प्रेमा (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद
Prema (Novel): Munshi Premchand
प्रेमा भाग 5
अँय ! यह गजरा क्या हो गया?
पंडित बंसतकुमार का दुनिया से उठ जाना केवल पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था, प्रेमा की हालत भी उसी की-सी थी। पहले वह अपने भाग्य पर रोया करती थी। अब विधाता ने उसकी प्यारी सखी पूर्णा पर विपत्ति डालकर उसे और भी शोकातुर बना दिया था। अब उसका दुख हटानेवाला, उसका गम गलत करनेवाला काई न था। वह आजकल रात-दिन मुँह लपेटे चारपाई पर पड़ी रहती। न वह किसी से हँसती न बोलती। कई-कई दिन बिना दाना-पानी के बीत जाते। बनाव-सिगार उसको जरा भी न भाता। सर के बल दो-दो हफ्ते न गूँथे जाते। सुर्मादानी अलग पड़ी रोया करती। कँघी अलग हाय-हाय करती। गहने बिल्कुल उतार फेंके थे। सुबह से शाम तक अपने कमरे में पड़ी रहती। कभी ज़मीन पर करवटें बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमृतराय की तस्वीर को देखा करती। और जब उनके प्रेमपत्र याद आते तो रोती। उसे अनुभव होता था कि अब मैं थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।
पहले दो महीने तक तो पूर्णा का ब्रह्मणों के खिलाने-पिलाने और पति के मृतक-संस्कार से सॉँस लेने का अवकाश न मिला कि प्रेमा के घर जाती। इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न निकली। उसका जी ऐसा बुझ गया था कि कोई काम अच्छा न लगता। हाँ, प्रेमा मॉँ के मना करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी। मगर वहॉँ जाकर आप रोती और पूर्णा को भी रुलाती। इसलिए अब उधर जाना छोड़ दिया था। किन्तु एक बात वह नित्य करती। वह सन्ध्या समय महताबी पर जाकर जरुर बैठती। इसलिए नहीं कि उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं प्रत्युत केवल इसलिए कि वह कभी- कभी बाबू अमृतराय को उधर से आते-जाते देखती। हाय लिज वक्त वह उनको देखते उसका कलेजा बॉँसों उछालने लगता। जी चाहता कि कूद पडूँ और उनके कदमों पर अपनी जान निछावर कर दूँ। जब तक वह दिखायी देते अकटकी बॉँधे उनको देखा करती। जब वह ऑंखों से आझला हो जाते तब उसके कलेजे में एक हूक उठती, आपे की कुछ सुधि न रहती। इसी तरह कई महीने बीत गये।
एक दिन वह सदा की भॉँति अपने कमरे में लेटी हुई बदल रही थी कि पूर्णा आयी। इस समय उसको देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि वह किसी प्रबल रोग से उठी है। चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो। उसके कपोल जो कभी गुलाब की तरह खिले हुए थे अब कुम्हला गये थे। वे मृगी की-सी ऑंखें जिनमें किसी समय समय जवानी का मतवालापन और प्रेमी का रस भरा हुआ था अन्दर घुसी हुई थी, सिर के बाल कंधों पर इधर-उधर बिखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था। केवल एक नैन सुख की साड़ी बदन पर पड़ी हुई थी। उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर बिठा दिया।
कई मिनट तक दोनों सखियॉँ एक-दूसरे के मुँह को ताकती रहीं। दोनो के दिल में ख्यालों का दरिया उमड़ा हुआ था। मगर जबान किसी की न खुलती थी। आखिर पूर्णा ने कहा—आजकल जी अच्छा नहीं है क्या? गलकर कॉँटा गयी हो
प्रेमा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा—नहीं सखी, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ। तुम तो कुशल से रही?
पूर्णा की ऑंखों में आँसू डबडबा आये। बोली—मेरा कुशल-आनन्द क्या पूछती हो, सखी आनन्द तो मेरे लिए सपना हो गया। पॉँच महीने से अधिक हो गये मगर अब तक मेरी आँखें नहीं झपकीं। जान पड़ता है कि नींद ऑंसू होकर बह गयी।
प्रेमा—ईश्वर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है। हमारी-तुम्हारी एक ही गत है। अगर तुम ब्याही विधवा हो तो मैं कुँवारी विधवा हूँ। सच कहती हूँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब परमार्थ के कामों में ही जीवन व्यतीत करुँगा।
पूर्णा—कैसी बातें करती हो, प्यारी मेरा और तुम्हारा क्या जोड़ा? जितना सुख भोगना मेरे भाग में बदा था भोग चुकी। मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमृतराय की दशा भी तुम्हारी ही-सी है। वे आजकल बहुत मलिन दिखायी देते है। जब कभी इधर की बात चलती हूँ तो जाने का नाम ही नहीं लेते। मैंने एक दिन देखा, वह तुम्हारा काढ़ा हुआ रुमाला लिये हुए थे।
यह बातें सुनकर प्रेमा का चेहरा खिल गया। मारे हर्ष के ऑंखें जगमगाने लगी। पूर्णा का हाथ अपने हाथों में लेकर और उसकी ऑंखों से ऑंखें मिलाकर बोली-सखी, इधर की और क्या-क्या बातें आयी थीं?
पूर्णा-(मुस्कराकर) अब क्या सब आज ही सुन लोगी। अभी तो कल ही मैंने पूछा कि आप ब्याह कब करेंगे, तो बोले-‘जब तुम चाहो।’ मैं बहुत लजा गई।
प्रेमा—सखी, तुम बड़ी ढीठ हो। क्या तुमको उनके सामने निकलते-पैठते लाज नहीं आती?
पूर्णा—लाज क्यों आती मगर बिना सामने आये काम तो नहीं चलता और सखी, उनसे क्या परदा करूँ उन्होंने मुझ पर जो-जो अनुग्रह किये हैं उनसे मैं कभी उऋण नहीं हो सकती। पहिले ही दिन, जब कि मुझ पर वह विपत्ति पड़ी रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी। जो कुछ असबाबा था पापियों ने मूस लिया। उस समय मेरे पास एक कौड़ी भी न थी। मैं बड़े फेर में पड़ी हुई थी कि अब क्या करुँ। जिधर ऑंख उठाती, अँधेरा दिखायी देता। उसके तीसरे दिन बाबू अमृतराय आये। ईश्वर करे वह युग-युग जिये: उन्होंने बिल्लो की तनख़ाह बॉँध दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक किया। अगर वह उस वक्त आड़े न आते तो गहने-पाते अब तक कभी के बिक गये होते। सोचती हूँ कि वह इतने बड़े आदमी हाकर मुझ भिखारिनी के दरवाजे पर आते है तो उनसे क्या परदा करुँ। और दूनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती। वह जो पड़ोसा में पंडाइन रहती है, कई बार आई और बोली कि सर के बाल मुड़ा लो। विधवाओं का बाल न रखना चाहिए। मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना। इस पर सारे मुहल्ले में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कोई कुछ कहता हैं, कोई कुछ। जितने मुँह उतनी बातें। बिल्लो आकर सब वृत्तान्त मुझसे कहती है।सब सुना लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ। मेरे भाग्य में दुख भोगना, लोगों की जली-कटी सुनना न लिखा होता तो यह विपत्ति ही काहे को पड़ती। मगर चाहे कुछ हो मैं इन बालों को मुँड़वाकर मुण्डी नहीं बनना चाहती। ईश्वर ने सब कुछ तो हर लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊँ।
यह कहकर पूर्णा ने कंधो पर बिखरे हुए लम्बे-लम्बे बालों पर ऐसी दृष्टि से देखा मानो वे कोई धन हैं। प्रेमा ने भी उन्हें हाथ से सँभाला कर कहा—नहीं सखी खबरदार, बालों को मुँड़वाओगी तो हमसे-तुमसे न बनगी। पंडाइन को बकने दो। वह पगला गई है। यह देखो नीचे की तरफ जो ऐठन पड़ गयी हैं, कैसी सुन्दर मालूम होती है यही कहकर प्रेमा उठी। बक्स में सुगन्धित तेल निकाला और जब तक पूर्णा हाय-हाय करे कि उसके सर की चादर खिसका कर तेल डाल दिया और उसका सर जाँघ पर रखकर धीरे-धीरे मलने लगी। बेचारी पूर्णा इन प्यार की बातों को न सह सकी। आँखों में आँसू भरकर बोली—प्यारी प्रेमा यह क्या गजब करती हो। अभी क्या काम उपहास हो रहा है? जब बाल सँवारे निकलूँगी तो क्या गत होगी। अब तुमसे दिल की बात क्या छिपाऊँ। सखी, ईश्वर जानता हैं, मुझे यह बाल खुद बोझ मालूम होते हैं। जब इस सूरत का देखनेवाला ही संसार से उठ गया तो यह बाल किस काम के। मगर मैं इनके पीछे पड़ोसियों के ताने सहती हूँ तो केवल इसलिए कि सर मुड़ाकर मुझसे बाबू अमृतराय के सामने न निकला जाएगा। यह कह कर पूर्णा जमीन की तरफ ताकने लगी। मानो वह लजा गयी है। प्रेमा भी कुछ सोचने लगी। अपनसखी के सर में तेल मला, कंघी की बाल गूँथे और तब धीरे से आईना लाकर उसके सामने रख दिया। पूर्णा ने इधर पॉँच महीने से आईने का मुँह नहीं देखा था। वह सझती थी कि मेरी सूरत बिलकूल उतर गयी होगी मगर अब जो देखा तो सिवया इसके कि मुँह पीला पड़ गया था और कोई भेद न मालूम हुआ। मध्यम स्वर में बोली—प्रेमा, ईश्वर के लिए अब बस करो, भाग से यह सिंगार बदा नहीं हैं। पड़ोसिन देखेंगी तो न जाने क्या अपराध लगा दें।
प्रेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर देख रही थी। यकायक मुस्कराकर बोली—सखी, तुम जानती हो मैंने तुम्हारा सिंगार क्यों किया?
