प्रतिष्ठा और गौरव : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Pratishtha Aur Gaurav : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
"नमस्कार!" मंगल ने अपने मालिक बामदेव राय का अभिवादन किया। दोपहर के भोजन के बाद बामदेव राय अपने कक्ष में आराम कर रहा था।
"आओ मंगल आओ, बैठो," बामदेव राय ने कहा।
कटक का रहने वाला बामदेव राय एक साधवा था। यहां व्यवसायी को साधवा कहा जाता था। मंगल की आयु लगभग चालीस वर्ष थी और राय के यहां काम करते उसे बीस वर्ष से अधिक समय हो गया था।
"गांव में बड़े दिन लगा दिए मंगल। तुम्हें तो दो दिन पहले आना था। सब ठीक-ठाक तो है?" राय ने पूछा।
हर छह माह में मंगल अपने गांव जाया करता था। उसके परिवार में पत्नी और एक पुत्री थी। "जी मालिक, सब कुशल हैं," मंगल ने जवाब दिया, "एक शुभ समाचार भी लाया हूं। मेरी बेटी का ब्याह पक्का हो गया है। लड़का बहुत अच्छे परिवार का है, उसका अच्छा-खासा व्यापार है और नज़दीक के गांव में ही रहता है।"
"अरे वाहऽऽऽ! यह तो बहुत अच्छी बात है। कब है शादी?"
"अगले माह, कुमार पूर्णिमा के दो दिन बाद।"
"अरे भई! तैयारियां भी करोगे। कितने दिन की छुट्टी चाहिए तुम्हें?"
"दस दिन की, लेकिन सरकार, छुट्टी से ज़्यादा ज़रूरी है धन।"
"धन?" बामदेव राय ने हैरानी से पूछा।
"हां मालिक, मेरे पारिश्रमिक का वह हिस्सा जो दो सोने के सिक्कों के रूप में मैं वर्षों से हर महीने आपके पास जमा करता आ रहा हूं। मेरा अनुमान है कि अब तक कुल मिलाकर 2500 सिक्के हो गए होंगे।"
“अच्छा, अच्छा! तो तुम उस धन की बात कर रहे हो! हां, तुम्हारी वह अमानत मेरे पास सुरक्षित है। जब तुम गांव जाओगे, तो लेते जाना।"
खुश होकर मंगल काम पर चला गया। मन-ही-मन वह राय बाबू का धन्यवाद कर रहा था जिन्होंने उसे बचत करने का सुझाव दिया।
जाने से हफ्तेभर पहले मंगल छुट्टी मांगने बामदेव राय के पास पहुंचा।
"ठीक है मंगल, मेरी शुभकामनाएं सदा तुम्हारे साथ हैं। वर-वधू को मेरी ओर से आशीर्वाद देना," राय ने उससे कहा।
"अच्छा मालिक, मेरी अमानत तो दे दीजिए," मंगल विनम्रता से बोला।
बामदेव राय का चेहरा गंभीर हो गया। वह बोला, "अरे मंगल! मेरा एक जहाज़ उड़ीसा से सामान लेकर सुमात्रा गया है। तुम्हारा धन मैंने इसी सामान में निवेश किया हुआ है। जहाज़ को दस दिन पहले आ जाना था। सोचा था कि मैं तुम्हारे धन के साथ अच्छा लाभ तुम्हें उपहार में दूंगा।"
"तो फिर क्या हुआ? जहाज़ वापस आ गया?" मंगल ने पूछा।
"नहीं, खराब मौसम के कारण वह सुमात्रा में ही अटका है। तुम चिंता मत करो, जैसे ही जहाज़ लौटता है, मैं तुम्हारा धन गांव भेज दूंगा।"
"लेकिन मालिक, मेरे पास तो इतना रुपया है नहीं! अगर जहाज़ नहीं आया तो बिना रुपयों के मैं बेटी की शादी कैसे कर पाऊंगा?"
