प्रोफेसर शंकू और लाल मछली का रहस्य (बांग्ला कहानी) : सत्यजित राय

Professor Shanku Aur Lal Machhli Ka Rahasya (Bangla Story in Hindi) : Satyajit Ray

13 जनवरी

पिछले कई दिनों जिक्र करने लायक कोई घटना नहीं घटी, इसीलिए डायरी नहीं लिखी। आज एक स्मरणीय दिन है, इसलिए कि आज मेरा 'लिंगुआग्राफ' बन गया। इस यन्त्र से किसी भी भाषा की बात रेकर्ड होकर महज तीन मिनट में उसका बंगला अनुवाद छपकर निकल आता है। मुझे यह जानने की बड़ी ललक थी, जानवरों की भाषा का कोई मतलब होता है या नहीं। आज अपने बिल्ले न्यूटन की कुल तीन ‘म्याऊँ' को रेकर्ड करके उसके तीन मतलब निकाले। एक में बोला 'दूध चाहिए', एक में 'मछली चाहिए', एक में 'चूहा चाहिए'। तो क्या बिल्लियाँ भूख लगे बिना बोलती नहीं? और दो तरह की ‘म्याऊँ' रेकर्ड किए बिना यह जानने का उपाय नहीं।

मछली की चर्चा आते ही आज एक बंगला अखबार में जो एक खबर छपी है, यह सच है कि झूठ, नहीं जानता, उसकी याद आ गई। वह खबर यदि मनगढंत भी हो, तो गढ़नेवाले की कल्पना-शक्ति की तारीफ करनी चाहिए। वह खबर यहाँ दिए दे रहा हूँ-

"गोपालपुर, 10 जनवरी । स्थानीय संवाददाता के एक विवरण से गोपालपुर के समुद्रतट की एक आश्चर्यजनक घटना प्रकाश में आई है। उस विवरण में यह कहा गया है कि कलनूलिया वर्ग के कुछ मछुआरे जाल डालकर जब उसे खींचकर ऊपर लाए, तो जाल में से लाल रंग की बीस-पचीस मछलियाँ कूदती हुई फिर से समुद्र के पानी में गायब हो गईं। नूलिया लोगों में से कोई भी यह नहीं बता सका कि यह किस तरह की मछली है। और जाल में से निकलकर मछली का यों भाग जाना भी उनके अनुभव में सर्वथा नया था।"

मेरे पड़ोसी अविनाश बाबू ने इस समाचार को पढ़कर कहा, “बस, यह तो इब्तदा है! अब देखिएगा, मछली ही बंसी डालकर जमीन से आदमी को फँसा-फँसाकर फ्राइ करके खा रही हैं! जलचर, थलचर और नभचर–इन्हीं तीन वर्गों के जीवों पर आदमी आज तक जुल्म ढाता चला आ रहा है। किसी न किसी दिन उसका फल भोगना पड़ेगा, इसमें ताज्जुब की कौन-सी बात है? मैं तो साहब अरसे से वैष्णवी भोजन की सोच रहा हूँ ।"

अविनाश बाबू की आखिरी बात झूठ थी और कुछ न सही, कम-से-कम हिलसा मछली की गन्ध मिल जाने पर अविनाश बाबू और मेरे 'न्यूटन' में कोई फर्क नहीं रह जाता, यह मैंने अपनी आँखों देखा है बहुत बार। मगर अविनाश बाबू कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बोलते ही हैं, इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा। आज सर्दी ज़रा ज्यादा ही पड़ी है। यह भी एक घटना है। अपनी प्रयोगशाला के थर्मामीटर में सबेरे देखा, 42 डिग्री फारेनहाइट। गिरिडिह में जमाने से ऐसी सर्दी नहीं पड़ी। मेरी ‘एयर कंडिशनिंग गोली' अच्छा काम कर रही है। कमीज की ऊपरवाली जेब में एक गोली रख लेता हूँ, गरम कपड़े की कोई जरूरत नहीं पड़ती।

16 जनवरी

आज के 'स्टेट्समैन' के पहले पृष्ठ पर जो एक खबर छपी है, उसका हिन्दी तर्जुमा यहाँ दे रहा हूँ-
"वालटेयर, 14 जनवरी। एक स्थानीय समाचार से यह जाना गया कि कल सबेरे नाइजीरिया का एक युवक नहाते हुए एक मछली के काटने से जान से हाथ धो बैठा। लार्स कर्नस्टाट नाम का अट्ठाइस साल का यह जवान अपने एक मित्र, मद्रासी परमेश्वर के साथ नहाने के लिए पानी में उतरा था। अचानक भारतीय युवक ने अपने मित्र की चीख सुनकर मुड़कर उसकी ओर ताका। देखा, बित्ताभर की एक लाल मछली कर्नस्टाट के गले में दाँत गड़ाए लटकी हुई है। परमेश्वर जब तक लपककर अपने मित्र के पास पहुँचा, वह मछली पानी में गायब हो चुकी थी। कर्नस्टाट तुरत बेहोश हो गया। उसे खींचकर सूखी रेती तक लाते-लाते उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। पुलिस घटना की छानबीन कर रही है। बहरहाल वालटेयर के समुद्र में नहाने की मनाही कर दी गई है।"

पहले गोपालपुर फिर वालटेयर। दोनों मछलियाँ एक ही जाति की लगती हैं। या तो दोनों ही खबरों को गप्प कहकर उड़ा दिया जा सकता है या फिर दोनों पर विश्वास करना चाहिए।

आज तमाम दिन मछलियों के बारे में पढ़ा। जितना ही पढ़ा, इन दोनों घटनाओं की अस्वाभाविकता उतनी ही समझ में आई। सबेरे इस खबर को पढ़कर बैठक में बैठा सोचने लगा, इसी मौके से एक बार गोपालपुर घूम आता तो बेजा नहीं था। ऐन वक्त पर अविनाश बाबू कूदते-हाँफते हुए आ धमके और अपने हाथ के अखबार को मेरी नाक के सामने हिलाते हुए बोले, “पढ़ लिया जनाब, पढ़ा? क्या कहा था मैंने? आदमी के खिलाफ अभियान आल रेडी शुरू हो गया!"

मैंने कहा, "तो मैं यह कहूँगा कि अभियान मेरे खिलाफ नहीं, आपके खिलाफ है। क्योंकि मैं नाममात्र को भी मांस-मछली नहीं खाता और आपको दोनों जून पाँच टुकड़ी मछली हुए बिना नहीं चलता।"
अविनाश बाबू धप्प से सोफे पर बैठ गए। अखबार को बगल में फेंककर बोले, “क्या खूब कहा आपने! मछली के बगैर लोग जीते कैसे हैं, नहीं जानता।"
मैंने इस पर कुछ नहीं कहा। बस पूछा, “समुद्र देखा है?" ।

अविनाश बाबू ने अपने गुलूबन्द को और अच्छी तरह से गले में लपेटते हुए कहा, “दुर्, समुद्र क्या, हाथी! जाऊँ-जाऊँ करते-करते पुरी तक तो जाना नसीब नहीं हुआ। बात दरअसल क्या है, बताऊँ। समुन्दर की मछली मुझे रुचती नहीं। और मैंने सुना है, वहाँ वही सब खाना पड़ता है।"

मेरे गोपालपुर जाने का इरादा सुनकर भले आदमी ज़रा चुप रहकर बोले, "आपके साथ लटक जाऊँ क्या? साठ से ज्यादा उम्र हो गई, आज तक समुद्र नहीं देखा, मरुभूमि नहीं देखी, खांडली पहाड़ के सिवाय पहाड़ नहीं देखा-आखिर मरते वक्त अफसोस करके मरना होगा क्या?"

मैंने गोपालपुर जाना एक प्रकार से तय कर लिया। इस अनोखी मछली का पता न भी चले, तो एकान्त में मेरे लिखने-पढ़ने का काम बहुत कुछ आगे बढ़ जाएगा और जलवायु परिवर्तन भी हो जाएगा।

21 जनवरी

दो दिन हुए, गोपालपुर आया हूँ। आखिर अविनाश बाबू ने मेरा पीछा पकड़ा। लेकिन मैं होटल में ठहरा और वह वहीं के एक बंगाली सज्जन के पेइंगगेस्ट होकर रहे। आदमी जरा वैसे-से हैं, इसीलिए यह इन्तजाम। बोले, “उन सब अँगरेजी होटलों में क्या कहकर किस चीज का मांस खिला देता है! उससे पैसा देकर हिन्दू के घर में रहना अच्छा है।"
अपने नौकर प्रह्लाद को छोड़ आया हूँ, लेकिन न्यूटन को साथ ले आया हूँ। वह यहाँ आकर केकड़ों के पीछे खूब पड़ गया है।

अभी तक लाल मछली का कोई पता नहीं चला। यहाँ के भले लोगों में से किसी ने वह मछली नहीं देखी। जिन नूलियों के जाल में वे फंसी थीं, मैंने उनसे बातें कीं। उन लोगों ने तो कहा, “ऐसी घटना उनकी सात पुश्तों में कभी नहीं घटी। जाल खींचते समय उनके पानी में रहते ही उन लोगों ने मछली का अनोखा रंग देखकर समझा था कि यह कोई नई किस्म की मछली फँसी है। जाल को जमीन पर खींचकर खोलते ही और मछलियों की भीड़ में से वे लाल मछलियाँ एक ही साथ उछली और कूदती हुई पानी में जा रहीं। उनका कूदना बहुत कुछ मेंढकों-जैसा था और वह पूंछ पर टिककर बिलकुल खड़े होकर।" नूलियों ने शायद यह भी देखा था कि मछली की पूँछ दो हिस्सों में बँटी थी और पाँव-सी हो गई थी।

काश, कोई कैमरावाला आदमी उस समय रहा होता! मैं अपने साथ कैमरा ले आया हूँ। काम के कुछ अन्य औजार भी लाया हूँ। पता नहीं, इनके उपयोग का मौका लगेगा या नहीं। मेरा इरादा यहाँ सिर्फ सात दिन रहने का है। इसी अरसे में जो हो जाए!

