प्रेम-मिलन (रूसी कहानी) : अलेक्सान्द्र पूश्किन

Prem-Milan (Russian Story) : Alexander Pushkin

मेरी प्यारी, कुछ भी पहनो
पर तुम सुन्दर लगती हो ।

बोग्दानोविच1
1. १८वीं शताब्दी के रूसी कवि इप्पोलीत बोग्दानोविच की 'मन की रानी' लम्बी कविता से । - सं०

इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव की जागीर हमारे देश के एक दूरस्थ बेर्निया में थी । अपनी जवानी के दिनों में वह गार्ड सेना में था, १७९७ के आरम्भ में सैन्य-सेवा से मुक्त होकर अपने गांव में चला आया और वहीं बस गया। एक ग़रीब कुलीना से उसने शादी की, जो उस समय, जब वह शिकार के लिये गया हुआ था, बच्चे को जन्म देते हुए इस दुनिया से चल बसी । जागीर की देखभाल में शीघ्र ही उसके मन को चैन मिल गया। उसने अपनी योजना के अनुसार मकान का निर्माण करवाया, कपड़े की एक फ़ैक्टरी लगा ली अच्छी आमदनी हासिल करने और पूरे इलाक़े में अपने को सब से ज़्यादा अक्लमन्द आदमी मानने लगा। उसके पड़ोसी, जो अपने परिवार और कुत्तों सहित उसके यहां आकर डेरा डाले रहते थे, अपने बारे में उसकी उक्त राय का कभी खण्डन नहीं करते थे। हर दिन तो वह मखमल की जाकेट पहने घूमता रहता, किन्तु पर्वों-त्योहारों के अवसरों पर घर के बने बनात के बढ़िया फ़ाक - कोट में ठाठ से बाहर निकलता अपना सारा हिसाब-किताब खुद लिखता और 'सिनेट- समाचार' के अलावा और कुछ न पढ़ता। कुल मिलाकर लोग उसे प्यार करते थे, यद्यपि घमण्डी मानते थे। केवल उसके निकटतम पड़ोसी, ग्रिगोरी इवानोविच मूरोम्स्की की ही उसके साथ पटरी नहीं बैठती थी । वह असली रूसी ढंग का रईस था। अपनी जागीर का अधिकतर भाग मास्को में उड़ाने-लुटाने और तभी विधुर हो जाने के बाद वह अपने एकमात्र बच रहे गांव में आ गया, जहां नये तरीके से उल्टी-सीधी हरकतें करता रहा। उसने अंग्रेज़ी ढंग का बाग़ लगवाया और जो कुछ हाथ- पल्ले बचा था, वह उसकी नज़र कर दिया । उसके सईस अंग्रेज़ जॉकियों की तरह सजे बजे रहते, एक अंग्रेज़ मदाम उसकी बेटी को पढ़ाती और अपने खेतों में वह अंग्रेज़ी ढंग से खेतीबारी करता - रूसी अन्न न पैदा होता किन्तु पराये ढंग से - और खर्च में बहुत कतरब्योंत करने के बावजूद ग्रिगोरी इवानोविच की आय नहीं बढ़ी। गांव में भी वह जैसे-तैसे नये क़र्ज़े ले लेता । इन सब बातों के बावजूद उसे समझदार आदमी माना जाता था, क्योंकि अपने गुबेर्निया का वही पहला ज़मींदार था जिसने सबसे पहले अपनी जागीर "संरक्षण परिषद"के अधीन गिरवी रखी थी। उस ज़माने के मुताबिक़ यह बहुत ही पेचीदा और साहस का काम प्रतीत होता था। उस पर टीका-टिप्पणी करनेवालों में बेरेस्तोव ही सबसे ज्यादा कठोर था । नये तौर-तरीक़ों के प्रति घृणा उसके स्वभाव का एक विशेष लक्षण थी। अपने पड़ोसी की अंग्रेज़ियत के जनून के बारे में वह उदासीन रह ही नहीं पाता था और उसकी आलोचना का कोई भी मौक़ा हाथ से न जाने देता। किसी मेहमान को वह अपनी जागीर दिखाता और अपने प्रबन्ध की प्रशंसा के उत्तर में वह व्यंग्यपूर्ण धूर्त्तता से कहता, “जी ! मैं पड़ोसी ग्रिगोरी इवानोविच की भांति हवाई क़िले नहीं बनाता। अंग्रेज़ी रंग-ढंग के फेर में पड़कर कौन भला अपने को बरबाद करे ! रूसी ढंग से पेट भरने को मिल जाये, इतना ही बहुत है !"उत्साही पड़ोसियों द्वारा ऐसे और इसी तरह के दूसरे व्यंग्य-बाण कुछ बढ़ा-चढ़ाकर और नमक-मसाले के साथ ग्रिगोरी इवानोविच तक पहुंचाये जाते । अंग्रेजियत का दीवाना हमारे पत्रकारों की तरह अपनी ऐसी आलोचना से झल्ला उठता और आग-बबूला होकर अपने इस आलोचक को भालू और दकियानूसी कहता ।

इन दोनों ज़मींदारों के बीच जब ऐसी तनातनी चल रही थी, उसी समय बेरेस्तोव का बेटा उसके पास गांव में आया । उसने ... विश्व- विद्यालय में शिक्षा पायी थी और फ़ौज में जाना चाहता था, मगर उसके पिता इसके लिये राज़ी नहीं थे। दूसरी ओर, नौजवान बेटा अपने को ग़ैरफ़ौजी नौकरी के बिल्कुल अयोग्य अनुभव करता था । बाप-बेटा अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे और जवान अलेक्सेई फ़िलहाल रईसी का निठल्ला जीवन बिताने लगा और इस ख्याल से कि जाने कब उनकी ज़रूरत पड़ जाये उसने मूंछें1 बढ़ा लीं ।

1. उस ज़माने में सरकारी कर्मचारियों के लिये दाढ़ी-मूंछ रखने की कड़ी मनाही थी । किन्तु सैनिकों के लिये मूंछें रखना अनिवार्य था । - सं०

अलेक्सेई तो वास्तव में ही बड़ा खूबसूरत जवान था । सचमुच ही यह बड़े अफ़सोस की बात होती कि उसकी सुघड़- सुडौल काठी पर फ़ौजी वर्दी कभी अपनी अनूठी छटा न दिखाती और घोड़े की सवारी करने के बजाय दफ़्तरी काग़ज़ों से मत्थापच्ची करते हुए ही वह अपनी पीठ झुका लेता । शिकार के वक़्त रास्ते की किसी भी बाधा की परवाह किये बिना जब वह सबसे आगे-आगे सरपट घोड़ा दौड़ाता, तो पड़ोसी यह देखकर एकमत से कहते कि वह कभी ढंग का दफ़्तरी अफ़सर नहीं बन पायेगा । युवतियां उसे प्रशंसा से देखतीं, कोई-कोई मुग्ध भी हो जाती, किन्तु अलेक्सेई उनमें कोई दिलचस्पी ज़ाहिर न करता। वे उसकी ऐसी उदासीनता का यह अर्थ लगातीं कि वह किसी के प्रेम-जाल में फंसा हुआ है। इतना ही नहीं, उसके एक पत्र के पतेवाला यह रुक़्क़ा भी उनके हाथों में घूम गया था - मास्को, अलेक्सी मठ के सामने, ठठेरे सवेल्येव का मकान, अकुलीना पेत्रोव्ना कूरोच्किना के नाम । कृपया यह पत्र अ० न० र० को पहुंचा दें।

मेरे पाठक जो कभी गांव में नहीं रहे, इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि गुबेर्निया की ये युवतियां कैसी कमाल की होती हैं ! स्वच्छ हवा और अपने बाग़ों के सेब के पेड़ों की छाया में पली ये युवतियां पुस्तकों से ही दीन-दुनिया का ज्ञान प्राप्त करती हैं । एकान्त, स्वच्छन्दता और अध्ययन उनमें कच्ची उम्र में ही ऐसी भावनाओं, उद्वेगों और भावावेशों को जन्म दे देते हैं जिनसे हमारी नगर की सुन्दरियां अनजान रहती हैं। ऐसी युवतियों के लिये घण्टियों की टनटन अनूठी बात होती है, पड़ोस के नगर की यात्रा उनके जीवन की बड़ी महत्वपूर्ण घटना बन जाती है और किसी मेहमान का आगमन बहुत समय के लिये तथा कभी-कभी तो जीवन भर के लिये अमिट छाप छोड़ जाता है । जाहिर है कि इनके कुछ अटपटेपन पर कोई हंस सकता है, किन्तु सतही ज्ञान रखनेवाले निरीक्षकों के मज़ाक़ों से उनके गहन गुणों पर पर्दा नहीं पड़ सकता, जिनमें से मुख्य हैं - चारित्रिक विशिष्टता, व्यक्तित्व की मौलिकता (individualité), जिसके बिना, जॉन पाल1 के मतानुसार, मानवीय महत्ता भी नहीं हो सकती । राज- धानियों की नारियों को सम्भवतः अधिक अच्छी शिक्षा मिलती है, किन्तु ऊंचे समाज का रंग-ढंग शीघ्र ही उनकी चारित्रिक विलक्षणता का अन्त कर देता है और उनकी आत्माओं में टोपियों जैसी एकरूपता आ जाती है। उनके बारे में ऐसा कहकर न तो हम अपना कोई फ़ैसला सुना रहे हैं और न उनकी भर्त्सना ही कर रहे हैं, फिर भी जैसे कि एक पुराने टिप्पणीकार ने लिखा है - nota nostra manet.2

