प्रेमाकुल रागमंजरी और दुनियादार काममंजरी गणिकाओं की कथा : मृणाल पाण्डे

Premakul Ragmanjri Aur Duniyadar Kaammanjri Ganikayon Ki Katha : Mrinal Pande

(टीवी और सोशल मीडिया के नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दंडी कवि के ‘दशकुमार चरितम्’ और दामोदर गुप्त के ‘कुट्टनीमतम्’ की कथायें हिंदी में लगभग नहीं सुनाई देतीं। लेकिन यह दोनों संकलन मानवीय साहस, कायरता, सच्चे और नकली अनुराग, प्रेम में त्याग के साथ साथ धोखाधड़ी, और सभी वर्गों द्वारा चतुराई से अपना उल्लू गांठने के कई कालालतीत किस्से-कहानियों का भंडार हैं। आज की हिंदी फिल्मी कहानियों की तरह ही भावुक प्रेम की चाशनी में पगी कथाओं में स्त्री पुरुष के बीच संवेदनशील जुडाव के कई रोचक पहलू भी हैं। और नये रईसों की दुनिया में रूप कला का व्यवसाय चलानेवाली गणिकाओं के बीच खेली खाई बूढी कुटनियों की युवतियों को ‘सब साले चोर हैं शेख, अपनी अपनी देख’ नुमा दुनियादार नसीहतें भी। इस बार की कथा उन्हीं से।)

बहुत पुरानी बात है, किसी बडे देश के समंदर किनारे व्यापार वणिज का बडा केंद्र महानगर था। दुनिया में मशहूर उस नगर में कई रसिक सेठ-रईस रहते थे। उनसे वणिज व्योपार को कई दूसरे देशों के रईस व्यापारी भी वहाँ निरंतर आते जाते थे। कुछ जल मार्ग से, कुछ थल मार्ग से।

अब छप्पन की छाती वाले मरद आदमी दिन भर हाड़ तोड़ कर मेहनत करें, तो शाम को उनके लिये रसरंजन का कारण तो बनता है न? सो शाम ढले इस शहर में गणिका गली में रसिकों की भीड बढ जाती। वहां पैसा पानी की तरह बहता था।

रईसों की आमद से पहले दिन भर सोनेवाली गणिकायें सजधज कर छज्जों पर बैठ जातीं। महफिली कमरों में साज़िंदे साज़ मिलाने लगते यह कमाई का समय था। तितलियों की तरह हर किसम की खुशबुएं उडने लगतीं: इत्र, तांबूल, सुगंधित सुंघनी, गुलाब, बेला चमेली से महकते बाज़ार रोशनी में नहा उठते।

अब रईस और गणिकायें हों तो वहाँ शहर के लुच्चे जेबतराश और कुटनियाँ भी आ जुटेंगे यह सब जानते हैं। रईस आवभगत से सीढियां चढ़ते तो घात लगाये आवारागर्द गली गली डोलने लगते। ऊपर किसी सुंदरी की छब दिखने पर चबूतरों पर हुक्का पीते बूढों की खांसियाँ छिड़ जातीं। पुरानी जेबों से कई किस्से निकल आते।

गणिका गली में एक बडी अनुभवी बूढी गणिका, थी कुट्टनी, जिसे गणिकायें कुटनी अम्मा बुलातीं। उसे हर गणिका अपनी कमाई से तयशुदा नज़राना देती थी। वजह यह, कि कुटनी अम्मा गली में नई नई उतरी बछेरियों को सफल गणिका किस तरह बना जाये इसकी बढिया शिक्षा देती थीं। साथ ही बिना कोतवाल या पुलिस बुलाये अम्मा गली के आपसी झगड़े भी सलटा देतीं थीं। गाहकों से निबटने से लेकर तमाम आलतू-फालतू लोगों को कैसे निबटायें, इस बाबत उनकी गाँठ बाँधने जोगी होती।

गणिका जीवन के दो मुख्य सूत्र पाठ कुटनी अम्मा की सराय के दीवान ए खास में दीवार पर कारचोबी से काढ कर टांगे गये थे।

पहला: एक गणिका को पुरुषों से सच्चा प्रेम कभी नहीं करना चाहिये। आवेश में भी संयम खो कर कोई ऐसा मोह छोह न पालो जिससे धंधे में नुकसान हो।

दूसरा: पहलवान और गणिका का बुढापा बुरा होता है। ताकत, जवानी चार दिन के हैं और पहलवानी सीना और गणिका का रूप, दोनो गुमान की नहीं पैसा कमाई की चीज़। गाजर की पुंगी की तरह जब तक बजें, बजाओ, फिर चबा के खा जाओ। अंत में दाँत काट कर जतन से जोडी पूंजी ही माई बाप बनती है।

ये किस्सा तब का है जब नगरी में दो मशहूर गणिकायें थीं: काममंजरी और रूपमंजरी। ललित लवंगलता सी उनकी लोचदार देह, मुट्ठीभर की कमर और मृगी जैसे बड़े बड़े नयन।

गली की कानाफूसी बताती थी कि काममंजरी ऊंचे बर्फीले पहाड़ों से उतरी थी और रूपमंजरी उस पूरब दिशा से आई थी जिसकी लड़कियों की आंखों का जादू किसी भी रसिक को भेड़ा बना सकता है।

कुट्टनी अम्मा ने दोनों को सीख दी।

पहली बात: गणिका के लिये भावुक प्रेम बहुत घातक है। सफल गणिका बनना है, तो पहले कलेजा हिमशीतल हिमकठोर करना होगा। मैं कुछ दवा देती हूं जो मुझको मेरे ज़माने की डेरेदारनी ने दी थी।

दोनो से चार चार स्वर्ण मुद्रा वसूल कर कुट्टनी अम्मा भीतर जा कर कुछ चूर्ण और चाटनेवाले अवलेह की डिबियाँ लाईं। दोनों को डिबियाँ थमा कर उसने कहा कि सुबह सुबह बिना कुल्ला किये लगातार दस दिन तक दोनो की एक एक पुडिया फांक लो। ऊपर से गिलास भर ठंडा जल पी जाओ। दस दिन के भीतर तुम्हारा कलेजा ठोस बरफ की सिल्ली बन जायेगा।

फिर न डर, न प्रेम, बस तुम और गाहक और भरपूर कमाई।

दुनियादार काममंजरी ने दवाओं का नियमित सेवन किया। उसके केश घुंघराले बन गये, शरीर और अधिक कसा हुआ और चेहरे मर भरपूर लुनाई छा गई। शाम को अपना रथ खुद हाँकती हंटर हिलाती निकलती तो जोगी जती भी उसांसें भर कर लड़खड़ा जाते। दिल बर्फ का तो डर किसका? काममंजरी रईस मर्दों से जम कर तू तड़ाक करती। उनको छोटे बच्चे के मुख की गाली की तरह उसका कड़वापन भी रिझाता था। सड़क से गुज़रते नगर अधीक्षक की उसने अनदेखी कर दी। जा रे जमाना! नगर अधीक्षक के कुपित होने पर सिपहिया जब उसका कोठा मुआयना करने आये तो उसने छज्जे पर खडी होके कहा: ‘तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मेरा छज्जा टूटा, तो तेरा घर टूट जायेगा।’

इस पर फुर्सती भीड़ के बीच बडी तालियाँ बजीं। नगर अधीक्षक के बाप ने कहा बेटा गणिका के मुंह मत लग! ज़माना हंसेगा। सो वह गम खा गया।

उधर रूपमंजरी के मन में यह था कि अगर कभी उसे सच्चा गुणी प्रेमी मिल गया तो वह यह सब छोडछाड कर उसकी हो रहेगी। ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ न आयेगी दोबारा। होनी हो सो होई! बिकना ही हो तो धन नहीं गुण के हाथ बिकना है, कुलीन औरतों की तरह एक की हो के रहना है, उसने काममंजरी से कहा।

‘जीबौने आरटा की?’ कह कर रूपमंजरी ने कुट्टनी अम्मा की दी दवायें भी उठा कर समंदर में फेंक दीं।

इसका घातक परिणाम हुआ। पूरब से एक बहुत सुंदर कद काठी वाले रईस घर के सौदागर सुंदरसेन का नगर आना हुआ। चीते सी चाल, चौडा बलिष्ठ सीना, बोतल सी सुती जाँघें और गहरी बाज़ जैसी बींधती दृष्टि। संध्याकालीन सुनहरी धूप में गली से गुज़रते सुंदरसेन ने छज्जे से डूबते सूरज को निहारती स्वर्ण प्रतिमा सी रूपमंजरी को देखा तो सीधे ऊपर उसके कक्ष में चला आया।

’प्यासा हूँ, रूपसी, पानी दोगी?’

रूपमंजरी ने देखा, कैसा सुंदर गबरू जवान। टकटकी बंध गई।

‘देखती रहोगी कि प्यासे को तृप्त करोगी?’ सुंदरसेन मुस्कुराया तो उसके गले में आकर्षक गढे पड़ गये। बस दईमारी रूपमंजरी जिसने जानबूझ कर अपना दिल बर्फ नहीं होने दिया था। विह्वल हो कर रूपमंजरी सुंदरसेन के प्रेमपाश में बँध गई और सुंदरसेन भी उस पर लट्टू हो रहा।

प्रेम बेलि फैलने लगी दिन रात।

कुटनी अम्मा को पता चला तो भागी आई।

– ‘देख तेरी हितू हूं तभी कहती हूं री रूपमंजरी, प्रेम ऊम मत कर भागवान। जानती नहीं ये सुंदरसेन तो पूरब के सुंघनी साव के घराने का वारिस है। वे लोग पीढियों से इतर, अफीम और सुंघनी का व्यापार करते आये हैं। इसके बाबा से मेरा भी उठना बैठना था, पर भरपूर पैसा ले कर उसको बिदा कर दिया मैंने। तू भी वही कर!

‘नशे के व्यापारियों पर भरोसा ठीक नहीं बेटी! इनके घर के कुत्ते बिल्ली ही नहीं, इनके कारखाने का पानी पीनेवाले मंदर भी नशेड़ी बन जाते हैं। खबरदार जो तूने सचमुच इस सुंदरसेन से दिल लगाया। जितना लूट सकती है लूट ले पर, फिर राम राम सीता राम!’

सुंदरसेन को रूपमंजरी के साथ रहते हुए एक साल हो गया था तभी एक दिन उसके घर से एक पुराना सेवक, जिसने सुंदरसेन को गोद में खिलाया था, उसके पिता की चिट्ठी ले कर आ रूपमंजरी के घर पर आ धमका। रूपमंजरी नहाने गई थी। सुंदरसेन अकेला था।’ अरे रामू काका तुम?’ वह बोला। सेवक ने उसे एक पत्र बिना कुछ कहे थमा दिया। सुंदरसेन पढने लगा।

पत्र में उसके पिता ने अपने इकलौते बेटे को तीखा उलाहना देते हुए लिखा था कि किस तरह उन्ने उसको इतनी शिक्षा दीक्षा दिलवाई, धंधा समझाया जिसे भुला कर वह एक रूपजीवा की गोद में जा बैठा है। ‘मुझे आशा थी, कि तुम मेरा काम सँभाल लोगे तो मैं घर पर रह कर परलोक साधूंगा, पर सब उलटा हो गया। मेरा परलोक संवरने की बजाय बिगड गया। बहू का गौना भी नहीं करा सका सो इस उम्र में सारे शहर में मुझे कुलकलंक का पिता होने का अपयश मिल रहा है।’

सुंदरसेन की आंखों में आंसू देख कर उसके चरण दबाता चतुर कुल सेवक बोला, ‘बेटा तुमको बचपन से गोद में पाला पोसा है, तुम्हें पीठ पर बिठा कर तुम्हारा घोड़ा बना, तुमको कंधे पर बिठा कर शाला से मेला तक ले जाता रहा, सो उस अधिकार से कहता हूं, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। घर लौट चलो। गणिका गली तुम्हारी जगह नहीं। वहाँ अपने शहर में तो नगरसेठ की गादी तुम्हारे इंतज़ार में है। बहुरिया का भी गौना करा लोगे तो बड़े मालिक पोते का मुख देख लेंगे छोटे मालिक। ये गणिका गली का प्रेम कितना गहरा होता है सब जानते हैं।’

सुंदरसेन मुंह नीचा किये सोचता बैठा था कि नहा धोकर रूपमंजरी ने कक्ष में प्रवेश किया। सेवक चुपचाप उठ कर बाहर चला गया।

‘ये कौन दुष्टू था जिसके आने से ओ हमाला मुन्ना लाजा, का फेस ऐसा लटका है?’ वह बडे लाड़ से बोली।‘ अभी मूड ठीक करती हूं।’ वह बोली। उसकी आंख का इशारा पा कर दासी मदिरा के दो सोने के पात्र ले आई।

सुंदरसेन ने हाथ से मना किया कि वह नहीं लेगा। ‘पिता जी की चिट्ठी है,’ सुंदरसेन जैसे खुद से बोला, ‘लगता है घर वापिस जाना ही होगा।’

रूपमंजरी आंसू छिपाते हुए बोली, जानती हूं सुंदर, मैं गणिका हूं, तुम्हारे योग्य नहीं, फिर भी इतने दिन तुम मेरे साथ रहे यह मेरे पुन्यों का ही फल था। मेरी जगह मैं जानती हूं। आपकी सात फेरोंवाली की जगह मैं नहीं ले सकती।’

सुंदरसेन ने गहरी सांस ले कर सामान बाँध कर सेवक को थमाया और बिन कुछ कहे सीढी उतर गया। पीछे पीछे रूपमंजरी काफी दूर तक उसके साथ गई जहाँ काममंजरी के घर के नीचे सुंदरसेन और सेवक के घोड़े लिये दो साईस खड़े थे।

बरगद तले सुंदरसेन ने अंतिम बार प्रिया को देखा बोला, ‘सुख से रहना प्रिये, मैं चला।’

रूपमंजरी देर तक उसे जाते देखती रही, अपने प्राणों से बोली, ‘अभी वह दिख रहा है, ओझल नहीं हुआ, कुछ पल देखने दो। अभी छोड कर मत जाओ।’

पर प्राण कब, किसके लिये रुके हैं, जो अब रूपमंजरी गणिका के लिये रुकते? चले गये।

निष्प्राण देह पछाड़ खा कर बरगद तले गिर पड़ी। हल्ला मच गया। सब भागते चले आये। छज्जे से यह सब देखती काममंजरी नीचे न उतरी। भला हुआ, हिमशीतल हृदय में उसने सोचा, अब इस शहर में प्रसिद्ध गणिका मैं ही रह गई।

भीतरी कक्ष में लोगों की नज़रों से छिप कर उसके पास रसरंजन को रोज़ाना आने जाने लगे नगर अधीक्षक को सुना कर काममंजरी बोली, ‘यह तो एक सती कुलवधू के पति को रूप से रिझा कर पत्नी पिता से सुंदरसेन को अलग रखने का दंड दिया है इसे भगवान ने! दिन रात दोनो नशा पानी करते थे, यह कौन नहीं जानता?

आपसे पूछें तो आप भी महाराज को रूपमंजरी गणिका की मृत्यु की वजह सुंघनी का नशा ही बतलाइयेगा नशेबाज़ का क्या? मरे तो कौन गली में?’

कुटनी अम्मा ने ही देही उठवा कर संस्कार का प्रबंध करवा दिया। शव चांडाल उठा कर ले गये।

उधर राह पर एक बटोही को रूपमंजरी के शहर की ओर से आते देख सुंदरसेन ने पूछा, ‘बंधु क्या राह में कोई रूपवती स्त्री बरगद तले अकेली खड़ी रोती तो नहीं देखी तुमने?’

बटोही बोला, ‘अब किसी को खड़ा तो नहीं देखा। पर हाँ उस बडेवाले बरगद के गिर्द भीड़ लगी थी। उतर कर पूछा कि क्या हुआ? पता चला एक लडकी पछाड़ खा कर गिरी और चल बसी थी। किसी ने उसके ही दुपट्टे से शरीर ढांक दिया था। पर देही कौन उठाये इस पर सब कतराते थे।

सुंदरसेन तड़प कर लौटा तब तक स्मशान में रूपमंजरी की देही को आग दी ही जा रही थी। उसने दाग देने जा रहे चांडाल से आग छीन कर खुद चिता को जलाया और फिर घर की तरफ मुंह नहीं किया। वहीं के वहीं घाट पर नहा कर सारे वस्त्राभूषण सेवक को दे, सुंदरसेन सन्यासी बन कर कहाँ गया किसी को कभी पता न चला।

इसके बाद कुट्टनी अम्मा ने अपनी युवा गणिका प्रशिक्षण कक्षा में एक तीसरा आप्त सूत्र कारचोबी से कढवा कर टाँग दिया।

‘गणिका को प्रेम का अधिकार तो होता है, पर प्रेम को उसकी मंज़िल तक ले जाने का नहीं। समय आने पर हर गणिका को पता चलता है, कि गणिका- दुनिया अलग है। इस दुनिया की मरीचिका के बाहर गणिका सब के लिये अजनबी है, सबसे अधिक स्वयं अपने लिये।’

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