कल होटल में एक जापानी सज्जन आए हैं। डाइनिंग रूम में परिचय हुआ। नाम है हामाकुरा। टूटी-फूटी अँगरेजी बोलते हैं, बड़े कष्ट से समझना पड़ता है। भाग्य से मैं अपना 'लिंगुआग्राफ' लेता आया था। इससे दो काम हुए भले आदमी से मजे में बातचीत की जा सकती है और उन्होंने भी मेरी वैज्ञानिक प्रतिभा को अच्छी तरह से जान लिया है। वह काम क्या करते हैं, यह नहीं जान पाया था। इस विषय में पूछने पर वह उलटा प्रश्न कर बैठते थे। इतना छिपाने का क्या कारण हो सकता है, नहीं समझ पाता। कल तीसरे पहर मेरी तरह वह भी समुद्र के किनारे टहलने के लिए गए थे। अकसर ही मैंने देखा, रुक-रुककर वह एकटक समुद्र की ओर ताक रहे हैं। सुना है, जापान में मोती का व्यापार होता है और जापानी मोती का नाम है। वह क्या इसी धन्धे के सिलसिले में आए हैं?

23 जनवरी

परसों रात से ही तरह-तरह की घटनाएँ घटने लगी हैं। जापानी सज्जन भी मेरे ही समगोत्री यानी वह भी वैज्ञानिक हैं और उनके गोपालपुर आने का क्या मतलब है-इन बातों का पता कैसे चला, पहले यह बता दूँ।

कल सवेरे रोज की तरह समद्र के किनारे जाकर नलियों का जाल खींचना देख रहा था। जाल में एक नए प्रकार का समुद्री जीव ऊपर आया।
किताब में इसकी तसवीर देखी थी, पर नाम नहीं याद आ रहा था। उसका कोई स्थानीय नाम है या नहीं, नूलियों से पूछने ही जा रहा था कि पीछे से हामाकुरा की आवाज सुनाई पड़ी, “रायन फिश!" वास्तव में लायन फिश।
मैंने खासा अवाक-सा होकर कहा, “आपको इन बातों में रुचि है, क्यों?"
वह सज्जन जरा हँसकर बोले, “यही मेरा पेशा है। मैं पच्चीस साल से सामुद्रिक प्राणितत्त्व पर गवेषणा कर रहा हूँ।"

यह जानकर मैंने फिर से उनसे गोपालपुर आने का कारण पूछा। हामाकुरा ने बताया, वह सिंगापुर से आ रहे हैं। वहीं समुद्र के किनारे गवेषणा कर रहे थे। एकाएक एक दिन वहाँ गोपालपुर में 'जामुपिनि फिश' की खबर पढ़कर उसे देखने की आशा में यहाँ चले आए।

'जामुपिनि' से मतलब ‘जंपिंग' का है, यह समझने में कठिनाई नहीं हुई। जापानी लोग संयुक्ताक्षर को तोड़कर किस तरह से दो अलग अक्षरों की तरह उच्चारण करते हैं, यह मैं इन कई दिनों में जान गया हूँ। हलंत भी उनकी भाषा में नहीं हैं और न ही 'ल' का प्रयोग। हामाकुरा के उच्चारण में इसीलिए सिंगापुर और गोपालपुर का उच्चारण हुआ-सिनगापुरो और गोपालपुरो। और मैं हो गया, पोरोफेसोरो शोनोकू।

जो भी हो, मैंने भी हामाकुरा से बताया, “गोपालपुर आने का मेरा भी एक ही उद्देश्य है। लेकिन जो रवैया देख रहा हूँ, उससे लग रहा है कि आने का कोई खास लाभ नहीं होगा।" हामाकुरा मेरी बात सुनकर क्या कहने जा रहा था, पर नहीं बोला। शायद हो कि भाषा के अभाव से ही उसका कहना अटक गया।

शाम के समय हम लोग रोज बरामदे पर बैठे रहते हैं। बरामदे से एक डग उतरते ही रेत और रेत पर सौ गज चलने के बाद ही समुद्र। कल तीसरे पहर मैं और हामाकुरा अगल-बगल डेकचेयर पर बैठे थे और एक आरा मछली का दाँत खरीद लाकर अविनाश बाबू कह रहे थे कि इसे घर में रखने से चोर नहीं आता। ऐसे में एक अजीब बात हो गई।

साँझ की धुंधली रोशनी में साफ ही देखा कि समुद्र के बीच से जाने कैसी-सी चीज निकली और दूसरे ही क्षण उसके ऊपर एक हरी रोशनी जल उठी।

अपनी जापानी भाषा में जाने क्या बोलकर हामाकुरा अपने कमरे में उछलकर चला गया। उसके बाद उस कमरे से खट-खट, पी-पी आदि तरह-तरह की आवाज आने लगी। देखा कि वह हरी रोशनी जलती है और बुझती है। उसके बाद एक समय वह जलती ही रह गई, बुझी नहीं।

इधर अविनाश बाबू उत्तेजित हो उठे। बोले, “यह तो गोया बायस्कोप देख रहा हूँ, साहब! यह हो क्या रहा है, सो तो कहिए? वह कौन-सी चीज है?"

इतने में हामाकुरा कमरे से निकल आया। उसे देखकर लगा कि वह बड़ा निश्चिन्त-सा लग रहा है। खुश भी। हरी रोशनी की तरफ उँगली दिखाते हुए बोला, “माइ शिप। तू गो दाउन। आनुदा उआता।"
समझ गया, वह सबमेरीन जैसा कछ है-अंडर वाटर यानी समन्दर के नीचे चलता है।
मैंने पूछा, “उसमें कौन है?"
हामाकुरा ने कहा, “तानाका। माइ फ्ररेनोदो।"
“योर फ्रेंड?"
हामाकुरा ने बार-बार सिर हिलाकर कहा, “हूँ-हूँ!"
“उइ तू–सानितिस। गो दाउन तू सुतादी राइफ आनूदा उआता।"

यानी हम दोनों साइंटिस्ट हैं। ‘गो डाउन टू स्टडी लाइफ अंडर वाटर'। समझ गया कि तानाका हामाकुरा का सहयोगी है। वे दोनों एक साथ समुद्र के अन्दर उतरकर समुद्री जीवों के बारे में खोजबीन करते हैं।
अब साफ देखने में आया कि जहाज हम लोगों की तरफ बढ़ आया है और उसकी रोशनी क्रमश: तेज हो रही है।

हामाकुरा बरामदे से बालू पर उतरा और समुद्र की ओर जाने लगा। हम दोनों ने उसका पीछा किया। जहाज के बारे में बड़ी उत्सुकता हो रही थी। समझ गया कि हामाकुरा इतने दिनों से इसी का इन्तजार कर रहा था। बालू पर से चलते हुए अविनाश बाबू ने फुसफुसाकर मेरे कानों में कहा, “मुझे आशा है, अपने बचाव के लिए आपके पास हथियार आदि हैं। मुझे लेकिन इनके रवैये अच्छे नहीं लग रहे हैं, या तो ये गुप्तचर हैं, या स्मगलर। यह मैं कहे देता हूँ।"

पानी पर से वह सबमेरीन जिस तरह से चला आया, उससे समझा, ऐमफिबियन है, यानी पानी पर भी चलता है, जमीन पर भी। पुरी का समुद्रतट रहा होता, तो इस जहाज को देखने के लिए हजारों आदमी जमा हो गए होते, लेकिन गोपालपुर में इस जहाज के आने की बात को जाना केवल मैंने और हामाकुरा ने।

आकार में वह जहाज हमारे होटल के कमरे से ज्यादा बड़ा नहीं था। बनावट में मछली से उसकी बहत कछ समानता है, गो कि मॅह उसका चिपटा है। नीचे तीन पहिए, दो ओर दो डैने और पूँछ की तरफ एक पतवार-सा देखा। कन्धे पर जो डंडा-सा है, वह पानी के अन्दर पेरिस्कोप का काम करता है। इसी डंडे के ऊपरी सिरे के पास वह हरी रोशनी है।

पानी को पार करके किनारे के पास पहुँचते ही जहाज रुका। उसकी दोनों बगल से काँटे-जैसी दो चीजें निकलीं, वह बालू में कुछ गहराई तक गड़ गईं। उसने जहाज को सखी के साथ मिट्टी से अटका दिया। समझ गया, अब वह हलकोरों से भी नहीं हटेगा।

उसके बाद देखा, जहाज के एक ओर का दरवाजा खुल गया। उसके अन्दर से चश्मा पहने एक नाटे कद का गोलमटोल खुशमिजाज आदमी उतरा। उतरकर उसने हामाकुरा से हाथ मिलाया फिर हमारी तरफ मुड़कर बार-बार घुटने झुकाकर अभिवादन करने लगा। इसी बीच हामाकुरा ने अपने सहयोगी से हमारा परिचय करा दिया।
अविनाश बाबू ने फुसफुसाकर कहा, “मैं तो यही जानता था कि अतिभक्ति चोर का लक्षण है। ये सज्जन बार-बार इतना झुक क्यों रहे हैं, बताइए।"

मैंने भी फुसफुसाकर कहा, “जापान में चोर, छिछोरे, साधु-संन्यासी सभी इसी तरह से झुकते हैं। इसमें सन्देह करने की कोई बात नहीं।"

समुद्र से होटल आया तो सारी बातें साफ-साफ मालूम हुईं। तानाका सिंगापुर में हामाकुरा के साथ था। वह गोपालपुर तक तमाम रास्ता समुद्र के नीचे ही नीचे आया है। हामाकुरा आकाश मार्ग से और स्थल पर होकर आया है। गोपालपुर को केन्द्र बनाकर वे दोनों समुद्र के नीचे उस लाल मछली की खोजबीन करेंगे।
मैंने पूछा, “मिस्टर तानाका पानी के नीचे-नीचे इतनी दूर तक आए, उन्होंने क्या वह लाल मछली एक भी नहीं देखी?"