1. रोमानी धारा के जर्मन लेखक जोहन पाउल रीख़्तर (१७६३- १८२५) का उपनाम । - सं०
2. हमारी टिप्पणी अपनी जगह पर बिल्कुल ठीक है ( लातीनी ) ।

इस बात की कल्पना करना कुछ कठिन नहीं होगा कि हमारी युवतियों के बीच अलेक्सेई ने कैसा प्रभाव पैदा किया होगा । उनके सामने आनेवाला वह पहला इतना उदास और निराशा में डूबा हुआ युवक था, वही पहला ऐसा था जो लुटी हुई खुशियों और मुरझाये हुए यौवन की बातें करता था। इतना ही नहीं, वह खोपड़ी के चित्रवाली काली अंगूठी पहनता था । उस गुबेर्निया के लिये यह सब कुछ एकदम नया था । युवतियां उसके लिये पागल हुई जा रही थीं ।

किन्तु अंग्रेज़ी रंग-ढंग के दीवाने की बेटी लीज़ा ( या बेत्सी, जैसे कि उसके पिता ग्रिगोरी इवानोविच उसे बुलाते थे ) सबसे ज़्यादा अलेक्सेई के फेर में पड़ी हुई थी। दोनों के पिता एक दूसरे के यहां कभी आते-जाते नहीं थे, लीज़ा ने अलेक्सेई को अभी तक देखा नहीं था, जबकि जवान पड़ोसिनें सिर्फ़ उसी की बातें करती रहती थीं । लीजा सत्रह साल की थी। उसकी काली आंखें उसके सांवले और बहुत ही प्यारे चेहरे को विशेष सजीवता प्रदान करती थीं। वह अपने पिता की इकलौती और इसीलिये लाड़-प्यार से बिगड़ी हुई बेटी थी । उसकी चंचलता और हर क्षण उसके द्वारा की जानेवाली शरारतों से पिता को बड़ी खुशी होती, मगर जिनसे नियमनिष्ठ मिस जैक्सन बूरी तरह परेशान हो उठती । यह अविवाहिता, चालीस वर्षीया शिक्षिका अपने चेहरे को चिकनाती चमकाती, भौंहों को रंगती, साल में दो बार 'पामेला1' पढ़ती, दो हज़ार रूबल वार्षिक वेतन पाती और इस “बर्बर रूस"में ऊब के मारे उसकी जान निकलती ।

1. अंग्रेज़ उपन्यासकार रिचर्डसन के 'पामेला' (१७४१) उपन्यास से अभिप्राय है । - सं०

लीज़ा की नौकरानी थी नास्त्या । वह लीज़ा से कुछ बड़ी थी, मगर अपनी मालकिन की तरह ही चंचल । लीज़ा उसको बहुत प्यार करती थी, उसे अपने दिल के सभी राज़ बताती थी और उसके साथ मिलकर अपनी शरारतों के सभी मंसूबे बनाती थी । संक्षेप में यह कि प्रिलूचिनो गांव में नास्त्या किसी भी दुखान्ती फ़्रांसीसी उपन्यास की विश्वासपात्र सहेली से कहीं अधिक महत्त्व रखती थी ।

“मैं आज किसी के यहां जा सकती हूं?"अपनी मालकिन का सिंगार करते हुए नास्त्या ने एक दिन पूछा ।

"हां, मगर यह बताओ कि जाना कहां है ? "

तुगीलोवो गांव में, बेरेस्तोवों के यहां। उनके बावर्ची की बीवी का आज जन्मदिन है और कल वह मुझे भोजन का निमंत्रण देने आयी थी । "

यह भी खूब रही ! "लीज़ा ने कहा, "मालिकों की आपस में बोल-चाल तक नहीं और नौकर एक दूसरे की दावतें करते हैं । "

"हमें मालिकों से क्या लेना-देना ! "नास्त्या ने आपत्ति की, “इसके अलावा मैं तो आपकी नौकरानी हूं, आपके पापा की तो नहीं । युवा बेरेस्तोव का अभी आपसे तो कोई झगड़ा नहीं हुआ । बूढ़ों को अगर इसी में मज़ा आता है, तो उलझते रहें दोनों आपस में । "

"नास्त्या, तुम अलेक्सेई बेरेस्तोव को देखने की कोशिश करना और फिर मुझे एक सिलसिले से यह बताना कि वह देखने में कैसा लगता है और किस ढंग का आदमी है।"

नास्त्या ने ऐसा करने का वचन दिया और लीज़ा दिन भर बड़ी बेचैनी से उसके लौटने की राह देखती रही। नास्त्या शाम को घर लौटी ।

"तो लीज़ावेता ग्रिगोर्येव्ना, "उसने कमरे में दाखिल होते हुए कहा, "देखा, खूब जी भरकर देखा मैंने युवा बेरेस्तोव को । हम दिन भर साथ रहे।"

"यह कैसे हो सकता है ? बताओ, सब कुछ सिलसिलेवार बताओ। "

"तो सुनिये - मैं, अनीसिया येगोरोव्ना, नेनीला और दून्या हम एकसाथ रवाना हुईं। “

"यह सब मुझे मालूम है । इसके बाद क्या हुआ ?"

"कृपया टोकिये नहीं, शुरू से आखिर तक सब कुछ बताने दीजिये । तो हम ठीक भोजन के समय पहुंचीं। कमरा लोगों से भरा हुआ था । कोल्बिन और ज़खार्येव की नौकरानियां भी वहां थीं, बेटियों सहित कारिन्दे की बीवी, लूपिन की नौकरानियां भी ... "

"और बेरेस्तोव ? "

"ज़रा ठहरिये न। सो हम मेज़ के गिर्द बैठ गयीं, कारिन्दे की बीवी मेज़बान की बग़ल में और मैं उसके पास... कारिन्दे की बेटियों ने मुंह फुला लिये, मगर मेरी जूती परवाह करे उनकी... "

"ओह, नास्त्या, कितनी ऊब पैदा करती हैं तुम्हारी ये हमेशा की तफ़सीलें ! "

"और आप में भी तो ज़रा धीरज नहीं ! तो आखिर हम दावत की मेज़ पर से उठीं... हम कोई तीन घण्टे बैठी रही थीं । भोजन बढ़िया था, नीली, लाल और धारीदार पेस्ट्रियां थीं... हम मेज़ पर से उठीं और बगीचे में छू- पकड़ खेलने चली गयीं । जवान मालिक भी वहीं आ गया ।"

"तो बताओ, क्या सचमुच ही वह प्यारा है ?"

"अद्भुत रूप से प्यारा कहा जा सकता है कि बहुत ही सुन्दर । सुघड़ - सुगठित शरीर, ऊंचा क़द दोनों गालों पर गुलाब खिले हुए ..."

"सच ? मगर मेरा तो ऐसा ख्याल था कि उसका चेहरा पीला होगा । तो ? कैसा लगा वह तुम्हें ? उदास-सा विचारों में डूबा हुआ ?"

"क्या कह रही हैं आप ? ऐसा मस्त मौजी तो मैंने पहले कभी देखा ही नहीं । जाने उसे क्या सूझी, हमारे साथ छू-पकड़ खेलने लगा ।"

"तुम लोगों के साथ छू- पकड़ खेलने लगा ! यह असम्भव है !"

"बिल्कुल सम्भव है ! इतना ही नहीं, वह तो और भी आगे बढ़ गया । जिस किसी को पकड़ लेता, उसे चूमे बिना न छोड़ता !"

"मर्जी तुम्हारी, नास्त्या, लेकिन तुम झूठ बोल रही हो । "

"मर्जी आपकी, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं। मैंने खुद बड़ी मुश्किल से उससे पिण्ड छुड़ाया । इसी तरह उसने पूरा दिन हमारे साथ बिताया । "

"मगर सुनने में तो यह आया है कि वह किसी के प्रेम में दीवाना है और किसी दूसरी लड़की की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता ?”