पूर्णा—मैं क्या जानूँ। तुम्हारा जी चाहत होगा।
प्रेमा-इसलिए कि तुम उनके सामने इसी तरह जाओ।
पूर्णा—तुम बड़ी खोटी हो। भला मैं उनके सामने इस तरह कैसे जाऊँगी। वह देखकर दिल में क्या में क्या कहेंगे। देखनेवाले यों ही बेसिर-पैर की बातें उड़ाया करते है, तब तो और भी नह मालूम क्या कहेंगे।
थोड़ी देर तक ऐसे ही हंसी-दिल्ली की बातो-बातो में प्रेमा ने कहा-सखी, अब तो अकेले नहीं रहा जाता। क्या हर्ज है तुम भी यहीं उठ आओ। हम तुम दोनों साथ-साथ रहें।
पूर्णा—सखी, मेरे लिए इससे अधिक हर्ष की कौन-सी बात होगी कि तुम्हारे साथ रहूँ। मगर अब तो पैर फूक-फूक कर धरना होती है। लोग तुम्हारे घर ही में राजी न होंगे। और अगर यह मान भी गये तो बिना बाबू अमृतराय की मर्जी के कैसे आ सकती हूँ। संसार के लोग भी कैसे अंधे है। ऐसे दयालू पुरुष कहते हैं कि ईसाई हो गया हैं कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात निकालती है। मुझसे वह कहते थे कि मैं शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बनवानेवाला हूँ जहाँ अनाथ जहॉँ अनाथ विधवाऍं आकर रहेंगी। वहॉँ उनके पालन-पोषण और वस्त्र का प्रबन्ध किया जाएगा और उनके पढ़ना-लिखाना और पूजा-पाठ करना सिखाया जायगा। जिस आदमी के विचार ऐसे शुद्ध हों उसको वह लोग ईसाई और अधर्मी बनाते है, जो भूलकर भी भिखमंगे को भीख नहीं देते। ऐसा अंधेर है।
प्रेमा- बहिन, संसार का यही है। हाय अगर वह मुझे अपनी लौंडी बना लेते तो भी मेरा जीवन सफल हो जाता। ऐसे उदारचित्त दाता चेरी बनना भी कोई बड़ाई की बात है।
पूर्णा—तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी। काहे को बनेगी। वह तो आप तुम्हारे सेवक बनने के लिए तैयार बैठे है। तुम्हारे लाला जी ही नहीं मानते। विश्वास मानो यदि तुमसे उनका ब्याह न हुआ तो कवारे ही रहेंगे।
प्रेमा—यहॉँ यही ठान ली है कि चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।
कुछ देरे तक तो यही बातें हुआ की। जब सूर्य अस्त होने लगा तो प्रेमा ने कहा—चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावें। जब से तुम्हारा आना-जाना छूटा तब से मैं उधर भूलकर भी नहीं गयी।
पूर्णा—मेरे बाल खोल दो तो चलूँ। तुम्हारी भावज देखेगी तो ताना मारेगी।
प्रेमा—उनके ताने का क्या डर, वह तो हवा, से उलझा करती हैं। दोनों सखियां उठी औरहाथ दिये कोठे से उतार कर फुलवारी में आयी। यह एक छोटी-सी बगिया थी जिसमें भॉँति-भॉंति के फूल खिल रहे थे। प्रेमा को फूलों से बहुत प्रम था। उसी ने अपनी दिलबलावा के लिए बगीचा था। एक माली इसी की देख-भाल के लिए नौकर था। बाग़ के बीचो-बीच एक गोल चबूतरा बना हुआ था। दोनों सखियॉँ इस चबूतेरे पर बैठ गयी। इनको देखते ही माली बहुत-सी कलियॉँ एक साफ तरह कपड़े में लपेट कर लाया। प्रेमा ने उनको पूर्णा को देना चाहा। मगर उसने बहुत उदास होकर कहा—बहिन, मुझे क्षमा करो,इनकी बू बास तुमको मुबारक हो। सोहाग के साथ मैंने फूल भी त्याग दिये। हाय जिस दिन वह कालरुपी नदी में नहाने गये हैं उस दिन ऐसे ही कलियों का हार बनाया था। (रोकर) वह हार धरा का धरा का गया। तब से मैंने फूलों को हाथ नहीं लगाया। यह कहते-कहते वह यकयक चौंक पड़ी और बोली—सखी अब मैं जाउँगी। आज इतवार का दिन है। बाबू साहब आते होंगे।
प्रेमा ने रोनी हँसकर कहा-‘नही’ सखी, अभी उनके आने में आध घण्टे की देर है। मुझे इस समय का ऐसा ठीक परिचय मिल गया है कि अगर कोठरी में बन्द कर दो तो भी शायद गलती न करुँ। सखी कहते लाज आती है। मैं घण्टों बैठकर झरोखे से उनकी राह देखा करती हूँ। चंचल चित्त को बहुत समझती हूँ। पर मानता ही नहीं।
पूर्णा ने उसको ढारस दिया और अपनी सखी से गले मिल, शर्माती हुई घूंघट से चेहरे को छिपाये अपने घर की तरफ़ चली और प्रेमी किसी के दर्शन की अभिलाषा कर महताबी पर जाकर टहलने लगी।
पूर्णा के मकान पर पहुँचे ठीक आधी घड़ी हुई थी कि बाबू अमृतराय बाइसिकिल पर फर-फर करते आ पहुँचे। आज उन्होंने अंग्रेजी बाने की जगह बंगाली बाना धारण किया था, जो उन पर खूब सजता था। उनको देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह राजकुमार नहीं हैं बाजारो में जब निकलाते तो सब की ऑंखे उन्हीं की तरफ उठती थीं। रीति के विरुद्ध आज उनकी दाहिनी कलाई पर एक बहुत ही सुगन्धित मनोहर बेल का हार लिपटा हुआ था, जिससे सुगन्ध उड़ रही थी और इस सुगन्ध से लेवेण्डर की खुशबू मिलकर मानों सोने में सोहागा हो गया था। संदली रेशमी के बेलदार कुरते पर धानी रंग की रेशमी चादर हवा के मन्द-मन्द झोंकों से लहरा-लहरा कर एक अनोखी छवि दिखाती थी। उनकी आहट पाते ही बिल्लो घर में से निकल आई और उनको ले जाकर कमरे में बैठा दिया।
अमृतराय—क्यों बिल्लो, सग कुशल है?
बिल्लो—हॉँ, सरकार सब कुशल है।
अमृतराय—कोई तकलीफ़ तो नहीं है?
बिल्लो—नहीं, सरकार कोई तकलीफ़ नहीं है।
इतने में बैठके का भीतरवाला दरवाजा खुला और पूर्णा निकली। अमृतराय ने उसकी तरफ़ देखा तो अचम्भे में आ गये और उनकी निगाह आप ही आप उसके चेहरे पर जम गई। पूर्णा मारे लज्जा के गड़ी जाती थी कि आज क्यों यह मेरी ओर ऐसे ताक रहे हैं। वह भूल गयी थी कि आज मैंने बालों में तेल डाला है, कंघी की है और माथे पर लाल बिन्दी भी लगायी है। अमृतराय ने उसको इस बनाव-चुनाव के साथ कभी नहीं देखा था और न वह समझे थे कि वह ऐसी रुपवती होगी।
कुछ देर तक तो पूर्णा सर नीचा किये खड़ी रही। यकायक उसको अपने गुँथे केश की सुधि आ गयी और उसने झट लजाकर सर और भी निहुरा लिया, घूँघट को बढ़ाकर चेहरा छिपा लिया। और यह खयाल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव सिंगार से नाराज हों वह बहुत ही भोलेपन के साथ बोली—मैं क्या करु, मैं तो प्रेमा के घर गयी थी। उन्होंने हठ करके सर में मे तेल डालकर बाल गूँथ दिये। मैं कल सब बाल कटवा डालूँगी। यह कहते-कहते उसकी ऑंखों में ऑंसू भर आये।
उसके बनाव सिंगार ने अमृतराय पर पहले ही जादू चलाया था। अब इस भोलेपन ने और लुभा लिया। जवाब दिया—नहीं—नहीं, तुम्हें कसम है, ऐसा हरगिज न करना। मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह कृपा की। अगर वह यहॉँ इस समय होती तो इसके निहोरे में मैं उनको धन्यवाद देता।
पूर्णा पढ़ी-लिखी औरत थी। इस इशारे को समझ गयी और झेपेर गर्दन नीचे कर ली। बाबू अमृतराय दिल में डर रहे थे कि कहीं इस छेड़ पर यह देवी रुष्ट न हो जाए। नहीं तो फिर मनाना कठिन हो जाएगा। मगर जब उसे मुसकराकर गर्दन नीची करते देखा तो और भी ढिठाई करने का साहस हुआ। बोले—मैं तो समझता था प्रेमा मुझे भूल होगी। मगर मालूम होता है कि अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ स्नेह बाक़ी है।
अब की पूर्णा ने गर्दन उठायी और अमृतराय के चेहरे पर ऑंखें जमाकर बोली, जैसे कोई वकील किसी दुखीयारे के लिए न्याधीश से अपील करता हो-बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना कि प्रेमा आपको भूल गयी होगी, उन पर बड़ा भारी आपेक्ष है। प्रेमा का प्रेम आपके निमित्त सच्चा है। आज उनकी दशा देखकर मैं अपनी विपत्ति भूल गयी। वह गल कर आधी हो गयी हैं। महीनों से खाना-पीना नामात्र है। सारे दिन आनी कोठरी में पड़े-पड़े रोय करती हैं। घरवाले लाख-लाख समझाते हैं मगर नहीं मानतीं। आज तो उन्होंने आपका नाम लेकर कहा-सखी अगर चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।
यह समाचार सुनकर अमृतराय कुछ उदास हो गये। यह अग्नि जो कलेजे में सुलग रही थी और जिसको उन्होंने सामाजिक सुधार के राख तले दबा रक्खा था इस समय क्षण भर के लिए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, दिल उकसाने लगा कि मुंशी बदरीप्रसाद का घर दूर नहीं है। दम भर के लिए चलो। अभी सब काम हुआ जाता है। मगर फिर देशहित के उत्साह ने दिल को रोका। बोले—पूर्णा, तुम जानती हो कि मुझे प्रेमा से कितनी मुहब्बत थी। चार वर्ष तक मैं दिल में उनकी पूजा करता रहा। मगर मुंशी बदरप्रसाद ने मेरी दिनों की बँधी हुई आस केवल इस बात पर तोड़ दी कि मैं सामाजिक सुधार का पक्षपाती हो गया। आखिर मैंने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया और अब तो दिल एक दूसरी ही देवी की उपासना करने लगा है। अगर यह आशा भी यों ही टूट गयी तो सत्य मानो, बिना ब्याह ही रहूँगा।
पूर्णा का अब तक यह ख़याल था कि बाबू अमृतराय प्रेमा से ब्याह करेंगे। मगर अब तो उसको मालूम हुआ कि उनका ब्याह कहीं और लग रहा है तब उसको कुछ आश्चर्य हुआ। दिल से बातें करने लगी। प्यारी प्रेमा, क्या तेरी प्रीति का ऐसा दुखदायी परिणाम होगा। तेरो मॉँ-बाप, भाई-बंद तेरी जान के ग्राह हो रहे हैं। यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान देता हैं। चाहे वह अपने मुँह से कुछ भी न कहे, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि तेरी मुहब्बत उसके रोम-रोम में व्याप रही है। मगर जब तेरे मिलने की कोई आशा ही न हो तो बेचारी क्या करे मजबूर होकर कहीं और ब्याह करेगा। इसमें सका क्या दोष है। मन में इस तरह विचार कर बोली-बाबू साहब, आपको अधिकार है जहॉँ चाहो संबंध करो। मगर मैं मो यही कहूँगी कि अगर इस शहर में आपके जोड़ की कोई है तो वही प्रमा है।
अमृत०—यह क्यों नहीं कहतीं कि यहॉँ उनके योग्य कोई वर नहीं, इसीलिए तो मुंशी बदरीप्रसाद ने मुझे छुटकार किया।
पूर्णा—यह आप कैसी बात कहते है। प्रेमा और आपका जोड़ ईश्वर ने अपने हाथ से बनाया है।
अमृत०—जब उनके योग्य मैं था। अब नहीं हूँ। पूर्णा—अच्छा आजकल किसके यहॉँ बातचीत हो रही है?