तानाका हामाकुरा से भी कम अँगरेजी जानते थे। मैं अपने लिंगुआग्राफ की मदद से जान सका कि उन्हें लाल मछली का कहीं कोई चिह्न नहीं दिखाई पड़ा। लेकिन दूसरे जल-जीवों में उन्होंने एक अजीब हलचल-सी देखी। रंगून के पास से गुजरते हुए उन्होंने बहुत-सी मरी हुई मछलियाँ भी देखीं। उनमें से कुछ हंगर और कुछ सोंस भी थे। इसका कारण तानाका कुछ भी नहीं समझ सके। लेकिन उन्हें ऐसा ख्याल हुआ कि लाल मछली न सही, किसी जलचर प्राणी का उत्पात ही इन मौतों का कारण है। तानाका थके हुए थे। इसलिए उस समय प्रश्न करके उन्हें तंग नहीं किया।

अविनाश बाबू मेरे कमरे में आकर बोले, “समुद्र के नीचे-नीचे मजे में घूमते फिर रहे हैं। यह तो बड़ी अनोखी बात है! देखते-देखते क्या नहीं हुआ!"
भले आदमी को यह नहीं मालूम है कि सबमेरीन नाम की एक चीज का बहुत पहले ही आविष्कार हो चुका है। लोग तभी से पानी के नीचे-नीचे घूम रहे हैं। हाँ, पहले बहुत ज्यादा गहराई तक उतरना सम्भव नहीं था। वह शायद जापान के बनाए जहाज से सम्भव हुआ है।

अविनाश बाबू ने कहा, “सुनते हैं, इस जगह से बहुत जल्दी ही मन ऊबने लगता है, लेकिन अब लग रहा है कि मन लग जाएगा। मैं एक खासे रोमांच का अनुभव कर रहा हूँ। इतने पास से दो-दो जापानियों को एकसाथ देख पाऊँगा, यह कभी सोच भी नहीं सका था! मगर यह मछली-वछली की बात पर मुझे यकीन नहीं आता है साहब!"
"हुँ! लाल मछली! यह लाल मछली भी कोई नई चीज है भला! गिरिडिह में अपने मित्तिर के यहाँ ही तो एक गमले में भरी हुई कितनी तरह की मछलियाँ हैं। लाल, नीली। और कूदकर चलना ही ऐसी क्या आश्चर्य की बात है! कवै मछली को कान से चलते नहीं देखा है आप लोगों ने? वह भी तो एक प्रकार से कूदना ही हुआ।"

अविनाश बाबू के चले जाने के बाद खा-पी करके दो-एक घंटा एक लेख लिखने के काम को कुछ आगे बढ़ाकर फिर बाहर बरामदे पर जा खड़ा हुआ। रात के नौ बजे से बिजली की गड़बड़ी से बत्तियाँ गुल हो गई थी, इसलिए बैरा आकर कमरे में मोमबत्ती दे गया था। बाहर निकलने पर देखा, सब सुनसान अँधेरा। बरामदे के दूसरे छोर पर तानाका और हामाकुरा के कमरे थे-अगल-बगल वे दोनों ही कमरे अँधेरे थे, शायद दोनों सो गए थे। बड़ी दूर से, जाने कहाँ से ढोल की आवाज आ रही थी। शायद हो कि नूलियों का कोई परब-त्योहार हो। उसके सिवाय और जो शब्द था, वह समुद्र की लहरों का निश्वास।
मैं बरामदे से बालू पर उतरा। अभी भी चाँद नहीं निकला था।

हलकी-सी आहट हुई। मुड़कर देखा, न्यूटन कमरे से बरामदे में निकल आया है। उसकी नजर समुद्र की ओर थी। रोएँ खड़े हो गए थे और पूँछ फूलकर ऊँची उठ आई थी।

मेरी भी नजर समुद्र की ओर गई। चूँकि समुद्र के पानी में फासफोरस होता है, इसलिए वह अँधेरे में भी साफ दीखता है। लेकिन उस समय फासफोरस की उस नीली-सी आभा के अलावा भी दूसरी एक रोशनी दिखाई पड़ी। यह रोशनी जलते हुए कोयले जैसी लाल थी और वह लाल आभा किनारे से लगी यहाँ से वहाँ तक, जहाँ तक नजर जाती थी चली गई थी। आभा यह स्थिर भी नहीं थी, हिलती थी, चलती-सी लग रही थी, आगे-पीछे जा-आ रही थी।

उस लाली की तरफ देखकर न्यूटन गुरगुर करने लगा। मैंने जाकर झट उसे गोदी में उठा लिया, अपना सुपर टॉर्च लगा बाइनोकुलर लेकर कमरे का दरवाजा बन्द करके फिर बरामदे पर आया।

टॉर्च को जलाकर लाल आभा को निशाना बनाकर बाइनोकलर को आँखों में जैसे ही लगाया कि आँखें चौंधियानेवाला एक आश्चर्यजनक दृश्य दिखाई पड़ा। कतार की कतार, सीधे खड़े, देखने में मछली जैसे कोई जीव-उनमें से हर एक के बदन से लाल आभा छिटक रही थी और वे जैसे कौतूहल से सूखे की ओर ताक रहे थे।

लेकिन यह दृश्य मिनट-भर से ज्यादा देखने का सौभाग्य नहीं हुआ। मेरी रोशनी की वजह से या और किसी कारण से पता नहीं सारी मछलियाँ एक ही साथ हठात् पानी में चली गईं। उसी के साथ दूर तक फैली आग की वह लकीर भी गायब हो गई-सिर्फ फासफोरस की नीली आभा ही रह गई।

मैं और भी कुछ देर तक समुद्र की ओर ताकते रहने के बाद धीरे-धीरे सोचता हुआ अपने कमरे में चला आया। यह कैसे अजाने और अजूबे जीव का आविर्भाव हुआ? इतने दिनों तक ये कहाँ थे? इन्हीं में से एक के काटने के कारण वालटेयर में एक आदमी की जान गई। तो क्या ये सब आदमी के दुश्मन हैं? तानाका ने जिन मछलियों को समुद्र के नीचे मरा हुआ देखा, उनकी मौत के कारण भी यही हैं क्या?
रात काफी हो चुकी थी। कमरे में आकर सो गया। अच्छी नींद नहीं आई। उसकी एक वजह न्यूटन का बार-बार गुर्राना थी।

सबेरे अपने जापानी मित्रों को रातवाली घटना बताई। तानाका बोला, "तो लगता है, हमें ज्यादा भटकना नहीं पड़ेगा। वह सब बेशक आस ही पास हैं।" ।
मैंने ज़रा आगा-पीछा करके आखिरकार अपने मन की बात कह ही दी, “आप लोगों के उस जहाज में दो से ज्यादा लोग नहीं जा सकते?"