"मालूम नहीं, लेकिन मुझे तो उसने खूब नज़र गड़ाकर देखा, कारिन्दे की बेटी तान्या को भी, कोल्बिन की पाशा को भी। हां, यह कहना पाप होगा कि उसने किसी की अवहेलना की, ऐसा शैतान है।"

"बड़े अचम्भे की बात है यह तो ! घर में उसके बारे में लोगों की क्या राय है ? "

"लोगों का कहना है कि बहुत ही अच्छा रईसज़ादा है वह, बड़ा दयालु और बहुत ही खुशमिजाज । सिर्फ़ एक ही बुराई है उसमें - लड़कियों के पीछे भागने का बड़ा चसका है उसे । लेकिन मेरे ख्याल में तो यह कोई बड़ी मुसीबत नहीं है - धीरे-धीरे रास्ते पर आ जायेगा । "

“ओह, कितनी उत्सुक हूं मैं उसे देखने को ! "लीज़ा ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा ।

“यह कौन-सी बड़ी बात है ? तुगीलोवो गांव हमारे यहां से कुछ दूर नहीं, सिर्फ़ तीन वेर्ता है । उसी तरफ़ पैदल घूमने निकल जाइये या घोड़े पर सवारी करते हुए । निश्चय ही आपकी उससे भेंट हो जायेगी । वह तो हर दिन तड़के ही बन्दूक लेकर शिकार को निकलता है ।"

"अरी नहीं, ऐसा करना अच्छा नहीं होगा । वह सोच सकता है कि मैं उसके लिये मरी जा रही हूं। इसके अलावा हम दोनों के पिताओं के बीच तनातनी चल रही है, इसलिये मैं उसके साथ यों भी जान-पहचान नहीं कर सकती... अरी, नास्त्या ! तुम्हें एक बात बताऊं ? मैं किसान लड़की का भेस बना लूंगी ।"

"हां, हां, यह बहुत अच्छा ख्याल है । गाढ़े की क़मीज़, उसके ऊपर सराफ़ान पहनिये और बेधड़क तुगीलोवो की ओर चल दीजिये । यक़ीन दिलाती हूं कि बेरेस्तोव आपकी ओर ध्यान दिये बिना नहीं रह सकेगा।"

"देहाती ढंग से बात करना तो मुझे बहुत अच्छी तरह आता ही है। अरी, नास्त्या, प्यारी नास्त्या ! कितनी अच्छी तरकीब सूझी है यह मुझे ! "और लीज़ा अपने इस दिलचस्प विचार को अवश्य हीं अमली शक्ल देने का इरादा बनाकर सोने के लिये बिस्तर पर चली गयी ।

अगले ही दिन वह अपने इरादे को अमली शक्ल देने के काम में जुट गयी। उसने बाज़ार से मोटा कपड़ा, नीले रंग की छींट और तांबे के बटन मंगवाये, नास्त्या की मदद से अपने लिये क़मीज़ और सराफ़ान काटा, सभी नौकरानियों को सिलाई करने के लिये बिठा दिया और शाम तक दोनों चीजें तैयार हो गयीं । लीजा ने उन्हें पहनकर दर्पण में अपने को निहारा और उसे भी यह मानना पड़ा कि इतनी प्यारी तो वह खुद को भी कभी नहीं लगी थी । उसने अपनी भूमिका की रिहर्सल की, चलते-चलते अपना सिर झुकाया, मिट्टी के चूलदार बिल्लों की भांति उसे कई बार दायें-बायें हिलाया, किसानी बोली में बातचीत की और आस्तीन से मुंह ढंकते हुए हंसी । नास्त्या को उसकी यह भूमिका खूब जंची। हां, एक ही मुश्किल का सामना करना पड़ा- उसने नंगे पांव अहाते में चलने की कोशिश की, किन्तु दूब उसके कोमल पैरों में चुभी और बालू तथा कंकड़-पत्थर तो बर्दाश्त से बाहर लगे। नास्त्या ने इस चीज़ में भी उसकी मदद की उसने लीज़ा के पैरों की माप ली, भागकर त्रोफ़ीम गड़रिये के पास खेत में गयी और उससे उसी नाप की छाल की चप्पलें बनाने को कहा । लीज़ा अगले दिन मुंह- अंधेरे जागी। घर के बाक़ी लोग अभी सो रहे थे। घर के फाटक पर नास्त्या चरवाहे की राह देख रही थी । सिंगी बज उठी और गांव के पशु ज़मींदार की हवेली के पास से गुज़रने लगे । त्रोफ़ीम ने नास्त्या के सामने आकर छाल की रंग-बिरंगी छोटी-छोटी चप्पलों की जोड़ी उसे दे दी और बदले में पचास कोपेक इनाम पाया । लीज़ा ने चुपके से देहातिन का भेस बनाया, मिस जैक्सन के बारे में फुसफुसाकर नास्त्या को हिदायतें दीं पिछवाड़े के ओसारे से बाहर निकली और सब्जियों के बगीचे को लांघते हुए खेत की ओर भाग चली ।

पूरब में उषा का प्रकाश फैल रहा था और बादलों की सुनहरी पांतें सूर्य की ऐसे ही प्रतीक्षा कर रही थीं जैसे दरबारी ज़ार के स्वागत को उसकी राह देखते हैं । निर्मल आकाश, सुबह की ताज़गी, शबनम, सुखद पवन और पक्षियों के कलरव ने लीज़ा के हृदय को यौवन के आह्लाद से ओतप्रोत कर दिया। इस बात से डरते हुए कि कहीं जान- पहचान के किसी व्यक्ति से भेंट न हो जाये, वह चल नहीं रही थी, उड़ी जा रही थी। पिता की जागीर की सीमा पर खड़े झुरमुट के निकट पहुंचकर लीजा धीरे-धीरे चलने लगी । यहीं उसे अलेक्सेई की बाट जोहनी थी। उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था, यद्यपि वह स्वयं इसका कारण नहीं जानती थी । किन्तु जवानी के दिनों की हमारी शरारतों के साथ अनुभव होनेवाला यही भय तो उनका मुख्य आकर्षण है । लीज़ा ने झुरमुट के धुंधलके में प्रवेश किया । वृक्षों के झुरमुट की गहराई में से दबे - घुटे शोर ने लड़की का स्वागत किया । उसका उल्लास दब गया। धीरे-धीरे वह मधुर कल्पना के वशीभूत हो गयी । वह कुछ सोच रही थी ... किन्तु कौन यह सही - सही कह सकता है कि वसन्त की सुबह में कोई छः बजे के क़रीब सत्रह वर्षीया युवती कुंज में क्या सोचती है ? इस तरह वह दोनों ओर से ऊंचे छायादार वृक्षों से ढके रास्ते पर चली जा रही थी कि अचानक एक बढ़िया शिकारी कुत्ता उस पर भूंकने लगा । लीज़ा डरकर चिल्ला उठी। इसी समय ऊंची आवाज़ सुनाई दी, “Tout beau, Sbogar, ici!..”1 (1. स्बोगार, भौंकना बन्द करो, इधर आओ... ( फ़्रांसीसी )और झाड़ियों के पीछे से जवान शिकारी सामने आया । "मेरी प्यारी, डरो नहीं," उसने लीज़ा से कहा, “मेरा कुत्ता काटता नहीं ।" लीज़ा ने भय से मुक्ति पा ली और तत्काल परिस्थिति से लाभ उठाया । "हुजूर, मेरे को लगत," उसने कुछ भय और कुछ लाज का नाटक करते हुए कहा, "देखत तो कैसो डरावनो फेर मो पर झपटत ।" इसी बीच अलेक्सेई ( पाठक ने उसे पहचान लिया होगा ) जवान किसान लड़की को एकटक देख रहा था । अगर डरती हो, तो मैं तुम्हारे साथ-साथ चल सकता हूं,” उसने लीज़ा से कहा, "तुम मुझे अपने साथ चलने की इजाज़त देती हो ?" "कौन मना कर सकत ? " लीज़ा ने उत्तर दिया, "सड़क सभी की होत, जो चाहे चलत । " "किस गांव की हो तुम ?" - "प्रिलूचिनो की । वासीली लुहार की बेटी, खुम्मियां बटोरन जात" ( लीज़ा ने डोरी से लटकती छाल की टोकरी को हिलाया ) । "और साहब तुम, तुगीलोवो के होवत ?” – “बिल्कुल ठीक, ” अलेक्सेई ने जवाब दिया, "छोटे साहब का अर्दली हूं मैं ।" अलेक्सेई ने बराबरी के नाते बात करनी चाही । किन्तु लीज़ा ने उसकी ओर देखा और हंस पड़ी । झूठ बोलत, ” उसने कहा, "ऐसी बुद्धू मति समझत। खूब देखत, तुम खुद साहब होत ।" - "तुम ऐसा क्यों समझती हो?” – “सब बातन से । "- "फिर भी ?" "क्या साहब और नौकर में फर्क न कर सकत ? पहनत - ओढ़त हमार माफ़िक़ नहीं, बोलत-बतियावत हमार माफ़िक़ नहीं, कुत्ते को भी हमार माफ़िक़ नहीं पुकारत । ” लीज़ा अलेक्सेई को अधिकाधिक अच्छी लग रही थी । गांव की प्यारी- सुन्दर लड़कियों के मामले में औपचारिकता न बरतने के आदी अलेक्सेई ने उसे बांहों में भरना चाहा । किन्तु लीज़ा उछलकर उससे दूर हट गयी और अपने चेहरे पर ऐसी रुखाई तथा कड़ाई ले आयी कि यद्यपि अलेक्सेई को इससे तनिक हंसी आ गयी, तथापि उसे अपना क़दम आगे बढ़ाने की जुर्रत नहीं हुई । "अगर साहब आप चाहत कि हमारे बीच दोस्ती बनी रहत, " उसने बड़ी शान दिखाते हुए कहा, “तो यों अपनी सुध-बुध न बिसारत ।" - "किसने तुम्हें ऐसी अक्लमन्दी की बातें करना सिखाया है ?" अलेक्सेई ने ठठाकर हंसते हुए पूछा “मेरी परिचिता, तुम्हारी छोटी मालकिन की नौकरानी नास्त्या ने तो नहीं ? तो कैसे-कैसे रास्तों से शिक्षा का प्रचार हो रहा है ! " लीज़ा ने अनुभव किया कि उसके वाक्य उसकी भूमिका की सीमा से बाहर निकल गये हैं और इसलिये उसने फ़ौरन अपनी भूल सुधारी । तुम क्या सोचत, "वह बोली, क्या हम मालिक की डेवढ़ी पर कभी न जावत ? वहां सभी कुछ देखत, सभी कुछ सुनत । परन," वह कहती गयी, "तुम्हार साथ बतियात रहत, तो खुम्मियां न बटोर पावत । तो साहब, तुम उधर जावत, हम इधर जावत । छिमा मांगत... लीजा ने जाना चाहा, किन्तु अलेक्सेई ने उसका हाथ पकड़ लिया । "तुम्हारा नाम क्या है, मेरी प्यारी ?" "अकुलीना," लीज़ा ने अलेक्सेई के हाथ से अपनी उंगलियां छुड़ाने की कोशिश करते हुए जवाब दिया, "छोड़ भी देत साहब, घर जावन को बख़्त होए गयो । " “तो मेरी मित्र अकुलीना मैं ज़रूर तुम्हारे पिता लुहार वासीली के यहां जाऊंगा।"- "यह क्या कहत ? " लीज़ा ने चिल्लाकर आपत्ति की, “ईसू के नाम पर ऐसा मत करियो । घरवाले जान जावत कि साहब के साथ कुंज में अकेली बोलत - बतियात रही, तो मेरी सामत आ जावत। बापू, वासीली लुहार, मार-मार जान ले लेवत ।" -"लेकिन मैं तो तुमसे ज़रूर फिर मिलना चाहता हूं ।" - "किसी और दिन यहां खुम्मियां बटोरन आवत ।" - "कब आओगी ?" - "कल भी आ सकत।" - "प्यारी अकुलीना, मैंने तुम्हें चूम लिया होता, मगर हिम्मत नहीं होती । तो कल इसी समय आओगी न ?” - “हां, आवत, आवत ।" -“छल तो नहीं करोगी ? ” - "छल नहीं करत । "- "क़सम खाओ ! " - "क़सम खावत, पावन सलीब की क़सम खावत ।"