"अरे मंगल! इतने निराश क्यों होते हो? तुम कैसे कह सकते हो कि जहाज़ नहीं आ पाएगा। और मान लो कि नहीं भी आया तो क्या हुआ, मैं किसी से उधार लेकर तुम्हारे पास भिजवा दूंगा। रुपए मेरे पास थे, मैं अभी दे देता, लेकिन वे भी मैंने इसी माल में लगा दिए।"
उदास मन लिए मंगल गांव के लिए निकल पड़ा।
शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। दो दिन बीत गए, पर राय बाबू की कोई खबर नहीं थी। तीसरे दिन मंगल ने अपने भतीजे चंदन को बुलवाकर कहा, "मेरे मालिक के पास चले जाओ। कहना, मैं मंगल का भतीजा हूं और मंगल ने मुझे अपनी अमानत लेने के लिए भेजा है।"
चंदन चला गया और फिर वापस लौटते-लौटते उसे शाम हो गई।
"हां चंदन, बात बनी? क्या जवाब दिया मालिक ने," अभी चंदन घर में घुसा भी नहीं था कि मंगल ने पूछ लिया।
"नहीं चाचाजी!" निराशा से चंदन ने उत्तर दिया।
"क्या मतलब? तुमने बताया नहीं, तुम मेरे भतीजे हो।"
"बताया था चाचाजी, राय बाबू बोले, 'अच्छा हुआ तुम आ गए चंदन, वरना यह बुरी खबर लेकर मैं तुम्हारे ही गांव आने वाला था।' मैंने पूछा, "क्या बुरी खबर राय बाबू?" उन्होंने बताया, 'वह जहाज़ जिसमें तुम्हारे चाचाजी का रुपया लगा था, रास्ते में एक भयंकर तूफान से तबाह हो गया। उस जहाज़ के साथ सारी पूंजी भी डूब गई। मैं बरबाद हो चुका हूं। कोई मुझे उधार भी नहीं दे रहा कि मैं मंगल का रुपया लौटा सकूँ।"
पूरी बात सुनकर मंगल लड़खड़ा पड़ा। चंदन ने उसे संभाला। अगले दिन शादी थी। उसके पास कुछ नहीं था। ऐसे में कौन उसे उधार देता। मंगल की इच्छा थी कि वह बेटी को पचास सोने के सिक्के दे। यह भी अब सपने जैसा लगने लगा था। मंगल सिर पकड़कर रोने लगा। अधमरा होकर वह कोने में बैठ गया और वहीं उसकी आंख लग गई।
देर रात उठते ही उसकी नज़र अपनी पत्नी और बेटी पर गई। वे दोनों शांतिपूर्वक सो रहे थे। वह सोचने लगा, 'कल जब बारात दरवाज़े पर होगी तो वह किस मुंह से उनका स्वागत करेगा? जब दूल्हे और उसके परिवार को उसकी दयनीय हालत के बारे में पता चलेगा तो वे बारात वापस ले जाएंगे। इस रिश्ते को ही तोड़ देंगे। इसके बाद उसकी बेटी से शादी कौन करेगा? अब उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।' मंगल ने तय किया कि वह गांव के तालाब में डूबकर अपनी जान दे देगा। जैसे ही वह अपने घर से बाहर निकला, उसे किसी की परछाई दिखी।
"कौन है वहां?" तुरंत उसने पूछा।
तभी एक आदमी उसके सामने आ खड़ा हुआ।
"तुम!" मंगल ने हैरानी से पूछा। उसका कट्टर दुश्मन शंकर सामने खड़ा था। शंकर और मंगल के परिवारों में पिछले पचास वर्षों से कलह था। दो बार तो ऐसा भी हुआ था कि दोनों परिवारों में मार-पिटाई तक की नौबत आ गई थी। तब गांव के बड़े-बूढों ने उनके बीच सुलह कराई थी।
"इतनी रात गए तुम मेरे दरवाज़े पर क्या कर रहे हो?" मंगल ने पूछा।
"मंगल, मुझे मालूम है तुम कितने परेशान हो," शंकर ने जवाब दिया।
"तुम्हें किसने बताया मैं परेशान हूं? मैं किसी परेशानी में नहीं हूं।"
"तुम्हारा भतीजा चंदन शहर से लौटते समय मुझे मिल गया था। मुझे लगा, वह बहुत उदास है। जब मैंने उसकी उदासी का कारण पूछा तो पहले तो उसने कुछ भी बताने से मना कर दिया, लेकिन बहुत अनुरोध करने के बाद आखिर उसने बता ही दिया कि कैसे तुम्हारे मालिक ने तुम्हें धोखा दिया है। कैसे उसने तुम्हारी उम्रभर की कमाई को बरबाद कर दिया है।"
"तो तुम मेरी खिल्ली उड़ाने आए हो? मेरी दुर्दशा पर हँसने आए हो?"
