प्रेत-लोक (उई-मोक) (ञीशी जनजाति) : अरुणाचल प्रदेश की लोक-कथा
Pret-Lok : Folk Tale (Arunachal Pradesh)
बहुत समय पहले एक गाँव में यानाम नामक एक बालिका रहती थी। पिछली बार की तरह इस बार भी गाँव में भयंकर महामारी फैली। पिछली महामारी में यानाम के परिवार से उसकी माँ, दीदी, भाई और दादी की जानें गई थीं। उससे पहले की महामारी उसके दादा-दादी, चाचा-चाची और उनके बच्चों को खा गई। अब केवल परिवार में यानाम और उसके पिता ही बचे रह गए थे। परंतु इस महामारी ने पिताजी को भी नहीं बख्शा। पिता की मृत्यु से इस नन्हीं जान को बहुत आघात पहुँचा । यानाम अपने पिता से बहुत प्रेम करती थी, वह तो पिता की लाड़ली राजकुमारी थी। पिता भी उस पर अपनी जान छिड़कते थे। पिता के असामयिक विछोह से यानाम को गहरा मानसिक आघात पहुँचा।
गाँववाले जब पिता के शव को दफनाने के लिए ले जाने लगे तो यानाम बिलख-बिलखकर रोने लगी और पिता के शव से लिपटकर गाँववालों से कहने लगी- " शव को दफनाने नहीं दूँगी। शव यहीं पर पड़ा रहेगा, मैं उसकी देखभाल करूँगी।" यानाम के भोले मन को यह लगता था कि सर्वशक्तिमान दोत्री - पोलो (सूर्य-चंद्र) अवश्य उसका रुदन सुनेंगे और पुनः उसके पिता को जीवित कर देंगे । गाँववाले भोली यानाम को समझा-समझाकर थक गए कि मरने वाला कभी दोबारा जी नहीं उठता है। मगर यानाम अपनी जिद पर अड़ी रही, तनिक भी टस से मस नहीं हुई। अंततः गाँववालों को हारकर भारी मन से यानाम को रस्सियों से बाँधना पड़ा, ताकि समय से उचित संस्कारों के साथ शव को दफनाया जा सके।
शव को दफनाने के पश्चात् गाँववालों ने यानाम की रस्सियों को खोल दिया। गाँव की एक बूढ़ी महिला उसे अपने घर ले आई और यानाम से कहा, “मैं तुम्हारा भरण-पोषण करूँगी, अब से तुम मेरी बेटी हो । स्वयं को अकेली मत समझना।" यानाम की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वह अपने पिता को याद करके रोती रही। बार-बार पिता का सौम्य चेहरा उसकी आँखों के सामने घूमता रहा । इस तरह रात हो गई। बूढ़ी महिला और उसके परिवार के अन्य सदस्य सो चुके थे। किंतु यानाम का मन इतना व्यथित था कि वह सो नहीं पाई। बार-बार उसकी नींद उचट जाती । यानाम ने चुपके से फावड़ा उठाया और घर से बाहर चल पड़ी।
रात के अंधकार में वह फावड़ा लेकर पिता के ञब्लु (कन ) के पास पहुँची । यानाम फिर से रोने लगी। रोते-रोते कब्र को खोदती जाती और कहती जाती कि "मुझे आपके साथ रहना है, मैं यहाँ ऐसे अकेली नहीं रह सकती। मैं अकेली क्या करूँगी ? मैं भी आपके पास आ रही हूँ।" खुदाई के कारण जब ऊपर की मिट्टी हटी तो यानाम ने देखा - पिता का शव कपड़े में लिपटा हुआ हैं। यानाम ने और जोर लगाकर अपने हाथों से मिट्टी को हटाया और कब्र के भीतर कूद गई । भीतर उसने देखा - पिता का शव ठीक कब्र के बीचोबीच रखा हुआ था और कब्र के दोनों किनारों पर पिताजी द्वारा प्रयुक्त वस्तुएँ थीं। जीशी जनजाति में कब्र में मृतक की वस्तुओं को रखने का रिवाज है । यानाम ने उन वस्तुओं को एकत्र कर एक कोने में रखा और ठीक पिता के सिर के सामने वाले कोने में बैठ गई। बैठकर पुनः रोने लगी, रोते-रोते उसकी आँखें सूज गईं। फिर थकी-माँदी यह नन्हीं जान नींद के आलिंगन में समा गई।
