रदत्त अभिभाषण से)
...लगता है, पृथ्वी पर आने के पूर्व जब मैं भगवान को प्रणाम करने गया, वे कलाकारों के बीच छेनी, टाँकी, हथौड़ी, कूँची और रंग बाँट रहे थे। लेकिन भगवान् ने मुझे छेनी, टाँकी और हथौड़ी नहीं दी, जो पच्चीकारी के औजार हैं। उनके भंडार में एक हथौड़ा पड़ा हुआ था। भगवान ने वही हथौड़ा उठाकर मुझे दे दिया और (जरा–सी आत्मश्लाघा के लिए क्षमा कीजिए) कहा कि जा, तू इस हथौड़े से चट्टान के पत्थर तोड़ेगा और तेरे तोड़े हुए अनगढ़ पत्थर भी काल के समुद्र में फूल के समान तैरेंगे।
लगता है, जब मैं हथौड़ा लेकर चला, मैं छेनी और टाँकी की ओर मुड़–मुड़कर लोभ से देख रहा था। वह लोभ मुझे जीवन–भर सताता रहा है और जीवन–भर मैं इस विचिकित्सा में पड़ा रहा हूँ कि कविता का वास्तविक प्रयोजन क्या है। वह मनुष्य को जगाने, सुधारने और उन्नत बनाने के लिए है या उसका काम आदमी को रिझाना और उसे प्रसन्न करना है? या इनमें से कोई भी ध्येय कविता का ध्येय नहीं है? जैसा कि एजरा पौंड ने कहा है, कविता केवल कविता है, जैसे वृक्ष केवल वृक्ष है। वृक्ष अपनी जगह पर स्थिर खड़ा है। वह किसी को भी नहीं बुलाता। फिर भी लोग उसकी हरियाली को देखकर खुश होते हैं, उसकी छाया में बैठते हैं और पेड़ अगर फलदार हुआ तो वे फलों को तोड़कर खा लेते हैं। चेतना के तल में जो घटना घटती है, जो हलचल मचती है, उसे शब्दों में अभिव्यक्ति देकर हम सन्तोष पाते हैं। यही हमारी उपलब्धि है। यदि देश और समाज को उससे कोई शक्ति प्राप्त होती है, तो यह अतिरिक्त लाभ है। किन्तु इतना जरूर है कि पेड़ मनुष्यों और पक्षियों के नहीं रहने पर भी फूल और फल सकते हैं, किन्तु पाठक और श्रोता न रहें, तो कवि कविता लिखेगा या नहीं, इसमें मुझे भारी सन्देह है। अगर सारी दुनिया खत्म हो जाए और केवल एक आदमी जीवित खड़ा हो, तो कवि होने पर भी, वह कविता शायद ही लिखेगा। मेरी दृढ़ धारणा है कि कविता व्यक्ति द्वारा सम्पादित सामाजिक कार्य है और शुद्ध कविता भी समाज के लिए ही लिखी जाती है।
अपने निर्माण के दिनों में प्रत्येक नये कवि को उस एक महाकवि का पता लगाना पड़ता है, जिसके समान वह बनना चाहता है। मेरा दुर्भाग्य या सौभाग्य यह रहा कि मैंने एक के बदले ऐसे दो महाकवियों का पता लगा लिया, जिनके समान बनने की मुझ में उमंग थी। इनमें से एक थे श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जिनके नाम की सारे संसार में धूम थी और जिनके प्रभाव में आकर भारत की कई भाषाओं में छोटे–छोटे रवीन्द्रनाथ पैदा हो गये थेय और दूसरे थे सर मोहम्मद इकबाल, जिन्हें नोबेल पुरस्कार तो नहीं मिला था, मगर जिनकी कविताएँ पाठकों के रुधिर में आग की तरंगें उठाती थीं, मन के भीतर चिन्तन का द्वार खोल देती थीं।
प्रभाव तो इन दोनों कवियों का मुझ पर पहले ही पड़ गया। यह पता बहुत बाद को चला कि रवीन्द्र और इकबाल दो ध्रुवों के कवि हैं और वे अकसर आमने–सामने के दो विरोधी क्षितिजों से बोलते हैं। भगवान के प्रति रवीन्द्रनाथ का भाव सम्पूर्ण आत्मसमर्पण का भाव था–
