Prateek Chitra (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk

प्रतीक चित्र (कहानी) : रामगोपाल भावुक

जिस दिन अनुराग शेष-शैया पर विश्राम करते भगवान विष्णु और उनके चरण दबाते हुए लक्ष्मी जी का चित्र अपने पिताजी के कक्ष में लगाने गया था। उस दिन रागिनी का दिल बुरी तरह धक-धक कर रहा था,

.........हुआ ये था कि रागिनी घर के काम-काज से निपटकर दोपहर ढले प्रति-दिन की तरह ढोलक पर रियाज करने बैठी। मौहल्ले भर में यह पता है कि अनुराग की पत्नी रागिनी पढी-लिखी है, उसे ढोलक पर अलग-अलग ताल निकालने आते हैं।

किसी के यहाँ जन्मदिन का उत्सव हो अथवा भजन-कीर्तन का, एक ही पुकार होती बुलाओ रागिनी बहू को। रागिनी की सास विनीता देवी को अपनी पुत्रवधु पर बड़ा नाज है। हर किसी से कहतीं फिरतीं हैं-‘हमारी रागिनी के इस गुण की चार जगह पूछ-परख है। दो-चार औरते मिल-बैठकर हमारी रागनी के बिना भजन-कीर्तन नहीं कर पातीं।’

रागिनी ढोलक पर तन्मय होकर रियाज कर रही थी, उसी समय उसकी सासू माँ विनीता देवी उसके पास आकर बोली-‘नौ दुर्गाओं का उत्सव चल रहा है। आज नन्दनी बहन के यहाँ भजन-कीर्तन हैं। जल्दी से तैयार होकर उनके यहाँ चली जाओ। किसी के यहाँ से सत्रह बार बुलाना आये, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम्हें जाने में देर हुई कि सभी पीठ पीछे कहेंगी कि सास ने काम में लगा लिया होगा।’

रागिनी रियाज छोडकर उठी और अपने कमरे में जाकर तैयार हुई। कार्यक्रम में पहुँचने के लिए तेज कदमों से यह सोचते हुए चल दी-

शिव प्रिया देवी पार्वती शक्ति का पुंज है। इन्हीं से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। इनके नौ रूप होते हैं। नव दुर्गाओं के नौ दिनों में प्रत्येक दिन अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है,दुर्गा शप्तसती की कथा के अनुसार रक्त जीव के विनाश हेतु पार्वती जी द्वारा रखा गया माँ काली का रूप बहुत ही विकराल है।

जिस समय माँ काली ने राक्षस को मारने रौद्र रूप धारण किया और वे विकराल गुस्से का में थीं कि पति धर्म का निर्वाह करते हुए उन्हें शांत करने के लिये रुद्र ने पति पत्नी को परस्पर पूज्य मानते हुए उनके चरणों में लेट गये थे। उनके रुद्र पर पैर पड़ते ही माँ काली की लज्जा और पश्चाताप में जीभ निकल आई थी।’

आज उन्हीं की आराधना में भजन-कीर्तन हैं।

.. और गाना-बजाना शुरू होने से पहले ही नन्दनी के घर जा पहुँची।

उसके पहुँचते ही नन्दनी उल्लास में बोलीं-‘लो अब देर किस बात की, ढोलक बजाने के लिये रागिनी आ ही गई है, दो-चार भजन गा लें।’

सभी भजन गाने बैठ गईं। ढोलक के ताल में स्वर मिलाकर चार-छः भजन गाये और फिर बतियाने लगीं।

औरतों के मध्य बैठी नन्दनी अपना प्रभाव जमाने के लिये बोली-‘सारे दिन घर के काम-काज में लगी रहती हूँ। रात बेसुध सो जाती हूँ। जब कभी चिन्टू के पापा को मुझ पर दया आती है तो वे मेरे बिस्तर पर पैताने आकर बैठ जाते हैं और धीरे-धीरे मेरे पैरों को दबाने लगते हैं। मैं कुनमुनाते हुए कहती हूँ , हम तो इतने थक जाते हैं कि आपके पैर ही नहीं दबा पाते। आप हैं कि हमें पाप में डाल रहे हैं।’