दोनों युवा लोग अलग हुए, लीजा जंगल से बाहर निकली, उसने खेत को पार किया, दबे पांव बाग़ में पहुंची और सीधे खलिहान की ओर भाग गयी जहां नास्त्या उसकी राह देख रही थी। वहां उसने कपड़े बदले, बेख्याली से अपनी बेचैन राज़दान के उत्तर दिये और मेहमानखाने में गयी। मेज़ पर नाश्ता लगा हुआ था और चेहरे पर पाउडर की परत चढ़ाये तथा अपनी पतली कमर को कसे हुए अंग्रेज़ शिक्षिका डबल रोटी के पतले-पतले टुकड़े काट रही थी । लीजा के पिता ने सुबह की सैर के लिये उसकी प्रशंसा की । "सेहत के लिये तड़के उठने से ज्यादा फ़ायदेमन्द और कुछ नहीं," पिता ने राय जाहिर की। उन्होंने दीर्घायु के बारे में अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के हवाले देते हुए कहा कि सौ साल से अधिक समय तक जीनेवाले सभी लोग ऐसे थे जो कभी वोदका नहीं पीते थे और जाड़ों तथा गर्मियों में तड़के ही उठते थे लीज़ा पिता की बातों पर कान नहीं दे रही थी । वह युवा शिकारी के साथ अकुलीना के प्रातः मिलन और उसके साथ हुई सारी बातचीत मन ही मन दोहरा रही थी और उसकी आत्मा उसे यातना देने लगी । व्यर्थ ही वह अपने मन को यह कहकर तसल्ली देती थी कि उनकी बातचीत शालीनता के चौखटे से बाहर नहीं निकली, कि उसकी इस शरारत का कोई बुरा नतीजा नहीं होगा, मगर उसकी आत्मा की आवाज़ उसकी समझ-बूझ पर हावी हो जाती थी। अगली सुबह को मिलने के लिये दिया गया वचन उसे अधिकाधिक परेशान कर रहा था – उसने लगभग यह तय कर लिया कि बड़ी गम्भीरता से ली हुई अपनी शपथ को पूरा नहीं करेगी। किन्तु उसकी व्यर्थ प्रतीक्षा करने के बाद अलेक्सेई लुहार वासीली की बेटी, असली, मोटी- भद्दी और चेचकरू अकुलीना को ढूंढ़ने के लिये गांव में चला जायेगा और इस तरह उसकी चंचलतापूर्ण शरारत को भांप जायेगा। इस विचार से लीज़ा का दिल बैठ गया और उसने अगले दिन फिर से अकुलीना के रूप में कुंज में जाने का निर्णय किया ।

दूसरी ओर अलेक्सेई बड़े उछाह में था, वह दिन भर अपनी नवपरिचिता के बारे में सोचता रहा, रात को भी उस सांवली सलोनी की छवि उसके सपनों में घूमती रही । पौ फटी ही थी कि वह कपड़े पहनकर तैयार हो गया । बन्दूक़ भरने का समय नष्ट किये बिना ही वह अपने वफ़ादार कुत्ते स्बोगार को साथ लिये हुए मिलन -स्थान की ओर भाग चला। उसके लिये बहुत ही बोझल प्रतीक्षा का आधा घण्टा बीता। आखिर उसे झाड़ियों के बीच नीले सराफ़ान की झलक मिली और वह मोहिनी अकुलीना से मिलने के लिये लपका। वह उसके कृतज्ञतापूर्ण उत्साह के उत्तर में मुस्करायी। किन्तु अलेक्सेई को उसके चेहरे पर तत्क्षण उदासी तथा चिन्ता के लक्षण दिखाई दिये । उसने इसका कारण जानना चाहा । लीजा ने यह स्वीकार किया कि वह अपनी हरकत को चंचलतापूर्ण मानती है, ऐसा करने के लिये पछताती है, कि आज अपने वादे को पूरा करना चाहती थी कि उनका आज का मिलन अन्तिम होगा, कि वह इस परिचय का, जिसका कोई अच्छा परिणाम नहीं होगा, अन्त कर देना चाहती है। जाहिर है कि यह सब कुछ देहाती भाषा में कहा गया था, किन्तु एक साधारण लड़की के ऐसे असाधारण विचारों और भावों ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया । उसने अकुलीना का ऐसा इरादा बदलवाने के लिये अपनी पूरी वाक- पटुता का उपयोग किया, उसे यकीन दिलाया कि उसके मन में कोई पाप-कपट नहीं, वचन दिया कि वह उसे कभी पश्चाताप का अवसर नहीं देगा, उसकी हर बात मानेगा, उसने उसकी मिन्नत समाजत की कि वह बेशक एक दिन छोड़कर या हफ़्ते में दो बार ही एकान्त में उससे मिलने की खुशी से उसे वंचित न करे । वह सच्ची अनुराग- भाषा में यह सब कह रहा था और इस क्षण वास्तव में ही पूरी तरह से प्रेम में डूबा हुआ था । लीजा चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी । "तो मो को ऐसो वचन देवत, " आखिर उसने कहा, “कि तुम कभी मो को गांव में ढूंढ़न नहीं जात, वां मोरे बाबत किसी से पूछत न फिरत। ऐसो वचन भी देवो कि जो मिलन हम नियत करत, वा के अतिरिक्त मिलन न करन चाहत । "अलेक्सेई ने पवित्र सलीब की क़सम खानी चाही, किन्तु उसने मुस्कराकर उसे मना कर दिया । क़सम काहे खावत, वह बोली, “वचन देवत, इतना बहुत होवत । इसके बाद वे दोनों जंगल में एकसाथ घूमते हुए मैत्रीपूर्ण ढंग से तब तक बातचीत करते रहे, जब तक लीज़ा ने उससे यह नहीं कहा कि उसके जाने का वक़्त हो गया । वे एक दूसरे से विदा हुए। अकेला रह जाने पर अलेक्सेई यह नहीं समझ पा रहा था कि किस तरह एक साधारण किसान लड़की ने दो भेंटों में ही उसे सचमुच अपने वश में कर लिया है। अकुलीना के साथ उसके सम्बन्धों में नवीनता का सुख था और यद्यपि इस अजीब किसान लड़की द्वारा पहले से लगा दी गयी शर्तें उसके लिये बड़ी बोझल थीं, तथापि अपना वचन तोड़ने का विचार तक उसके दिमाग़ में नहीं आया। बात यह है कि भयानक ढंग की अंगूठी पहनने, रहस्यपूर्ण पत्र-व्यवहार करने और टूटे दिल की निराशा का दिखावा करने के बावजूद अलेक्सेई भला और भावुक युवक था, निर्मल- निश्छल दिल रखता था जो निष्कपट आनन्द से रस-विभोर हो सकता था ।