अमृत०—(मुस्कराकर) नाम अभी नहीं बताऊँगा। बातचीत तो हो रही है। मगर अभी कोई पक्की उम्मेदे नहीं हैं।
पूर्णा—वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है? यहॉँ ऐसा कौन रईस है जो आपसे नाता करने में अपनी बड़ाई न समझता हो।
अमृत०—नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पड़ी है।
पूर्णा—अगर मुझसे कोई काम हो सके तो मैं करने को तैयार हूँ। जो काम मेरे योग्य हो बता दीजिए।
अमृत—(मुस्कराकर)तुम्हारी मरजी बिना तो वह काम कभी पूरा हो ही नही सकता। तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।
पूर्णा बहुत प्रसन्न हुई कि मैं भी अब इनके कुछ काम आ सकूँगी। उसकी समझ में इस वाक्य के अर्थ नहीं आये कि ‘तुम्हारी मर्जी बिना तो वह काम पूरा हो ही नहीं सकता। उसने समझा कि शायद मुझसे यही कहेंगे कि जा के लड़की को देख आवे। छ: महीने के अन्दर ही अन्दर वह इसका अभिप्राय भली भॉँति समझ गयी समझ गयी।
बाबू अमृतराय कुछ देर तक यहॉँ और बैठे। उनकी ऑंखें आज इधर-उधार से घूम कर आतीं और पूर्णा के चेहरे पर गड़ जाती। वह कनख्यि से उनकी ओर ताकती तो उन्हें अपनी तरफ़ ताकते पाती। आखिर वह उठे और चलते समय बोले—पूर्णा, यह गजरा आज तुम्हारे वास्ते लाया हूँ। देखो इसमें से कैसे सुगन्ध उड़ रही है।
पूर्णा भौयचक हो गयी। यह आज अनोखी बात कैसी एक मिनट तक तो वह इस सोच विचार में थी कि लूँ या न लूँ या न लूँ। उन गजरों का ध्यान आया जो उसने अपने पति के लिए होली के दिन बनये थे। फिर की कलियों का खयाल आया। उसने इरादा किया मैं न लूँगी। जबान ने कहा—मैं इसे लेकर क्या करूँगी, मगर हाथ आप ही आप बढ़ गया। बाबू साहब ने खुश होकर गजरा उसके हाथ में पिन्हाया, उसको खूब नजर भरकर देखा। फिर बाहर निकल आये और पैरगाड़ी पर सवार हो रवाना हो गये। पूर्णा कई मिनट तक सन्नाटे में खड़ी रही। वह सोचती थी कि मैंने तो गजरा लेने से इनकार किया था। फिर यह मेरे हाथ में कैसे आ गया। जी चाह कि फेंक दे। मगर फिर यह ख्याल पलट गया और उसने गज़रे को हाथ में पहिन लिया। हाय उस समय भी भोली-भाली पूर्णा के समझ में न आया कि इस जुमले का क्या मतलब है कि तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।
उधर प्रेमा महताबी पर टहल रही थी। उसने बाबू साहब को आते देखा था।उनकी सज-धज उसकी ऑंखों में खुब गयी थी। उसने उन्हें कभी इस बनाव के साथ नहीं देखा था। वह सोच रही थी कि आज इनके हाथ में गजरा क्यों है । उसकी ऑंखें पूर्णा के घर की तरफ़ लगी हुई थीं। उसका जी झुँझलाता था कि वह आज इतनी देर क्यों लगा रहे है? एकाएक पैरगाड़ी दिखाई दी। उसने फिर बाबू साहब को देखा। चेहरा खिला हुआ था। कलाइयों पर नज़र पड़ी गयी, हँय वह गजरा क्या हो गया?
प्रेमा भाग 6
पूर्णा ने गजरा पहिन तो लिया। मगेर रात भर उसकी ऑंखों में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी। कि अमृतराय ने उसे गज़रा क्यों दिया। उसे ऐसा मालूम होता था कि पंडित बसंतकुमार उसकी तरफ बहुत क्रोध से देख रहे है। उसने चाहा कि गजरा उतार कर फेंक दूँ मगर नहीं मालूम क्यों उसके हाथ कॉंपने लगे। सारी रात उसने ऑंखों में काटी। प्रभात हुआ। अभी सूर्य भगवान ने,भी कृपा न की थी कि पंडाइन और चौबाइन और बाबू कमलाप्रसाद की बृद्ध महराजिन और पड़ोस की सेठानी जी कई दूसरी औरतों के साथ पूर्णा के मकान में आ उपस्थित हुई। उसने बड़े आदर से सबको बिठाया, सबके पैर छुएं उसके बाद यह पंचायत होने लगी।
पंडाइन (जो बुढ़ापे की बजह से सूखकर छोहारे की तरह हो गयी थी)-क्यों दुलहिन, पंडित जी को गंगालाभ हुए कितने दिन बीते?
पूर्णा-(डरते-डरते) पॉच महीने से कुछ अधिक हुआ होगा।
पंडाइन-और अभी से तुम सबके घर आने-जाने लगीं। क्या नाम कि कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं। उनक क्वारी कन्या के पास दिन भर बैठी रहीं। भला सोचो ओ तुमने कोई अच्छा काम किया। क्या नाम कि तुम्हारा और उनका अब क्या साथ। जब वह तुम्हारी सखी थीं, तब थीं। अब तो तुम विधवा हो गयीं। तुमको कम से कम साल भर तक घर से बाहर पॉव न निकालना चाहिए। तुम्हारे लिए साल भर तक हॅसना-बोलना मना हैं हम यह नहीं कहते कि तुम दर्शन को न जाव या स्नान को न जाव। स्नान-पूजा तो तुम्हारा धर्म ही है। हॉ, किसी सोहागिन या किसी क्वारी कन्या पर तुमको अपनी छाया नही डालनी चाहिए।
पंडाइन चुप हुई तो महाराजिन टुइयॉ की तरह चहकने लगीं-क्या बतलाऊँ, बड़ी सरकार और दुलाहिन दोनों लहू का धूंट पीकर रह गई। ईश्वर जाने बड़ी सरकार तो बिलख-बिलख रो रही थीं कि एक तो बेचारी लड़की के यों हर जान के लाले पड़े है। दूसरी अब रॉँड बेवा के साथ उठना-बैठना है। नहीं मालूम नारायण क्या करनेवाले है। छोटी सर्कार मारे क्रोध के कॉप रही थी। ऑखों से ज्वाला निकल रही थी। बारे मैनें उनको समझाया कि आज जाने दीजिए वह बेचारी तो अभी बच्चा है। खोटे-खरे का मर्म क्या जाने। सरकार का बेटा जिये, जब बहुत समझाया तब जाके मानीं। नहीं तो कहती थीं मैं अभी जाकर खड़े-खड़े निकाल देती हूँ। सो बेटा, अब तुम सोहागिनो के साथ बैठने योग्य नहीं रहीं। अरे ईश्वर ने तो तुम पर विपत्ति डाल दी। जब अपना प्राणप्रिय ही न रहा तो अब कैसा हँसना-बोलना। अब तो तुम्हारा धर्म यही है कि चुपचाप अपने घर मे पड़ी रहो। जो कुछ रुखा-सूखा मिले खावो पियो। और सर्कार का बेटा जिये, जाँह तक हो सके, धर्म के काम करो।
महाराजिन के चुप होते ही चौबाइन गरजने लगीं। यह एक मोटी भदेसिल और अधेड़ औरत थी—भला इनसे पूछा कि अभी तुम्हारे दुलहे को उठे पॉँच महीने भी न बीते, अभी से तुम कंधी-चोटी करने लगीं। क्या कि तुम अब विधवा हो गई। तुमको अब सिंगार-पेटार से क्या सरोकार ठहरा। क्या नाम कि मैंने हजारों औरतों को देखा है जो पति के मरने के बाद गहना-पाता नहीं पहनती। हँसना-बोलना तक छोड़ देती है। यह न कि आज तो सुहाग उठा और कल सिंगार-पटार होने लगा। मैं लल्लो-पत्तों की बात नहीं जानती। कहूँगी सच। चाहे किसी को तीता लगे या मीठा। बाबू अमृतराय का रोज-रोज आना ठीक नहीं है। है कि नही, सेठानी जी?
सेठानी जी बहुत मोटी थीं और भारी-भारी गहनों से लदी थी। मांस के लोथडे हडिडरयों से अलग होकर नीचे लटक रहे थे। इसकी भी एक बहू रॉँड़ हो गयी थी जिसका जीवन इसने व्यर्थ कर रखा था। इसका स्वभाव था कि बात करते समय हाथों को मटकाया करती थी। महाराजिन की बात सुनकर—‘जो सच बात होगी सब कोई कहेगा। इसमें किसी का क्या डर। भला किसी ने कभी रॉँड़ बेवा को भी माथे पर बिंदी देते देखा है। जब सोहाग उठ गया तो फिर सिंदूर कैसा। मेरी भी तो एक बहू विधवा है। मगर आज तक कभी मैंने उसको लाल साड़ी नहीं पहिनने दी। न जाने इन छोकरियों का जी कैसा है कि विधवा हो जाने पर भी सिंगार पर जी ललचाया करता है। अरे इनको चाहिए कि बाबा अब रॉँड हो गई। हमको निगोड़े सिंगार से क्या लेना।
महाराजिन—सरकार का बेटा जिये तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी जी। कल छोटी सरकार ने जो इनको मॉँग में सेंदूर लगाये देखा तो खड़ी ठक रह गयी। दॉँतों तले उंगली दबायी कि अभी तीन दिन की विधवा और यह सिगार। सो बेटा, अब तुमको समझ-बूझकर काम करना चाहिए। तुम अब बच्चा नहीं हो।
सेठानी—और क्या, चाहे बच्चा हो या बूढ़ी। जब बेराह चलेगी तो सब ही कहेंगे। चुप क्यों हो पंडाइन, इनके लिए अब कोई राह-बाट निकाल दो।
डाइन—जब यह अपने मन की होगयीं तो कोई क्या राह-बाट निकाले। इनको चाहिए कि ये अपने लंबेलंबे केश कटवा डाले। क्या नाम कि दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दे। कंधी-चोटी कभी न करें पान न खाये। रंगीन साड़ी न पहनें और जैसे संसार की विधवायें रहती है वैसे रहें।
चौबाइन—और बाबू अमृतराय से कह दें कि यहॉँ न आया करें। इस पर एक औरत ने जो गहने कपड़े से बहुत मालदार न जान पड़ती थी, कहा—चौबाइन यह सब तो तुम कह गयी मगर जो कहीं बाबू अमृतराय चिढ़ गये तो क्या तुम इस बेचारी का रोटी-कपड़ा चला दोगी? कोई विधवा हो गयी तो क्या अब अपना मुँह सी लें।
महराजिन—(हाथ चमकाकर) यह कौन बोला? ठसों। क्या ममता फड़कने लगी?
सेठानी—(हाथ मटकाकर) तुझे किसने बुलाया जो आ के बीच में बोल उठी। रॉँड़ तो हो गयी हो, काहे नहीं जा के बाजर में बैठती हो।
चौबाइन—जाने भी दो सेठानी जी, इस बौरी के मुँह क्या लगती हो।
सेठानी—(कड़ककर) इस मुई को यहॉँ किसने बुलाया। यह तो चाहती है जैसी मैं बेहयास हूँ वैसा हीसंसार हो जाय।
महराजिन—हम तो सीख दे रही थीं तो इसे क्यों बुरा लगा? यह कौन होती है बीच में बोलनेवाली?
चौबाइन—बहिन, उस कुटनी से नाहक बोलती हो। उसको तो अब कुटनापा करना है।
इस भांति कटूक्तियों द्वारा सीख देकर यह सब स्त्रियाँ यहा से पधारी। महराजिन भी मुंशी बदरीप्रदान के यहॉँ खाना पकाने गयीं। इनसे और छोटी सर्कार से बहुत बनती थी। वह इन पर बहुत विश्वास रखती थी। महराजिन ने जाते ही सारी कथा खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान की और छोटी सरकार ने भी इस बात को गॉँठ बॉँध लिया और प्रेमा को जलाने और सुलगाने के लिए उसे उत्तम समझकर उसके कमरे की तरफ चली।
यों तो प्रेमा प्रतिदिन सारी रात जगा करती थी। मगर कभी-कभी घंटे आध घंटे के लिए नींद आ जाती थी। नींद क्या आ जाती थी, एक ऊंघ सी आ जाती थी, मगर जब से उसने बाबू अमृतराय को बंगालियों के भेस में देखा था और पूणा के घर से लौटते वक्त उसको उनकी कलाई परगजरा न नजर आया था तब से उसके पेट में खलबली पड़ी हुई थी कि कब पूर्णा आवे और कब सारा हाल मालूम हो। रात को बेचैनी के मारे उठ-उठ घड़ी पर ऑंखे दौड़ाती कि कब भोर हो। इस वक्त जो भावज के पैरां की चाल सुनी तो यह समझकर कि पूर्णा आ रही है, लपकी हुई दरवाजे तक आयी। मगर ज्योंही भावज को देखा ठिठक गई और बोली—कैसे चलीं, भाभी?