शायद वह तीन दिनों तक सोई होगी, क्योंकि जिस दिन उसकी नींद टूटी, उस दिन एक अद्भुत और अलौकिक घटना की साक्षी बनी वह नींद से जागने के पश्चात् यानाम पिता के शव को टकटकी लगाए देख रही थी, तभी उसने अत्यंत विस्मयकारी दृश्य देखा कि एकाएक पिता के शव में कुछ हरकत हुई। फिर जोर से कुछ फूटने की आवाज आई। उसने आँखें मलकर देखा तो पिता का शव जिस कपड़े में लिपटा था, वह कपड़ा बीच से फट गया था। कपड़े के फटने के स्थान पर एक छेद बना और उस छेद से हल्का-हल्का धुआँ निकला और फिर उस धुएँ ने धीरे-धीरे एक आकार ग्रहण किया। उस आकार में से एक चेहरा उभरने लगा । यानाम ने चकित होकर आँखें फाड़कर देखा - यह चेहरा किसी अन्य का नहीं, बल्कि यह तो उसके पिता का है। यानाम खुशी से उछल पड़ी। उसने पिता के हाथ को थामा, मगर यह क्या! पिता का हाथ उसकी नन्हीं हथेली में नहीं समाया। वह हाथ को छू नहीं पा रही थी। अब उसने पिता के शरीर को छूने का प्रयास किया, किंतु शरीर भी पकड़ में नहीं आ रहा था । ऐसा लगता, मानो हवा को पकड़ने का प्रयास कर रही हो। यानाम ने सोचा, 'कितना विचित्र है, मैं पिता को पकड़ भी नहीं पा रही हूँ और वे मेरी ओर देख भी नहीं रहे हैं!' यानाम ने देखा पिताजी अपने ही शव के ऊपर बैठे हुए हैं। उन्होंने जोर से जम्हाई ली और हाथ को सिर पर रखकर विचारमग्न अवस्था में बैठे रहे । यानाम उनके सामने खड़ी हो गई, परंतु उन्होंने यानाम को देखा तक नहीं । यानाम ने आबु (पिताजी ) कहकर भी बुलाया, पर उन्होंने सुना नहीं । यानाम को बहुत आश्चर्य हुआ, वह तो पिता के कलेजे का टुकड़ा है, मगर ऐसी क्या भूल हो गई उससे कि पिता उसकी अनदेखी कर रहे हैं। अब यानाम रोने लगी । यानाम ने सोचा, पिताजी उसका रोना सुन उसे मनाएँगे, किंतु ठीक इसके विपरीत हुआ। पिताजी चुपचाप उठकर कब्र से बाहर चले गए। यानाम को लगा, कुछेक दिनों में पिताजी कितने बदल गए हैं! यह सोच, वह और जोर से फूट-फूटकर रोने लगी।
कुछ समय बाद पिताजी अपने साथ कई सामान लेकर कब्र के भीतर उतरे। इन सामानों में लोबो (कंघा), योचिक (छोटी छुरी), दुम्पेन (धातु के छोटे-छोटे दानों से बनी माला), सअलअ (चिलम ) और बोपा (टोपी) आदि थे । यानाम इन चीजों को भली प्रकार से पहचानती थी । यानाम ने सोचा, 'ये सारी चीजें तो घर पर रखी हुई थीं, तो क्या पिताजी घर जाकर इन चीजों को ले आए हैं ? इसका मतलब यह पिताजी नहीं तो फिर कौन हैं? क्या यह उनकी आत्मा है ?' यानाम ने दादी से सुना था कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तब तीन दिन पश्चात् उसकी आत्मा अपने घर लौटती है और अपनी बाकी चीजों को ले जाती है । यानाम को अब समझ में आया, 'इसीलिए पिताजी उसको देख और सुन नहीं पा रहे।' यानाम और भी भावुक हो गई। उसने असहाय नेत्रों से पिता की ओर देखा । पिताजी यानाम की उपस्थिति से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। वह अपने शव के ऊपर बैठकर केशों को कंघे से सँवारते हैं, फिर पुदुम (केशों के गुच्छों को माथे के आगे जूड़े में बाँधना) बनाते हैं। सिर में दुम्पेन धारण कर केशसज्जा को निखारते हैं। फिर बोपा लगाकर नया वस्त्र पहनते हैं। उसके पश्चात् निश्चिंत भाव से सअलअ (चिलम) पीते हैं। इस दौरान कब्र के कोने की मिट्टी धीरे-धीरे फटने लगती है।