"नहीं मंगल, मुझे गलत मत समझो। मैं तुम्हारी सहायता करने आया हूं।"
"सहायता करने! मुझे विश्वास नहीं होता!"
"मेरा विश्वास करो भाई। देखो, मैं कुछ लाया हूं। इसमें 2000 सोने के सिक्के हैं। मेरे पास इतने ही थे। इसमें तुम्हारा काम चल जाना चाहिए।
मंगल सिक्कों के थैले की तरफ बड़ी हैरानी से देखने लगा। इसके बाद वह बड़ी ललचाई नज़रों से शंकर को घूरने लगा। वह बोला, "तुम्हारी-हमारी तो दुश्मनी है, तुम मेरी मदद करने क्यों आए हो?"
शंकर ने अपनी बात रखनी शुरू की, "देखो मंगल, मेरी बेटी भी तुम्हारी बेटी की उम्र की है। मैं तुम्हारी मनोव्यथा समझ सकता हूं। मैं जानता हूं कि अगर यह शादी टूट गई तो तुम्हारे परिवार को कितने दुख झेलने पड़ सकते हैं। वैसे भी तुम्हारी बेटी सिर्फ तुम्हारी ही नहीं बल्कि पूरे गांव की बेटी है। तुम्हारा मान पूरे गांव का मान है। कल अगर दूल्हा बारात वापस ले गया तो क्या पूरे गांव का नाम बदनाम नहीं हो जाएगा? अरे भाई, अब पुराने झगड़े भूल जाओ और मिलकर गांव की प्रतिष्ठा बचाओ।"
"मैं किस मुंह से तुम्हारा धन्यवाद करूं शंकर भाई," थैला लेते हुए मंगल सिर झुकाकर बोला।
"अरे धन्यवाद तुम बाद में करते रहना। अभी तो सो जाओ। सुबह उठकर हमें ढेर सारी तैयारियां करनी हैं," शंकर मुस्कराते हुए बोला।
***
शंकर की इस मदद से सभी काम समय पर होते चले गए और मंगल की बेटी ससुराल के लिए विदा हो गई।
"बस, अब एक काम शेष रहा गया है," शंकर ने मंगल से कहा।
"क्या रह गया है भाई?"
“अब हमें जाकर उस दुष्ट बामदेव राय से तुम्हारे रुपए वापस लेने हैं। मैंने सब पता करवा लिया है। माल से भरा जहाज़, सुमात्रा और तूफान, सब झूठ था। वह धोखेबाज़ तुम्हारी मेहनत की कमाई को पहले से ही हड़प चुका था और तुम्हें मूर्ख बनाने के लिए ही उसने तुम्हारे सामने झूठ का यह पुलिंदा तैयार किया था." शंकर गुस्से से बोला।
"लेकिन अब मेरी उम्रभर की बचत वापस कैसे आ पाएगी?"
"तुम चिंता मत करो मंगल। मेरा एक संबंधी राजा का अंगरक्षक है। इस मामले में वह हमारी अवश्य मदद करेगा," शंकर ने आश्वासन दिया।
मंगल और शंकर, दोनों राजमहल पहुंच गए। अपने रिश्तेदार से मिलकर शंकर ने सारी कहानी उसे कह सुनाई। वह स्वयं उनके साथ बामदेव राय के घर चलने को तैयार हो गया।
तीनों बामदेव के घर जा पहुंचे। पहले तो राजा के अंगरक्षक ने शांतिपूर्वक ढंग से बामदेव राय को मंगल के रुपए लौटाने को कहा। अपने बचाव के लिए राय चालाकी दिखाने लगा, लेकिन जब अंगरक्षक ने उसे जेल में डाल देने की धमकी दी तो तुरंत उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। बामदेव राय ने मंगल का पूरा धन वापस कर दिया। इसके बाद अंगरक्षक राय को घसीटते हुए राजा के दरबार में ले गया।
“जिस मालिक के लिए मैंने बीस वर्षों तक अपना खून-पसीना एक कर दिया, उसी ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा किया। वह मेरी जिंदगीभर की कमाई हड़प गया। और एक तुम हो शंकर भाई, मैं तुम्हारे खून का प्यासा बना रहा। फिर भी तुमने मेरी इतनी बड़ी मदद की। मेरा सम्मान और जीवन बचाया," मंगल ने शंकर से कहा। मंगल की आंखों में कृतज्ञता के आंसू थे।