वे मुझे समझाते हैं-‘परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीड़नम्। मैं देखता हूँ तुम घर के काम-काज में इतनी थक जाती हो कि रात बिस्तर पर लेटते ही दर्द से बेसुध सो जाती हो।’

औरतों को चकित जान नंदिनी उन्हें और अधिक आश्चर्य में डालने को उतारू हो गई-

‘क्या कहूँ बहन ? वे पाप-पुण्य की ऐसी बातें करते जाते हैं और मेरे पैर भी दबाते जाते हैं।’

पास बैठी सुनीता को लगा-झूठी कहीं की। ससुरी घण्टों खसम के पैर दबाती है। सुना है जिस दिन ये पैर नहीं दबाती उस दिन दुचती भी है।

यह बात चित्त में आने पर सुनीता ने अपनी बात कही-‘आप देखती हैं, मेरी लड़कियाँ घर का सारा काम-काज सभ्हाले हैं। बंटी के पापा की जब मुझ से अटकती है तो वे ही पैर दबाने आ जाते हैं। मैं भी उनसे जमकर पैर दबबाती हूँ, तब कहीं...’

उसकी गप्प सुनकर बंदना ने अपने नथुने फुला लिए। सारे मौहल्ले को पता है इसके घर में कितनी चिल्ला-चोंट मची रहती है। क्या करूँ? वक्त -बेवक्त दाम पैसे से मेरा काम भी चला देती है। यह सोचकर तो बंदना की भाषा में नरमी आ गर्ह और बोली-‘बहिन तुम ठीक हो। अब तो औरतों को तुम्हारे जैसा ही बनना पड़ेगा। ’

उसकी बात से सुनीता विद्रोही तेवर प्रगट करते हुए बोली-‘पैर दबाने का ठेका क्या हम औरतों ने ले रखा है? श्रीमान् दफ्तर से आयें, हम उनकी सेवा में हाजिर रहें। उनके घर में घुसते ही उनसे मुस्कराकर बोलें। उनके जूते-मोजे उतारें, खाना बनाकर खिलाये। कहीं कुछ कमी रह गई तो बच्चों की तरह डांट सहें। पिटें।’

बंदना ने अपनी शान बघारी-‘मेरे वो तो इतना अच्छा खाना बनाते हैं कि खाते-खाते जीभ कट जाती है।’

नन्दनी को पता है-इसकी माँ ने इसे कुछ नहीं सिखाया। इसे तो खाना बनाना ही नहीं आता। सुना है इसकी सास ने इसे खरी-खोटी सुना-सुनाकर खाना बनाना सिखाया है। यह सोचकर बोली-‘हमें सब पता है कि किसके यहाँ क्या हो रहा है? लेकिन अपनी जाँघ उघारें तो अपयी ही लाजन मारें।’ यह सुनकर बंदना कसमसा कर रह गई।

इन सब में सबसे छोटी उम्र की रागिनी ही थी, वह चुपचाप इनकी बातें सुन रही थी। रागिनी की ओर मुड़कर सुनीता ने मजा लेने के लिए पूछा-‘री, रागिनी... तेरा स्वामी कौन सा राग अलाप रहा है? तू भी तो इस यज्ञ में अपनी कुछ आहुती डाल। नहीं कहेगी कि मैं ढोलक बजाने की इतनी बड़ी जानकार मुझे किसी ने भी नहीं पूछा।’

रागिनी को लगा- ये कैसी हैं ? इनके तो कथनी- करनी में बहुत ही अन्तर है। वह संकोच में आँखें नीची करके मर्यादा में रहते हुए बोली-‘वे तो यों ही हैं... कभी दुःखी-बीमारी में मैं ही उनके पैर दबाने की कहती हूँ तो वे कहते हैं, इसी सेवा भावना ने हमारे समाज में आदमी को छोटा- बड़ा बना दिया। हमारे देश की जाति प्रथा मुझे ऐसी ही भावना की देन लगती है। इसलिये मैं इस पैर दबाऊ परंपरा का विरोधी हूँ।

रागिनी की इस बात पर सुनीता झट से बोली-‘री, तेरा आदमी कैसा सिद्धांत वादी है! अपना सिद्धांत ऊंट की पूँछ की तरह पकड़कर बैठ गया है, न हो तो, तू ही दबवा लिया कर उससे अपने पाँव।’

‘अरे हट चाची! जो अपने पैर नहीं दबवाते, वे क्यों...?’

कौशल्या जो अब तक चुप-चुप बैठी थी, रागिनी का समर्थन करते हुए बोली-

‘री, तू ठीक कहती है जो पैर दबवाते हैं, वे ही पैर दबा भी देते हैं।’

इस पर बंदना ने अपना अनुभव बताया-‘तुझे जाने किस भाग्य से ऐसा पति मिला है, नहीं सब एक से होते हैं। सभी को औरतों का खून पीने में मजा आता है। ...नन्दनी बहन ने नौ दुर्गाओं में भजन के लिये बुलाना भेज दिया तो आना ही था।’

उसकी बात सुनकर नन्दनी बोली-‘भजन-कीर्तन तो एक बहाना है। इस बहाने हम सब ने हँस-बोल लिया। ऐसे कार्यक्रम न हो तो हम घरों में ही खटती रहें। यहाँ आकर अपना दुख-सुख बाँट लिया, मन हल्का हो गया।’

पोपले मुँह वाली मौहल्ले भर की चाची रामदेवी चुपचाप इन सब की बातें सुन रही थीं। वे समझ र्गइं कार्यक्रम समाप्ति पर है। हर बार की तरह अब उन्हें कोई न कोई कथा सुनानी ही है। यह सोचकर बोलीं-‘तुम लोगों की गपोड़ें बन्द हो गई हो तो चलते- चलते एक कथा सुनतीं जायें।’

सभी का स्वर गूंजा-‘जी चाचीजी, कार्यक्रम की पूर्णाहूती तो, कोई न कोई पौराणिक कथा कहकर आप ही करतीं आई हैं। आप कथा कहें-

अब चाची हर बार की तरह तनकर बैठते हुए बोलीं-‘आज बड़ी देर से आप सब की गपोड़ें सुन रही थी। इसी परिवेश को स्पर्श करती कथा कहती हूँ, ध्यान से सुनें-एक बार भगवान शंकर की क्रोधाग्नि से तेज उत्पन्न हो गया। उसे उन्होंने समुद्र में प्रवाहित कर दिया। जिससे जालंधर का जन्म हुआ। आगे चलकर वह शंखचूर्ण राक्षस के नाम से भी प्रसिद्ध हो गया। उसका ब्याह वृन्दा देवी के साथ हो गया।

जालंधर ने घोर तप करके शंकर जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे वरदान मांगा -‘मेरी पत्नी वृन्दा सदा सुहागिन रहे।’

उन्होंने उसे यह बारदान दे दिया-‘तथास्तु।’

उसके बाद तो जालंधर ने समझ लिया कि वह अब अमर हो गया है। वह लोगों पर अम्याचार करने लगा। उसके अत्याचारों को देखकर भगवान विष्णु ने शंकर जी के पास जाकर कहा-‘आपने जालंधर को यह क्या वरदान दे दिया? आपका वरदान पाकर वह बहुत ही अत्याचारी हो गया है।’

शंकर जी बोले-‘हे नारायण, आप चिन्ता नहीं करें इसका बध तो मैं कर सकता हूँ पर आपको इसमें सहयोग करना पड़ेगा।’

वे बोले-‘ कहें। मैं इसमें आपको कैसे सहयोग कर सकता हूँ।’

शंकर जी ने कहा-‘ आप छल से जालंधर की पन्नी वृन्दा का सतीत्व हरण कर लें। मैं उसी समय उसका बध कर दूंगा।’

इधर शंकरजी ने उसे युद्ध के लिये ललकारा, उधर भगवान विष्णु वृन्दा के यहाँ जाने लगे तो लक्ष्मी जी ने उनके पैर पकड़ लिये, बोलीं-‘ प्रभु आप ऐसा न करें। मेरा और जालंधर का जन्म समुद्र से हुआ है। इसलिये वह मेरा भाई है। आप ने ऐसा किया तो मेरा भाई जालंधर मारा जायेगा।’

उधर दूसरे रूप में जाकर भगवान विष्णु ने वृन्दा के शील का हरण कर लिया। उधर शील का हरण होते ही शंकर जी ने उसकी हत्या कर दी। वृन्दा समझ गई, मेरे साथ छल हुआ है। उसने पूछा-‘आप कौन हैं? सच सच बताओ, अन्यथा में तुम्हें शाप देती हूँ।’

भगवान विष्णु ने असली रूप में आकर सारी बात उसे बतला दी। तो भी उसने शाप दिया-‘ जिस अंग से आपने मेरा शील हरण किया है, आपका वह अंग शिलावत हो जाये।’

शालिग्राम की उत्पति का यही रहस्य है। उसी समय से देव उठानी ग्यारस के दिन सालिगाम और तुलसी का ब्याह धूम-धाम से किया जाता है।

अब रामदेवी चाची बोलीं-‘ तुम सब सोचतीं हो, लक्ष्मी जी भगवान विष्णु के पैर दबा रहीं है। ऐसा चित्र हम सभी को देखने में आता है। सच तो यह है लक्ष्मी जी द्वारा अपने भाई जालंधर को मारने से भगवान विष्णु को रोकने के प्रयास का यह चित्र सामने आता है। हम सब ने उस चित्र को पैर दवाउ परंपरा की घरोहर मान लिया। यह चित्र मिथक है।

यह सुनकर नन्दनी बहिन उठी। उसने प्रसाद की थाली उठाकर सुनीता की ओर बढाते हुए कहा-‘लो, बहिन प्रसाद बाँट दो।’

सुनीता उठकर प्रसाद के लड्डू बाँटने लगी। अंत में लड्डू रागिनी को देते हुए बोली-‘ले, इसे अपने बांके बिहारी को भी खिला देना जिससे उसकी बुघ्दि ठीक हो जाएगी।’

यह बात सुनकर सभी खिलखिलाकर हँस पडी थीं।

लौटते समय रागिनी का चित्त पैर दबाने वाले प्रसंग के इर्द-गिर्द मंड़राने लगा। परसों के कार्यक्रम में चाची रामदेवी से सुना यह प्रसंग स्मृति में घेरा बनाने लगा मैंने ही यह कथा कल अनुराग को सुनाई थी- संस्कृत साहित्य के गौरव वाणभट्ट द्वारा लिखी गई सम्राट तारापीड़ की है यह कथा-

एक बार की बात है उज्जयनी के सम्राट तारापीड़ ने कुलूत पर हमला किया था। दोनों में सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ और उसमें कुलूत के राजा का सारा परिवार स्वाहा हो गया। केवल कुलूत के राजा की कन्या पत्रलेखे पालने में बिलख रही थी। करुणा विव्हल होकर इस कन्या को महाराज तारापीड़ अपने साथ ले आए।

महारानी विलासवती ने उसका पालन-पोषण किया। महाराज तारापीड के एक मात्र पुत्र चंद्र्रापीड एवं पत्रलेखे का साथ- साथ लालन पालन हुआ। सुन्दरता की खान पत्रलेखे के प्रति किशोरावस्था से ही आसक्त रहे चन्द्रपीड़ का युवा होने पर पत्रलेखे से प्यार हो गया। एक दिन उसने पत्रलेखे को अपने आलिंगन में लेने का प्रयास किया। वह छिटककर दूर जा खडी हुई।

चंद्रापीड को बहुत बुरा लगा। उसने उससे इसका कारण पूछा तो वह संकोच करते हुए बोली-‘एक दिन की बात है, रात्रि के समय देवी विलासवती ने मुझे राजा के पैर दबाने के लिये भेज दिया, पैर दबाते-दबाते मुझे झपकी आने लगी तो मैने अपने आपको महाराज तारापीड के अंक में पाया।’

यह बात सुनकर चन्द्रापीड महारानी विलासवती पर क्रोध व्यक्त करते हुए बोला- ‘छिः छिः छिः । उन्हें राजा के चरण दबाने के लिये पत्रलेखे को नहीं भेजना चाहिये था। इसमें राजा-रानी की मिली-भगत हो सकती है। किन्तु पंडित लोग तो तुम से यही कहेंगे दोषी तो तुम ही हो, क्योंकि सेवा में कभी प्रमाद नहीं आना चाहिये।’

रागिनी सोच रही थी कि यह पैर दबाने की परंपरा हमारे साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। ...हमारे मौहल्ले की सुन्नो चाची अपने ससुर के रोज पैर दबाती हैं। वे कहती हैं कि जब तक उनके पैर न दबाओ उन्हें नींद नहीं आती। सुना है- ससुर-बहू में खिचड़ी पक गई है! ये कैसा ससुर है और ये कैसी बहू। न पिता को पुत्री दिख रही है न पुत्री को पिता। सुना है, सुन्नो सोचती है, ससुर को हाथ में लिये रहो तो उनकी सारी जायदाद हड़पने को मिल जाएगी।

जो ससुर यह चाहते हैं कि उनकी पुत्रवधू उनकी सेवा करे। ये कैसे अजीब चलन हैं। मैं सेवा करने का विरोध नहीं करती किन्तु असाध्य होने की स्थिति में ससुर की ऐसी सेवा करना परम कर्तव्य है। यह घोर कलियुग है, ऐसी पैर दबाऊ सेवा का मैं विरोध करती हूँ, क्योंकि नारी द्वारा पैर दबाने की परंपरा में सम्पूर्ण समपर्ण की भावना छिपी है।

यही सोचते हुए वह घर लौट आई। सीधे अपने कमरे में पहुँच गई। चूड़ियाँ बदलीं। कपड़े बदले। अब घर के मुख्य कक्ष में लगा वह चित्र चित्त में समा गया, जिसमें भगवान विष्णु शेष शैय्या पर लेटे हैं। लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रहीं हैं। यह सोचते हुए वह उसी चित्र के सामने जाकर खड़ी हो गई।

वह इसी सोच में डूबी थी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब से अनुराग उसके पास आकर खड़ा है। उसे सोच में डूबा देखकर उसने पूछा-‘तुम इस चित्र में क्या देख रही हो? इसको पिताजी ने यहाँ लगाया है।यह चित्र तो मिथक है। ’

रागिनी बोली-‘आप पैर क्यों नहीं दबबाते? ’

सामने चित्र पर दृष्टि डालते हुए अनुराग ने उत्तर दिया-‘क्योंकि तुम भी तो मुझसे पैर नहीं दबवातीं?’

’आप पुरुष हैं। इस चित्र में देख ही रहे हो, आप को पैर दबबाने का अधिकार प्रभु की ओर से प्रप्त है।’

’देख रागिनी, इस बात में कई रहस्य छिपे हैं। मैं सोचता हूं- आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो स्त्री-पुरुष एक ही हैं, उनमें भेद कहाँ! किसी को छोटा बड़ा मानना उस परम सत्ता का अपमान है।’

’और सामाजिक दृष्टि से देखें तो आपका स्थान बड़ा है।’