भाभी तो यह चाहती ही थीं कि छेड़-छाड़ के लिए कोई मौका मिले। यह प्रश्न सुनते ही तिनक का बोली—क्या बताऊ कैसे चली? अब से जब तुम्हारे पास आया करूँगी तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करूँगी। तुम्हारी तरह सबका लोहू थोड़े ही सफेद हो गया है कि चाहे किसी की जान निकल, जाय, घी का घड़ा ढलक जाए, मगर अपने कमरे से पॉँव बाहर न निकाले।
प्रेमा ने वह सवाल यों ही पूछ लिया था। उसके जब यह अर्थ लगाये गये तो उसको बहुत बुरा मालूम हुआ। बोली—भाभी, तुम्हारे तो नाक पर गुस्सा रहता है। तुम जरा-सी बात का बतगंढ बना देती हो। भला मैंने कौन सी बात बुरा मानने की कही थी?
भाभी—कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो मानो मुँह से फूल झाड़ती हो। तुम्हारे मुँह में मिसरी घोली हुई न। और सबके तो नाक पर गुससा रहता है, सबसे लड़ा ही करते है।
प्रेमा—(झल्लाकर) भावज, इस समय मेरा तो चित्त बिगड़ा हुआ है। ईश्वर के लिए मुझसे मत उलझो। मै तो यों ही अपनी जान को रो रही हूं। उस पर से तुम और भी नमक छिड़कने आयीं।
भाभी—(मटककर) हां रानी, मेरा तो चित्त बिड़ा हुआ है, सर फिरा हुआ है। जरा सीधी-सादी हूँ न। मुझको देखकर भागा करो। मै। कटही कुतिया हूं, सबको काटती चलती हूं। मैं भी यारों को चुपके-चुपके चिटठी-पत्री लिखा करती, तसवीरें बदला करती तो मैं भी सीता कहलाती और मुझ पर भी घर भर जान देने लगता। मगर मान न मान मैं तेरा मेहमान। तुम लाख जतन करों, लाख चिटिठयॉँ लिखो मगर वह सोने की चिड़िया हाथ आनेवाली नहीं। यह जली-कटी सुनकर प्रेमा से जब्त न हो सका। बेचारी सीधे स्वभाव की औरत थी। उसका वर्षो से विरह की बग्नि में जलते-जलते कलेजा और भी पक गया था। वह रोने लगी।
भावज ने जब उसको रोते देखा तो मारे हर्ष के ऑंखे जगमगा गयीं। हत्तेरे की। कैसा रूला दिया। बोली—बिलखने क्या लगीं, क्या अम्मा को सुनाकर देशनिकाला करा दोगी? कुछ झूठ थोड़ी ही कहती हूँ। वही अमृतराय जिनके पास आप चुपके-चुपके प्रेम-पत्र भेजा करती थी अब दिन-दहाड़े उस रॉँड़ पूर्णा के घर आता है और घंटो वहीं बैठा रहता है। सुनती हूँ फूल के गजरे ला लाकर पहनाता है। शायद दो एक गहने भी दिये है।
प्रेमा इससे ज्यादा न सुन सकी। गिड़गि कर बोली—भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं मुझ पर दया करो। मुझे जो चाहो कह लो। (रोकर) बड़ी हो, जी चाहे मार लो। मगर किसी का नाम लेकर और उस पर छ़ठे रखाकर मेरे कदल को मत जलाओ। आखिर किसी के सर पर झूठ-मूठ अपराध क्यों लगाती हो।
प्रेमा ने तो यह बात बड़ी दीनता से कही। मगर छोटी सरकार ‘छुद्दे रखकर’ पर बिगड़ गयीं। चमक कर बोलीं—हॉँ, हॉँ रानी, मैं दूसरों पर छुद्दे रखकर तुमको जलाने आती हूंन। मैं तो झूठ का व्यवहार करती हूँ। मुझे तुम्हारे सामने झूठ बोनले से मिठाई मिलती होगी। आज मुहल्ले भर में घर घर यही चर्चा हो रही है। तुम तो पढ़ी लिखी हो, भला तुम्हीं सोचो एक तीस वर्ष के संडे मर्दवे का पूर्णा से क्या काम? माना कि वह उसका रोटी-कपड़ा चलाते है मगर यह तो दुनिया है। जब एक पर आ पड़ती है तो दूसरा उसके आड़ आता है। भले मनुष्यों का यह ढंग नहीं है कि दूसरें को बहकाया करें, और उस छोकरी को क्या को ई बहकायेगा वह तो आप मर्दो पर डोरे डाला करती है। मैंने तो जिस दिन उसकी सूरत देखी रथी उसी दिन ताड़ गयी थी कि यह एक ही विष की गांठ हैं। अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि सबको झमकड़ा दिखाने लगी। दूल्हा क्या मरा मानो एक बला दूर हुई। कल जब वह यहॉँ आई थी तो मै बाल बुंधा रही थी। नहीं तो डेउढ़ी के भीतर तो पैर धरने ही नहीं देती। चुड़ैल कहीं की, यहॉँ आकर तुम्हारी सहेली बनती है। इसी से अमृतराय को अपना यौवन दिखाकर अपना लिया। कल कैसा लचक-लचक कर ठुमुक-ठुमुक् चलती थी। देख-देख कर ऑंखे फूटती थीं। खबरदार, जो अब कभी, तुमने उस चुडैल को अपने यहॉँ बिठाया। मै उसकी सूरत नहीं देखना चाहती। जबान वह बला है कि झूठ बात का भी विश्वास दिला देती है। छोटी सरकार ने जो कुछ कहा वह तो सब सच था। भला उसका असर क्यों न होता। अगर उसने गजरा लिये हुए जाते न देखा होता तो भावज की बातों को अवश्य बनावट समझती। फिर भी वह ऐसी ओछी नहीं थी कि उसी वक्त अमृतराय और पूर्णा को कोसने लगती और यह समझ लेती कि उन दोनों में कुछ सॉँठ-गॉँठ है। हॉँ, वह अपनी चारपाइ पर जाकर लेट गयी और मुँह लपेट कर कुछ सोचने लगी।
प्रेमा को तो पंलंग पर लेटकर भावज की बातों को तौलने दीजिए और हम मर्दाने में चले। यह एक बहुत सजा हुआ लंबा चौड़ा दीवानखाना है। जमीन पर मिर्जापुर खुबसूरत कालीनें बिछी हुई है। भॉँति-भॉँति की गद्देदार कुर्सियॉँ लगी हुई है। दीवारें उत्तम चित्रों से भूक्षित है। पंखा झला जा रहा है। मुंशी बदरीप्रसाद एक आरामकुर्सी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ़ रहे है। उनके दायें-बायें की कुर्सियों पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है। वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल हैं और उनके बगल में बाबू दाननाथ है। दाहिनी तरफ बाबू कमलाप्रसाद मुंशी झंम्मनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे है। बायीं और दो तीन और आदमी है जिनको हम नहीं पहचानते। कई मिनट तक मुँशी बदरीप्रसाद अखबार पढ़ते रहे। आखिर सर उठाया और सभा की तरफ देखकर बड़ी गंभीरता से बोले—बाबू अमुतराय के लेख अब बड़े ही निंदनीय होते जाते है।
गुलजारीलाल—क्या आज फिर कुछ जहर उगला?
बदरीप्रसाद—कुछ न पूछिए, आज तो उन्होंने खुली-खुली गालियॉँ दी है। हमसे तो अब यह बर्दाश्त नहीं होता।
गुलजारी—आखिर कोइ कहॉँ तक बर्दाश्त करे। मैने तो इस अखबार का पढ़ना तक छोड दिया।
झम्मनलाल—गोया अपने अपनी समझ में बड़ा भारी काम किया। अजी आपकाधर्म यह है कि उन लेखों को काटिए, उनका उत्तर दीजिए। मै आजकल एक कवित्त रच रहा हूँ, उसमे मैंने इनकों ऐसा बनाया है कि यह भी क्या याद करेंगे।
कमलाप्रसाद—बाबू अमृतराय ऐसे अधजीवे आदमी नहीं है कि आपके कवित, चौपाई से डर जाऍं। वह जिस काम में लिपटते है सारे जी से लिपटते है।
झम्मन०—हम भी सारे जी से उनके पीछे पड़ जाऍंगे। फिर देखे वह कैसे शहर मे मुँह दिखाते है। कहो तो चुटकी बजाते उनको सारे शहर में बदनाम कर दूँ।
कमला०—(जोर देकर) यह कौन-सी बहादुरी है। अगर आप लोग उनसे विरोध मोल लिया चाहते है। तो सोच-समझ कर लीजिए। उनके लेखों को पढिए, उनको मन में विचारिए, उनका जवाब लिखिए, उनकी तरह देहातो मे जा-जाकर व्याख्यान दीजिए तब जा के काम चलेगा। कई दिन हुए मै अपने इलाके पर से आ रहा था कि एक गॉँव में मैने दस-बारह हजार आदमियों की भीड़ देखी। मैंने समझा पैठ है। मगर जब एक आदमी से पूछा तो मालूम हुआ। कि बाबू अमृतराय का व्याख्यान था। और यह काम अकेले वही नहीं करते, कालिज के कई होनहार लड़के उनके सहायक हो गये है और यह तो आप लोग सभी जानते हैं कि इधर कई महीने से उनकी वकालत अंधाधुंध बढ़ रही है।
गुलजारीलाल—आप तो सलाह इस तरह देते है गोया आप खुद कुछ न करेंगे।
कमलाप्रसाद—न, मैं इस काम में। आपका शरीक नहीं हो सकता। मुझे अमृतराय के सब सिद्वांतो से मेल है, सिवाय विधवा-विवाह के।
बदरीप्रसाद—(डपटकर) बच्च, कभी तुमको समझ न आयेगी। ऐसी बातें मुहँ से मत निकाला करों।
झमनलाल—(कमलाप्रसाद से) क्या आप विलायत जाने के लिए तैयार है?
कमलाप्रसाद—मैं इसमे कोई हानि नहीं समझता।
गुलाजरीलाल—(हंसकर) यह नये बिगडे हैं। इनको अभी अस्पताल की हवा खिलाइए।
बदरीप्रसाद—(झल्लाकर) बच्चा, तुम मेरे सामने से हट जाओ। मुझे रोज होता है।
कमलाप्रसाद को भी गुस्सा आ गया। वह उठकर जाने लगे कि दो-तीन आदमियों ने मनाया और फिर कुर्सी पर लाकर बिठा दिया। इसी बीच में मिस्टर शर्मा की सवारी आयी। आप वही उत्साही पुरूष हैं जिन्होंने अमृतराय को पक्की सहायता का वादा किया था। इनको देखते ही लोगो ने बड़े आदर से कुर्सी पर बिठा दिया। मिटर शर्मा उस शहर में म्यूनिसिपैलिटी के सेक्रेटरी थे।
गुलाजारीलाल—कहिए पंडित जी क्या खबर है?
