प्रेत-आत्मा : पंजाबी लोक-कथा

Pret-Aatma : Punjabi Lok-Katha

एक गाँव में बहुत समृद्ध परिवार रहता था और उसकी एक परिवार से शत्रुता थी। दूसरे परिवार वाले लोग वह गाँव छोड़ देना चाहते थे। उन्होंने एक दिन गाँव छोड़ने की योजना बनाई और सारा सामान ले जा रहे थे। पहले परिवार के व्यक्तियों ने उनके परिवार के एक व्यक्ति की मृत्यु कर दी। वह व्यक्ति तो मर गया, परन्तु प्रतिकार की भावना से उनकी आत्मा वहीं भटकती रही। वह प्रेत बनकर उस परिवार के घर के सामने वाले वृक्ष पर ही रहने लग गया। उसके रहते हुए काफी समय व्यतीत हो चुका था। उसने अपना प्रतिशोध लेना आरम्भ कर दिया। कभी बोई हुई फसल का नुकसान कर दिया करता था और कभी कुछ कर दिया करता था। हर वर्ष उनको घाटा पड़ने लगा। घर के व्यक्तियों का गुज़ारा बड़ी कठिनाई से होने लगा। धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आया कि सभी परिवार के सदस्य भूखे मरने लगे और घर छोड़ने के लिए विवश हो गए। घर के कई व्यक्ति नौकरी करने के लिए घर छोड़कर चले गए, परन्तु कमल नामक एक व्यक्ति जो कि पढ़ा-लिखा था, कहने लगा, “मैं अपनी मातृभूमि को छोड़कर नहीं जाऊँगा, चाहे मुझे कितने ही दुःख-दर्द क्यों न सहन करने पड़ें। मैं यहीं पर ही कृषि करूँगा। तुम लोग जाना चाहते हो तो जाओ।" कमल की इन बातों को सुनकर घर के सभी सदस्यों ने उसे मूर्ख कहा। वे अपना सामान लेकर चले गए। अब कमल और उसकी पत्नी ही उस घर में और गाँव में अकेले रह गए।

कमल ने बहुत मेहनत से बीज बोया था, परन्तु प्रेत खेत में कुछ भी नहीं होने देता था। हर बार फसल बहुत कम होती थी, जिससे उनका निर्वाह होना बहुत कठिन हो गया था। वे अब तंग आ गए। उसकी पत्नी उससे लड़ती-झगड़ती रहती थी और उसे घर-बाहर छोड़कर कहीं और नौकरी करने के लिए कहा करती थी, परन्तु वह न माना। जब काफी समय इसी तरह लड़ाई-झगड़े में व्यतीत हो गया तो वह घर छोड़कर नौकरी पर जाने के लिए तैयार हो गया। अन्त में, एक दिन कमल ने घर छोड़ दिया और अपनी पत्नी को उसके पीहर में छोड़कर आजीविका के लिए चल पड़ा।

इधर प्रेत अकेला ही रह गया था। अब उसने सोचा, "अब मैं यहाँ अकेला रहकर क्या करूँगा, जब मेरे शत्रु ही यहाँ से चले गए।" बहुत सोच-विचार कर उस प्रेत ने एक व्यक्ति का रूप धारण कर लिया और कमल को जाकर मिला। मार्ग में जाकर कमल से मेल-जोल बढ़ाया और पूछा कि, “कहाँ जा रहे हो ?" कमल ने कहा, “घर से तंग आकर कुछ कमाने-धमाने के लिए जा रहा हूँ। कमल ने उस व्यक्ति से पूछा, “तुम कहाँ जा रहे हो ?” यह सुनकर उसने भी वही उत्तर दिया। इस सफर में उनकी मित्रता हो गई। इस प्रकार साथ-ही-साथ सफर करते-करते वे एक शहर में पहुँच गए। प्रेत ने उसको बताया कि, "प्रेत बनकर मैं राजा जी की लड़की के भीतर प्रविष्ठ हो जाऊँगा, तुम चिमटा लेकर जाना। तुम्हारे कहने पर मैं बाहर आ जाऊँगा, परन्तु तुम्हें मेरे साथ एक वायदा करना होगा कि तुम मेरे और वज़ीर की लड़की के प्यार में किसी प्रकार का कोई विघ्न नहीं डालोगे। इसका कारण यह है कि मैं वज़ीर की लड़की से सच्चे हृदय से प्यार करता हूँ। यदि तुमने इसमें विघ्न डालने का प्रयत्न किया तो मैं तुम्हारी गर्दन तोड़ दूंगा। यह वचन लेकर वह शहर चला गया और कहा कि, “तुम कल तक महल में पहुँच जाना।