हामाकुरा ने कहा, "हम लोग छह आदमी तक उस जहाज से नीचे गए हैं। लेकिन ज्यादा दिन अन्दर रहना हो, तो चार जने से ज्यादा को नहीं लेना ही ठीक है।"

मैंने कहा, “आप लोगों को एतराज न हो तो मैं अपने बिल्ले को लेकर आपके साथ चलना चाहता हूँ। अपने खाने-पीने का प्रबन्ध हम कर लेंगे, आपको नहीं सोचना होगा।"
हामाकुरा न सिर्फ राजी हुआ, बल्कि खुश भी हुआ। तानाक ज़रा पुरमज़ाक आदमी है। बोला, “आपका यह यन्त्र साथ में रहे, तो शायद मछलियों की भाषा समझ में आ जाए।"

तय पाया कि कल, यानी दूसरे दिन सबेरे हम लोग रवाना होंगे। उन लोगों के पास सात दिन की खुराक थी। उतने दिनों तक हम लोग लगातार समुद्र के नीचे घूम सकेंगे।
खुशकिस्मती थी कि गोपालपुर आया था। और सौभाग्य से ही हामाकुरा यहाँ आया था। समय मिलता तो ऐसा एक जहाज बना लेना मेरे लिए नामुमकिन नहीं था। मगर बहरहाल जापानियों के इस जहाज के लिए भगवान को धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सका।

हमारे होटल की मैनेजर एक स्विस महिला थी। उससे कहा, "हमारे ये कमरे और किन्हीं को न दिए जाएँ।” इस भद्र महिला जैसा कौतूहलविहीन आदमी मैंने नहीं देखा। हम लोगों की ऐसी उत्तेजना, इतनी कल्पना-जल्पना, यहाँ तक कि पिछली रात लाल मछलियों के निकलने की सुनकर भी वह ज़रा भी विचलित न हुई या यों कहें, उसे ज़रा भी कौतूहल नहीं हुआ। वह बोली, “जितने दिनों तक रह चुके हो, उसका किराया चुका देने से, जो कई दिन नहीं रहोगे, उसका किराया मैं नहीं जोदूंगी। मैं यह किराया अभी इसीलिए ले लेना चाहती हँ कि कहीं समुद्र के पेट में ही तुम लोगों की समाधि न हो जाए।” अजीब थी वह स्त्री!
दोपहर में अविनाश बाबू आए। मुझे सामान सहेजते देखकर बोले, “क्यों जनाब, लौटने का मनसूबा गाँठ रहे हैं क्या? अजी, अभी-अभी तो खेल जमा है!"

मैं अविनाश बाबू के बारे में जरा किन्तु-परन्तु कर रहा था। लेकिन यह भी सोच रहा था कि अभी अविनाश बाबू के बारे में सोचने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने इसी बीच दो-एक बंगाली सज्जनों से काफी घनिष्ठता कर ली है, इसलिए यह भी नहीं कि मैं उन्हें अथाह मँझधार में छोड़े जा रहा हूँ।
मैंने अपनी तैयारी का कारण जो बताया तो अविनाश बाबू ज़रा देर के लिए गुम हो गए, उसके बाद एकबारगी हाथ-पैर पटककर बोले, “भीतर ही भीतर आपने यह मनसूबा कर रखा था! आप तो अच्छे खुदगर्ज आदमी हैं जनाब! यह प्रिविलेज सिर्फ आपको ही क्यों मिलेगा? आप वैज्ञानिक हो सकते हैं, मगर मछलियों की जानकारी आपको क्या है? मैं तो फिर भी ‘मछलीखोर' हूँ, चाहकर मछली खाता हूँ और आप तो प्रैक्टिकली मछली खाते ही नहीं।"

मैंने किसी प्रकार से उन्हें रोकथामकर कहा, “यदि आपको भी अपने साथ कर लूँ तो आप खुश होंगे?"
“बेशक! ऐसा मौका हाथ से कौन जाने देता है? मेरे बीवी नहीं है, बाल-बच्चे नहीं हैं, आखिर मुझे बंधन काहे का है? इससे आखिर कुछ करना होगा, लोगों को कम-से-कम यह कह सकूँगा कि ‘फारेन' गया था, सो वह मछली का मुल्क था कि आदमी का, यह कहने की क्या जरूरत है?"

हामाकुरा को अविनाश बाबू के बारे में कहा तो, वह भरमुँह हँसकर बोला, “वी जापनी तू-यु वेनेगारी तू–पारुफे केतु!"
यानी : “हम दो जापानी, तुम दो बंगाली, परफेक्ट!"
कल सबेरे हम लोगों का अभियान शुरू होगा। भाग्य में क्या है, भगवान जाने! लेकिन इतना जानता हूँ कि यह सुअवसर खोना गलत होता। और चाहे जो हो, एक नई दुनिया देखी जाएगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

24 जनवरी

ठीक बारह घंटे पहले हम समुद्र के नीचे उतरे हैं। यहाँ डायरी लिखने का सुयोग-सुविधा होगी या नहीं, पता न था। गया तो देखा, बड़े आराम से हूँ। इन्तजाम इतना अच्छा था और थोड़ी ही जगह में केबिन को इतने ढंग से प्लान करके बनाया गया था कि ज़रा देर के लिए भी भीड़ की घुटन नहीं महसूस हुई।

साँस लेने की कोई तकलीफ नहीं। खाने-पीने का इन्तजाम जापानी था। वह मुझसे नहीं चलेगा, इसलिए मैंने अपनी ‘वटिका इंडिका' की एक गोली से ही काम चला लिया। मेरी बनाई हुई यह गोली एक ही खा लें, तो दिनभर का खाना हो जाता है। जापानी लोग कच्ची मछली खाना पसन्द करते हैं, ये लोग भी वही खा रहे थे, इसलिए न्यूटन को बड़ी सुविधा हो गई थी। अविनाश बाबू ने आज साग-भाजी खाई, एक प्याला जापानी चाय का पिया। मैं समझ गया, इससे न तो उनका पेट भरा, न मना कहा। कल एक गोली मेरी वाली ही खा लेंगे, गो कि मुझे मालूम है, मेरी इस गोली का उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं है।

मैं अपने बारे में कह सकता हूँ कि जब से यहाँ आया हूँ, मेरे मन में खाने की बात ही नहीं आती, क्योंकि मेरा सारा मन केबिन की उस तिकोनी खिड़की पर लगा था।

जहाज की एक बड़ी ही तेज रोशनी ने बाहर प्रायः पचास गज की दूरी तक को प्रकाशमान कर दिया था और उस रोशनी से एक अनोखी, पल-पल बदलती हुई दुनिया ने मुझे दंग कर दिया था। दसेक मिनट हुए, हमारा जहाज रुका। तानाका और हामाकुरा पनडुब्बे की पोशाक पहनकर कुछ सामुद्रिक उद्भिदों के नमूने जमा करने के लिए केबिन से निकल गए थे। उनके इस चले जाने का मौका पाकर मैं डायरी लिखे ले रहा हूँ। अविनाश बाबू ने पूछा, “आपको वह पोशाक पहना दें तो आप बाहर निकल सकते हैं?” मैंने कहा, “क्यों नहीं निकल सकूँगा? उसमें तो बहादुरी की कोई बात नहीं है। पानी के अन्दर आसानी से चल-फिर सकने के लिए ही तो वह पोशाक है। आपको पहना दें तो आप भी चल-फिर सकते हैं।"

अविनाश बाबू ने अपने दोनों हाथों से दोनों कान मलते हुए कहा, “माफ कीजिए साहब. किसी बात की सीमा भी होती है। मैं इसी तरह मजे में हैं। चाहकर ऊब-इब करने का शौक मझे नहीं चर्राया है।"

सबेरे से हम लोगों ने समुद्र के नीचे कोई पचीस मील का चक्कर काटा। किनारे से खूब ज्यादा दूर नहीं गए क्योंकि मछलियाँ जब जाल में फंसी थीं, और परसों रात को भी जब उन्हें जमीन के ऊपर आते देखा, तो वे आसपास ही हैं, यह अंदाज किया जा सकता है।

हम लोग ज्यादा गहराई में भी नहीं गए। क्योंकि तीन-साढ़े तीन हजार फुट के नीचे सूरज की रोशनी नहीं पहुँचती, इसलिए वहाँ मछलियाँ प्रायः रहती ही नहीं हैं। कम-से-कम रंगीन मछलियाँ तो नहीं ही, क्योंकि सूरज की रोशनी ही मछलियों के रंग का कारण होती है।

इन बारह घंटों में कैसी-कैसी, कितनी अजीब मछलियाँ और उद्भिद देखे, उसका कोई लेखा ही नहीं। दस फुट नीचे पहुंचते ही 'जेली फिश' किस्म की मछलियाँ देखने को मिलीं। वह सब भी मछलियाँ हैं, अविनाश बाबू यह विश्वास ही नहीं करेंगे। कहने लगे, “पूँछ नहीं, माथा नहीं, चोइए नहीं, गलफरा नहींयों ही मछली कहिएगा?"
'प्लेंकटन' जातीय उद्भिद को देखकर अविनाश बाबू बोले, “आप इन सबको भी मछली कहकर ही चलाने को तैयार हैं क्या?"
मैंने उन्हें बताया, “यह सब समुद्री उद्भिद हैं। पेड़-पौधे। बहुत-सी मछलियाँ हैं, जो यही सब खाकर जीती हैं।"
अविनाश बाबू ने आँखें कपाल पर चढ़ाकर कहा, “यानी कि मछलियों में भी 'वेजेटेरियन' हैं। ताज्जुब है!"