अगर मैं अपने मन की बात सुनता तो निश्चय ही इन दोनों लोगों के मिलनों, एक दूसरे के प्रति उनके बढ़ते झुकाव और युवा आपसी विश्वास उनके मनबहलावों और बातचीत का वर्णन करता । किन्तु जानता हूं कि मेरे अधिकतर पाठकों ने मेरी ऐसी खुशी का रस न लिया होता । कुल मिलाकर ऐसे ब्योरे नीरस होंगे और इसलिये मैं संक्षेप में इतना कहकर ही उन्हें छोड़ देता हूं कि दो महीने बीतते न बीतते हमारा अलेक्सेई तो पूरी तरह प्रेम दीवाना हो गया, लीज़ा पर भी प्रेम का रंग कुछ कम नहीं चढ़ा था, यद्यपि वह उसे अधिक प्रकट नहीं होने देती थी । वे दोनों अपने वर्तमान से सुखी थे और भविष्य की कम चिन्ता करते थे ।

वे दोनों अटूट प्रेम- बन्धनों में कस गये हैं, यह विचार अक्सर उनके दिमाग़ में कौंध जाता, किन्तु उन्होंने कभी एक दूसरे के सामने इसकी चर्चा नहीं की। कारण स्पष्ट था- अलेक्सेई अपनी प्यारी अकु- लीना के प्रति चाहे कितना ही अनुराग अनुभव क्यों न करता था, तो भी अपने और एक ग़रीब किसान लड़की के बीच विद्यमान दूरी को भूलने में असमर्थ था। दूसरी ओर लीज़ा जानती थी कि इन दोनों के पिता एक दूसरे से कितनी अधिक घृणा करते हैं और इसलिये उसे उनके बीच आपसी सुलह की कोई आशा नहीं थी। इसके अलावा उसके हृदय की गहराई में कहीं एक चंचल और रोमानी भावना भी छिपी हुई थी कि वह तुगीलोवो के ज़मींदार को प्रिलूचिनो के लुहार की बेटी के पैरों पर झुका देखे । अचानक एक महत्त्वपूर्ण घटना हो गयी, और उनके आपसी सम्बन्धों में मोड़ आते-आते रह गया ।

एक साफ़ - सुहानी और ठण्डी सुबह को ( जैसी कि हमारी रूसी पतझर में बहुत होती हैं ) इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव घोड़े पर सवार होकर सैर को निकला। कहीं ज़रूरत न पड़ जाये, यह बात ध्यान में रखते हुए उसने छः शिकारी कुत्ते, सईस और खटखटे बजानेवाले कुछ दास-छोकरों को भी अपने साथ ले लिया । इसी समय ग्रिगोरी इवानोविच मूरोम्स्की ने भी सुहाने मौसम के रंग में आकर अपनी दुमकटी घोड़ी पर ज़ीन कसने का आदेश दिया और उसे दुलकी चाल से दौड़ाता हुआ अपनी अंग्रेज़ी ढंग की जागीर को लांघ चला । जंगल के निकट पहुंचने पर उसे अपना पड़ोसी दिखाई दिया जो लोमड़ी की खाल का अस्तर लगी लम्बी जाकेट पहने बड़े गर्व से घोड़े पर बैठा उस खरगोश का इन्तज़ार कर रहा था जिसे दास - लड़के चीख-चिल्लाकर और खटखटे बजाकर झाड़ियों से बाहर निकाल रहे थे। यदि ग्रिगोरी इवानोविच इस भेंट की पूर्वकल्पना कर सकता, तो उसने अपनी घोड़ी को दूसरी दिशा में मोड़ दिया होता । किन्तु वह बिल्कुल अप्रत्याशित ही बेरेस्तोव के सामने जा निकला और उसने अचानक अपने को पिस्तौल की गोली के निशाने की दूरी पर पाया । अब तो कोई चारा न था - सुशिक्षित यूरोपीय की भांति वह अपने शत्रु के पास गया और उसने ढंग से उसका अभिवादन किया । बेरेस्तोव ने भी ज़ंजीर से बंधे उस भालू की भांति, जिसे उसका मालिक महानुभावों को सिर झुकाने का आदेश देता है, बड़ी शिष्टता से उत्तर दिया । इसी समय खरगोश जंगल से निकलकर खेत में भाग चला। बेरेस्तोव और सईस गला फाड़कर चिल्लाये, उन्होंने कुत्तों को उसके पीछे छोड़ दिया और अपने घोड़ों को उसके पीछे सरपट दौड़ाने लगे । मूरोम्स्की की घोड़ी, जो कभी शिकार पर नहीं गयी थी, बुरी तरह डर गयी और ताबड़तोड़ भागने लगी। अपने को बढ़िया घुड़सवार माननेवाले मूरोम्स्की ने उसकी रासें ढीली छोड़ दीं और मन ही मन इस बात से खुश हुआ कि उसे अप्रिय बातचीत से निजात मिल गयी । किन्तु घोड़ी उस गड्ढे तक सरपट दौड़ने के बाद, जिसकी ओर उसका पहले ध्यान नहीं गया था, अचानक एक ओर को मुड़ गयी और मूरोम्स्की नीचे जा गिरा । पाले की मारी सख़्त ज़मीन पर वह बुरी तरह गिरा और वहीं पड़ा हुआ अपनी दुमकटी घोड़ी को कोसता रहा, जो मानो उसी समय होश में आकर रुकी जब उसने अपने को सवार के बिना अनुभव किया । इवान पेत्रोविच सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ उसके पास आया और यह पूछा कि उसे कहीं चोट तो नहीं लगी। इसी बीच सईस अपराधी घोड़ी की लगाम थामे हुए उसे वहां ले आया। उसने मूरोम्स्की को घोड़े पर सवार होने में मदद दी और बेरेस्तोव ने उसे अपने यहां चलने को आमन्त्रित किया । मूरोम्स्की इन्कार नहीं कर पाया, क्योंकि वह उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव कर रहा था । इस तरह बेरेस्तोव खरगोश का शिकार करके और अपने विरोधी को घायल तथा लगभग युद्ध - बन्दी बनाये हुए विजेता की भांति घर लौटा ।

नाश्ता करते हुए दोनों पड़ोसी काफ़ी दोस्ताना ढंग से बातचीत करते रहे । मूरोम्स्की ने बेरेस्तोव के सामने यह स्वीकार कर लिया कि चोट के कारण वह घोड़ी पर चढ़कर घर जाने में असमर्थ है और इसलिये उसने उससे घोड़ागाड़ी जुतवा देने का अनुरोध किया । बेरेस्तोव उसे अपने घर के दरवाज़े तक विदा करने आया और मूरोम्स्की उससे इस बात का वचन लिये बिना घर को रवाना नहीं हुआ कि अगले दिन वह अपने बेटे अलेक्सेई इवानोविच के साथ प्रिलूचिनो में आयेगा और मित्र की तरह दोपहर का भोजन करेगा। इस तरह दुमकटी डरपोक घोड़ी की बदौलत पुरानी और गहरी जड़वाली दुश्मनी लगभग ख़त्म हो गयी।

लीजा भागती हुई बाहर आयी । यह क्या मामला है, पापा ?" उसने हैरान होते हुए पूछा । आप लंगड़ा क्यों रहे हैं ? आपकी घोड़ी कहां है ? यह घोड़ागाड़ी किसकी ले आये ?"- "तुम इस सब का तो अनुमान नहीं लगा सकोगी, my dear !” ग्रिगोरी इवानोविच ने उसे उत्तर दिया और जो कुछ हुआ था, सब कह सुनाया । लीज़ा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। इससे पहले कि लीज़ा सम्भल पाती, उसने यह भी कह दिया कि अगले दिन बेरेस्तोव बाप- बेटा उनके घर पर दोपहर का भोजन करेंगे । यह आप क्या कह रहे हैं !" लीज़ा ने कहा और उसका चेहरा पीला पड़ गया । "बेरेस्तोव बाप-बेटा कल हमारे यहां दोपहर का भोजन करेंगे ! नहीं, पापा, आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मैं तो किसी हालत में भी उनके सामने नहीं आऊंगी ! "- "तुम क्या पागल हो गयी हो ?” पिता ने आपत्ति की । "कब से तुम ऐसी लजीली- शर्मीली हो गयी हो या रोमानी नायिका की भांति उनके प्रति खानदानी नफ़रत महसूस करती हो ? बस, यह बेवक़ूफ़ी की बात ख़त्म करो ..." — "नहीं, पापा, मैं किसी भी हालत में किसी भी क़ीमत पर बेरेस्तोवों के सामने नहीं आऊंगी। "ग्रिगोरी इवानोविच ने कंधे झटक दिये तथा उसके साथ और बहस नहीं की, क्योंकि पिता को मालूम था कि विवाद करने में कोई फ़ायदा नहीं होगा और इतनी बढ़िया सैर के बाद आराम करने को अपने कमरे में चला गया ।