मिस्टर शर्मा—(मूँछो पर हाथ फेरकर) वह ताजा खबर लाया हूँ कि आप लोग सुनकर फड़क जायँगे। बाबू अमृतराय ने दरिया के किनारे वाली हरी भरी जमीन के लिए दरखास्त है। सुनता हूँ वहॉँ एक अनाथालय बनवायेगे।
बदरीप्रसाद—ऐसा कदापि नहीं हो सकता। कमलाप्रसाद। तुम आज उसी जमीन के लिए हमारी तरफ से कमेटी में दरखास्त पेश कर दो। हम वहॉँ ठाकुरद्वारा और धर्मशाला बनावायेंगे।
मिस्टर शर्मा—आज अमृतराय साहब के बँगले पर गये थे। वहॉँ बहुत देर तक बातचीत होती रही। साहब ने मेरे सामने मुसकराकर कहा—अमृतराय, मैं देखूँगा कि जमीन तुमको मिले।
गुलजारीलाल ने सर हिलाकर कहा—अमृतराय बड़े चाल के आदमी है। मालूम होता है, साहब को पहले ही से उन्होंने अपने ढंग पर लगा लिया है।
मिस्टर शर्मा—जनाब, आपको मालूम नहीं अंग्रेजों से उनका कितना मेलजोल है। हमको अंग्रेज मेम्बरों से कोई आशा नहीं रखना चाहिए। वह सब के सब अमृतराय का पक्ष करेंगे।
बदरीप्रसाद—(जोर देकर) जहॉँ तक मेरा बस चलेगा मै यह जमीन अमृतराय को न लेने दूँगा। क्या डर है, अगर और ईसाई मेम्बर उनके तरफदार है। यह लोग पॉँच से अधिक नहीं। बाकी बाईस मेबर अपने हैं। क्या हमको उनकी वोट भी न मिलेगी? यह भी न होगा तो मै उस जमीन को दाम देकर लेने पर तैयार हूँ।
झम्मनलाल—जनाब, मुझको पक्का विश्वास है कि हमको आधे से जियादा वोट अवश्य मिल जायँगे।
एक बहुत ही उत्तम रीति से सजा हुआ कमरा है। उसमें मिस्टर वालटर साहब बाबू अमृतराय के साथ बैठे हुए कुछ बातें कर रहे है। वालटर साहब यहॉँ के कमिश्नर है और साधारण अंग्रेजों के अतिरिक्त प्रजा के बड़े हितैषी और बड़े उत्साही प्रजापालक है। आपका स्वभाव ऐसा निर्मल है कि छोटा-बड़ा कोई हो, सबसे हँसकर क्षेम-कुशल पूछते और बात करते है। वह प्रजा की अवस्था को उन्नत दशा में ले जाने का उद्योग किया करते है और यह उनका नियम है कि किसी हिन्दुस्तानी से अंग्रेजी में नहीं बोलेगे। अभी पिछली साल जब प्लेग का डंका चारों ओर घेनघोर बज रहा था, वालटर साहब, गरीब किसानों के घर जाकर उनका हाल-चाल देखते थे और अपने पास से उनको कंबल बॉँटते फिरते थे। और अकाल के दिनों मेंतो वह सदा प्रजा की ओर से सरकार के दरबार में वादानुवाद करने के लिए तत्पर रहते है। साहब अमृतराय की सच्ची देशभक्ति की बड़ी बड़ाई किया करते है और बहुधा प्रजा की रक्षा करने में दोनों आदमी एक-दूसरे की सहायता किया करते है।
वालटर—(मुसकराकर) बाबू साहब। आप बड़ा चालाक है आप चाहता है कि मुंशी बदरी प्रसाद से थैली-भर, रूपया ले। मगर आपका बात वह नहीं मानने सकता।
अमृतराय—मैंने तो आपसे कह दिया कि मै अनाथालय अवश्य बनवाउँगा और इस काम में बीस हजार से कम न लगेगा। अगर आप मेरी सहायता करेंगे तो आशा है कि यह काम भी सफल हो जाए और मै भी बना रहूँ। और अगर आप कतरा गये तो ईश्वर की कृपा से मेरे पास अभी इतनी जायदाद है कि अकेले दो अनाथालय बनवा सकता हूँ। मगर हॉँ, तब मैं और कामों में कुछ भी उत्साह न दिखा सकूँगा।
वालटर—(हंसकर) बाबू साहब। आप तो जरा से बात में नाराज हो गया। हम तो बोलता है कि हम तुम्हारा मदद दो हजार से कर सकता है। मगर बदरीप्रसाद से हम कुछ नहीं कहने सकता। उसने अभी अकाल में सरकार को पॉँच हजार दिया है।
अमृतराय—तो यह दो हजार में लेकर क्या करूँगा? मुझे तो आपसे पंद्रह हजार की पूरी आशा थी। मुंशी बदरीप्रसाद के लिए पॉँच हजार क्या बड़ी बात है? तब से इसका दुगना तो वह एक मंदिर बनवाने में लगा चुके है। और केवल इस आशा पर कि उनको सी आई.ई की पदवी मिल जाएगी, वह इसका दस गुना आज दे सकते है।
वालटर—(अमृतराय से हाथ मिलाकर) वेल, अमृतराय। तुम बड़ा चालाक है। तुम बड़ा चालाक है तुम मुंशी बदरीप्रसाद को लूटना मॉँगता है।
यह कहकर साहब उठ खड़े हुए। अमृतराय भी उठे। बाहर फिटन खड़ी थी दोनों उस पर बैठ गये। साईस ने घोड़े को चाबुक लगाया और देखते देखते मुंशी बदरीप्रसाद के मकान पर जा पहूंचे। ठीक उसी वक्त जब वहॉँ अमृतराय से रार बढ़ाने की बातें सोची जा रही थीं।
प्यारे पाठकगण। हम यह वर्णन करके कि इन दोनों आदमियों के पहुँचते ही वहॉँ कैसी खलबली पड़ गयी, मुंशी बदरीप्रसाद ने इनका कैसा आदर किया, गुलजारीलाल, दाननाथ और मिस्टर शर्मा कैसी ऑंखे चुराने लगे, या साहब ने कैसे काट-छांट की बाते की और मुंशी जी को सी.आई.ई की पदवी की किन शब्दों में आशा दिलाइ आपका समय नहीं गँवाया चाहते। खुलासा यह कि अमॄतराय को यहॉँ से सत्तरह हजार रूपया मिला। मुंशी बदरीप्रसाद ने अकेले बारह हजार दिया जो उनकी उम्मीद से बहुत ज्यादा था। वह जब यहॉँ से चले तो ऐसा मालूम होता था कि मानों कोई गढ़ी जीते चले आ रहे है। वह जमीन भी जिसके लिए उन्होने कमेटी मे दरखस्त की थी मिल गयी और आज ही इंजीनियर ने उसको नाप कर अनाथालय का नकशा बनाना आरंभ कर दिया।
साहब और अमृतराय के चले जाने पर यहॉँ यो बाते होने लगी।
झम्मनलाल—यार, हमको तो इस लौंडे ने आज पांच सौ के रूप में डाल दिया।
गुलजारी लाल—जनाब, आप पॉँच सौ को रो रही है यहॉँ तो एक हजार पर पानी फिर गया। मुंशी जी तो सी.आई.ई की पदवी पावेगें।यहॉँ तो कोई रायबहादुरी को भी नहीं पूछता।
कमलाप्रसाद—बडे शोक की बात है कि आप लोग ऐसे शुभ कार्य मे सहायता देकर पछताते है। अमृतराय को देखिए कि उन्होंने अपना एक गॉँव बेचकर दस हजार रूपया भी दिया और उस पर दौड़-धूप अलग कर रहे है।
मुंशी बदरीप्रसाद—अमृतराय बड़ा उत्साही आदमी है। मैने आज इसको जाना। बच्चा कमलाप्रसाद। तुम आज शाम को उनके यहॉँ जाकर हमारी ओर से धन्यवाद दे देना।
झम्मनलाल—(मुंह फेरकर) आप क्यों न प्रसन्न होंगे, आपको तो पदवी मिलेगी न?
कमलाप्रसाद—(हंसकर) अगर आपका वह कवित्त तैयार हो तो जरा सुनाइए।
दाननाथ जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे बोले—अब आप उनकी निंदा करने की जगह उनकी प्रंशसा कीजिए।
मिस्टर शर्मा—अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब सभा विसर्जन कीजिए, आज यह मालूम हो गया कि अमृतराय अकेले हम सब पर भारी है।
कमलाप्रसाद—आपने नहीं सुना, सत्य की सदा जय होती है।
प्रेमा भाग 7
आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी
बेचारी पूर्णा, पंडाइन, चौबाइन, मिसराइन आदि के चले जाने के बाद रोने लगी। वह सोचती थी कि हाय। अब मैं ऐसी मनहूस समझी जाती हूं कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत काटने दौड़ती हैं। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना बदा है। या नारायण। तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मुझ पर न जाने क्या कुमति सवार थी कि सिर में एक तेल डलवा लियौ। यह निगोड़े बाल न होते तो काहे को आज इतनी फ़जीहत होती। इन्हीं बातों की सुधि करते करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी कि बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं तब उसने सिर पर हाथ मारकर कहा—वह जब आप ही आप आते है तो मै कैसे मना कर दूँ। मै। तो उनका दिया खाती हूँ। उनके सिवाय अब मेरी सुधि लेने वाला कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने में हरज ही क्या है। बेचारे सीधे सादे भले मनुष्य है। कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं। फिर उनके आने में क्या हरज है। जब वह और बड़े आदमियों के घर जाते है। तब तो लोग उनको ऑंखो पर बिठाते है। मुझ भिखारिन के दरवाजे पर आवें तो मै कौन मुँह लेकर उनको भगा दूँ। नहीं नहीं, मुझसे ऐसा कभी न होगा। अब तो मुझ पर विपत्ति आ ही पड़ी है। जिसके जी में जो आवै कहै।
इन विचारों से छुटटी पाकर वह अपने नियमानुसार गंगा स्नान को चली। जब से पंडित जी का देहांत हुआ था तब से वह प्रतिदिन गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अंधेरे जाती और सूर्य निकलते लौट आती। आज इन बिन बुलाये मेहमानों के आने से देर हो गई। थोड़ी दूर चली होगी कि रास्ते में सेठानी की बहू से भेट हो गई। इसका नाम रामकली था। यह बेचारी दो साल से रँडापा भोग रही थी। आयु १६ अथवा १७ साल से अधिक न होगी। वह अति सुंदरी नख-शिख से दुरूस्त थी। गात ऐसा कोमल था कि देखने वाले देखते ही रह जाते थे। जवानी की उमर मुखडे से झलक रही थी। अगर पूर्णा पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भाति खिली हुई थी। न बाल में तेल था, न ऑंखो में काजल, न मॉँग में संदूर, न दॉँतो पर मिससी। मगर ऑंखो मे वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठों पर वह मनभवानी लाली थी कि जिससे बनावटी श्रृंगार की जरूरत न रही थी। वह मटकती इधर-उधर ताकती, मुसकराती चली जा रही थी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े मनोहर भाव से हंसकर बोली—आओ बहिन, आओ। तुम तो जानों बताशे पर पैर धर रही हो।
पूर्णा को यह छेड़-छाड़ की बात बुरी मालूम हुई। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिया—क्या करूं बहिन। मुझसे तो और तेज नहीं चला जाता।
रामकली—सुनती हूं कल हमारी डाइन कई चुड़ैलो के साथ तुमको जलाने गयी थी। जानों मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। तुमसे क्या कहू बहिन, यह सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है माहुर खा लूँ। अगर यही हाल रहा तो एक दिन अवश्य यही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि स्वप्न में भी जीवन का सुख न प्राप्त हुआ। भला तुम तो अपने पति के साथ दो वर्ष तक रहीं भी। मैंने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतों को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गई घर भर की लौंडी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वह मै करुं। उस पर रोज उठते जूते, बैठते लात। काजर मत लगाओ। किस्सी मत लगाओ। बाल मत गुँथाओ। रंगीन साड़ियॉँ मत पहनों। पान मत खाओ। एक दिन एक गुलाबी साड़ी पहन ली तो चुड़ैल मारने उठी थी। जी में तो आया कि सर के बाल नोच लूँ मगर विष का घूँट पी के रह गयी और वह तो वह, उसकी बेटियॉँ और दूसरी बहुऍं मुझसे कन्नी काटती फिरती है। भोर के समय कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस मे एक ब्याह पड़ा था। सब की सब गहने से लद लद गाती बजाती गयी। एक मै ही अभागिनी घर मे पडी रोती रही। भला बहिन, अब कहॉँ तक कोई छाती पर पत्थर रख ले। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों का राग-रंग, हँसी, चुहल देख अपने मन मे भी भावना होती है। जब भूख लगे और खाना न मिले तो हार कर चोरी करनी पड़ती है।
यह कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुस्कराकर धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। बेचारी पूर्णा दिल में कुढ़ रही थी कि इसके साथ क्यों लगी। रास्ते में हजारों आदमी मिले। कोई इनकी ओर ऑंखे फाड़ फाड़ घूरता था, कोई इन पर बोलिया बोलता था। मगर पूर्णा सर को ऊपर न उठाती थी। हॉँ, रामकली मुसकरा मुसकरा कर बड़ी चपलता से इधर उधर ताकती, ऑंखे मिलाती और छेड़ छाड़ का जवाब देती जाती थी। पूर्णा जब रास्ते में मर्दो को खडे देखती तो कतरा के निकल जाती मगर रामकली बरबस उनके बीच में से घुसकर निकलती थी। इसी तरह चलते चलते दोनो नदी के तट पर पहुँची। आठ बज गया था। हजारों मर्द स्त्रियॉँ, बच्चे नहा रहे थे। कोई पूजा कर रहा था। कोई सूर्य देवता को पानी दे रहा था। माली छोटी-छोटी डालियों में गुलाब, बेला, चमेली के फूल लिये नहानेवालों को दे रहे थे। चारों और जै गंगा। जै गंगा। का शब्द हो रहा था। नदी बाढ़ पर थी। उस मटमैले पानी में तैरते हुए फूल अति सुंदर मालूम होते थे। रामकली को देखते ही एक पंडे ने कही—‘इधर सेठानी जी, इधर।‘ पंडा जी महाराज पीताम्बर पहने, तिलक मुद्रा लगाये, आसन मारे, चंदन रगड़ने में जुटे थे। रामकली ने उसके स्थान पर जाकर धोती और कमंउल रख दिया।
पंडा—(घूरकर) यह तुम्हारे साथ कौन है?