प्रभु, तोमा लागि आँखि जागे।
देखा नाइ पाई, शुधू पथ चाइ,
सेओ मोने भालो लागे।
किन्तु इकबाल भगवान के उस प्रकार के भक्त थे, जो चाहता है कि मैं भगवान में लीन नहीं होऊँगा, भगवान को ही मुझ में विलीन होना पड़ेगा–
खुदी को कर बुलन्द इतना
कि हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे,
बता, तेरी रजा क्या है।
यह भी कि रवीन्द्रनाथ उपयोगिता को कोई महत्त्व नहीं देते थे। जहाँ तक उपयोगिता का सवाल है, आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं है। मनुष्य का असली व्यक्तित्व तब बनता है, जब वह उपयोगिता के घेरे को लाँघकर ऐसी भूमि में पहुँच जाता है, जो निरुद्देश्य आनन्द की भूमि है, जहाँ मनुष्य आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर साहित्य का सृजन नहीं करता, न समाज के किसी स्थूल प्रयोजन की पूर्त्ति के लिए कविता या चित्र बनाता है।
रवीन्द्रनाथ की तरह इकबाल भी मानते हैं कि कला व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किन्तु, व्यक्तित्व की परिभाषा उनकी कुछ और है। जो आदमी आराम में है, जो संघर्ष से दूर है, जो बड़े मकसदों को हासिल करने के लिए जद्दोजहद नहीं कर रहा है, इकबाल उस मनुष्य को व्यक्तित्वहीन समझते हैं। व्यक्तित्व की स्थिति संघर्ष की स्थिति होती है, तनाव की स्थिति होती है, और जो आदमी जितने ही अधिक तनाव में है, उसका व्यक्तित्व भी उतना ही बड़ा और बलवान है।
शुरू में ही मुझ पर रवीन्द्र और इकबाल का जो विरोधी प्रभाव पड़ गया, उसके कारण मैं काफी वर्षों तक बेचैन रहा। मेरे निर्माण का समय वह था, जब गांधीजी समस्त देश को जीवन, जागरण, प्रेरणा और संघर्ष से आलोड़ित कर रहे थे। ऐसा समय क्या कोमल, वायवीय, निरुद्देश्य गीतों का समय होता है? अथवा सम्भव है कि पराधीनता का विरोध, शोषण और साम्राज्यवाद पर प्रहार तथा समता के समर्थन में गान मैंने भी प्रचार के लिए नहीं, बल्कि इसलिए किया था कि वैसा करना मुझे अच्छा लगता था, आनन्ददायी मालूम होता था। कॉलेज में वर्ड्स्वर्थ की ये पंक्तियाँ कदाचित मैंने भी पढ़ी होंगी :
The gods approve the depth
And not the tumult of the soul
लेकिन जवानी भर मुझे इसकी परवाह ही नहीं रही कि देवताओं की पसन्द क्या है। मुख्य बात यह थी कि गर्म लोहे पर हथोड़े की चोट जोर से पड़ती है या नहीं। मैं रन्दा लेकर काठ को चिकनाने नहीं आया था। मेरे हाथ में तो कुल्हाड़ी थी। मैं जड़ता की लकड़ियों को फाड़ रहा था।
लेकिन मुझे राष्ट्रीयता, क्रान्ति और गर्जन–तर्जन की कविताएँ लिखते देखकर मेरे भीतर बैठे हुए रवीन्द्रनाथ दुखी होते थे और संकेतों में कहते थे, ‘‘तू जिस भूमि पर काम कर रहा है, वह काव्य के असली स्रोतों के ठीक समीप नहीं है।’’ तब मैं ‘असमय आह्वान’ में, ‘हाहाकार’ में तथा अन्य कई कविताओं में अपनी किस्मत पर रोता था कि हाय, काल ने इतना कसकर मुझे ही क्यों पकड़ लिया? मेरे भीतर जो कोमल स्वप्न हैं, वे क्या भीतर ही भीतर मुरझाकर मर जाएँगे? उन्हें क्या शब्द बिलकुल ही नहीं मिलेंगे?