लीज़ावेता ग्रिगोर्येव्ना ने अपने कमरे में जाकर नास्त्या को बुलवा भेजा। दोनों देर तक अगले दिन आनेवाले मेहमानों के बारे में बातचीत करती रहीं। एक सुसंस्कृत और कुलीन युवती के रूप में अपनी अकुलीना को पहचान लेने पर अलेक्सेई क्या सोचेगा ? उसके आचार-विचार, उसके रंग-ढंग और समझ-बूझ के बारे में उसकी क्या राय बनेगी ? दूसरी ओर लीज़ा यह देखने को भी बहुत उत्सुक थी कि ऐसी अप्रत्याशित भेंट से उसके मन पर क्या छाप पड़ेगी... अचानक उसके दिमाग़ में एक विचार कौंध गया । उसने उसी समय नास्त्या को वह विचार बताया। दोनों को एक बढ़िया सूझ के रूप में इस विचार से बेहद खुशी हुई और उन्होंने तय किया कि ज़रूर ही इसे अमली शक्ल देंगी ।

अगले दिन नाश्ते के समय ग्रिगोरी इवानोविच ने अपनी बेटी से पूछा कि क्या वह बेरेस्तोव पिता-पुत्र के सामने न आने का अपना इरादा उसी तरह बनाये हुए है । "पापा "लीज़ा ने उत्तर दिया, "यदि आप ऐसा ही चाहते हैं, तो मैं उनकी खातिरदारी के लिये सामने आ जाऊंगी, लेकिन एक शर्त पर । मैं उनके सामने किसी भी रूप में क्यों न आऊं, चाहे कुछ भी क्यों न करूं, आप मुझे कुछ भी भला-बुरा नहीं कहेंगे, हैरानी या नराज़गी का कोई भाव व्यक्त नहीं करेंगे। "- "फिर कोई शरारत सूझी लगती है तुम्हें !" ग्रिगोरी इवानोविच ने हंसते हुए कहा । "अच्छी बात है, अच्छी बात है, जो चाहो वही करो, मेरी काली आंखोंवाली शरारती बिटिया । इतना कहकर उसने बेटी का माथा चूमा और लीज़ा तैयारी करने के लिये भाग गयी ।

दिन के ठीक दो बजे घर की बनी घोड़ागाड़ी, जिसमें छः घोडे जुते हुए थे, अहाते में दाखिल हुई और बहुत ही हरी घासवाले चक्र के पास आकर रुकी। मूरोम्स्की के दो बावर्दी नौकरों की सहायता से बूढ़ा बेरेस्तोव ओसारे की सीढ़ियों पर चढ़ा । उसके पीछे-पीछे ही घोड़े पर सवार उसका बेटा भी पहुंच गया और दोनों ने एक साथ भोजन- कक्ष में प्रवेश किया, जहां पहले से ही मेज़ लगा दी गयी थी । मूरोम्स्की ने बहुत ही स्नेह से अपने पड़ोसियों का आदर-सत्कार किया, भोजन के पहले बाग़ और जन्तुशाला देखने का सुझाव दिया तथा खूब अच्छी तरह से साफ़ की गयी एवं बजरी बिछी पगडंडियों से उन्हें अपने साथ ले चला। बूढ़े बेरेस्तोव को मन ही मन इस बात का अफ़सोस हो रहा था कि इस व्यर्थ की सनक के फेर में पड़कर इतना श्रम और समय नष्ट किया गया है, किन्तु वह शिष्टतावश चुप रहा। बेटे को न तो दांत से कौड़ी पकड़नेवाले अपने ज़मींदार बाप का असन्तोष पसन्द था और न ही आत्मतुष्ट तथा अंग्रेज़ी ढंग के दीवाने का उत्साह । वह तो बड़ी बेसब्री से गृह स्वामी की बेटी के आने का इन्तज़ार कर रहा था जिसके बारे में बहुत कुछ सुन चुका था । यद्यपि उसके दिल में, जैसा कि हम जानते हैं, कोई और बसी हुई थी, तथापि सुन्दर युवती तो हमेशा ही उसकी कल्पना को गुदगुदा सकती थी ।

तीनों लौटकर मेहमानखाने में बैठ गये – दोनों बुजुर्ग अपने पुराने वक्तों तथा सेना के ज़माने के क़िस्से-कहानियों को याद करने लगे और अलेक्सेई यह सोचने लगा कि लीज़ा की उपस्थिति में वह क्या भूमिका अदा करे। उसने यह निर्णय किया कि उत्साह के बिना वह बिल्कुल खोया-खोया सा बैठा रहेगा और उसने अपने को इसी के लिये तैयार कर लिया। दरवाज़ा खुला और उसने ऐसी उदासीनता तथा लापरवाही से अपना सिर घुमाया कि बहुत ही नाज़ - नखरे वाली सुन्दरी का दिल भी धड़क उठे । किन्तु उसकी बदकिस्मती थी कि लीज़ा की जगह बूढ़ी मिस जैक्सन भीतर आयी - पाउडर थोपे, चोली से कमर कसे, शिष्टता से नज़र झुकाये । चुनांचे अलेक्सेई ने जो शानदार मोर्चेबन्दी की थी, वह बेकार हो गयी। वह अपने को फिर से तैयार नहीं कर पाया था कि दरवाज़ा पुनः खुला और इस बार लीज़ा भीतर आयी । सभी उठकर खड़े हो गये । पिता ने अतिथियों से उसका परिचय करवाना चाहा, किन्तु सहसा बीच में ही रुक गया और उसने अपनी हंसी पर क़ाबू पाने के लिये होंठ भींच लिये ... लीज़ा, उसकी सांवली सलोनी लीज़ा कानों तक पाउडर थोपे थी, मिस जैक्सन से भी ज़्यादा अपनी भौंहों को रंगे थी, उसके अपने बालों से अधिक सुनहरे बाल लुई चौदहवें की विग की भांति लहरा रहे थे, à limbecile1 आस्तीनें Madame de Pompadour2 के स्कर्ट की चुन्नटों की भांति फूली और दायें-बायें लटक रही थीं, कमर फ़ीतों से ऐसे कसी थी कि अंग्रेज़ी के "एक्स"अक्षर जैसी लगती थी और उसकी मां के अभी तक गिरवी न रखे गये सभी हीरे उसकी उंगलियों और गर्दन पर तथा कानों में चमक रहे थे । अलेक्सेई इस चमकती दमकती, हास्यास्पद कुलीन युवती के रूप में अपनी अकुलीना को नहीं पहचान पाया । अलेक्सेई के पिता ने लीज़ा का हाथ चूमा और पिता के बाद उसने भी भारी मन से ऐसा ही किया । जब उसने अपने होंठों को उसकी गोरी उंगलियों से छुआया, तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे सिहर उठी थीं। इसी समय उस छोटे से पांव पर भी उसकी नज़र पड़ी जिसे जान-बूझकर बेहद फ़ैशनदार और शोख जूते के प्रदर्शन के लिये आगे बढ़ाया गया था। इसने उसे उसकी बाक़ी वेश-भूषा के कारण पैदा हुई अरुचि पर क़ाबू पाने में मदद दी। जहां तक पाउडर और भौंहों को रंगने का सवाल था, तो यह कहना चाहिए कि अपने हृदय की सरलता के कारण अलेक्सेई ने पहली नज़र में उनकी तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया और बाद को भी उन्हें भांप नहीं पाया। ग्रिगोरी इवानोविच को अपना दिया हुआ वचन याद था और इसलिये अपने आश्चर्य को छिपाये रखने का प्रयास किया । किन्तु बेटी की शरारत ने पिता के दिल को ऐसे गुदगुदा दिया था कि बड़ी मुश्किल से ही वह अपने को वश में रख पा रहा था। रही नकचढ़ी मिस जैक्सन, तो उसे हंसने की सूझ ही नहीं सकती थी । उसने अनुमान लगा लिया था कि रंग और पाउडर उसकी अलमारी से उड़ाये गये हैं और इसलिये उसके चेहरे की बनावटी सफ़ेदी के बीच से गुस्से की लाली उभर आयी थी । मिस जैक्सन ने इस शरारती लड़की को बेहद गुस्से की नज़रों से देखा जिसने सफ़ाई पेश करने का काम किसी दूसरे वक़्त पर टालते हुए यह जाहिर किया मानो उनकी तरफ़ उसका ध्यान ही न गया हो ।

1. मूर्खों जैसी, फ़्रांस में कभी ऐसी आस्तीनों का फ़ैशन था ( फ़्रांसीसी ) ।
2. मदाम द पोम्पादूर फ़्रांसीसी सम्राट लुई १५वें की प्रेयसी और विशेष स्नेह - पात्र थी ( फ़्रांसीसी ) ।