राम०—(ऑंखे मटकाकर) कोई होंगी तुमसे मतलब। तुम कौन होते हो पूछने वाले?
पंडा—जरा नाम सुन के कान खुश कर लें।
राम०—यह मेरी सखी हैं। इनका नाम पूर्णा है।
पंडा—(हँसकर) ओहो हो। कैसा अच्छा नाम है। है भी तो पूर्ण चंद्रमा के समान। धन्य भाग्य है कि ऐसे जजमान का दर्शन हुआ।
इतने में एक दूसरा पंडा लाल लाल ऑंखे निकाले, कंधे पर लठ रखे, नशे में चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला, ‘अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रंग बहुत चोखा है।
रामभरोसे—तेरी ऑंखे काहे को फूटे है। प्रेम की बूटी डाली है जब जा के ऐसा चोखा रंग भया।
पंडा—तेरे भाग्य को धन्य हैं यह रक्त चंदन (रामकली की तरफ देखकर) तो तूने पहले ही रगड़ा रक्खा था। परंतु इस मलयागिर (पूर्णा की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही।
पूर्णा तो यह नोक-झोंक समझ-समझ कर झेंपी जाती थी। मगर रामकली कब चूकनेवाली थे। हाथ मटका कर बोली—ऐसे करमठँढ़ियों को थोड़े ही मलयागिर मिला करता है।
रामभरोसे—(पंडा से) अरे बौरे, तू इन बातों का मर्म क्या जाने। दोनो ही अपने-अपने गुण मे चोखे है। एक में सुगंध है तो दूसरे में रंग है।
पूर्णा मन में बहुत लज्जित थी कि इसके साथ कहॉँ फँस गयी। अब तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बहिन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको देर होती है। अगर तुमको देर हो तो मैं अकेले जाऊँ।
रामभरोसे—नहीं, जजमान। अभी तो बहुत सबेरा है। आनंदपूर्वक स्नान करो।
पूर्णा ने चादर उतार कर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक बाबू अमृतराय एक सादा कुर्ता पहने, सादी टोपी सर पर रक्खे , हाथ में नापने का फीता लिये चंद ठेकेदारों के साथ अति दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंगी घूघंट निकाल ली और चाहा कि सीढ़ियों पर लंबाई-चौड़ाइ नापना था क्योकि वह एक जनाना घाट बनवा रहे थे। वह पूर्णा के निकट ही खड़े हो गये। और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते जब उन्होंने कदम बढ़ाया तो पैर सीढ़ी के नीचे जा पड़ा। करीब था कि वह औधै मुँह गिरे और चोट-चपेट आ जाय कि पूर्णा ने झपट कर उनको सँभाला लिया। बाबू साहब ने चौंककर देखा तो दहिना हाथ एक सुंदरी के कोमल हाथों में है। जब तक पूर्णा अपना घूँघट बढ़ावे वह उसको पहचान गये और बोले—प्यारी, आज तुमने मेरी जान बचा ली।
पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया। इस समय न जाने क्यों उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा था और आखो में ऑंसू भरा आता था। ‘हाय। नारायण, जोकहीं वह आज गिर पड़ते तो क्या होता...यही उसका मन बेर बेर कहता। ‘मैं भले संयोग से आ गयी थी। वह सिर नीचा किये गंगा की लहरों पर टकटकी लगाये यही बातें गुनती रही। जब तक बाबू साहब खड़े रहे, उसने उनकी ओर एक बेर भी न ताका। जब वह चले गए तो रामकली मुसकराती हुई आयी और बोली—बहिन, आज तुमने बाबू साहब को गिरते गिरते बचा लिया आज से तो वह और भी तुम्हारे पैरों पर सिर रकखेगे।
पूर्णा—(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली ऐसी बातें न करो। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैंने उनको सँभाल लिया तो इसमे क्या बात अनोखी हो गयी।
रामकली—ए लो। तुम तो जरा सी बात पर तिनिक गयीं।
पूर्णा—अपनी अपनी रूचि है। मुझको ऐसी बातें नहीं भाती।
रामकली—अच्छा अपराध क्षमा करो। अब सर्कर से दिल्लगी न करूँगी। चलो तुलसीदल ले लो।
पूर्णा—नहीं, अब मै यहॉँ न ठहरूँगी। सूरज माथें पसर आ गया।
रामकली—जब तक इधर उधर जी बहले अच्छा है। घर पर तो जलते अंगारों के सिवाय और कुछ नहीं।
जब दोनो नहाकर निकली तो फिर पंडो ने छेड़नाप चाहा, मगर पूर्णा एकदम भी न रूकी। आखिर रामकली ने भी उसका साथ छोड़ना उचित न समझा। दोनो थोड़ी दूर चली होगी। कि रामकली ने कहा—क्यों बहिन, पूजा करने न चलोगी?
पूर्णा—नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी।
राम०—आज तुमको चलना पड़ेगा। तनिक देखो तो कैसे विहार की जगह है। अगर दो चार दिन भी जाओ तो फिर बिना नित्य गये जी न माने।
पूर्णा–तुम जाव, मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।
राम०—चलों चलो, बहुत इतराओ मत। दम की दम में तो लौटे आते है।
रास्ते में एक तंबोली की दूकान पड़ी। काठ के पटरों पर सुफेद भीगे हुए कपड़े बिछे थे। उस पर भॉँति-भॉँति के पान मसालों की खूबसूरत डिबियॉँ, सुगंध की शीशियॉँ, दो-तीन हरे-हरे गुलदस्ते सजा कर धरे हुए थे। सामने ही दो बड़े-बड़े चौखटेदार आईने लगे हुए थे। पनवाड़ी एक सजीया जवान था। सर पर दोपल्ली टोपी चुनकर टेडी दे रक्खी थी। बदन में तंजेब का फँसा हुआ कुर्ता था। गले में सोने की तावीजे। ऑंखो में सुर्मा, माथे पर रोरी, ओठो पर पान की गहरी लीली। इन दोनोंस्त्रियों को देखते ही बोला—सेठानी जी, पान खाती जाव।
रामकली ने चठ सर से चादर खसका दी और फिर उसको एक अनुपम भाव से ओढकर हंसते हुए नयनो से बोली—‘अभी प्रसाद नहीं पाया’।
पनवाड़ी—आवो। आवो। यह भी तो प्रसाद ही है। संतों के हाथ की चीज प्रसाद से बढ़कर होती है। यह आज तुम्हारे साथ कौन शक्ति है?
राम—यह हमारी सखी है।
तम्बोली—बहुत अच्छा जोड़ा है। धन्य् भाग्य जो दर्शन हुआ।
रामकली दुकान पर ठमक गयी और शीशे में देख देख अपने बाल सँवारने लगी। उधर पनवाड़ी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीडे फुरती से बनाये और रामकली की तरफ हाथ बढ़ाया। जब वह लेने को झुकी तो उसने अपना हाथ खींच लिया और हँसकर बोला—तुम्हारी सखी लें तो दें।
राम०—मुँह बनवा आओ, मुँह। (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव।
पूर्णा—मैं न खाऊँगी।
राम—तुम्हारी क्या कोई सास बैठी है जो कोसेगी। मेरी तो सास मना करती है। मगर मैं उस पर भी प्रतिदिन खाती हूँ।
पूर्णा—तुम्हारी आदत होगी मैं पान नहीं खाती।
राम—आज मेरी खातिर से खाव। तुम्हें कसम है।
रामकली ने बहुत हठ की मगर पूर्णा ने गिलौरियॉँ न लीं। पान खाना उसने सदा के लिए त्याग दिया था। इस समय तक धूप बहुत तेज़ हो गयी थी। रामकली से बोली—किधर है तुम्हारा मंदिर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी।
राम—अगर ऐसे दिन कटा जाता तो फिर रोना काहे का था।
पूर्णा चुप हो गयी। उसको फिर बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ध्यान आ गया और फिर मन में यह प्रश्न किया कि कहीं आज वह गिर पड़ते तो क्या होता। इसी सोच मे थी कि निदान रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंदिर।
पूर्णा ने चौंककर दाहिनी ओर जो देखा तो एक बहुत ऊँचा मंदिर दिखायी दिया। दरवाजे पर दो बड़े-बड़े पत्थर के शेर बने हुए थे। और सैकड़ो आदमी भीतर जाने के लिए धक्कम-धक्का कर रहे थे। रामकली पूर्णा को इस मंदिर में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि पक्का चौड़ा ऑंगन है जिसके सामने से एक अँधेरी और सँकरी गली देवी जी के धाम को गयी है। दाहिनी ओर एक बारादरी है जो अति उत्तम रीति पर सजी हुई है। यहॉँ एक युवा पुरूष पीला रेशमी कोट पहने, सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बॉँधे, तकिया-मसनद लगाये बैठा है।पेचवान लगा हुआ है। उगालदान, पानदान और नाना प्रकार की सुंदर वस्तुओं से सारा कमरा भूषित हो रहा है। उस युवा पूरूष के सामने एक सुधर कामिनी सिंगार किये विराज रही है। उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए स्वर मिला रहे है। सैकड़ो आदमी बैठे और सैकड़ो खड़े है। पूर्णा ने यह रंग देखा तो चौंककर बोली—सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है। तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?
राम—(मुस्कराकर) चुप। ऐसा भी कोई कहता है। यही तो देवी जी का मदिर है। वह बरादरी में महंत जी बैठे है। देखती हो कैसा रँगीला जवान है। आज शुक्रवार है, हर शुक्र को यहॉँ रामजनी का नाच होता है।
इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता दिखायी दिया। कोई छ: फुट का कद था। गोरा-चिटठा, बालों में कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे, माथे पर विभूति रमाये, गले में बड़े-बड़े दानों की रूद्राक्ष की माला पहने कंधे पर एक रेशमी दोपटटा रक्खे, बड़ी-बड़ी और लाल ऑंखों से इधर उधर ताकता इन दोनों स्त्रियों के समीप आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ कटाक्ष से देखकर कहा—क्यों बाबा इन्द्रवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?