तानाका उद्भिद संग्रह करके लौट आया और हम लोगों का जहाज फिर चलने लगा। झुंड की झुंड मछलियाँ हम लोगों की खिड़की के पास से जाने लगीं। एक बहुत बड़ी चिपटी मछली आगे आई और बड़ी उत्सुकता से हमारे केबिन की ओर देखने लगी। जहाज चल रहा है और वह मछली भी उसके साथ-साथ चल रही है, उसकी नजर हम लोगों की ओर थी। न्यूटन खिड़की के सामने की टेबिल पर चढ़कर काँच पर ठीक उस मछली के मुँह पर पंजा घिसने लगा। प्रायः पाँच मिनट तक इस तरह से चलते रहने के बाद वह मछली बगल से निकलकर गायब हो गई।

तानाका दिन में बीच-बीच में यह देखने के लिए सर्चलाइट बुझा दिया करता था कि स्वाभाविक रोशनी कितनी है। तीसरे पहर के बाद से रोशनी बुझाई नहीं गई।

घंटेभर पहले तानाका ने कहा, “यदि हजार फुट की गहराई में लाल मछली नहीं मिली तो हम उपकूल से और भी दूर, और भी गहराई में उतरेंगे। ऐसा भी हो सकता है कि यह मछली बिलकुल अँधेरे समुद्र की मछली हो।"
मैंने कहा, "लेकिन ये तो सूरज की रोशनी में निकल सकती हैं, इसका सबूत तो मिल चुका है।"

हामाकुरा ने गम्भीरता के साथ कहा, “मालूम है। जभी तो इसकी जाति समझने में कठिनाई हो रही है। यह नहीं लग रहा है कि आसानी से इसका पता चल सकेगा।"

तानाका अपने कैमरे से दनादन समुद्री जीवों की तसवीर खींचता चला जा रहा था। कुछ देर पहले दो हंगर एकबारगी खिड़की के पास आ पहुँचे थे। उनके बाए हए मुँह में दाँतों की पाँत देखकर सचमच ही डर लगता है।

अविनाश बाबू से कहा, "हंगर की पीठ पर वह जो तिकोने डैने-सी चीज देख रहे हैं, वह भी आदमी का खाद्य है। जी चाहे तो किसी चीनी रेस्टोरेंट में जाकर 'शार्क्स फिनसूप' खाकर आप देख सकते हैं।"

अविनाश बाबू ने कहा, “सो तो समझा। वैसा तो सुना है, साँड़ की पूँछ का भी सूप बनता है। लेकिन सोच देखिए, जिसने पहली बार इसे खाकर खाद्य का सर्टिफिकेट दिया, उसकी कितनी बहादुरी है! कछुए को देखकर क्या लगता है कि उसे भी खाया जा सकता है?" हमारी खिड़की से बाहर उस समय कछुओं का एक जोड़ा तैरता जा रहा था, “देखिए न, पाँव देखिए, सिर देखिए, खोली देखिए-जिसे अजीबोगरीब कहते हैं। मगर खाने में कैसा स्वादिष्ट!"

रात के साढ़े-आठ बज रहे थे। अविनाश बाबू ने इसी बीच दो-तीन बार जम्हाई ली। तानाका एक थर्मामीटर में पानी का ताप देख रहा था। हामाकुरा नोटबक खोलकर क्या तो लिख रहा था। केबिन के रेडियो में बड़े धीमे स्वर में एक मद्रासी गीत सुनाई पड़ रहा था। आज लाल मछली का कोई पता लग सकेगा, ऐसा नहीं लगता।

25 जनवरी, सबेरे 8 बजे

कल रात जो एक चंचल कर देनेवाली घटना हुई, उसे इसी वक्त लिख रक्खूँ।
हामाकुरा और तानाका बारी-बारी से जहाज चलाया करते हैं, क्योंकि एक आदमी के लिए यह काम ऊब का हो जाता है। मैं जिस समय की घटना लिख रहा हूँ, घड़ी में रात के साढ़े-ग्यारह बज रहे थे। हमारा जहाज सात सौ फुट की गहराई पर जमीन से चार हाथ ऊपर चल रहा था। कंट्रोल हामाकुरा के हाथ में था, तानाका अपने बंक पर विश्राम कर रहा था। अविनाश बाबू सो रहे थे और उनकी नाक इस जोर से बज रही थी कि बार-बार लग रहा था, इन्हें साथ नहीं ले आया होता तो अच्छा था। मेरी नजर खिड़की के बाहर थी। एक 'इलेक्ट्रिक ईल' मछली ने, कुछ देर हुई, हमारा साथ पकड़ा था। ऐसे में सर्चलाइट की रोशनी में देखा, समुद्र के धरातल पर कौन-सी चीज तो चकमक कर रही है।

मैंने हामाकुरा की ओर देखा। देखा, वह भी उस चकमक-सी चीज की ओर देख रहा है। उसके बाद देखा, स्टेयरिंग घुमाकर वह जहाज को उसी ओर ले जा रहा है। मैं खिड़की के करीब गया। देखा, वह चारेक हाथ लम्बी पीतल की एक तोप है। यह अंदाज करने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि कभी वह किसी जहाज के साथ थी और जहाज के साथ ही पानी में डूब गई।
तो क्या उस जहाज का भग्नावशेष भी यहीं कहीं है?

मन-ही-मन एक खासी दबी हुई उत्तेजना महसूस की। तोप की शकल से यह साफ समझ में आया कि यह तीन-चार सौ साल पुरानी होगी। मुगल जहाज था या कि डच या ब्रिटिश जहाज?

हामाकुरा ने जहाज के स्टेयरिंग को फिर घुमाया। उसके साथ ही सर्चलाइट की रोशनी भी घूम गई। उसके घूमते ही वह पड़ा हुआ जहाज किसी विशाल समुद्री जीव के कंकाल-सा लगा। यहाँ मस्तूल, वहाँ पतवार, पिंजरे जैसा कुछ घिसा हुआ इस्पात का ढाँचा, माटी में यहाँ-वहाँ बिखरा हुआ धातु का भिन्न-भिन्न आकार का सामान। पुराने जहाज के डूबने का तमाम सबूत बिखरा हुआ। दुर्घटना की वजह आँधी होगी कि लड़ाई, पता नहीं। जानने का उपाय भी नहीं।

इस बीच तानाका बिस्तर से उतरा। खिड़की के सामने खड़े होकर साँस रोके बाहर का दृश्य देख रहा था।
मैंने अविनाश बाबू को जगाया। दृश्य देखकर उनकी आँखें दही-बड़ा हो गईं।

लंगर डालकर हामाकुरा ने जहाज को माटी पर खड़ा किया। अविनाश बाबू ने कहा, “यह तो गोया आख्योपन्यास का कोई दृश्य देख रहा हूँ, साहब! अपने को कभी सिंदबाद लगता है, कभी अलीबाबा।"

अलीबाबा का नाम उच्चारण करते ही मुझे एक बात याद आई। उस डूबे जहाज के साथ कुछ धन-रत्न भी क्या समुद्र में नहीं डूबा होगा? व्यापारी जहाज हो तो सोने के सिक्के जरूर होंगे और वे सिक्के तो जहाज के साथ ही डूबे होंगे और वह चीज जंग लगकर खराब होनेवाली नहीं।

मैंने जापानियों के स्वभाव में भी गहरी उत्तेजना देखी। दोनों ने ज़रा देर तक आपस में जाने क्या बातें कीं। उसके बाद हामाकुरा ने कहा, “वी गो आउट। यू कम?"

बात से मैंने समझा, जो सुबह मैं कह रहा था, वही इन लोगों ने भी किया है। वे लोग एक बार चक्कर काटकर देख लेना चाह रहे थे कि वास्तव में कुछ धन-रत्न है या नहीं।

हम लोगों में अब तक जो बातें हो रही थीं, अविनाश बाबू ने समझी नहीं। एकाएक उसे भापकर पलक मारने-भर की देर में वह एक नए आदमी हो गए।

“रत्न, मुहर, सोना, रूपा-यह सब क्या कह रहे हैं आप लोग? यह भी सम्भव है भला? इतने दिनों से पानी के अन्दर पड़ा है, बरबाद नहीं हुआ होगा! चाहें तो हम ले सकते हैं? लेने से वह हम लोगों का हो जाएगा? उफू! आप क्या कह रहे हैं, कह क्या रहे हैं आप?"

मैंने अविनाश बाबू को ज़रा शान्त करते हुए कहा, “इतने जोश में मत आइए। इसकी कोई गारंटी नहीं है। यह तो महज अंदाज है हम लोगों का। है या नहीं है, यह ये दोनों जाकर देखेंगे।"
"सिर्फ वही दोनों क्यों, हम लोग नहीं जाएँगे?" मैं तो दंग रह गया। अविनाश बाबू कह क्या रहे हैं!
मैंने कहा, “आप जा सकेंगे उस गहराई में? हंगरों के बीच? डुब्बे की पोशाक पहनकर?"
"बेशक जा सकूँगा!" अविनाश बाबू चिल्लाकर उछल पड़े। धन का लोभ उनके जैसे मामूली और डरपोक आदमी के मन में इतना साहस ला सकता है, यह मैं सोच नहीं सका था।
करता तो क्या? न्यूटन को छोड़कर जाने का मेरे लिए उपाय नहीं था और फिर बात थी कि धनरत्न हैं भी या नहीं, क्या ठीक है? मुझे उसका वैसा लोभ भी नहीं। मैंने हामाकुरा से कहा, “मेरे मित्र आप लोगों के साथ जाएँगे, मैं केबिन में ही रहूँगा।"

दस मिनट के अन्दर डुब्बे की पोशाक पहनकर तीनों आदमी निकल गए। कछ ही सेकंड में मैंने उन लोगों को खिड़की की राह उस टूटे जहाज के मलबे की ओर जाते देखा। तीनों एडीचोटी एक ही पोशाक से ढंके थे, इसलिए उन्हें अलग-अलग पहचानना कठिन था। लेकिन उनमें से जो सबसे ज्यादा हाथ-पैर पटक रहे थे, वही अविनाश बाबू हैं, यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता था। और भी पाँचेक मिनट के बाद देखा, तीनों माटी पर पहुँचे और नीचे की ओर नजर गड़ाए मलबे के इधर-उधर घूमने लगे। मैंने अविनाश बाबू को एक बार झुककर माटी टटोलते भी देखा।।