सभी खाने की मेज़ पर बैठे । अलेक्सेई खोये-खोये और विचारों में डूबे हुए व्यक्ति की भूमिका निभाता रहा । लीजा बनती रही, दांतों के बीच से गुनगुनाते हुए केवल फ़्रांसीसी में ही बोलती रही । मूरोम्स्की अपनी बेटी के ऐसा करने के उद्देश्य को न समझ पाते हुए बार-बार उसकी ओर देखता था और उसे यह सब कुछ बहुत मनोरंजक प्रतीत हो रहा था। मिस जैक्सन गुस्से से भुनभुनाती हुई खामोश थी । केवल इवान पेत्रोविच अपने को मानो घर में अनुभव कर रहा था, उसने डटकर दो के बराबर भोजन किया, छककर शराब पी अपने मज़ाक़ों पर खुद हंसा, अधिकाधिक मैत्रीपूर्ण ढंग से बातें करता और ठहाके लगाता रहा।

आखिर भोजन समाप्त होने पर सब उठे। मेहमान चले गये, ग्रिगोरी इवानोविच खुलकर हंसा और बेटी से पूछताछ करने लगा । "उनका इस तरह उल्लू बनाने की तुम्हें क्या सूझी ?" पिता ने बेटी से पूछा । "वैसे एक बात कहूं, पाउडर तुम पर फबता है। नारियों के साज - सिंगार के रहस्यों की गहराई में मैं नहीं जाऊंगा, किन्तु तुम्हारी जगह मैं खुद भी पाउडर लगाने लगता । ज़ाहिर है कि इतना अधिक नहीं, हल्का-सा । अपनी इस तरक़ीब की सफलता से लीज़ा बहुत ही खुश थी। उसने पिता के गले में बांहें डाल दीं, यह वचन दिया कि उनकी सलाह पर विचार करेगी और बेहद झल्लायी हुई मिस जैक्सन को मनाने के लिये भाग गयी, जो बड़ी मुश्किल से ही दरवाजा खोलने और उसके द्वारा दी जानेवाली सफ़ाई सुनने को तैयार हुई | लीज़ा ने बताया कि अपरिचितों के सामने अपनी काली - कलूटी शक्ल लेकर आते हुए उसे शर्म महसूस हुई और यह कि वह उससे अनुमति लेने की हिम्मत नहीं कर पायी। उसे विश्वास था कि दयालु और प्यारी मिस जैक्सन उसे क्षमा कर देगी... आदि आदि । यह विश्वास हो जाने पर कि लीज़ा ने उसकी खिल्ली उड़ाने के लिये ऐसा नाटक नहीं किया था, मिस जैक्सन शान्त हो गयी और सुलह की निशानी के तौर पर उसने लीज़ा को अंग्रेज़ी पाउडर- क्रीम की एक शीशी भेंट की, जिसे लीज़ा ने हार्दिक कृतज्ञता जताते हुए स्वीकार किया ।

पाठक ने यह अनुमान लगा लिया होगा कि अगले दिन लीज़ा सुबह के मधुर मिलन के लिये जल्दी से कुंज में पहुंची। "साहब, तुम कल हमार मालिक के घर गयो ?” उसने भेंट होते ही अलेक्सेई से कहा, "हमार छोटी मालकिन कैसी लगत रही ?"

अलेक्सेई ने जवाब में कहा कि उसने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया । "बुरी बात होवत," लीज़ा ने राय जाहिर की ।

"वह किसलिये ?"अलेक्सेई ने जानना चाहा ।

"एही कारण हम तुम से पूछन चाहत, क्या लोग-बाग सच कहत..." -

-"क्या कहते हैं लोग-बाग ?"

"सच कहत रहत कि छोटी मालकिन और हमारी सकल आपस में मिलत- जुलत ? "

- "कैसी बेहूदा बात है यह ! तुम्हारे सामने तो वह बिल्कुल भूतनी-सी लगती है।"

-"ओह, साहब, ऐसा बोलत पाप लगत । हमार छोटी मालकिन ऐसी गोरी-गोरी, ऐसी बांकी - छैली होत ! हम क्या बराबरी कर सकत मालकिन की !"

अलेक्सेई ने क़सम खाकर कहा कि वह सभी गोरी-चिट्टी कुलीनाओं से बढ़-चढ़कर है और उसे पूरी तरह शान्त करने के लिये उसकी मालकिन का ऐसा खाका खींचने लगा कि लीज़ा ख़ूब ठठाकर हंसी ।

"परन," उसने गहरी उसांस छोड़ते हुए कहा, "मालकिन पर बेसक हंसी आवत, तो भी हम उसके सामने मूढ़- गंवार होत।”

-"अरे !" अलेक्सेई ने कहा, "यह भी कोई दुखी होने की बात है ! कहो तो मैं तुम्हें अभी पढ़ाना शुरू कर सकता हूं।"

-"हां," लीज़ा बोली, “कोसिस क्यों न करके देखत ?"

-"तो मेरी प्यारी, लाओ, हम अभी यह शुरू कर दें ।" वे दोनों बैठ गये । अलेक्सेई ने अपनी जेब से पेंसिल और नोटबुक निकाल ली । अकुलीना ने ऐसी आश्चर्यजनक तेज़ी से वर्णमाला सीख ली कि अलेक्सेई उसकी समझदारी पर हैरान हुए बिना न रह सका। अगली सुबह को लीज़ा ने लिखने की कोशिश करने की इच्छा प्रकट की । शुरू में तो पेंसिल ने उसकी बात नहीं मानी, किन्तु कुछ मिनट बाद वह ढंग से अक्षर लिखने लगी । यह तो कमाल है !” अलेक्सेई ने कहा । "हमारी पढ़ाई तो लेंकास्टर की विधि1 से भी अधिक तेज़ी से चल रही है ।" वास्तव में ही तीसरे पाठ के समय अकुलीना अक्षर जोड़-जोड़कर 'बोयार की बेटी नताल्या'2 पढ़ने लगी, बीच-बीच में रुककर वह ऐसी टीका-टिप्पणियां करती कि अलेक्सेई दंग रह जाता और वह इसी उपन्यास से चुनी हुई सूक्तियों को पूरे काग़ज़ पर लिख-लिखकर उसे काला कर डालती ।

1. शिक्षा की उन दिनों रूस में अत्यधिक लोकप्रिय अंग्रेज़ शिक्षाशास्त्री लेंकास्टर (१७७१ - १८३८ ) की विधि की ओर संकेत है। सं०
2. रूसी लेखक न० कारामज़िन की उपन्यासिका । – सं०

एक हफ़्ता बीतते न बीतते उन दोनों के बीच पत्र व्यवहार होने लगा। एक बूढ़े शाहबलूत के कोटर को पत्र - पेटी बनाया गया । नास्त्या चोरी-छिपे डाकिये की ड्यूटी बजाती । अलेक्सेई मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे हुए अपने पत्र वहां लाता और वहीं उसे साधारण, नीले काग़ज़ पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखी अपनी प्यारी की चिट्ठी मिलती । अकुलीना का पत्र लिखने का ढंग निरन्तर सुधरता जा रहा था और उसकी बुद्धि लगातार विकसित तथा प्रखर होती जाती थी ।

इसी बीच इवान पेत्रोविच बेरेस्तोव और ग्रिगोरी इवानोविच मूरोम्स्की की कुछ ही समय पहले की जान-पहचान अधिक पक्की हो गई तथा निम्न परिस्थितियों के फलस्वरूप मैत्री में बदल गयी । मूरोम्स्की अक्सर यह सोचता कि इवान पेत्रोविच की मृत्यु के बाद उसकी सारी जागीर अलेक्सेई इवानोविच को मिल जायेगी । ऐसा होने पर अलेक्सेई इवानोविच उस गुबेर्निया का एक सबसे धनी ज़मींदार हो जायेगा और इसलिये उसे ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता कि वह लीज़ा से क्यों शादी न करे। दूसरी ओर बुजुर्ग बेरेस्तोव को अपने पड़ोसी में कुछ सनकीपन ( उसके शब्दों में अंग्रेज़ी रंग-ढंग का भूत ) तो दिखाई देता, फिर भी वह उसमें कुछ श्रेष्ठ गुणों से इन्कार नहीं कर सकता था । उदाहरण के लिये सूझ-बूझ एक ऐसा ही गुण था । फिर ग्रिगोरी इवानोविच जाने-माने और प्रभावशाली काउंट प्रोन्स्की का नज़दीकी रिश्तेदार था। काउंट उसके बेटे अलेक्सेई के लिये बहुत उपयोगी हो सकता था और मूरोम्स्की ( इवान पेत्रोविच ऐसा सोचता था ) अपनी बेटी के विवाह का ऐसा अच्छा संयोग पाकर सम्भवतः खुश होगा । दोनों बूढ़ों ने शुरू में अपने - अपने दिल में ही इस बात पर सोचा और आखिर उन्होंने एक दूसरे से अपने दिल की बात कही, गले मिले, एक दूसरे को यह वचन दिया कि इस मामले पर ढंग से विचार करेंगे और दोनों अपनी-अपनी ओर से इसके लिये यत्न करने लगे । मूरोम्स्की के सामने एक कठिनाई थी – अलेक्सेई के साथ अपनी बेत्सी की किसी तरह घनिष्ठता बढ़ायी जाये जिसे उसने उस चिर स्मरणीय दिन के बाद नहीं देखा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वे एक दूसरे को बहुत पसन्द नहीं आये थे। कम से कम अलेक्सेई तो फिर कभी प्रिलूचिनो नहीं आया था और इवान पेत्रोविच जब कभी उनके यहां आने की कृपा करता था, तो लीजा हमेशा अपने कमरे में चली जाती थी । किन्तु ग्रिगोरी इवानोविच ने अपने मन में सोचा कि अगर अलेक्सेई हर दिन मेरे यहां आने लगे, तो बेत्सी के मन में उसके लिये जगह बन जायेगी । ऐसा ही होता है, समय सब कुछ ठीक कर देता है।

