पुल (कश्मीरी कहानी) : मजरूह रशीद

Pul (Kashmiri Story) : Majrooh Rashid

मैं सिर्फ इतना जानता था कि एक वह छतनार पेड़ है और दूसरा मैं हूँ। मेरी आँखों ने इसके अलावा कुछ और नहीं देखा था, इसलिए यह पेड़ मुझे अपना सर्वस्व लगता था। ज्यों-ज्यों मेरी नज़रें व्यापक होती गई, उन्होंने नई-नई चीजें देखीं। पर सब से अजीब चीज जो मैंने देखी, वह दरिया के उस पार का किनारा था और किनारे के पास ही बिल्कुल वैसा छतनार पेड़, जिसके तले मैं बैठा करता था। उस पेड़ के तले कोई अप्सरा-सा सुंदर व्यक्तित्व था और मेरी नज़रें मुझे पूछे बगैर उस पार जाती रहतीं। मैं उसी तरह उधर न देखता, पर उसके मेरी ओर एकटक देखने से मैं भी मजबूर हो जाता। कभी मुझे संदेह होता कि इस पारको देखते वह मुझे छोड़कर कुछ और तो नहीं देख रही है? पर फिर मैं अपने मन को तसल्ली देता कि वह मुझी को देख रही है। मेरा मन एक और प्रश्न पूछता कि वह मुझे देख रही है तो क्यों? यद्यपि मेरा दिल इस सवाल के जवाब में एक और प्रश्न पूछता कि खुद मैं उस पार क्यों देख रहा हूँ? हर चीज़ की हद होती है। आज मैं अपनी आँखों से देख रहा था और दिल से महसूस कर रहा था कि मुझे क्षण इस पार आएगी। पुल के इस पार मेरी पुकार सुनकर भी वह हँसे जा रही थी। ज्यों-ज्यों मेरी आवाज ऊँची होती गई, वह एकदम उठ खड़ी हुई और पेड़ की छाया से बाहर निकलकर पुल पार करने का आभास देने लगी। इस छज्जेवाले पेड़ से एक-दो कदम दूर निकलकर जैसे उसे कोई शाप लगा और वह वापस छज्जे के नीचे जा बैठी। इससे मुझे क्रोध नहीं हुआ। बल्कि मैंने सोचा कि जिस तरह मुझे अपना छतनार पेड़ खड़ा ही नहीं होने देना चाहता. वही उसके साथ होता होगा। फिर भी मैंने इशारे में उससे पूछा कि दो-एक कदम चल के वापस क्यों लौटी? उसने हाथ से बहते दरिया की तेज रफ्तार की ओर इशारा किया। पहले में कुछ नहीं समझा कि उसका तात्पर्य क्या है। आखिर सोचा कि शायद अकेली इस पार आने से डर रही है। प्रवाह तेज था। वैसे भी मनुष्य पुल पार करते-करते भी चकरा सकता था। फिर मैं खुद ही अपने पेड़ तले खड़ा हो गया और पुलिया की ओर कदम बढ़ाने लगा। एक-दो कदम ही बढ़ा होऊँगा कि मुझे भी छतनार पेड़ ने वापस खींचना शुरू किया। पर मैंने सोचा कि अगर में भी पेड़ की छाया नहीं छोड़ सकता तो मुझ में और उस में क्या फर्क है? इसी आपाधापी में में पुलिया पार कर गया और उसका हाथ पकड़कर उसे खड़ा कर दिया। वह खड़ी होकर उसी गति से पुल की ओर चलती आई जिस गति से मैं गया था। हम दोनों खुश थे। इसी खुशी में जब हम दोनों पुल के बीचों-बीच पहुँच गए, पुल ही गायब हो गया। हम पीछे मुड़ने लगे। पीछे भी कोई पुल नहीं था।

(अनुवाद : रतनलाल शांत)

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