उसके बाद जो कुछ हुआ, उसके लिए मैं कतई तैयार नहीं था। एकाएक अनुभव किया कि पानी में एक भयानक विस्फोट होने के कारण हमारा जहाज भयंकर रूप से हिल उठा। और उसके साथ उन तीनों ही डुब्बों का शरीर छिटककर पानी में डूबते-उतराते हमारे जहाज की ओर चला आया। चारों ओर की मछलियों में भी बदहवासी के लक्षण देखकर समझा कि बहुत ही अस्वाभाविक कुछ हुआ है।

दोनों जापानी और खास करके अविनाश बाबू के लिए बहुत ही बेचैनी महसूस कर रहा था। उसके बाद जब देखा कि तीनों ही किसी तरह से सम्हलकर जहाज की ओर आ रहे हैं, तो कुछ निश्चिन्त हुआ।

हामाकुरा और तानाका अविनाश बाबू को धर-पकड़कर केबिन में आए। उन लोगों ने जब पोशाक बदली, तो अविनाश बाबू का उड़ा हुआ चेहरा देखकर उनके मन की हालत को मैंने खूब समझा! वह बिस्तर पर बैठकर हाँफते हुए बोले, “मेरी जनमपत्री में लिखा जरूर था कि इकसठ साल की उम्र में ग्रहदशा है। मगर वह ग्रहदशा ऐसी है, यह नहीं जानता था।"

मेरे पास मेरी ही बनाई हुई एक दवा थी, स्नायु को तेज करने की। उसे खाकर पाँच ही मिनट में अविनाश बाबू बहुत कुछ चंगे-से हो उठे। उसके बाद जहाज भी चलने लगा। कहना फिजूल है, इतने थोड़े समय में धनरत्न की खोज कोई भी नहीं कर पाया। लेकिन उसके लिए अब किसी को अफसोस या चिन्ता नहीं थी। सबको उस गजब के विस्फोट का खयाल हो रहा था। मैंने कहा, “कोई ह्वेल मछली आसपास चले तो ऐसा आलोड़न हो सकता है क्या?"

तानाका ने हँसकर कहा, “हेल अगर पागल होकर पानी में वोल्ट भी खाए, तो भी ठीक आसपास के पानी को छोड़कर और कहीं ऐसा आलोड़न नहीं हो सकता।"
अविनाश बाबू ने कहा, “भूकम्प की तरह जलकम्प भी होता है क्या, साहब? मुझे तो वैसा ही लगा।"

असल में आसपास हुआ होता, तो शायद कारण समझ में आता। विस्फोट काफी दूर पर ही हुआ था। फिर भी उसकी कैसी धमक! कहीं आसपास में होता तो, चूँकि मजबूत बना है, इसलिए जहाज अगर बच भी जाता, लेकिन इन तीन आदमियों की क्या दशा होती, यह सोचते भी डर लगता है।

जहाज चलने के आधे घंटे के बाद ही समद्र के पानी में विस्फोट के तरह-तरह के चिह्न देखना शुरू किया। असंख्य छोटी मछलियों के सिवाय सात मरे हंगर भी हमें रोशनी में दिखाई दिए। एक आक्टोपस को बेचैनी से तड़प-तड़पकर अपनी आँखों के सामने मरते देखा। इसके सिवाय पानी के ऊपर की ओर से असंख्य जेली फिश, स्टार फिश, ईल तथा अन्य प्रकार की मरी मछलियों को धीरे-धीरे नीचे आते देखा। हमारी रोशनी के दायरे में आने से ही दिखाई दे रही थीं।

मैंने हामाकुरा से कहा, "लगता है, पानी का ताप बढ़ा है या पानी में ऐसा कुछ मिल गया है, जो मछली और उद्भिदों के लिए घातक है।"
अपने यन्त्र से पानी का ताप नापकर तानाका ने कहा, “47 डिग्री सेंटीग्रेड। यानी जितने ताप में ये जीव जी सकते हैं, उससे दुगुना।"
अजीब है! ऐसा कैसे हो गया? इसका एकमात्र कारण यही हो सकता है कि पानी के नीचे कोई ज्वालामुखी था, जिसका मुँह अब तक बन्द था। आज वह फट गया और उसी से ऐसा हआ। इसके सिवाय और तो कोई कारण नहीं दिखाई देता।

26 जनवरी, रात के 12 बजे

शाम से ही हमारी पनडुब्बी का रेडियो चल रहा है। दिल्ली, टोकियो, लन्दन और मॉस्को की खबरें पकड़ी गईं। फिलिपाईन के मनीला तट पर, अफ्रीका के केपटाउन के समुद्र तट पर, भारत में कोचीन के समुद्री किनारे पर, रायोडीजेनेरो के समुद्र तट पर और केलिफोर्निया के मशहूर मैलीबू बीच में लाल मछलियाँ दिखाई पड़ी हैं। ऐसी खबर है कि कुल मिलाकर एक सौ तीस आदमियों की जानें इस खूखार मछली के काटने से गईं। सारी दुनिया में तहलका है और वैज्ञानिकों के मन में आखिरी आश्चर्य हो रहा है। बहुतेरे समुद्र-विद्या विशारदों ने गवेषणा शुरू कर दी है। जानें कब कहाँ यह लहू पीनेवाली लाल मछलियाँ निकल आएँ, इस खौफ से समुद्र में नहाना बन्द-सा हो गया है। यहाँ तक कि जल-मार्ग से यातायात बहुत कम हो गया है, यद्यपि अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली है कि उस मछली ने नाव या जहाज पर चढ़कर किसी आदमी को काटा हो। कहाँ से और कैसे इस अजीब जीव का उद्भव हुआ, यह अभी तक कोई नहीं बता सका। दुनिया में ऐसे आकस्मिक ढंग से किसी प्राणी का आविर्भाव पिछले कई हजार वर्षों में हुआ है, इसकी कोई नजीर नहीं मिलती।

इस बीच हम लोग पाँच बजे के करीब एक बार पानी के ऊपर उठे थे। हम लोग गोपालपुर से प्रायः एक सौ मील दक्षिण चले आए हैं। हमारी पनडुब्बी समुद्र-तट से बीस गज पानी की ओर रखी गई थी। जमीन पर कहीं भी किसी बस्ती पर नजर नहीं पड़ी। सामने बालू, पीछे झाऊ का जंगल, और भी पीछे पहाड़ के सिवाय और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता।

न्यूटनसहित हम चारों व्यक्तियों ने कुछ देर तक जाकर सूखे पर पायचारी की। विस्फोट के बारे में हम सभी लोग सोच रहे थे, यहाँ तक कि अविनाश बाबू भी अपनी राय देने से बाज नहीं आ रहे हैं। एक बार बोले, “बाहर से किसी ने लक्ष्य करके बम-वम तो नहीं फेंका?"

अविनाश बाब जो बहत बेवकफी-सी कर रहे थे, सो नहीं। लेकिन पानी में बम किसलिए? समुद्र के अन्दर किसका शत्रु रह रहा है? पानी की मछली और उद्भिदों पर भला किसे इतना आक्रोश होगा?
आधे घंटे तक खुली हवा में पायचारी करके हम लोग पनडुब्बी में लौट आए।

पानी के अन्दर जहाँ तक सूरज की रोशनी पहुँचती है, वहाँ लाल मछली का सुराग नहीं लगा, इसलिए हम लोगों ने तय किया कि किनारे से खासी दूर तक जाकर और भी गहरे पानी में उतरकर खोज करेंगे। बहुतों को पता है कि समुद्र की सबसे ज्यादा गहराई कितनी तक हो सकती है। प्रशान्त महासागर में कहीं-कहीं गहराई छह मील से भी ज्यादा है। यानी पूरा माउंट एवरेस्ट डूब जाने के बाद भी उसके ऊपर दो हजार फुट पानी रहेगा!
हम लोग कम-से-कम दस हजार फुट यानी प्रायः दो मील नीचे उतरेंगे, यह सोचा। इससे ज्यादा नीचे उतरने में पानी का जो दबाव होगा उसमें हमें अपनी पनडुब्बी को टिकाए रखना मुश्किल होगा।

अभी हम सब पाँच हजार फुट नीचे चल रहे थे। यहाँ सदा रात है। दोपहर का सूरज यदि ठीक माथे पर भी रहे, तो भी उसकी ज़रा भी रोशनी यहाँ नहीं पहुंचेगी।

यहाँ उद्भिद का नाम भी नहीं। क्योंकि सूरज की रोशनी के बिना वे पैदा ही नहीं हो सकते। लिहाजा प्रवाल, प्लैंकटन इत्यादि की जो शोभा अभी तक हमें घेरे रहती थी, अब उसके दर्शन नहीं मिलते। यहाँ हमें घेरे हुए है पानी में डूबा हुआ परत-दर-परत पत्थर का पहाड़। हम लोग इन्हीं पहाड़ों के पास से चल रहे थे। नीचे सतह पर बालू और पत्थर के चूरे। और उन पर या तो स्थिर बैठे हैं या चल-फिर रहे हैं केकड़ा या घोंघा-जातीय जीव। पहाड़ों पर 'क्लैम' किस्म के घोंघे गोंयठे की भाँति अटके थे। एक तरह का खौफनाक केकड़ा देखा, वे रण-पार जैसे लम्बे-लम्बे पाँव बढ़ाकर माटी पर चल रहे थे। इन जीवों में से कोई भी उद्भिद पर जीनेवाले नहीं हैं। ये या तो आपस में ही एक-दूसरे को खा जाते हैं या जब दूसरा कोई समुद्री जीव मरकर नीचे आता है, तो उसे खाते हैं। जो ऐसा करते हैं, उन्हें समुद्री गिद्ध कहें तो बहुत बड़ी भूल न होगी।