इन्द्र—तुम्हारी खातिर सब हाजिर है। पहले चलकर नाच तो देखो। यह कंचनी काश्मीर से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे हैं, एक हजार रूपया इनाम दे चुके हैं।
रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की ओर चली। बेचारी पूर्णा जाना न चाहती थी। मगर वहॉँ सबके सामने इनकार करते भी बन न पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। सैकड़ों औरतें जमा थीं। एक से एक सुन्दर गहने लदी हुई । सैकड़ो मर्द थे, एक से एक गबरू ,उत्तम कपड़े पहले हुए। सब के सब एक ही में मिले जुले खड़े थे। आपस में बीलियॉँ बोली जाती थीं, ऑंखे मिलायी जाती थी, औरतें मर्दो में। यह मेलजोल पूर्णा को न भाया। उसका हियाव न हुआ कि भीड़ में घुसे। वह एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुसी और वहॉँ कोई आध घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वह निकली तो पसीने में डूबी हुई थी।तमाम कपड़े मसल गये थे।
पूर्णा ने उसे देखते ही कहा—क्यों बहिन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर चलोगी या नहीं?
राम0—(मुस्कराकर) अरे, तुम बाहर खडी रह गयीं क्या?
जरा अन्दर चलके देखो क्या बहार है? ईश्वर जाने कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती है।
पूर्णा—दर्शन भी किया या इतनी देर केवल गाना ही सुनती रहीं?
राम0—दर्शन करने आती है मेरी बला। यहॉँ तो दिल बहलाने से काम है। दस आदमी देखें दस आदमियों से हँसी दिल्लगी की, चलों मन आन हो गया। आज इन्द्रदत्त ने ऐसा उत्तम प्रसाद बनाया है कि तुमसे क्या बखान करूँ।
पूर्णा –क्या है ,चरणामृत?
राम0—(हॅसकर) हॉँ, चरणामृत में बूटी मिला दी गयी है।
पूर्णा—बूटी कैसी?
राम0—इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते हैं।
पूर्णा—ऐहै तुमने भंग पी ली।
राम—यही तो प्रसाद है देवी जी का। इसके पीने में क्या हर्ज है। सभी पीते है। कहो तो तुमको भी पिलाऊँ।
पूर्णा—नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।
इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।
एक—(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।
दूसरा—जरा बच के चलो, बचकर।
इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है?
रामकली—यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।
दूसरा—इन्हें अवश्य लाया करों। ओ हो। कैसा खुलता हुआ रंग है।
बारे किसी तरह इन आदमियों से छुटकारा हुआ। पूर्णा घर की ओर भागी और कान पकड़े कि आज से कभी मंदिर न जाउँगी।
प्रेमा भाग 8
कुछ और बातचीत
पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मंदिर कभी न जाऊगी। ऐसे मंदिरों पर दई का कोप भी नहीं पड़ता। उस दिन से वह सारे घर ही पर बैठी रहती। समय काटना पहाड़ हो जाता। न किसी के यहॉँ आना न जाना। न किसी से भेट न मुलाकात। न कोई काम न धंधा। दिन कैसे कटे। पढ़ी-लिखी तो अवश्य थी, मगर पढे क्या। दो-चार किस्से-कहानी की पुरानी किताबें पंडित जी की संदूक में पड़ी हुई थी, मगर उनकी तरफ देखने को अब जी नहीं चाहता था। कोई ऐसा न था जो बाजार से लाती मगर वह किताबों का मोल कया जाने। दो-एक बार जी में आया कि कोई पुस्तक प्रेमा के घर में मँगवाये। मगर फिर कुछ समझकर चुप हो रही। बेल-बूटे बनाना उसको आते ही न थें। कि उससे जी बहलाये, हॉँ सीना आता था। मगर सीये किसके कपड़े। नित्य इस तरह बेकाम बैठे रहने से वह हरदम कुछ उदास सी रहा करती। हॉँ, कभी-कभी पंडाइन और चौबाइन अपने चेले-चापड़ों के साथ आकर कुछ सिखावन की बातें सुना जाती थीं। मगर जब कभी वह कहतीं कि बाबू अमृतराय का आना ठीक नहीं तो पूर्णा साफ-साफ कह देती कि मैं उनको आने से नहीं रोक सकती और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ जिससे वह समझें कि मेरा आना इसको बुरा लगता है। सच तो यह है कि पूर्णा के हदय में अब अमृतराय के लिए प्रेम का अंकुर जमने लगा था। यद्यपि वह अभी तक यही समझती थी कि अमृतराय यहॉँ दया की राह से आया करते है। मगर नहीं मालूम क्यों वह उनके आने का एक-एक दिन गिना करती। और जब इतवार आता तो सबेरे ही से उनके शुभगमन की तैयारियॉँ होने लगती। बिल्लो बड़े प्रेम से सारा मकान साफ करती। कुर्सियां और तस्वीरों पर से सात दिन की जमी हुई धूल-मिटटी दूर करती। पूर्णा खुद भी अच्छे और साफ कपड़े पहनती। अब उसके दिल मे आप ही आप बनाव-सिंगार करने की इच्छा होती थी। मगर दिल को रोकती। जब बाबू अमृतराय आ जाते तो उसका मलिन मुख कुंदन की तरह दमकने लगता। उसकी प्यारी सूरत और भी अधिक प्यारी मालूम होने लगती। जब तक बाबू साहब रहते उसे अपना घर भरा मालूम होता। वह इसी कोशिश मे रहती कि ऐसी क्या बात करू जिसमें वह प्रसन्न होकर घर को जावें। बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि रोते को भी एक बार हँसा देते। यहॉँ वह खूब बुलबुल की तरह चहकते। कोई ऐसी बात न कहते जिससे पूर्णा दुखित हो। जब उनके चलने का समय आता तो वह कुछ उदास हो जाती। बाबू साहब इसे ताड़ जाते और पूर्णा की खातिर से कुछ देर और बैठते। इसी तरह कभी-कभी घंटों बीत जाते। जब दिया में बत्ती पड़ने की बेला आती तो बाबू साहब चले जाते। पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलाई हुई धूमती। जो जो बाते हुई होती, उनको मन में दोहराती। यह समय उस आनंददायक स्वप्न-सा जान पड़ता था जो ऑंख के खुलते ही बिलाय जाता है।
इसी तरह कई मास और बीत गये और आखिर जो बात अमृतराय के मन में थी वह पूरी हो गयी। अर्थात पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्बम समाती जाती है। और उनका दिल भी मेरी मुहब्बत से खाली नहीं। अब पूर्णा पहले से ज्यादा उदास रहने लगी। हाय। ओ बौरे मन। क्या एक बार प्रीति लगाने से तेरा जी नहीं भरा जो तू फिर यह रोग पाल रहा है। तुझे कुछ मालूम है कि इस रोग की औषधि क्या है? जब तू यह जानता है तो फिर क्यो, किस आशा पर यह स्नेह बढ़ा रहा है और बाबू साहब। तुमको क्या कहना मंजूर है? तुम क्या करने पर आये हो? तुम्हारे जी में क्या है? क्या तुम नहीं जानते कि यह अग्नि धधकेगी तो फिर बुझाये न बुझेगी? मुझसे ऐसा कौन-सा गुण है? कहॉँ की बड़ी सुंदरी हूँ जो तुम प्रेमा, प्यारी प्रेमा, तो त्यागे देते हो? वह बेर बेर मुझको बुलाती है। तुम्हीं बताओ, कौन मुँह लेकर उसके पास जाऊँ और तुम तो आग लगाकर दूर से तमाशा देखोगे। इसे बुझायेगा कौन?बेचारी पूर्णा इन्हीं विचारों में डूबी रहती। बहुत चाहती कि अम़तराय का ख्याल न आने पावे, मगर कुछ बस न चलता।
अपने दिल का परिचय उसको एक दिन यों मिला कि बाबू अमृतराय नियत समय पर नहीं आये। थोड़ी देर तक तो वह उनकी राह देखती रही मगर जब वह अब भी न आये तब तो उसका दिल कुछ मसोसने लगा। बड़ी व्याकुलता से दौड़ी हुई दीवाजे पर आयी और आध घंटे तक कान लगाये खड़ी रही, फिर भीतर आयी और मन मारकर बैठ गयी। चित्त की कुछ वही अवस्था होने लगी जो पंडित जी के दौरे पर जाने के वक्त हुआ करती। शंका हुई कि कहीं बीमार तो नहीं हो गये। महरी से कहा—बिल्लो, जरा देखो तो बाबू साहब का जी कैसा? नहीं मालूम क्यों मेरा दिल बैठा जाता है। बिल्लो लपकी हुई बाबू साहब के बँगले पर पहुँची तो ज्ञात हुआ कि वह आज दो तीन नौकरों को साथ लेकर बाजार गये हुए है। अभी तक नहीं आये। पुराना बूढ़ा कहार आधी टॉँगों तक धोती बॉँधे सर हिलाता हुआ आया और कहने लगा—‘बेटा बड़ा खराब जमाना आवा है। हजार का सउदा होय तो, दुइ हजार का सउदा होय तो हमही लै आवत रहेन। आज खुद आप गये है। भला इतने बड़े आदमी का उस चाहत रहा। बाकी फिर सब अंग्रेजी जमाना आया है। अँग्रेजी पढ़-पढ़ के जउन न हो जाय तउन अचरज नहीं। बिल्लो बूढे कहर केसर हिलाने पर हँसती हुई घर को लौटी। इधर जब से वह आयी थी पूर्णा की विचित्र दशा हो रही थी। विकल हो होकर कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती। किसी तरह चैन ही न आता। जान पड़ता कि बिल्लो के आने में देर हो रही है। कि इतने में जूते ही आवाज सुनायी दी। वह दौड़ कर द्वार पर आयी और बाबू साहब को टहलते हुए पाया तो मानो उसको कोई धन मिल गया। झटपट भीतर से किवाढ खोल दिया। कुर्सी रख दी और चौखट पर सर नीचा करके खड़ी हो गयी।
अमृतराय—बिल्लो कहीं गयी है क्या?
पूर्णा—(लजाते हुए) हॉँ, आप ही के यहॉँ तो गयी है।
अमृत०—मेरे यहॉँ कब गयी? क्यो कुछ जरूरत थी?
