पृथ्वी की उत्पत्ति की कथा : मिजोरम की लोक-कथा
Prithvi Ki Utpatti Ki Katha : Lok-Katha (Mizoram)
जब ‘खुआङजीङनू’ (सृष्टिकर्ता, एक प्रकार का भगवान्) ने पृथ्वी की सृष्टि की, तब उस पर भूमि या जमीन नहीं थी। वह चट्टानों एवं शिलाओं से भरी हुई थी, जिन पर पेड़-पौधे नहीं उग पाते थे, जिससे सभी जीवों को बहुत परेशानी होती थी। उस समय पृथ्वी पर एक महासागर भी था, जिसका नाम ‘तुइहृयाम’ (बर्मा में बहनेवाली पानी की तेज धारवाली एक नदी का नाम भी यही है) था। वह महासागर बहुत ठंडा और कष्टदायक था, जिसके पानी में एक बार हाथ डालने पर ऐसा लगता था कि हाथ गल जाएगा। इसलिए कोई भी उसके पानी में उतरता नहीं था। उस ‘तुइहृयाम’ (महासागर) के उस पार दूसरे छोर पर मिट्टी उपलब्ध थी। उस मिट्टी को हासिल करने के लिए सभी प्रकार के जीव-जंतु हमेशा प्रयत्न करते रहते थे। जब भी कोई उस ‘तुइहृयाम’ (महासागर) को तैरकर पार करने की कोशिश करता था, तब वह आधे रास्ते तक पहुँचते-पहुँचते ही ठंड के कारण मर जाता था। इसलिए मिट्टी को प्राप्त करने की लालसा होते हुए भी कोई भी जानवर उस ‘तुइहयम’ (महासागर) को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था, जिससे वे बहुत ही चिंतित रहते थे।
जीवन के विकास के लिए पेड़-पौधों का होना अनिवार्य है और पेड़-पौधों के लिए मिट्टी की आवश्यकता होती है। इसलिए वे सभी परेशान रहते थे। एक बार एक साही (जानवर) ने उस महासागर को तैरकर पार करने और मिट्टी लेकर आने का निश्चय किया। उसके इस निर्णय को जानकर सभी जानवर बहुत उत्साहित हुए। साही (जानवर) ने ‘तुइहृयाम’ (महासागर) के ठंडे जल को बहुत कठिनाई से पार किया। इस दौरान उसके साथी अन्य जानवर लगातार उसको प्रोत्साहित करते हुए आवाज लगा रहे थे, ताकि वह बीच में ही हिम्मत न हार जाए और ठंड से मर न जाए। उस पार पहुँचकर और अपनी नाक पर थोड़ी सी मिट्टी लेकर वह किसी प्रकार वापस लौटा। साही की सफलता पर सभी बहुत खुश हुए।
परंतु उस थोड़ी सी मिट्टी को कैसे सुरक्षित रखा जाए और उसे कैसे ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ाया जाए, यह एक विचारणीय विषय था। इसलिए सभी जीव-जंतुओं की एक संयुक्त बैठक बुलाई गई, किंतु वे भी कोई उपाय नहीं निकाल पा रहे थे। जब सभी निराश हो गए, तब एक केंचुआ बोला, “अगर तुम सब मेरी बात मानो तो मुझे मालूम है कि इस मिट्टी को कैसे बढ़ाया जा सकता है। मैं इस मिट्टी को बढ़ा सकता हूँ।” सभी लोग आश्चर्यचकित होकर केंचुए की तरफ अविश्वास से देखने लगे और उससे पूछने लगे, “अगर सच में तुम्हें कोई तरकीब मालूम है तो हम सबको बताओ।” तब वह केंचुआ बोला, “इस मिट्टी को पहले मैं खाऊँगा। फिर पाखाना करता जाऊँगा, जिससे वह खाद बनकर बढ़ती जाएगी।” केंचुए की इन बातों पर कुछ दूसरे जीव-जंतुओं को विश्वास नहीं हो पा रहा था। इसलिए वे कहने लगे, “हम कैसे तुम्हारी बातों पर विश्वास करें। हमें लगता है कि तुम सिर्फ इस मिट्टी को खाना चाहते हो। इसलिए ऐसी बातें कर रहे हो।” तब केंचुए ने जवाब देते हुए कहा, “मुझे इसे खाने की बिल्कुल ही इच्छा नहीं है। अगर मैंने अपनी बात पूरी न की और इस बात को सच साबित न किया तो तुम लोग मुझे तीन टुकड़ों में काट देना।” उसकी दृढ़तापूर्ण बातों को सुनकर अंत में सभी सहमत हो गए।
तब केंचुए ने उस अल्प मात्रा मिट्टी को खाना प्रारंभ किया। वह लगातार खाता जा रहा था और अपनी प्रकृति और प्रतिज्ञा के अनुसार ही मिट्टी की ही टट्टी करता जा रहा था। जैसे-जैसे मिट्टी बढ़ती जा रही थी और मिट्टी का ढेर जमा होता जा रहा था, वैसे-वैसे उनकी खुशी और उत्तेजना भी बढ़ती जा रही थी। जब केंचुआ अपना कर्तव्य निभा रहा था, तब शेष जानवर उत्सुकता के साथ उस मिट्टी को दूसरे स्थानों पर पहुँचा रहे थे और ‘तूनतेइनू’ उसको पृथ्वी पर फैलाकर बराबर करती जा रही थी। इस प्रकार उसने बिना नदी और पहाड़ के पूरी धरती को समतल कर दिया। जिस पर आगे चलकर लोगों ने पेड़-पौधे लगाए और खेती प्रारंभ की।
(साभार : प्रो. संजय कुमार)