तानाका अभी जहाज चला रहा था। इससे पहले दोनों ही जापानियों को खुशमिजाज देखा था, अभी दोनों गम्भीर थे। सर्चलाइट हर घड़ी जल ही रही थी। एक बार बझाई गई थी। लगा, जैसे अन्धकप में हैं। लेकिन बत्ती बझाने से एक बात होती है। अँधेरे में चलना-फिरना पड़ता है, इसीलिए शायद किसी-किसी मछली के बदन से रोशनी निकलती है। उनमें से किसी-किसी का रंग बड़ा बेहतरीन होता है। यह रोशनी बिलकुल 'नियन लाइट' जैसी है। एक मछली का नाम ही नियन है। जहाज की रोशनी बुझाने पर ऐसी दो-एक मछलियों को पानी में प्रकाश की रेखा खींचते हुए चलते देखा गया। यों, इस गहरे पानी के जितने भी जीव हैं, उनके बदन के रंग की कोई बहार नहीं होती। ज्यादातर या तो सफेद होते हैं या काले।
अविनाश बाबू ने कहा, “सारी दुनिया पर मौत की छाया-सी पड़ रही है, लगता है। है न?"

बात उचित है। शहर, सभ्यता, राह-बाट, घर-द्वार, लोगजन-इन सबों से लाख मील दूर और लाख साल पहले के किसी आदिम विभीषिका भरे जगत में आ निकले हैं हम। ताज्जुब की बात यही है कि यह जगत दरअसल हमारा समसामयिक है और यहाँ भी जन्म है, मृत्यु है, खाना है, सोना है, संग्राम है, समस्या है। लेकिन वह सब आदिम किस्म का ही, जैसा सच ही लाख साल पहले था।
जानें क्या कुछ देखकर तानाका चिल्ला पड़ा।
लिखना बन्द किया।

ग्यारह हजार फुट नीचे से हम फिर ऊपर आने लगे। हमारा अभियान समाप्त हुआ। हम सभी अभी तक बड़ी मायूसी की हालत में हैं। इस हालत से निकलने और मन के विस्मय को दूर होने में काफी कुछ समय लगेगा। मेरी 'नार्वाइटा' गोली ने अच्छा काम किया। मैं बैठकर अभी जो लिख पा रहा हूँ, वह भी उस गोली की ही बदौलत।

इसके पहले दिन की डायरी के अन्त की ओर मैंने लिखा था, खिड़की से जाने क्या देखकर तो तानाका चिल्ला उठा था। उस चीख को सुनकर हम सभी खिड़की पर प्रायः जा लुढ़के।

जापानी भाषा में तानाका ने क्या कुछ कहा, जिसे सुनकर हामाकुरा ने सर्चलाइट को बुझा दिया। सर्चलाइट के बुझते ही एक गजब का दृश्य हमें दिखाई दिया।

पहले ही लिख चुका हूँ, हमारे चारों ओर समुद्र के नीचे पहाड़ ही पहाड़ फैले थे। ऐसे दो पहाड़ों के बीच काफी कुछ दूर पर (समुद्र के नीचे दूरी का निश्चय करना कठिन है) हमने अग्निकुंड-सा जलते देखा। वह रोशनी आग की लपटों-जैसी ही चंचल थी और उसका रंग उन लाल मछलियों-जैसा ही था।

तानाका ने पनडुब्बी के स्टेयरिंग को घुमाया। हम समझ गए कि हम लोग उसी ओर ले जाए जा रहे हैं। अब सर्चलाइट जलाने की जरूरत नहीं थी। वही रोशनी हमें रास्ता दिखाने लगी। इसके सिवा हम अपनी मौजूदगी जितना कम जाहिर होने दें, शायद उतना ही अच्छा रहे।

मेरी आस्तीन को पकड़कर अविनाश बाबू ने दबे गले से कहा, “मिलटन के 'पैराडाइज़ लास्ट' की याद है? उसमें नरक का जो वर्णन है, यह तो बहुत कुछ वैसा ही है।"
अपना बाइनोकुलर निकालकर हामाकुरा की ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा, "देखिएगा?" वह बोला, “यू रुक।"

बाइनोकुलर आँखों में लगाते ही आग का वह कुंड नजदीक आ गया। देखा, वह आग नहीं, मछलियों का मेला है। हजारों-हजार लाल मछलियाँ वहाँ गोलाई में घूम रही थीं, चक्कर काट रही थीं, नीचे-ऊपर आ-जा रही थीं। उनका रंग लाल है, ऐसा कहना गलत होगा। दरअसल उनके बदन से एक लाल आभा छिटक रही थी इसीलिए वह सब दूर से देखने में आग के एक कुंड-सा लग रही थीं।

पहले इस दृश्य का बहुत-सा भाग पहाड़ के अन्दर घुसा हुआ था। हमारी पनडुब्बी जैसे-जैसे आगे बढ़ने लगी, लाल मछलियों का वह जगत वैसे ही वैसे साफ दिखाई देने लगा।

ठीक दस मिनट चलने के बाद हम लोग पहाड़ों से बाहर एकबारगी खुली जगह में पहुंच गए। मछलियों की भीड़ अभी भी हम लोगों से बीस-पचीस गज के फासले पर थी। लेकिन अब आगे बढ़ने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि हमारी निगाहों के सामने कोई रुकावट नहीं थी। और यह भी लग रहा था कि इस अनोखे और अलौकिक दृश्य को ज़रा दूर से ही देखा जाए।

मछलियों की गिनती करने की ताकत नहीं थी, जरूरत भी नहीं। एक से दूसरी का कोई फर्क नहीं था, लिहाजा उनमें से किसी एक का वर्णन करने से ही काम चल जाएगा।

मछली कहने से हम आमतौर से जिस चीज को समझते हैं, यह ठीक वह चीज नहीं। इनके कन्धे के दोनों ओर डैने की जगह जो चीज हैं, उनसे आदमी के हाथों की समानता है। और ये, उनसे हाथों का ही काम ले रही हैं। पूँछ के दो हिस्से जरूर हो गए हैं, लेकिन बँटकर वह पूँछ नहीं रह गई है। वह दो पाँव-सी बन गई है। सबसे अचरज की बात यह थी कि इनकी आँखें मछलियों-जैसी खुली नहीं रहतीं, इनमें आदमी की आँखों की तरह पलकें गिरती हैं।

इनकी हलचल का भी एक अंदाज लगाया जा सकता है, वह फिर बताता है। उससे पहले यह कहना है कि ये आपस में जो व्यवहार कर रही हैं, उससे यह साफ धारणा होती है कि ये बात करती हैं या इनमें परस्पर कम-से-कम भावों का आदान-प्रदान चलता है।

हाथ हिलाकर, सिर हिलाकर वह सब जैसा कर रही थीं, वैसा और कोई जलचर जीव कभी करता है, यह मुझे नहीं मालूम। तानाका और हामाकुरा भी इस बात में मुझसे सहमत हुए।

इनकी सारी हरकतें जिस चीज को घेरकर हो रही थीं, वह एक अजीब-सी गोलाकार चीज थी। वह गोलक आकार में हमारे जहाज का लगभग आधा होगा। वह किस चीज का बना है, समझना कठिन है, गरचे इसमें सन्देह नहीं कि वह धातु का बना है। वह गोलक समुद्र की माटी पर तीन साफ और तिरछी खूटियों पर खड़ा था।

एक चीज गौर करने की और थी कि वहाँ उन लाल मछलियों के सिवा दसरे किसी जीवित जीव का नाम भी नहीं था। जो था. वह था मछलियों की भीड़ से कुछ दूर पर पहाड़-जैसा एक कंकाल । समझने में दिक्कत नहीं हुई कि वह कंकाल एक ह्वेल मछली का था। इस विशाल मछली की ऐसी गत कैसे हुई? उस सवाल का एक ही जवाब दिमाग में आता है, बित्ताभर की इन मछलियों ने ही उस ह्वेल को खा लिया है!

उन लाल मछलियों के पीछे जो पहाड़ था, उसके चेहरे में भी एक आश्चर्यजनक विशेषता थी। अन्य पहाड़ों की तरह यह ऊबड़खाबड़ नहीं था। बड़ी कारीगरी के साथ एक ही साथ उसे सुन्दर और रहने योग्य बनाया गया था। उस पर कतार से एक के बाद दूसरी सुरंगें काटी गई थीं, जो पहाड़ के अन्दर चली गई थीं। उन सुरंगों के अन्दर अँधेरा नहीं, सबमें रोशनी का इन्तजाम था। यह रोशनी लाल थी। यानी यहाँ का सब लाल ही लाल! यह सब देखते-देखते मेरे दिमाग के अन्दर न जाने कैसा तो होने लगा। आँखें चौंधिया जरूर गई थीं, पर दिमाग का यह हाल उसकी वजह से नहीं था। मन में एकाएक अजीब धारणा पैदा हो जाने का ही यह नतीजा था।

ये अगर पृथ्वी के जीव न हों? यदि ये किसी और ग्रह से दुनिया में आए हों? शायद हो कि अपने ग्रह में वे अब अंट नहीं पा रही हैं, इसलिए धरती पर बसने के लिए आई हैं?