अनुराग ने समझाया-’ तुम्हे शायद पता हो, लक्ष्मी जी पैर नहीं दाब रहीं है वल्कि उन्हें अपने भाई जालंधर को मारने जाने से बचाने के लिए उनके पैर पकड़कर रोक रही हैं।’

रागिनी झट से बोली-‘ आज हमारे सत्संग में रामदेवी चाची ने यही कथा कही थी। लेकिन किसी को मारने जाने से रोकने में और पैर दवाने के चित्रों में साम्य नहीं हो सकता। हमारे घर जो चित्र लगा है वह पैर पकड़कर रोकने वाला नहीं है। वल्कि साफ- साफ सेवा भावना से पैर दवाने वाला चित्र है।’

अनुराग ने उसे समझाने का प्रयास किया-‘ मैं यही कह रहा हूँ। अधिकार तो छीने जाते हैं। यह जो चित्र देख रही हो, ऐसे ही अधिकार छीनने की साजिश का यह एक अंग है। लोगों ने इस बहाने अधिकार छीने है।’

रात जब अनुराग सोने के लिये अपने कमरे में पहुँचा, रागिनी उसकी प्रतिक्षा में बिस्तर पर पड़ी सोच रही थी कि पति के पैर दबाने की भावना के अनेक लाभ भी हैं। पत्नी पैर दबाते समय जो-जो बातें पति देवता से कहती है, नैतिक रूप से उन बातों का मानना पति का कर्तव्य हो जाता है। इस प्रकार स्त्री अपनी अनैतिक बात भी उससे मनवा लेती है।

अनुराग जब बिस्तर पर लेटा, रागिनी उसके पैर दबाने बैठ गई। अनुराग उसे झिड़कते हुए बोला-’आज तुम्हें जाने ये क्या हो गया है ? जो पैर दबाने बैठ गईं। बोलो - क्या चाहिए तुम्हें?’

रागिनी ने निवेदन किया-‘मैं आपसे कुछ मांग नहीं रही हूँ। वल्कि इस आचरण को सिखाने वाला चित्र हमारे घर के मुख्य कक्ष में जो लगा है।’

’....ओ अब समझा! वह प्रतीक चित्र आपको इस कार्य के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।’

रागिनी ने समझाया-‘देखो, इसमें पौराणिक रहस्य छिपा है।’

यह सुनकर अनुराग बिस्तर से उठा। रागिनी ने पूछा-’कहाँ... चले....!’

’कहीं नहीं........ अभी आया।’ यह कहते हुए वह कक्ष से बाहर निकल गया। कुछ क्षणों बाद वापस लौटा तो उसके हाथ में वही चित्र था। उसने उसे रागिनी को दिखाते हुए पूछा-’अब इस चित्र का क्या करें ?’

रागिनी ने सोचते हुए उत्तर दिया-’इसे तो पिताजी के कक्ष में लगा दें। ये उनके इष्ट का प्रतीक है, इससे उनकी निकटता उससे और बढ़ेगी।’

अनुराग सोच में खो गया-हम साहित्य में रूपक और प्रतीकों के सहारे अपनी बात लोगों के हृदय तल तक पहुँचाने का प्रयास करते रहते हैं। पाठक उसे आसानी से ग्रहण भी कर लेते हैं।

एक क्षण बाद सांस लेकर बोला-‘ चित्रों के माध्यम से हम, विषय बस्तु को पूरी तरह समझ लेते हैं।’

रागिनी बोली-‘प्रतीक कभी भी यर्थाथ नहीं होता,बल्कि रचनाकार की कल्पनाशीलता उसे रूप बदलकर जन सामान्य तक पहुंचा देती है। जैसे कि इस चित्र में शेष शैया के आस- पास गरुण,हिरम्भ और नारद भी उपस्थित है तो यह चित्र विष्णु दम्पति के रास-विलास के क्षणों का नहीं है, वल्कि विष्णु जी को रोकने का ही है। इस बात पर दोनों ही अन्र्तमुखी हो सोच में डूब गये।

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