उस प्रेत ने जाकर राजा की लड़की को तंग करना आरम्भ कर दिया राजा ने बड़े-से-बड़े वैद्य और हकीम बुलवाए, परन्तु कोई भी उसका उपचार नहीं कर पाया। राजा ने फरमान जारी कर दिया और ढिंढोरा पिटवा दिया कि, “यदि कोई भी व्यक्ति राजकुमारी को पूरी तरह से ठीक कर देगा, तो मैं उसका विवाह राजकुमारी से कर दूंगा।"

बहुत-से व्यक्ति अपना भाग्य अजमाने के लिए आए, परन्तु वे राजकुमारी को ठीक न कर सके। इस प्रकार वे सभी निराश होकर अपने घर वापस लौट गए।

एक दिन कमल साधु के रूप में वहाँ पर अलख-निरंजन करता हुआ आ गया। राजा ने उसका बहुत आदर-सत्कार किया और अपने से ऊँचे आसन पर बिठाया। राजकुमारी का सारा हाल उसे बताया तो कमल ने चिकित्सा करने का वायदा किया। साधु को राजकुमारी के कमरे में ले जाया गया। राजकुमारी बहुत ही दुविधा में थी। साधु ने ऐसे ही मंत्र पढ़ने आरम्भ कर दिए और कई घण्टों तक मंत्र ही गुनगुनाता रहा।

अंत में राजा को कहा कि, "इसमें एक प्रेत का वास है। मैं इसकी चिकित्सा कर सकता हूँ। मैं प्रेत को निकाल दूंगा। उसने राजा के सामने प्रेत से कहा कि, "तुम चले जाओ, परन्तु जाते समय अपनी कोई पहचान छोड़ जाओ।" यह सुनकर प्रेत ने कहा कि, “मैं बाहर बाग में से एक वृक्ष को उखाड़ कर जाऊँगा।" प्रेत चला गया और उसने बाग के एक वृक्ष को भी उखाड़ दिया।

अब कमल का विवाह राजकुमारी से सम्पन्न हो गया। अब वह आनन्ददायक जीवन व्यतीत करने लगा। अब उस प्रेत ने वज़ीर की लड़की को तंग करना आरम्भ कर दिया। उसके इलाज के लिए कमल को कहा गया, परन्तु कमल ने उपचार करने के लिए इन्कार कर दिया। अन्त में उसकी किसी ने नहीं सुनी और खींच कर ले गए। कमल ने जाकर प्रेत से कहा, "मैं अपनी इच्छा से नहीं आया हूँ। ये लोग मुझे जबरदस्ती ले आए हैं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। मैंने तो अपना वायदा पूरा करना चाहा था। मुझे किसी भी राज्य अथवा धन की कोई आवश्यकता नहीं है। चलो हम वहीं पर चलते हैं। हमें इनसे क्या लेना-देना। यहाँ कोई भी वायदे को निभा नहीं सकता।"

वे दोनों फिर से अपने मकान में चले गए। वहाँ प्रेत उसकी सहायता करने लगा और दोनों भरपेट खाना खाने लगे। इस प्रकार यह वर्षों पुरानी शत्रुता मित्रता में बदल गई।

साभार : डॉ. सुखविन्दर कौर बाठ

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