पिताजी वहाँ कटोरे के पानी में अपना चेहरा निहारते हैं, पुदुम पर हाथ फेरते हैं और पहने हुए वस्त्रों पर एक दृष्टि डालते हैं। वे पूरी तरह सज-सँवरकर तैयार हैं। इसके पश्चात् वे कब्र की कोनेवाली मिट्टी, जो फटकर अब गड्ढा बन गई थी, उसके भीतर समा गए। परंतु यानाम भी कहाँ हार माननेवाली थी! वह भी पिता के पीछे-पीछे उस गड्ढे में कूद गई। घुप्प अँधेरा ! गहन अंधकार में यानाम आगे बढ़ी जा रही थी। अंधकार की कालिमा में हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। केवल पिता की चिलम की रोशनी बीच-बीच में किसी जुगनू की भाँति जल और बुझ रही थी। ऐसा प्रतीत होता, मानो वह किसी लंबी और अंधकार भरी सुरंग में किसी अदृश्य छवि का पीछा कर रही हो । यानाम निरंतर चली जा रही थी, जरा सा भी कहीं ठहरी नहीं । कारण, उसे डर था कि अगर वह रुकी, तो पिताजी उससे कोसों दूर निकल जाएँगे और वह पिताजी तक कभी पहुँच नहीं पाएगी। मालूम नहीं, उसके कोमल पाँव उस बीहड़ अंधकार में कितने दिनों तक पिता का पीछा करते रहे। चलते-चलते एकाएक तेज रोशनी हुई और यानाम की आँखें अपने आप मुँद गईं। जब उसने आँखें खोलीं, तो देखा - पिताजी एक लकड़ी के बड़े लट्ठे के सामने खड़े हैं। पिताजी अपने कदमों को पीछे ले आए और फिर तेज दौड़ते हुए एक लंबी छलाँग लगाकर लकड़ी के लट्ठे के उस पार पहुँच गए। यानाम ने भी पिता का अनुसरण किया, मगर लट्ठे से टकराकर धम्म से नीचे गिर गई । यानाम रुआँसी हो गई। कहीं पिताजी ओझल हो गए तो ! वह तेजी से लट्ठे पर चढ़ गई। लट्ठे पर चढ़कर नीचे कूदी और हाथों से धूल झाड़कर वह खड़ी हो गई। फिर उसने ऐसा दृश्य देखा कि उसका मुँह खुला का खुला रह गया। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।
एक पूरा गाँव बसा है वहाँ । लोगों की भीड़ उमड़ आई। कई सारे जाने-अनजाने चेहरे । उन चेहरों में यानाम के दादा-दादी, चाचा-चाची, मामा-मामी और माँ भी थी । यानाम का अबोध मन यह जानने के लिए लालायित हो उठा कि यह कौन सा लोक है, जहाँ सारे मृतक जी उठे हैं ? क्या यह कल्पना है या सच ! इस काल्पनिक लोक की भी कोई वास्तविकता है ? यह तो कोई जादुई लोक लगता है । यानाम अपने भाग्य पर इतराने लगी, यह सोचकर कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूँ, जो इस अद्भुत लोक में प्रवेश कर पाई। उधर गाँव में मेरे जैसे कितने बच्चे हैं, जो इस अद्भुत लोक से अपरिचित हैं। यानाम खुशी के मारे अपनी माँ के पास दौड़कर गई, किंतु माँ ने उसे देखा ही नहीं। वहाँ उपस्थित भीड़ में किसी ने यानाम को नहीं देखा। सारे लोग यानाम की उपस्थिति से नितांत अनभिज्ञ थे। स्त्रियाँ समूह में खड़ी होकर पुनु नृत्य द्वारा पिताजी का स्वागत करने लगीं। दादा ने आगे बढ़कर पिताजी को सीने से लगाते हुए कहा कि हमें तुम्हारी प्रतीक्षा थी । अब तुम अपने वास्तविक स्थान पर पहुँच चुके हो, आओ घर चलें । यानाम को याद आया कि इसीलिए पिताजी अपनी मृत्यु के एक दिन पहले कह रहे थे कि उनके स्वप्नों में दादाजी बार-बार आकर उन्हें बुला रहे हैं।