लेकिन शब्द इन कोमल स्वप्नों को भी मिले। ‘रसवन्ती’ और ‘द्वन्द्व–गीत’ इन्हीं कोमल कविताओं के संग्रह हैं। किन्तु विरुद मेरा चारण और वैतालिक का ही रहा। ‘हुंकार’ के आमुख में मैंने स्वयं स्वीकार किया था–
अमृत–गीत तुम रचो कलानिधि,
बुनो कल्पना की जाली।
तिमिर–ज्योति की समर–भूमि का
मैं चारण, मैं वैताली।
तब सन् 1943 ई. के आसपास मेरा परिचय ‘अदृश्य कवि’ इलियट की कविताओं से हुआ। यह मेरी काव्य चेतना में आनेवाला पहला भूडोल था। पूर्व इसके कि युग की बीमारी अपनी हस्ती का एलान करे, कवि को चाहिए कि वह युग से कह दे कि तुम बीमार हो या बीमार होनेवाले हो। इलियट की कविताएँ पूरी तरह मेरी समझ में नहीं आयीं, लेकिन तब भी मैं मान गया कि उन्होंने युग को यह चेतावनी दे दी है।
मैं बड़ी ही निश्चिन्तता और आत्मविश्वास के साथ गाता आ रहा था, साम्राज्यवाद की कुरूप छाती में अपने गीतों के खंजर चुभोता आ रहा था, पराधीनता की बेड़ियों पर उस हथौड़े से प्रहार करता आ रहा था, जो मुझे भगवान से प्राप्त हुआ था। किन्तु इलियट को पढ़ते ही मैं थोड़ी देर के लिए ठिठककर रह गया। अरे, इलियट की कविताएँ हम लोगों की कविताओं यानी मेरे गुरु रवीन्द्रनाथ और इकबाल की कविताओं से कितनी भिन्न हैं! फिर मन ने कहा, यह अवश्य ही परिस्थितियों का भेद है। इलियट उस दुनिया के कवि हैं, जो दुनिया समृद्धि की अधिकता से बेजार है, जिस दुनिया ने आत्मा को सुलाकर शरीर को जगा लिया है। किन्तु हम तो पराधीन देश के कवि हैं। हमारा तो कोई देश ही नहीं है। फिर हम ‘मरु देश’ की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
मगर इलियट को मैं चाहे जितना भी भूलना चाहता, मैं उन्हें भूल नहीं पाता था। उनकी कविताएँ समझ में भले ही नहीं आती हों, किन्तु वे मेरी शान्ति भंग करने में समर्थ थीं, मेरे मन को वे अकसर उस दिशा में भेज देती थी, जिस दिशा में कहीं कोई क्षितिज नहीं था, न कोई किताब खुलकर बन्द होती थी। मेरी चेतना के घाट बँध चुके थे, मेरी चमड़ी मोटी हो चुकी थी, मेरे मुहाविरे अब बदले नहीं जा सकते थे। अतएव, इलियट के लिए यह असम्भव कार्य था कि वे मुझे बदलकर अपनी राह पर लगा ले। लेकिन मन बराबर यह महसूस करता रहा कि इलियट रवीन्द्र और इकबाल से छोटे हों या बड़े, यह अलग बात है, किन्तु वे उन दोनों से भिन्न हैं और उनके साथ कविता में कोई ऐसी अदा उतरी है, जो संसार में और कभी दिखायी नहीं पड़ी थी। उस समय मैं यह क्या जानता था कि नवीनता का पाठ कविता ने इलियट में ही आकर नहीं पढ़ा! यह पाठ इलियट की कविताओं से कोई पचास वर्ष पूर्व वह फ्रांस में पढ़ चुकी थी। लेकिन भारतवासियों को तो भारत से बाहर केवल अंग्रेज दिखायी पड़ते थे। अतएव जब तक अंग्रेज नहीं बदले, भारतवासियों ने कविता के क्षेत्र में बदलने की बात सोची भी नहीं, जो बिलकुल स्वाभाविक बात थी।
आगे चलकर श्री अरविन्द के एक लेख में मैंने पढ़ा कि भविष्य की कविता मन्त्र के समान छोटी और वैसी ही प्रभावशालिनी होगी। इलियट की कविता मन्त्र कविता का पूर्वाभास है। कविता जिस साधना में लगी हुई है, उसमें यदि वह सफल हो गई, तो मन्त्र की तरह संक्षिप्त होना उसका स्वभाव हो जाएगा और वह संकेत में इस प्रकार बोलेगी, मानो आगामी पीढ़ियों को कवि चिट्ठी नहीं, तार भेज रहा हो। मुझे उन कवियों और आलोचकों पर तरस आता है, जो इलियट की गणना साहित्य के लकड़बग्घों में करते हैं।
रवीन्द्र और इकबाल ने मेरे हृदय–सरोवर को खूब हिलकोरा था। जब सरोवर किंचित् जड़ होने लगा, उसे इलियट और उनके समानधर्मा कवियों ने फिर से हिलकोर दिया। नयी कविता से मेरे घबराने का एक कारण यह था कि वह मेरी समझ में नहीं आती थी। दूसरे उसने छन्द की राह छोड़ दी थी। किन्तु जब मैंने देखा कि चित्रकारी बालू और कोलतार से तथा मूर्त्तिकारी लोहे के तारों से की जा रही है, तब मैंने यह मान लिया कि कविता का गद्य में लिखा जाना कोई अनुचित बात नहीं है।
मुझे जो कुछ बनना था, रवीन्द्र और इकबाल की कृपा से मैं बन चुका था। अब मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि मुझ पर कविता के नये आन्दोलन का भी प्रभाव पड़ेगा। लेकिन जो बात जवानी में नहीं हो पायी, वह बुढ़ापे में आकर हो गई। इस प्रभाव का अदृश्य आरम्भ ‘नील कुसुम’ में हुआ, उसका दृश्य प्रमाण ‘हारे को हरि नाम’ में मौजूद है। धर्म में मैं निराकार से साकार की ओर गया हूँ। कविता में मेरी यात्रा साकार से निराकार की ओर है। पहले मैं यह जानता था कि कविता कहाँ से आ रही है और वह किस तरफ को जाएगी। अब मुझे यह मालूम ही नहीं होता कि कविता कहाँ से आती है और क्या उसका गन्तव्य है।
कविता युग के संचित ज्ञान का आख्यान नहीं है। कविता का क्षेत्र ज्यों–ज्यों नवीन होता जाता है, कवि त्यों–त्यों अधिक गहराई में उतरता जाता है, और ज्यों–ज्यों वह गहराई में उतरता जाता है, त्यों–त्यों यह बताने में वह अधिक असमर्थ होता जाता है कि यह सत्य है और वह सत्य नहीं है। कविता की जो यात्रा गहराई की ओर है, वही उसे अनेकान्त की ओर लिये जा रही है। कवि यह जान गया है कि कोई भी बात जोर से बोलने के योग्य नहीं है। इसीलिए वह निश्चित और अनिश्चित, ज्ञात और अज्ञात के सन्धि–स्थल पर काम करता है। मनुष्य इतनी बार धोखा खा चुका है कि उसे अब किसी भी ज्ञान पर विश्वास नहीं रहा और सत्य को उसने इतनी बार बदलते देखा है कि वह कहीं भी दुराग्रहपूर्वक अड़ने को तैयार नहीं है। इसका प्रभाव कविता पर पड़ना स्वाभाविक था। कविता अब सत्य का उद्घोष नहीं, उसके अनुसन्धान का प्रयास है। मैं भी ‘उर्वशी’ में सिखाने के बदले अनुसन्धान के काम में ज्यादा लगा रहा हूँ। यह ठीक है कि ‘उर्वशी’ बहुत–से संचित ज्ञान का कथन बड़े ही उत्साह के साथ करती है, किन्तु वह सबका–सब सच है या नहीं, यह बात मुझे भी मालूम नहीं है। कविता में एक स्थिति वह भी आती है, जब कवि को अपने अहं का लोप करना पड़ता है अथवा समाधि की स्थिति में देर तक टिके रहने से कवि के अहं का आप से आप लोप हो जाता है। तब जो भूमि रिक्त रह जाती है, वहाँ कहीं से त्रस्त होकर कविता खुद–ब–खुद उतर आती है। ‘उर्वशी’ में ऐसे कई स्थल हैं। किन्तु उनके बारे में अधिकारपूर्वक बोलना मेरे लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि जहाँ–जहाँ ऐसे स्थल आए हैं, मेरा अस्तित्व विलुप्त हो गया है। वहाँ जो है, वह कविता है, मैं नहीं हूँ।
इस प्रसंग में ‘उर्वशी’ को ‘कुरुक्षेत्र’ से मिलाकर देखने की उत्सुकता स्वाभाविक है। ‘कुरुक्षेत्र’ में प्रकाश है, ‘उर्वशी’ में द्वाभा और गोधूलि है। ‘कुरुक्षेत्र’ की वाणी विश्वास की वाणी है, ‘उर्वशी’ की वाणी संशय और द्विधा से आक्रान्त है। ‘कुरुक्षेत्र’ में मैं धृष्टतापूर्वक गुरु के पद से स्वयं बोल गया हूँ। ‘उर्वशी’ की ऊँचाई पर पहुँचकर मुझे ऐसा लगा कि काश, कोई गुरु मिल जाता, तो उससे पूछ लेता कि असली रहस्य क्या है।
अपने स्वप्न, अपनी कल्पना की व्याख्या कवि स्वयं नहीं कर सकता, न यह काम करने की उसे कोशिश करनी चाहिए। कवि: करोति काव्यानि रसं जानन्ति पण्डिता:! फिर भी मैंने यह विवर्जित कार्य इसलिए किया कि मुझे लगा कि इससे आपका किंचित् मनोरंजन हो जाएगा। यह वह युग है, जिसमें माध्यम प्रमुख, सन्देश गौण हो गया है। लोग कविता कम, कविता के बारे में अधिक सुनना चाहते हैं। कवि की जीवनियाँ आज ज्यादा बिकती हैं, उनकी कविताओं की बिक्री कम हो गई है। कवि की कविता से अधिक महत्त्व अब कवि के साथ की गई भेंट–वार्ता को दिया जाता है।
जिस सभ्यता में हम जी रहे हैं, वह चैकोर व्यक्तित्व वालों की नहीं, विशेषज्ञों की सभ्यता है। ज्ञान के वृक्ष की डालियाँ अब बढ़कर इतनी स्वतन्त्र हो गई हैं कि एक डाल पर बसनेवाला पक्षी दूसरी डाल के पक्षी की बोली समझने में असमर्थ है। एक समय ऐसा भी था, जब गैलीलियो, वैज्ञानिक होने पर भी, कविता करते थे और लियोनार्डो द विंची को, कलाकार होने पर भी, विज्ञान का सारी बातें मालूम थीं। भारत में तो कवि अकसर ज्योतिषी भी हुआ करते थे। खानखाना अब्दुर रहीम केवल शायर ही नहीं, ज्योतिषी और सिपहसालार भी थे। लेकिन अब समय ऐसा आ गया है कि भौतिकी के सारे आविष्कार गणित के फॉरमूलों में बोले जाते हैं। मगर सभी वैज्ञानिक इतने बड़े गणितज्ञ नहीं होते कि वे इन फॉरमूलों को समझ सकें। नतीजा यह है कि वैज्ञानिक की बातें सभी वैज्ञानिकों की समझ में नहीं आतीं। इसी प्रकार कवियों की कविताएँ भी कुछ खास–खास कवि ही समझ पाते हैं। यह स्थिति कविता के लिए सामान्य नहीं, अच्छे–खासे सुधी पाठकों के लिए भी दुखदायी हो रही है। काश, कोई ऐसा कवि पैदा होता है, जो इलियट और रिल्के के स्वप्नों को तुलसी की सरलता से लिखने का मार्ग निकाल देता।
अन्त में अपने जीवन का एक और भेद बताकर मैं अपना व्यक्तव्य समाप्त करता हूँ। जिस तरह मैं जवानी–भर इकबाल और रवीन्द्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन–भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसीलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है वही रंग मेरी कविता का रंग है। मेरा विश्वास है कि अन्ततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा।
—रामधारी सिंह ‘दिनकर’