वृंदावनलाल वर्मा के जीवन के प्रेरक प्रसंग

Vrindavan Lal Verma Ke Jiwan Ke Prerak Prasang

सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा

मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उस समय की है, जब वर्माजी कक्षा दसवीं के विद्यार्थी थे। तब उन्होंने मार्सडन लिखित ‘भारत का इतिहास’ अंग्रेजी में पढ़ा। जिसमें लिखा था—भारत के लोग गरम मुल्क के होने के कारण ठंडे देशों के आक्रमणकारियों के सामने हारते हैं, परंतु आगे नहीं हारेंगे, क्योंकि अंग्रेज ठंडे देशवासी हैं। यहाँ आकर ठंडे देश को चले जाते हैं और उनके इंग्लैंड चले जाने पर दूसरे ताजा जवान आ जाते हैं। यह पढ़कर वर्माजी के हृदय को बड़ा आघात लगा। उन्होंने पुस्तक का वह पृष्ठ फाड़ डाला। घर पहुँचकर जब उनके चाचा ने पूछा तो उन्होंने वह सब बता दिया।

‘‘पर एक सफा फाड़ने से क्या होता है।’’ तभी से इतिहास के अध्ययन की ओर रुचि बढ़ गई। उन्होंने निश्चय किया कि खूब पढ़ूँगा और झूठी पुस्तकों की कलई खोलने के लिए भारत का सही इतिहास लिखूँगा और बताऊँगा कि भारत निर्बल तथा काहिल नहीं है। उसी का परिणाम है रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास।

उन्होंने नौकरी छोड़ दी

दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा है कि भाई वृंदावनलाल वर्माजी से मेरा संबंध प्रताप की गोलमाल कारिणी सभा से हुआ था। उस सभा के सभापति स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी थे। उक्त सभा में जो अन्य सज्जन थे, उनमें वृंदावनलालजी के अतिरिक्त शिव नारायणजी मिश्र, उपाध्यक्ष बद्रीनाथजी भट्ट, मनन द्विवेदी गजपुरी, शालिग्राम रामजी वर्मा ‘भरतपुर’, अध्यापक रामरतन आदि उल्लेखनीय हैं।

सन् १९२४ में दादा चतुर्वेदी विद्यार्थीजी को लेकर वृंदावनलाल वर्माजी के यहाँ गए थे। विद्यार्थीजी जब नैनी जेल से छूटे थे। वर्माजी उस समय पब्लिक प्रॉसिक्यूटर थे। गणेशजी की इच्छा नहीं थी कि दादा चतुर्वेदी उनके कनौड़ा करें, परंतु वर्माजी ने उनसे कहा, ‘‘आपको मेरे ही घर में, मेरे ही पास ठहरना पड़ेगा। अगर आपकी यह शर्त हो कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर छोड़ूँ तो अभी छोड़ सकता हूँ। चतुर्वेदीजी ने मुझ पर विश्वास किया है और मैं उनके विश्वास के योग्य रहना चाहता हूँ।’’

विद्यार्थीजी उन्हीं के यहाँ ठहरे। कुछ दिनों बाद वर्माजी ने नौकरी छोड़ दी।

वचन देने की बात है

एक बार डॉ. वृंदावनलालजी वर्मा प्रसिद्ध कवि और नाटककार डॉ. रामकुमारजी वर्मा के यहाँ तीन दिन रहे। जब वर्माजी झाँसी लौटने की तैयारी करने लगे तो रामकुमारजी ने उनसे दो-एक दिन और ठहरने का आग्रह किया। वर्माजी ने कहा, ‘‘कैसे ठहरें? एक केस अदालत में लगा हुआ है, जिसके लिए निश्चित दिन तो पहुँचना ही है।’’

‘‘अरे अब भी आप ‘केस’ करते हैं?’’

‘‘भैया रामकुमार, जिस गरीब का केस हाथ में लिया है, उसका काम तो करना ही है। उसे विश्वास दिला दिया है। उसका विश्वास तो निभाना ही पड़ेगा।’’

‘‘किसी दूसरे वकील को लिख दीजिए, वह केस कर लेगा।’’

‘‘इसे तो मैं ही करूँगा। वचन देने की बात है।’’

यह व्यक्तित्व है कि जाड़े की रात में चार बजे सुबह की गाड़ी से अपने वचन की पूर्ति के लिए परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए समय पर पहुँचना था और वे चले गए।

घर से चले तो लगा कि घर के एक आत्मीय स्वजन ही जा रहे हैं। सब लोगों की आँखें गीली थीं।

फौरन रसीद दे दी

डॉ. वृंदावनलाल वर्मा सुबह दूध और अंडों के अलावा और कुछ ग्रहण नहीं करते थे। हाँ, कभी-कभी जब मन चला तो आटे का हलुवा बनवाकर खाते थे। एक बार वर्माजी जैन समुदाय की ओर से मुकदमे के सिलसिले में ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ निरीक्षण करने के लिए गए। जैन मंदिरों का पुरातत्त्व विभाग अपने कब्जे में लेना चाहते थे। जैन संप्रदाय ने विरोध किया। वर्माजी विरोधी पक्ष की ओर से वकील थे। रात्रि में वे वहीं ठहरे। सुबह कलेवा में दूध के लिए आग्रह किया। इस संबंध में उनके पुत्र सत्यदेव वर्मा ने ‘गगनांचल’ के अंक में उनके (वर्माजी) खाने के शौक का वर्णन किया है—

मुनीमजी ने प्रश्न किया, ‘‘कितना?’’

बाबू—‘‘जितनी तुम्हारी श्रद्धा हो।’’

मुनीम—‘‘डेढ़ सेर या दो सेर?’’

बाबू ने गिरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, इतने से काम चला लिया जाएगा।’’

मुनीम मुसकराता हुआ बोला, ‘‘तीन-चार सेर ला दूँ?’’

बाबू—‘‘यही सही।’’

मुनीम—‘‘ऊपर से कुछ और?’’

बाबू—‘‘तुम्हारी श्रद्धा पर है।’’

मुनीम पक्का पाँच सेर दूध और आधा सेर जलेबी ले आया। बाबू ने उसके सामने ही यह सब साफ कर दिया। जब चलने लगे तो उसने बाबू से कहा, ‘‘वकील साहब रसीद लिख दें।’’

बाबू—‘‘किस बात की? फीस अभी मिली नहीं।’’

मुनीम—‘‘फीस की नहीं वकील साहब, दूध की। इस बात की कि आप पाँच सेर दूध डकार गए और ऊपर से जलेबी। हमारी सभा में कोई भी इसका विश्वास नहीं करेगा कि झाँसी के एक वकील इतना दूध पचा सकते हैं।’’

बाबू ने हँसकर हामी भरी और दूध-जलेबी की रसीद भर दी।

मृगनयनी का ‘वघरा’ वर्माजी ही हैं।

उड़ गए फुलवा रह गई बास

डॉ. वृंदावनलाल वर्माजी ने लिखा है कि विरारा गाँव में देवी के मंदिर पर गाए जानेवाले लोकगीत की अंतिम पंक्ति ‘उड़ गए फुलवा रह गई बास’ ने रोम-रोम खिला दिया। उससे बड़ी अनुप्रेरणा मिली। ‘विराटा की पद्मिनी’ सन् १९३१-३२ में लिखी। उस समय की एक घटना का जिक्र उन्होंने इस प्रकार किया है, जो उस गाँव के लोगों की स्वाभिमानता का परिचय देती है।

वर्माजी ने लिखा, ‘‘मैं अपने मित्र शर्माजी के साथ शिकार खेलने बेतवा किनारे एक जंगल की ओर गया। जंगल विराटा नाम के गाँव के निकट है। हम दोनों बैलगाड़ी से गए। जंगल शुरू नहीं हुआ था कि विराटा के निकटवर्ती खुले खेतों में फसल नहीं थी, कुछ बैल चर रहे थे। मेरे मित्र को कुछ जानवरों की बोलियों की नकल करनी आती थी। वह बैल की तरह ‘दलांके’ बोलने लगे। थोड़ी दूरी पर महुए के पेड़ के नीचे दो चरवाहे आए। दोनों छोकरे थे।

एक बिल्कुल निकट आकर चिल्लाया, ‘‘बड़ा घमंड है। आ जाओ, हम देखें तुम्हें। बंदूकें धरी रह जाएँगी।’’

उसने और भी कुछ कहा। मुझे आश्चर्य हुआ।

मैंने पूछा, ‘‘क्या बात है, भाई? क्यों बिगड़ रहे हो?’’

‘‘अच्छा, अब मीठा बोलने लगे। होश ठिकाने लगा देंगे।’’ उसने कुछ इसी तरह का भाव प्रकट किया।

उसी समय एक बूढ़ा गाड़ी के पास दौड़ता हुआ आया।

‘‘क्या बात है रे?’’ बूढ़े ने छोकरों से प्रश्न किया।

‘‘ये दलांके हैं। हमें चुनौती दी है।’’

‘‘अरे चुप! चुप रे! ये अपने वकील साहब हैं।’’

अब छोकरों ने सिर नीचा कर लिया, लाठियाँ ढीली हो गईं। बात चली। बूढ़े ने सब सुनकर हँसी के साथ कहा, ‘‘वकील साहब, हमारे गाँव के पास आकर कोई दलांके (बैल की हुंकार की नकल करे) तो यह समझा जाता है कि हमें लड़ने के लिए चुनौती दी गई है। ये लड़के आपको जानते नहीं हैं, क्षमा कीजिए।’’

हम लोग बूढ़े के साथ गाँव चले गए। पद्मिनी की कथा सुनाई। उससे प्रेरित होकर ‘विराटा की पद्मिनी’ की रचना हुई।

खतरों से जूझना स्वभाव

चिरगाँव से पाँच मील दूर भरतपुरा ग्राम के पंडित फूलचंद पुरोहित वृंदावनलाल वर्मा के परम मित्र थे। उनकी मृत्यु के समय उनके बच्चे छोटे-छोटे थे। वर्माजी उन दिनों डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन थे। उन्होंने पुरोहितजी के बच्चों की देखभाल करने के लिए कल्ले पड़रया नाम के व्यक्ति को, जिसे बिना फीस लिये मुकदमा लड़कर जेल से छुड़वा दिया था, रखवा दिया था। उन दिनों ‘बसा पहाड़ी’ ग्राम की डाँग (जंगल) में शेरसिंह डाकू का २१ व्यक्तियों का गिरोह था, उसमें पृथ्वी सिंह डाकू भी सम्मिलित था। इस गिरोह का बड़ा आतंक था। तत्कालीन पुलिस कप्तान सुंदर सिंह इस गिरोह को पकड़ने की फिराक में थे, किंतु उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी थी।

पं. फूलचंद पुरोहित अपने पीछे काफी संपत्ति छोड़ गए थे। नौकर कल्ले पड़रया की नीयत बदली और उसने शेर सिंह डाकू को पुरोहितजी के घर पर डाका डालने के लिए प्रेरित किया। अचानक वर्माजी भी उसी दिन बच्चों को देखने के लिए पहुँच गए। वर्माजी को देखते ही कल्ले पड़रया ने कहा, ‘‘बाबूजी, आज कुछ खरकसा (डाका की संभावना) मालूम पड़ता है।’’ वर्माजी ने कहा, ‘‘तुम्हें ऐसे समय घर नहीं छोड़ना चाहिए।’’ परंतु वह चला गया। वर्माजी ने जाते समय उससे कहा, ‘‘जब तक मेरे दम में दम है, इस परिवार को कोई नहीं लूट सकता या तो मैं रहूँगा या शेरसिंह।’’ वर्माजी बंदूक लेकर तैयार हो गए। कल्ले ने वर्माजी की कही हुई बात डाकू शेरसिंह को सुना दी। उसने वर्माजी का नाम पहले से ही सुन रखा था और उनसे बहुत प्रभावित था। शेरसिंह ने कल्ले को फटकारते हुए कहा, ‘‘जब तू वर्माजी का नहीं हुआ, जिन्होंने तुझे बचाया और रोटी दी तो तू मेरा क्या होगा। अब भलाई इसी में है कि तू भाग जा।’’ शेरसिंह ने डाका डालने का इरादा छोड़ दिया और अन्यत्र चला गया। ऐसे थे वर्माजी, अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरों की सहायता करनेवाले।

डाका डालने से नहीं हिचकूँगा

जब मऊरानीपुर के निकटवर्ती ग्राम में हैजे का भयंकर प्रकोप छाया हुआ था। उस समय वृंदावनलालजी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन थे। जिला बोर्ड के स्वास्थ्य प्राधिकारी ने वर्माजी से कहा, ‘‘ज्ञात हुआ कि वहाँ के लोग टीका लगवाने से हिचक रहे हैं। आप यदि साथ चलें और उन्हें समझा देंगे तो वे मान जाएँगे, क्योंकि वे आपका बहुत सम्मान करते हैं।’’ वर्माजी उनके साथ बड़ागाँव जा पहुँचे। वर्माजी के पहुँचते ही गाँव के लोग एकत्र हो गए। वर्माजी के समझाने पर उन्होंने टीके लगवा लिये, किंतु दवा कम पड़ जाने की वजह से लगभग पचास आदमी टीके लगाए जाने से बचे रहे। वर्माजी ने अगले दिन आने के लिए कह दिया।

दूसरे दिन वर्माजी ने ऑफिस पहुँचकर डॉक्टर को बुलवाने के लिए चपरासी को भेजा, वह नहीं आया। कंपाउंडर से पूछने पर पता लगा कि लगभग सौ व्यक्तियों को टीका लगाने की दवा मौजूद है। दवाखाने की चाबी माँगने पर कंपाउंडर ने कहा, ‘‘वह तो डॉक्टर साहब के पास ही है।’’ यह सुन वर्माजी ने दवाखाने का ताला तोड़कर पचास व्यक्तियों को टीका लगाने लायक दवा ले ली। टीका लगाने बड़ागाँव पहुँचे और टीके लगा दिए।

लौटने पर पता चला कि डॉक्टर ने दवाखाना का ताला तोड़ने की शिकायत लखनऊ सरकार को भेज दी। सरकार ने पूरी जानकारी करने के लिए कमिश्नर को आदेश दिया।

कमिश्नर ने उक्त संबंध में पत्र लिखा। वर्माजी ने पत्र के उत्तर में लिखा, ‘‘मानव के प्राण दवा या दवाखाने से कहीं बढ़कर मूल्यवान हैं। यदि फिर कभी उसी प्रकार की परिस्थिति सामने आई तो वैसा ही डाका डालने से न हिचकूँगा।’’

उत्तर में कमिश्नर की टिप्पणी आई, ‘‘आपकी जगह यदि मैं होता तो मैं भी इसी तरह का डाका डालता।’’

ऐसे थे वर्माजी! समाज हित के लिए खतरा मोल लेनेवाले।

करुणा की साक्षात् मूर्ति

वर्माजी का बहुत पुराना नौकर था—खुशाली। वह उनके श्यामसी गाँव के घर में काम किया करता था। बूढ़ा ग्राम फार्म की देखभाल भी करता था। अचानक वह बीमार पड़ गया। वर्माजी उसका निजी पैसों से इलाज कराते रहे। एक रात वह पैरों के दर्द के कारण सिसक रहा था। रात्रि में सोने से पहले वे उसकी तबीयत देखने जाते थे। उसे रोता देख पूछने लगे कि क्या बात है। नौकर पहले तो कुछ बोला नहीं। पर बारंबार पूछने पर उसने बड़ी मुश्किल से रोते-रोते पैरों के दुखने की बात कही।

यह सुन वर्माजी उसके पैरों को दबाने लगे। नौकर ने बहुत रोका, लेकिन वे नहीं माने और जब तक वह सो नहीं गया, पैर दबाते रहे। ऐसा था बाबू वृंदावनलाल वर्मा का दयालु स्वभाव।

सहिष्णुता

सन् १९५४ के प्रारंभ में उत्तर प्रदेश प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का दूसरा समारोह सम्मेलन देहरादून में आयोजित किया गया था। महापंडित राहुल सांकृत्यायन मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित तथा डॉ. वृंदावनलालजी सम्मेलन के अध्यक्ष थे। उन्हें देहरादून प्रातः ट्रेन से पहुँचना था, किंतु वे उसके पूर्व रात्रि में ही पहुँच गए थे। उनके स्वागतार्थ स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैंड आदि के साथ बड़ी संख्या में सम्मेलन के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में मालाएँ लेकर उपस्थित थे।

वर्माजी को प्रातः ट्रेन से उतरते हुए किसी ने नहीं देखा। वे उन्हें डिब्बों में ढूँढ़ते रहे। न मिलने पर उन्हें बड़ी निराशा हुई। उन्हें आया हुआ न देख कुछ यों ही बड़बड़ाने लगे। उनके न पहचाने जाने पर वर्माजी ने बताया कि मैं ही हूँ वर्मा। वे लोग बड़े लज्जित हुए। क्षमा-याचना करने लगे। उन लोगों के बड़बड़ाने को वर्माजी ने शांतिपूर्वक सुन लिया। ऐसे थे सहनशील वर्माजी।

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