दादाजी और अन्य परिजन पिताजी को घर ले आए। यानाम भी पीछे-पीछे पहुँच गई। घर में कई बच्चे और पालतू जानवर थे। इन बच्चों में यानाम की दीदी, भाई और चाचा के बच्चे थे। यानाम ने बिल्लियों के बीच इक्क तुम्मु, इक्क येसा (कुत्तों के नाम) को देखा। इन कुत्तों की मृत्यु पर रोते-रोते उसकी हिचकी बँध गई थी। दोनों कुत्तों के शव को यानाम ने अपनी नन्हीं उँगलियों से मिट्टी खोदकर दफनाया था। पर ये दोनों जीवित हैं इस लोक में। दोनों कुत्ते यानाम को देखकर भौंकने लगे। चाचा ने राक्की (चूल्हे के ठीक ऊपर वाली छत ) से लकड़ी उठाई और कुत्तों को बाहर खदेड़ते हुए कहा, " लगता है, कोई ओपो ऊई (भूत) देख लिया है।" दादा ने चाचा से कहा, "थोड़ा भात और मदिरा लेकर द्वार पर रख आओ, सबको अपना हिस्सा मिलना चाहिए। दोगा (चढ़ावा देना मत भूलना। इससे अमंगलकारी शक्ति घर के भीतर अनधिकार प्रवेश नहीं कर सकेगी।" चाचा ने पेर ( बरामदा ) में भात- मांस और मदिरा रखी । यानाम भी बरामदे में निकल आई। वह कई दिनों से भूखी और प्यासी थी । अतः भात और मांस को वह तुरंत निगल गई और मदिरा को एक ही साँस में गटागट पी गई। भूख-प्यास के मिटते ही निद्रा की गोद में समा गई।
नाम वहीं बरामदे में ही सोती थी । प्रत्येक दिन सुबह और शाम को भात-मांस और मदिरा के रूप में उसको चढ़ावा मिल जाता था। घर के बड़े, मुँह अँधेरे ही खेतों की ओर निकल जाते और सूर्यास्त से पहले लौट आते। दिन भर बच्चे घर में नाना प्रकार के खेल खेलते और ऊधम मचाते । यानाम बच्चों के बीच में अदृश्य रूप से सम्मिलित होती। भले ही कोई उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ हो, परंतु वह बराबर खेल में भागीदारी करती। इस प्रकार कई दिन बीत गए।
एक शाम अचानक पिताजी ने खेत से लौटकर बिस्तर पकड़ लिया और दो-तीन दिन तक उठे नहीं । स्थिति की गंभीरता को देखकर दादी ने दादा से कहा, जीब (पुजारी) को बुलाकर उपचार कराना होगा। दादा ने भी देर नहीं की, तुरंत चाचा को भेजकर जीब को बुलवा लिया। जीब ने पिता के शरीर को छुआ और कहा, "यह रोग तो गंभीर है।" रोग के परीक्षण के लिए जीब ने अंडे और मुरगी के चूजे मँगवाए। सबसे पहले जीब ने एक अंडे को बाँस की हथेली के आकार की टोकरी में रखा और उस टोकरी से बँधी बाँस की पतली रस्सी को हाथ में पकड़कर मंत्रजाप करने लगे (पूजा की इस विधि को जीशी जनजाति में पप-चिनाम कहते हैं)। कुछ समय पश्चात् अंडेवाली टोकरी थर-थर हिलने लगी । जीब ने उछलकर कहा, “हाँ, रोग का कारण पता लग गया।" सबने उत्सुकता भरे नेत्रों से उन्हें देखा । ने रहस्यमयी भाव से कहा, “किसी मानवी शक्ति का प्रकोप है। अब पोरोक रो कोग्नाम (चूजे का कलेजा-परीक्षण) से यह ज्ञात होगा कि यह मनुष्य कौन हैं ?” उन्होंने मुरगी का एक चूजा लिया और उसकी नन्हीं गरदन को मरोड़कर उसे मार दिया। फिर छुरी से चूजे का सीना चीरकर कलेजा निकाल लिया और कलेजे को निर्मल जल से भरे पात्र में रखकर मंत्र का पाठ करने लगे। आँखें मूँदे मंत्र का पाठ करते रहे। फिर एकाएक उनकी आँखें चमक उठीं। जीब ने दादाजी को संबोधित कर कहा, “एक मनुष्य लंबे समय से आपके बेटे का पीछा कर रहा है।" यह कहकर वे घर के भीतर एक परिक्रमा लगाकर बैठ गए। जीब ने कहा, “अब मैं अपनी चामत्कारिक शक्ति से उस मनुष्य को यहाँ बुलाऊँगा । " फिर कुछ मंत्र बोलकर द्वार की ओर फूँका, यानाम सम्मोहित होकर स्वयं ही उनके पास आकर खड़ी हो गई। जीब ने यानाम से उसकी पहचान पूछी। पहचान जानने के पश्चात् वे यानाम से बोले, "बेटी, तुम अपने वास्तविक घर तानी - मोक (तानी द्वारा सृजित संसार अर्थात् पृथ्वी) चली जाओ। यह उई - मोक (प्रेतात्माओं का लोक) है। तुमने इस लोक में अनधिकार प्रवेश किया है। तुम्हें लौटना होगा। "
यह कह जीब दादा को बताने लगे कि यानाम नामक तुम्हारी पोती अपने पिता का पीछा करती - करती इस लोक तक पहुँच गई है। यह सुन परिवार वाले दहाड़ मारकर रोने लगे। यानाम की माँ ने जीब से रोते हुए यह विनती की कि एक बार वह यानाम को देखना चाहती है। कृपया अपनी दिव्य शक्ति से वह यानाम का दर्शन करा दें। रुग्णावस्था में पड़े यानाम के पिता ने भी कराहते हुए जीब से याचना की, " एक बार मुझे मेरी फूल सी बेटी का दर्शन करा दीजिए। क्या यह संभव नहीं कि यानाम हमारे साथ इस लोक में सदा के लिए रह जाए। आप तो सर्वशक्तिशाली हैं। " जीब ने तटस्थ भाव से उत्तर दिया, "सारी शक्ति की एक सीमा होती हैं। जो शक्ति किसी सीमा में नहीं बँधती, वह तो विनाशकारी शक्ति ही हो सकती है। मैं लाचार हूँ। मैं प्रकृति के नियम से बँधा हूँ और प्रकृति के नियम से आप सभी भलीभाँति परिचित हैं। किसी मृतक की आत्मा ही इस लोक में प्रवेश पा सकती है, कोई जीवित मनुष्य नहीं। इस लोक में प्रवेश करने का यानाम को कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उसकी अब तक मृत्यु नहीं हुई है। यानाम को दीर्घायु प्राप्त है। तानी- मोक में जब उसका समय पूरा हो जाएगा तो निश्चित ही उसे इधर ही आना होगा। इन दो लोकों का विभाजन मैंने नहीं, प्रकृति ने निर्धारित किया है। मनुष्य रूप में यानाम कभी हमारे बीच में सम्मिलित नहीं हो सकती और न हम प्रेतात्मा उनके लोक में। किसी को भी - चाहे मनुष्य हो या प्रेत, अपने-अपने लोक के अतिक्रमण का अधिकार नहीं है। हम सबको प्रकृति के नियम का आदर करना होगा।" यह बोलकर जीब ने यानाम की ओर देखा और अपने स्वर में कोमलता भरकर उससे कहा, “बेटी, हम जानते हैं, तुम अपने पिता से अत्यधिक प्रेम करती हो । पिता के प्रति तुम्हारा प्रेम देखकर मैं अभिभूत हूँ । तुम्हारी पितृ-भक्ति अद्वितीय है। तुम्हारी पितृ-भक्ति ने क्षण भर के लिए प्रकृति को भी मात दे दी। किंतु अब तुम्हें लौटना होगा। जब तक तुम यहाँ रहोगी, तब तक तुम्हारे पिता स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त नहीं करेंगे। क्या तुम अपने पिता को सदा के लिए रोगी बनाना चाहती हो?" यानाम भर्राए हुए स्वर में बोली, “नहीं, कभी नहीं! मैं लौटने को तैयार हूँ। मुझे शीघ्रातिशीघ्र वापस भेज दीजिए।" यह सुन जीब ने तीव्र गति से मंत्र का जाप किया और एक लंबी साँस भरकर पूरे बल के साथ उसे यानाम के ऊपर फूँका। उसके बाद क्या हुआ, यानाम को कुछ याद नहीं।
जब यानाम की मूर्च्छा टूटी तो उसने स्वयं को उस बूढ़ी महिला के घर में पाया, जो पिता की मृत्यु के पश्चात् उसे अपने घर ले आई थी। जीब का कथन सौ फीसद सत्य सिद्ध हुआ । यानाम को बहुत लंबी आयु मिली। बड़ी होकर बूढ़ी महिला के बेटे से उसका ब्याह हुआ। दोनों के कई बच्चे हुए। फिर इन बच्चों के भी ब्याह हुए। यानाम ने तो अपने पड़पोते-पड़पोतियों की भी शादियाँ करवाईं और फिर एक दिन बिना किसी को कोई कष्ट दिए, नींद में ही वह चल बसी । उधर उई-मोक में यानाम का हर्षोल्लास के बीच बड़े धूमधाम से स्वागत किया गया और अंततः अपने परिजनों की प्रेतात्माओं से उसका पुनः मिलन हुआ ।
(साभार : डॉ. जमुना बीनी तादर)