अपने इरादे की कामयाबी के बारे में इवान पेत्रोविच को कम परेशानी थी। उसी शाम उसने बेटे को अपने कमरे में बुलाया, पाइप सुलगा ली और कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, क्या बात है, अल्योशा, तुम बहुत समय से फ़ौज में जाने की बात नहीं करते हो ? या फिर हुस्सारों की वर्दी अब तुम्हें अपनी ओर नहीं खींचती ? .."

-"नहीं, ऐसी बात नहीं है, पिता जी," अलेक्सेई ने बड़े आदर से उत्तर दिया, “मैंने देखा कि आपको हुस्सारों की पलटन में मेरा जाना पसन्द नहीं है । ऐसी हालत में आपकी इच्छा को ध्यान में रखना मेरा कर्त्तव्य है ।"

-"यह बहुत अच्छी बात है," इवान पेत्रोविच ने उत्तर दिया, "देख रहा हूं कि तुम बड़े आज्ञाकारी बेटे हो । मुझे इससे बड़ा सन्तोष हुआ। मैं भी तुम्हें किसी तरह से मजबूर नहीं करना चाहता, अभी सरकारी नौकरी करने के लिये विवश नहीं करूंगा। हां, फ़िलहाल, तुम्हारी शादी ज़रूर कर देना चाहता हूं ।"

"किसके साथ, पिता जी ?" अलेक्सेई ने हैरान होकर पूछा ।

“लीजावेता ग्रिगोर्येव्ना मूरोम्स्काया के साथ," इवान पेत्रोविच ने जवाब दिया । "लड़की ख़ासी अच्छी है, ठीक है न ?"

“पिता जी, मैं तो फ़िलहाल शादी करने की सोच ही नहीं रहा हूं।"

"तुम नहीं सोचते हो, इसीलिये मैंने सोचा है और फ़ैसला कर लिया है ।"

"आप जैसा चाहें, लेकिन लीज़ा मूरोम्स्काया मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है।"

"बाद में पसन्द करने लगोगे । आदी हो जाओगे, प्यार भी हो जायेगा । "

"मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं उसे सुखी बना सकूंगा ।"

"तुम्हें ज़रूरत नहीं उसके सुख की चिन्ता में घुलने की । तो ? तो ऐसे ही तुम आदर करते हो अपने पिता की इच्छा का ? बहुत खूब ! "

"आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मैं शादी करना नहीं चाहता और नहीं करूंगा ।"

“तुम शादी करोगे, नहीं तो तुम्हें मेरा अभिशाप लगेगा। भगवान साक्षी है, अपनी जागीर को मैं बेच डालूंगा, सारा पैसा उड़ा डालूंगा और एक कौड़ी भी तुम्हें नहीं दूंगा ! सोच-विचार करने के लिये तुम्हें तीन दिन देता हूं और इस बीच तुम मेरी नज़रों से दूर ही रहना ।"

अलेक्सेई जानता था कि अगर पिता के दिमाग़ में कोई बात घुस जाती है, तो उसे, तारास स्कोतीनिन1 के शब्दों में "कील ठोंककर बाहर नहीं निकाला जा सकता। " किन्तु अलेक्सेई में भी अपने बाप का खून था, उसे भी उसकी ज़िद्द से टालना आसान नहीं था । वह अपने कमरे में जाकर पिता के अधिकार की सीमा, लीज़ावेता ग्रिगोर्येव्ना, उसे भिखारी बना देने की पिता की गम्भीर धमकी और अकुलीना के बारे में सोचने लगा। पहली बार उसने साफ़ तौर पर यह देखा कि वह उसे बहुत प्यार करता है। किसान लड़की से शादी करने और अपनी मेहनत की कमाई पर जीने का रोमानी विचार उसके मस्तिष्क में आया। अपने ऐसे निर्णायक क़दम के बारे में वह जितना अधिक सोचता था, उसे वह उतना ही अधिक समझदारी का प्रतीत होता था। पिछले कुछ समय से वर्षा के कारण उनका प्रेम - मिलन नहीं होता था। उसने बहुत साफ़-साफ़ लिखावट और हृदय के दहकते उद्गारों के साथ अकुलीना को यह लिखा कि कैसे उनके सुख पर भयानक बिजली गिरनेवाली है और साथ ही विवाह का प्रस्ताव भी कर दिया। इस पत्र को वह फ़ौरन पत्र - पेटी यानी कोटर में रख आया और पूरी तरह सन्तोष अनुभव करते हुए बिस्तर पर चला गया ।

1. फ़ोनवीज़िन की 'घोंघाबसन्त' सुखान्ती नाटक का एक ज़मींदार पात्र, मूर्ख और खरदिमाग़ । – सं०

अगले दिन वह पक्का इरादे बनाये हुए तड़के ही मूरोम्स्की के यहां पहुंचा ताकि खुलकर बात कर ले। उसे आशा थी कि वह हृदय की उदारता की दुहाई देकर लीजावेता के पिता को अपने पक्ष में कर लेगा । "ग्रिगोरी इवानोविच घर पर हैं ?" प्रिलूचिनो की हवेली के सामने अपने घोड़े को रोककर उसने नौकर से पूछा ।

“नहीं, हुजूर, नौकर ने जवाब दिया, “ग्रिगोरी इवानोविच तो आज सुबह ही बाहर चले गये थे ।"

-"कितने अफ़सोस की बात है !"अलेक्सेई ने सोचा । लीजावेता ग्रिगोर्येव्ना तो घर पर होंगी ?"

-"जी, हुजूर!" अलेक्सेई घोड़े से कूदा, घोड़े की लगामें उसने नौकर के हाथ में पकड़ा दीं और अपने आने की सूचना दिलवाये बिना ही अन्दर चला गया ।

"अभी सब कुछ तय हो जायेगा, ” उसने मेहमानखाने के निकट पहुंचते हुए अपने मन में सोचा, “खुद लीज़ावेता से ही बात कर लूंगा । वह कमरे में दाखिल हुआ... और बुत बना खड़ा रह गया ! लीज़ा .. नहीं अकुलीना, उसकी प्यारी, सांवली - सलोनी अकुलीना सराफ़ान नहीं, बल्कि सुबह का हल्का-सा सफ़ेद फ्रॉक पहने खिड़की के सामने बैठी हुई उसका पत्र पढ़ रही थी । वह इतनी खोई हुई थी कि उसने अलेक्सेई के पैरों की आहट तक नहीं सुनी। अलेक्सेई अपने हर्षोदगार को अभिव्यक्ति दिये बिना न रह सका । लीज़ा चौंककर सिहरी, उसने अपना सिर ऊपर उठाया, चीख उठी और उसने भाग जाना चाहा । अलेक्सेई ने लपककर उसे रोक लिया । "अकुलीना, अकुलीना ! .." लीज़ा ने अपने को उससे मुक्त करने की कोशिश की... "Mais laissez-moi dona, monsieur; mais êtes-vous fou?"1 अपने को छुड़ाने का यत्न करते हुए वह लगातार दोहराती जाती थी । "अकुलीना ! मेरी प्यारी अकुलीना !" अलेक्सेई उसके हाथों को चूमते हुए बार-बार कह रहा था । यह सारा तमाशा देखनेवाली मिस जैक्सन यह समझने में असमर्थ थी कि इस सबका क्या अर्थ लगाये। इसी समय दरवाज़ा खुला और ग्रिगोरी इवानोविच ने भीतर प्रवेश किया ।

1. मुझे छोड़ दीजिये श्रीमान, आप क्या पागल हो गये हैं ?

"अरे, वाह !" पिता ने कहा, "लगता है कि तुम दोनों ने सब कुछ तय ही कर लिया है ..."

आशा है कि पाठकगण इस क़िस्से के अन्त का वर्णन करने के फ़ालतू काम से मुझे मुक्त कर देंगे ।

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : डॉ. मदनलाल 'मधु')

  • अलेक्सांद्र पूश्किन की रूसी कहानियाँ हिन्दी में
  • रूस की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां