प्रथम दुःख : फ़्रेंज़ काफ़्का

कलाबाजी के झूले का कलाकार, विभिन्न प्रकार की बड़ी नाट्यशालाओं के ऊँचे मेहराबदार गुंबदों में अभ्यास किया जानेवाला यह कला निस्संदेह मानवता द्वारा प्राप्त किए जानेवाले कठिनतम कामों में से एक है, ने अपना जीवन इस प्रकार व्यवस्थित कर लिया है कि जब तक वह उसी इमारत में काम करता रहता है, वह कभी भी अपने झूले से दिन या रात कभी नीचे नहीं उतरता, प्रथमतः अपनी कुशलता में श्रेष्ठता प्राप्त करने के कारण, और दूसरी चीज उनके लिए बहुत प्रकार से कठोर होने के कारण। उनकी जरूरतें भी छोटी-छोटी होती थीं, जो नीचे से देख रहे परिचारकों द्वारा पूरी कर दी जाती थीं । उन्हें जो कुछ की भी जरूरत होती थी उसे एक विशिष्ट रूप से तैयार पात्र में भरकर ऊपर भेज दिया जाता था और पुनः इसे वापिस खींच लिया जाता था। जीवन के इस ढंग से नाट्यशाला के कर्मियों को कोई विशिष्ट असुविधा नहीं होती थी, सिवाय इसके कि जब दूसरे लोग स्टेज पर होते थे तो उसे फिर भी ऊपर ही झूलते रहना पड़ता था, जिसमें कुछ हेर-फेर नहीं किया जा सकता था, क्योंकि यह ध्यान भंग करनेवाला माना जाता। यह भी तथ्य है कि ऐसे समय में वह अधिकांशतः स्थिर रहता था तथा लोगों की भूली- भटकी निगाहें उस पर पड़ती रहती थीं। फिर भी प्रबंध इस बात की अनदेखी करता था, क्योंकि वह एक अद्भुत एवं विलक्षण कलाकार था । निस्संदेह यह बात मालूम थी कि इस तरह का जीवन कोई आसान नहीं था तथा सिर्फ इसी तरह ही वह स्वयं को वास्तव में निरंतर अभ्यास में रख सकता था तथा अपनी कला को श्रेष्ठता के चरम पर ।

इसके अलावा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी उसका वहाँ टिका होना काफी फायदेमंद था। गरमी के मौसम में नाट्यशाला के गुंबद की सभी खिड़कियाँ खोल दी जाती थीं, जिनसे धुँधियाले मेहराबों पर पर्याप्त धूप एवं ताजा हवा आती थी, जो कि और भी सुंदर लगती थी । यह सच है कि उसका सामाजिक जीवन कुछ हद तक सीमित था, कभी-कभी साथी कलाबाज सीढ़ियाँ चढ़कर उसके पास आ जाता था और तब दोनों ही उस झूले में बैठ जाते, सहारा देनेवाली रस्सी के दाई एवं बाई ओर झूलते एवं आपस में बातें करते या बिल्डर के मजदूर, जो छत की मरम्मत कर रहे होते थे, खुली खिड़की से वे कभी-कभी उनसे बातें कर लेते या ऊपर की गैलरी में आपातकालीन बत्तियों की जाँच कर रहे, उसे पुकारकर कुछ बातें करने लगते, जो सुनने में तो सम्मानपूर्ण लगता, लेकिन समझ में कुछ नहीं आता। इसके अतिरिक्त उसके एकांतवास में और कोई व्यवधान नहीं था । कभी-कभी दोपहर के समय खाली नाट्यशाला के इधर-उधर घूमते कर्मी विचारपूर्वक छत की उस ऊँचाई पर देखते, जहाँ तक नजर की सीमा पहुँचती और झूले का कलाकार, इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ कि उसे कोई देख भी रहा है या तो अभ्यास कर रहा होता या विश्राम कर रहा होता है ।

झूले का यह कलाकार इस तरह शांतिपूर्वक रहने के लिए जा सकता है, यदि एक स्थान से दूसरे स्थान तक की अनिवार्य यात्रा उसे न करनी होती । ये यात्राएँ अत्यधिक तनावपूर्ण थीं । निस्संदेह उसका प्रबंधक इस बात का ध्यान रखता था कि आवश्यकता से अधिक एक क्षण के लिए भी उसका कष्ट लंबा न हो। शहर की यात्रा के लिए तेज गति से चलनेवाले वाहन प्रयुक्त होते थे, जो यदि संभव होता तो रात में नहीं तो सुबह-सवेरे खाली सड़कों पर तेज गति से जाते उसे तेजी से घुमा देते थे, जो कि कलाबाजी झूले के कलाकार के धैर्य के लिए बहुत ही धीमा होता था । रेल यात्रा के लिए एक पूरा डिब्बा आरक्षित किया जाता था, जिसमें कलाबाजी के झूले के कलाकार को संभव विकल्प के तौर पर उसके जीवन के सामान्य ढंग के विपरीत घटिया ढंग से उसे अपना समय सामान रखनेवाले रैक पर बिताना पड़ता था। अपने दौरे पर अगले शहर में उसके पहुँचने से पहले ही झूला नाट्यशाला में लटका होता था तथा स्टेज पर जानेवाले सभी दरवाजे चारों ओर से खोल दिए जाते हैं, सभी गलियारे खुले रहते हैं, फिर भी प्रबंधक को एक क्षण की भी खुशी तब तक नहीं होती है, जब तक कि कलाबाजी का कलाकार पलक झपकते ही रस्सी की सीढ़ियों पर अपने कदम रखकर अंततः ऊपर लटकते झूले पर नहीं पहुँच जाता है।

प्रबंधकों द्वारा अनेक सफल यात्राओं की व्यवस्था के बावजूद, हर नया प्रदर्शन उसे पुनः लज्जित कर देता और हर कुछ के बावजूद भी यह कलाकार के लिए बड़ा तनावपूर्ण होता था।

एक बार जब वे सभी एक साथ यात्रा कर रहे थे, कलाबाजी के झूले का कलाकार सामान के रैक पर चढ़ा सपने देख रहा था, प्रबंधक उसके सामनेवाली खिड़की के साथवाली सीट पर पीछे झुककर पुस्तकें पढ़ रहा था, कलाबाजी के झूले का कलाकार धीमी आवाज में अपने साथियों को संबोधित कर रहा था। अचानक प्रबंधक का ध्यान उस ओर गया। कलाबाजी के झूले के कलाकार ने अपने होंठ काटते हुए कहा कि भविष्य में उसे अपने प्रदर्शन के लिए हमेशा दो कलाबाजी के झूले रखने चाहिए न कि एक और वे दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने रहेंगे। प्रबंधक शीघ्र ही तैयार हो गया। लेकिन कलाबाजी के झूले के कलाकार ने प्रबंधक को यह दिखाने के लिए कि उसकी बात का कोई महत्त्व नहीं है, कहा कि, " परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों वह पुन: कभी भी कलाबाजी के एक झूले पर प्रदर्शन नहीं करेगा ।" यह घटित होने की लगभग नगण्य संभावनाओं ने भी उसे भयभीत कर दिया। प्रबंधक ने सावधानीपूर्वक उसकी बातों को समझते हुए, अपनी पूर्ण सहमति पर एक बार फिर जोर दिया, इसकी पट्टी होने के फायदे के अलावा, प्रदर्शन में भी विविधता लाई जा सकती है। यह सुनते ही कलाबाजी के झूले का कलाकार अचानक फूट-फूटकर रोने लगा । बूरी तरह से घबराया हुआ प्रबंधक तेजी से खड़ा हो गया और उसके रोने का कारण पूछा। कोई जवाब न पाकर वह अपनी सीट पर चढ़ गया और उसे गालों से चूमने लगा, जिससे कि उसका अपना चेहरा भी कलाबाजी के झूले के कलाकार के आँसुओं से गीला हो गया । फिर भी वह तब तक पूछता और पुचकारता रहा, जब तक कि उसका रोना बंद होकर सिसकियों में न बदल गया, फिर वह बोला, "मेरे हाथों में सिर्फ एक पट्टा, मैं कैसे जीऊँगा ।" इससे प्रबंधक को उसकी तसल्ली कराने में थोड़ी राहत मिल गई। उसने वायदा किया कि उनके दौरे में आनेवाले पहले शहर में कलाबाजी का दूसरा झूला लगाने का संदेश वह अगले स्टेशन से दे देगा। फिर उसने कलाबाजी के एक ही झूले पर उसे इतने लंबे समय तक काम करते रहने देने के लिए स्वयं को फटकार लगाई और इस गलती की ओर उसका ध्यान आकृष्ट करने के लिए उसने उसका धन्यवाद किया एवं दिल से प्रशंसा भी की । इस प्रकार धीरे-धीरे वह कलाबाजी के झूले के कलाकार को पुनः आश्वस्त करने में सफल हो पाया और अपने स्थान पर वापिस जा पाया। लेकिन उसका अपना मन आश्वस्त नहीं था और गहरी बेचैनी के साथ वह चुपचाप पुस्तक की ओट से कलाबाजी के झूले के कलाकार को देख रहा था। एक बार यदि ऐसा विचार परेशान करने लगे, तो, फिर उनसे क्या कभी पीछा छूट सकता है? बल्कि जरूरत के समय क्या वे और ज्यादा बढ़ नहीं जाएँगे? क्या उससे उनका अपना अस्तित्व ही संकट में नहीं पड़ जाएगा? और वास्तव में प्रबंधक को यह विश्वास हो गया कि रोने के बाद प्रकटतः आनेवाली शांत नींद में कलाबाजी के झूले के कलाकार के बच्चे जैसे चिकने माथे पर उतरनेवाली चिंता की लकीरों को वह देख सकता है।

(अनुवाद: अरुण चंद्र)

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