पूर्णा—आपके आने में विलंब हुआ तो मैने शायद जी न अच्छा हो। उसको देखने के लिए भेजा।
अमृत०—(प्यार से देखकर) बीमारी चाहे कैसी ही हो, वहमुझे यहॉँ आने से नहीं रोक सकती। जरा बाजार चला गया था। वहॉँ देर हो गयी।
यह कहकर उन्होंने एक दफे जोर से पुकारा, ‘सुखई, अंदर आओ’ और दो आदमी कमरे में दाखिल हुए। एक के हाथ मे ऐक संदूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े। सब सामान चौकी पर रख दिया गया। बाबू साहब बोले—पूणा, मुझे पूरी आशा है कि तुम दो चार मामूली चीजें लेकर मुझे कृतार्थ करोगी।(हंसकर) यह देर मे आने का जुर्माना है।
पूर्णा अचम्भे में आ गई। यह क्या। यह तो फिर वही स्नेह बढ़ाने वाली बातें है। और इनको खरीदने के लिए आप ही बाजार गये थे। अमृतराय। तुम्हारे दिल में जो है वह मै जानती हूं। मेरे दिल में जो है वह तुम भी जानते हो। मगर इसका नतीजा? इसमें संदेह नहीं कि इन चीजों की पूर्णा को बहुत जरूरत थी। पंडित जी की मोल ली हुई सारिया अब तक लंगे तंगे चली थी। मगर अब पहनने को कोई कपड़े न थे। उसने सोचा था कि अब की जब बाबू साहब के यहा से मासिक तनख्वाह मिलेगी तो मामूली सारियॉँ मगा लूँगी। उसे यह क्या मालूम था कि बीच में बनारसी और रेशमी सारियों का ढेर लग जायगा। पहिले तो वह स्त्रियों की स्वाभाविक अत्यभिलाषा से इन चीजों को देखने लगी मगर फिर यह चेत कर कि मेरा इस तरह चीजो पर गिरना उचित नहीं है वह अलग हट गयी और बोली—बाबू साहब। इस अनुग्रह के लिए मै आपको धन्यवाद देती हूँ, मगर यह भारी-भारी जोड़े मेरे किस काम के। मेरे लिए मोटी-झोरी सारियॉँ चाहिए। मैं इन्हे पहनूगी तो कोई क्या कहेगा।
अमृतराय—तुमने ले लिया। मेरी मेहनत ठिकाने लगी, और मै कुछ नहीं जानता।
इतने में बिल्लो पहुँची और कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब चौकी पर दृष्ठि पड़ी और इन चीजों को देखा तो बोली—क्या इनके लिए आप बाजार गये थे। बूढा कहर रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।
अमृतराय—(दबी जबान से) वह सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाजार से चीजें लाते है। तुम्हारे सर्कार का मै चाकर हूँ।
बिल्लो यह सुनकर मुसकराती हुई भीतर चली गई। पूर्णा के कान में भी भनक पड़ गयी थी। बोली—उलटी बात न कहिए। मैं तो खुद आपकी चेरियो कीचेरी हूँ। इसके बाद इधर-उधर की कुछ बातें हुई। माघ-पूस के दिन थे, सरदी खूब पड़ रही थी। बाबू साहब देर तक न बैठ सके और आठ बजते बजते वह अपने घर को सिधारे। उनके चले जाने के बाद पूर्णा ने जो संदूक खोला तो दंग रह गयी। स्त्रियो के सिंगार की सब सामग्रियॉँ मौजूद थीं और जो चीज थी सुंदर और उत्तम थी। आइना, कंघी, सुगंधित तेलों की शीशियॉँ, भॉँति’भाति के इत्र, हाथों के कंगन, गले का चंद्रहार, जड़ाऊ, एक रूपहला पानदान, लिखने पढने के सामान से भरी एक संदूकची, किस्से-कहानी की कितबों, इनके अतिरिक्त और भी बहुत-सी चीजें बड़ी उत्तम रीति से सजाकर धरी हुइ थी। कपड़ो का बेठन खोला तो अच्छी से अच्छी सारिया दिखायी दी। शर्बती, धानी, गुलाबी, उन पर रेशम के बेल बूट बने हुए। चादरे भारी सुनहरे काम की। बिल्लो इन चीजो को देख-देख फूली न समाती थी। बोली—बहू। यह सब चीजें तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी—रानी।
पूर्णा—(गिरी हुई आवाज में) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लों। मै यह चीजें पहनूँगी तो जीती बचूँगी। चौबाइन और सेठानी ताने दे देकर जान ले लेगी।
बिल्लो—ताने क्या देंगी, कोई दिल्ल्गी है। इसमें उनके बाप का क्या इजारा। कोई उनसे मांगने जाता है।
पूर्णा ने महरी को आश्चर्य की ऑंखो से देखा। यही बिल्लो है जो अभी दो घंटे पहले चौआइन और पडाइन से सम्मति करती थी और मुझे बेर-बेर पहनने-ओढ़ने से बर्जा करती थी। यकायक यह क्या कायापलट हो गयी। बोली—कुछ संसार के कहने की भी तो लाज है।
बिल्लो—मै यह थोड़ा ही कहती हूँ कि हरदम यह चीजें पहना करों। जब बाबू साहब आवें थोड़ी देर के लिए पहन लिया।,
पूर्णा(लजाकर)—यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्योंकर निकला जायगा। तुम्हें याद है एक बेर प्रेमा ने मेरे बाल गूँध दिये थे। तुमसे क्या कहूँ। उस दिन वह मेरी तरफ ऐसा ताकते थे जैसे कोई किसी पर जादू करे। नहीं मालूम क्या बात है कि उसी दिन से वह जब कभी मेरी ओर देखते है तो मेरी छाती-धड़ धड करने लगती है। मुझसे जान-बूझकर फिर ऐसी भूल न होगी।
बिल्लो—बहू, उनकी मरजी ऐसी ही है तो क्या करोगी, इन्हीं चीजों के लिए कल वह बाजार गये थे। सैकड़ो नौकर-चाकर है मगर इन्हें आप जाकर जाये। तुम इनको न पहनोगी तो वह अपने दिल में क्या कहेंगे।
पूर्णा—(ऑंखो में ऑंसू भरकर) बिल्लो। बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करने वाले है। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। वह मुझसे दिन-दिन अधिक प्रेम बढ़ाते जाते है और मैं अपने दिल को क्या कहूँ, तुमसे कहते लज्जा आती है। वह अब मेरे कहने में नहीं रहा। मोहल्ले वाले अलग बदनाम कर रहे है। न जाने ईश्वर को क्या करना मंजूर है।
बिल्लो ने इसका कुछ जवाब न दिया। पूर्णा ने भी उस दिन खाना न बनाया। सॉंझ ही से जाकर चारपाई पर लेट रही। दूसरे दिन सुबह को उठकर उसने वह किताबें पढ़ना शुरू की, जो बाबू सहाब जाये थे। ज्यों-ज्यों वह पढ़ती उसको ऐसा मालूम होता कि कोई मेरी ही दुख की कहानी कह रहा है। इनके पढ़ने में जो जी लगा तो इतवार का दिन आया। दिन निकलते ही बिल्लो ने हँसकर कहा—आज बाबू साहब के आने का दिन है।
पूर्णा—(अनजान बनकर) फिर?
बिल्लो—आज तुमको जरूर गहने पहनने पड़ेगे।
पूर्णा—(दबी आवाज से) आज तो मेरे सर में पीड़ा हो रही है।
बिल्लो—नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द करे। इस बहाने से पीछा न छूटेगा।
पूर्णा—और जो किसी ने मुझे ताना दिया तो तु जानना।
बिल्लो—ताना कौन रॉँड देगी।
सबेरे ही से बिल्लो ने पूर्णा का बनाव-सिंगार करना शुरू किया। महीनों से सर न मला गया था। आज सुगंधित मसाले से मला गया, तेल डाला गया, कंघी की गयी, बाल गूँथे गये और जब तीसरे पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उस रेशमी काम की शर्बती सारी पहनी, गले मे हार और हाथों में कंगन सजाये तो सुंदरता की मूर्ति मालूम होने लगी। आज तक कभी उसने ऐसे रत्न जड़ित गहने और बहुमूल्य कपड़े न पहने थे। और न कभी ऐसी सुघर मालूम हुई थी। वह अपने मुखारविंद को आप देख देख कुछ प्रसन्न भी होती थी, कुछ लजाती भी थी और कुछ शोच भी करती थी। जब सॉँझ हुई तो पूर्णा कुछ उदास हो गयी। जिस पर भी उसकी ऑंखे दरवाजे पर लगी हुई थीं और वह चौंक कर ताकती थी कि कहीं अमृतराय तो नहीं आ गये। पॉँच बजते बजते और दिनों से सबेरे बाबू अमृतराय आये। कमरे में बैठे, बिल्लो से कुशलानंद पूछा और ललचायी हुई ऑंखो से अंदर के दरवाजे की तरफ ताकने लगे। मगर वहॉँ पूर्णा न थीं, कोई दस मिनट तक तो उन्होंने चुपचाप उसकी राह देखी, मगर जब अब भी न दिखायी दी तो बिल्लो से पूछा—क्यो महरी, आज तुम्हारी सर्कार कहॉँ है?
बिल्लो—(मुस्कराकर) घर ही में तो है।
अमृत०—तो आयी क्यों नहीं। क्या आज कुछ नाराज है क्या?
बिल्लो—(हूंसकर) उनका मन जाने।
अमृत०—जरा जाकर लिवा जाओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।
यह सुनकर बिल्लो हँसती हुई अंदर गई और पूर्णा से बोली—बहू, उठोगी या वह आप ही मनाने आते है।
पूर्णा—बिल्लो, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, जाकर कह दो, बीमार है।
बिल्लो—बीमारी का बहाना करोगी तो वह डाक्टर को लेने चले जायॅगे।
पूर्णा—अच्छा, कह दो, सो रही है।
बिल्लो—तो क्या वह जगाने न आऍंगे?
पूर्णा—अच्छा बिल्लो, तुम ही केई बहाना कर दो जिससे मुझे जाना न पड़े।
बिल्लो—मैं जाकर कहे देती हूँ कि वह आपको बुलाती है।
पूर्णा को कोई बहाना न मिला। वह उठी और शर्म से सर झुकाये, घूँघट निकाले, बदन को चुराती, लजाती, बल खाती, एक गिलौरीदान लिये दरवाजे परआकर खड़ी हो गइ अमृतराय ने देखा तो अचम्भे में आ गये। ऑंखे चौधिया गयीं। एक मिनट तक तो वह इस तरह ताकते रहे जैसे कोई लड़के खिलौने को देखे। इसके बाद मुस्कराकर बोले—ईश्वर, तू धन्य है।
पूर्णा—(लजाती हुई) आप कुशल से थे?
अमृत०—(तिर्छी निगाहों से देखकर) अब तक तो कुशल से था, मगर अब खैरियत नहीं नजर आती।
पूर्णा समझ गयी, अमृतराय की रंगीली बातों का आनंद लेते लेते वह बोलने मे निपुण हो गयी थी। बोली—अपने किये का क्या इलाज?
अमृत०—क्या किसी को अपनी जान से बैर है।
पूर्णा ने लजाकर मुँह फेर लिया। बाबू साहब हँसने लगे और पूर्णा की तरफ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी रसिक बातें उनको बहुत भाइ, कुछ काल तक और ऐसी ही रस भरी बाते होती रहीं। पूर्णा को इस बात की सुधि भी न थी कि मेरा इस तरह बोलना चालना मेरे लिए उचित नहीं है। उसको इस वक्त न पंडाइन का डर था, न पडोसियों का भय। बातों ही बातों में उसने मुसकराकर अमृतराय से पूछा—आपको आजकल प्रेमा का कुछ समाचार मिला है?
अमृत०—नहीं पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ खबर नहीं मिली। हॉँ, इतना जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से ब्याह की बातचीत हो रही है।
पूर्णा—बाबू दाननाथ तो आपके मित्र है?
अमृत०—मित्र भी है और प्रेमा के योगय भी है।
पूर्णा—यह तो मै न मानूगी। उनका जोड़ है तो आप ही से है। हॉ, आपका ब्याह भीतो कहीं ठहरा था?
अमृत०—हॉँ, कुछ बातचीत हो रही थी।
पूर्णा—कब तक होने की आशा है?
अमृत०—देखे अब कब भाग्य जागता है। मैं तो बहुत जल्दी मचा रहा हूं।
पूर्णा—तो क्या उधर ही से खिंचाव है। आश्चर्य की बात है।
अमृत०—नहीं पूर्णा, मै जरा भाग्यहीन हूँ। अभी तक सिवाय बातचीत होने के और कोई बात तय नहीं हुई।
पूर्णा—(मुसकराकर) मुझे अवश्य नवता दीजिएगा।
अमृत०—तुम्हारे ही हाथों में तो सब कु है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर सेहरा बहुत जल्द बँध जाए।
पूर्णा भौचक होकर अमृतराय की ओर देखने लगी। उनका आशय अब की बार भी वह न समझी। बोली—मेरी तरफ से आप निश्चित रहिए। मुझसे जहॉँ तक हो सकेगा उठा न रखूँगी।
अमृत०—इन बातों को याद रखना, पूर्णा, ऐसा न हो भूल जाओ तो मेरे सब अरमान मिटटी में मिल जाऍं।
यह कहकर बाबू अमृतराय उठे और चलते समय पूर्णा की ओर देखा। उसकी ऑंखे डबडबायी हुई थी, मानो विनय कर रही थी कि जरा देर और बैठिए। मगर अमृतराय को कोइ जरूरी काम था धीरे से उठ खड़े हुए और बोले—जी तो नही चाहता कि यहॉँ से जाऊँ। मगर आज कुछ काम ही ऐसा आ पड़ा। यह कहा और चल दिये। पूर्णा खड़ी रोती रह गई।