हामाकुरा से यह बात कही, तो वह बोल उठा, “वांदरफुरु? वांदरफुरु!" मुझे खुद भी यह ख्याल वंडरफुल लगा था। यही नहीं, यह मुमकिन भी है। यह जीव धरती पर नहीं पैदा हो सकते। होते, तो अब तक आदमियों के लिए अजाने नहीं रहते। कारण खास करके-ये तो सिर्फ पानी में ही नहीं रहते, ये उभयचर हैं। ये सूखे पर जाकर आदमियों को मार सकते हैं, सूखे में चलकर पानी में आ सकते हैं।

हामाकुरा अचानक बोल उठा, “ये सब मुँह से कोई आवाज कर रही हैं या नहीं और उस आवाज के कोई मायने हैं या नहीं, यह जानना जरूरी है। सोंस सीटी बजाता है, यह शायद आपको मालूम है। उस सीटी को रेकर्ड करके यह जाना गया है कि वह एक भाषा है। वे आपस में बातें करते हैं, मन के भाव को जाहिर करते हैं। ये भी शायद वही कर रही हों!"

यह कहकर हामाकुरा ने केबिन की दीवार का एक छोटा-सा दरवाजा खोलकर उसके अन्दर से हेडफोन-जैसा कुछ निकालकर अपने कान में डाला। उसके बाद टेबिल पर बहुत-से बटनों में से दो-एक को इधर-उधर करते ही उसके चेहरे पर आश्चर्य और उमंग का भाव फूट पड़ा। उसके बाद हेडफोन खोलकर मुझे देते हुए उसने कहा, “सुनिए।"

उसे कान में लगाते ही तरह-तरह की अजीब आवाज सुनने को मिली। उनमें से एक विशेष शब्द बार-बार हो रहा था क्ली-क्ली-क्ली-क्ली-क्ली। यह सिर्फ शब्द है कि मायने भी हैं?

देखा, इसी बीच अविनाश बाबू मेरे लिंगुआग्राफ को निकालकर मेरी ओर बढ़ाए बैठे हैं। ऐसी अक्ल से तो वह सहज ही मेरे सहायक बन सकते हैं।
लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। किसी शब्द का भी कोई अर्थ मेरे यन्त्र में नहीं लिखा गया। मेरा यन्त्र खराब नहीं हुआ था। जापानी भाषा के तो धड़ाधड़ अनुवाद होते जा रहे थे। तो, क्या हुआ?

हामाकुरा ने कहा, “इसका मतलब एकमात्र यही हो सकता है कि वे जो बोल रही हैं, उनका प्रतिशब्द हमारी भाषा में नहीं है। यानी उनकी भाषा और उनके भाव दोनों ही आदमी से जुदा हैं। इससे और भी ज्यादा यह लगता है, ये दूसरे ग्रह के जीव हैं।"
यन्त्र को रख दिया। क्या बोल रही हैं वे, यह जानने से वे कर क्या रही हैं, यह देखना अच्छा है।
इन मछलियों की नजर शायद उतनी पैनी नहीं होती। क्योंकि हमारे जहाज को वे अभी तक देख नहीं सकी थीं।

यही बात है? या कि किसी कारण से उनमें ऐसी एक हलचल हुई है कि उन्हें इसका खयाल ही नहीं कि उनके आसपास क्या है, क्या नहीं है। बिना किसी वजह के किसी जीव में ऐसी हलचल हो सकती है, यह विश्वास नहीं होता।

यह सोचते हुए ही मैंने उन मछलियों में एक परिवर्तन देखा। अचानक वे दो दलों में बँट गई। उसके बाद दोनों दल दो ओर जाकर उस गोलक को जैसे धक्का मारकर हटाने की कोशिश करने लगा। फिर देखा, उन्होंने गोलक को चारों ओर से घेर लिया और उसे ठेलने लगीं।

ऐसा उन्होंने कोई पाँच मिनट तक किया। उसके बाद ही मैंने एक मार्मिक घटना घटते देखी। दल में से एक-एक मछली छटपट करती हुई बेजान-सी होकर माटी पर गिरने लगी। एकाएक कोई जैसे उनकी प्राण-शक्ति का हरण कर ले रहा हो। वह थकावट है या बीमारी या और कुछ?
ज़रा-सा सोचते ही सारी बात बिजली-सी मेरे दिमाग में चमक गई।

ये उभयचर प्राणी किसी दूसरे ग्रह से यहाँ बसने के लिए आए हैं। यहाँ पानी का हिस्सा ज्यादा है, इसलिए ये पानी में ही उतरे हैं या शायद हो कि पानी में ही रहने के लिए आए हैं। उसके बाद या तो पानी का ताप या पानी की कोई गैस या वैसी ही किसी चीज की कमी या अधिकता ने उनके जीने की राह में बाधा खड़ी की है। इसीलिए इनमें से कुछ सूखे में यह देखने गए थे कि वहाँ रहा जा सकता है या नहीं। सूखे में इन्होंने आदमी को देखा। हो सकता है, इन्होंने आदमी को शत्रु समझा हो, इसीलिए कुछ को काटकर या काँटा गड़ाकर मार डाला। उसके बाद पानी में आकर उन्होंने समझा, धरती पर रहने से वे ज्यादा दिन जी नहीं सकेंगे। बहुत सम्भव है, वे उस लाल गोलक से ही आए थे और उसी में लौट जाना चाहते हैं। बदकिस्मती से वह गोलक माटी में इस कदर धंस उठने लगा। उस विस्फोट के चलते पानी के दवाव ने हमारे जहाज को धक्का दिया और उस धक्के से जहाज फुटबाल की तरह छिटककर पीछे के पहाड़ से जा लगा।
उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं।

जब होश आया तो समझा, न्यूटन मेरा कान चाट रहा है। केबिन के फर्श पर से उठा तो कन्धे पर एक दर्द महसूस किया। देखा, हामाकुरा तानाका के सिर पर पट्टी बाँध रहा है। अविनाश बाबू छिटककर एक बिछावन पर जा गिरे थे, इसी से शायद उन्हें वैसी चोट नहीं लगी। लगा, वह मजे में ही सो रहे हैं। कन्धे पर हलका-सा दबाव डालते ही धड़कड़ाकर उठ बैठे और आँखें बड़ी-बड़ी करके कहा, “एक्स-रे में क्या निकला?" मैं समझ गया, सपने में वह देख रहे थे कि उनकी हड्डी-वड्डी टूट गई है।

जहाज ऊपर की ओर उठ रहा था। कारीगरी में जापानियों की गजब की बहादुरी है। इतने बड़े एक धक्के से जहाज को कोई नुकसान नहीं हुआ। बाहर शायद कुछ हुआ हो, पर वह उतना खतरनाक जरूर नहीं है। भीतर सिर्फ प्लास्टिक का एक गिलास उलटा था, जिससे मेरे बिस्तर पर थोड़ा-सा पानी गिर गया था। बस!

हामाकुरा ने कहा, “हम लोगों ने पहली बार जिस धक्के का अनुभव किया था, वह शायद एक दूसरे गोलक का विस्फोट था।"
मैंने कहा, “इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं। मुझे लगता है, ये सबके सब एक ही साथ, जहाँ से आई थीं, वहीं लौटी जा रही हैं।"
यह सब किस ग्रह से आई थीं, इसका कभी पता भी चलेगा?

शायद नहीं। लेकिन दूसरे ग्रह की ये लाल मछलियाँ विज्ञान में कितना आगे बढ़ गई हैं, यह सोचकर आश्चर्य होता है। तानाका ने इन मछलियों की बहुत-सी तसवीरें ली थीं। मैं जब बेहोश पड़ा था, उस समय, जहाज को खोलने से पहले हामाकुरा बाहर निकलकर दो मरी मछलियों का नमूना ले आया था। बात दरअसल यह कि हमारा यह अभियान नाकामयाब नहीं रहा।

अविनाश बाबू की ओर ताककर देखा, वह अनमने-से खिड़की से बाहर देखते हुए गुनगुन करके गा रहे हैं। मैंने कहा, “समुद्र के अन्दर का यह अभियान आपके लिए बड़ा मजेदार रहा, लगता है।"
अविनाश बाबू ने कहा, “मछली जैसी मजेदार चीज है, मछली की दुनिया वैसी मजेदार होगी तो क्या आश्चर्य है।'
“मुझे तो लग रहा है, मेरे ज्ञान का भंडार और भी बहुत भर गया।"
“आप सोच रहे हैं ज्ञान, और मैं सोच रहा हूँ जेब।"
“वह क्या?" मैंने अवाक् होकर अविनाश बाबू की ओर देखा। उन्होंने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक जमा हुआ ढेला-सा निकालकर मेरे हाथ में दिया। उसे रोशनी में अच्छी तरह से जो देखा, तो मेरी आँखें कपाल पर चढ़ गईं।
उस ढेले में अरबी हरूफों की मुहर लगी हुई मुगल जमाने की कोई दस अशर्फियाँ थीं, सोने की!

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