प्रस्तावना : रवीन्द्रनाथ के नाटक : प्रमथनाथ बिशी
Prastavana-Rabindranath Tagore Ke Natak : Pramathanath Bishi
१
संख्या और रूप की विविधता की दृष्टि से रवीन्द्रनाथ के नाटकों की संख्या कम नहीं है । संख्या और श्रेणी-वैचित्र्य के मापदण्ड के आधार पर विचार करने से उनके काव्य के उपरान्त ही नाटकों को स्थान देना पड़ता है । उनकी नाटक-रचना के धारावाहिक इतिहास का अनुसरण करने पर हम देखते हैं कि किशोरावस्था से लेकर जीवन के आखिरी दिन तक नाटक रचना तथा नाटक- प्रयोजना में उनका उत्साह बराबर बना रहा। रचना से पहले की पीड़ा है प्रयोजना तथा अभिनय | रवीन्द्रनाथ के नाटक लिखना प्रारम्भ करने से पहले उनके अन्यतम अग्रज ज्योतिरिन्द्रनाथ ठाकुर ने नाटक लिखना प्रारम्भ कर दिया था, घर में उन सब नाटकों का बीच-बीच में अभिनय भी चलता रहा; घर से बाहर पेशेवर रंगमंच पर अभिनीत उनके नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ चली । और उनसे भी पहले रवीन्द्रनाथ के ताऊ जी के बड़े लड़के गणेन्द्रनाथ, गुणेन्द्रनाथ आदि नाटक-प्रेमी रामनारायण से नाटक लिखवाकर बड़े प्रेम से घर में उनका अभिनय करवा रहे थे । इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक रवीन्द्रनाथ नाटक-रचना तथा प्रयोजना के वातावरण के बीच पले हैं । साहित्य के विषय में सचेतन इस प्रकार का वह बालक पहले दर्शक के रूप में, फिर अभिनेता के रूप में और अन्त में लेखक के रूप में नाटक की ओर आकृष्ट होगा यह सहज ही समझ में आ जाता है । हुआ भी यही । केवल मात्र दर्शक की भूमिका जब खत्म हो गई, तब ज्योतिरिन्द्रनाथ के नाटकों में दो-एक गीत, दो-एक संवाद जोड़ना उन्होंने प्रारम्भ कर दिया; उन्हीं के नाटकों में भूमिका ग्रहण करके वे दर्शकों के सम्मुख आत्म-प्रकाश करने लगे । 'जीवन-स्मृति' ग्रंथ में इन सब विवरणों का आभास मिलता है । किन्तु इसी बीच अर्थात् इस वातावरण की प्रेरणा से वे कब प्रथम बार नाटक-रचना में प्रवृत्त हुए यह बात जानने का कौतूहल बहुत ही स्वाभाविक है । 'जीवन-स्मृति' से ज्ञात होता है कि शान्तिनिकेतन के धूप से अभिषिक्त मैदान में बैठकर बालक कवि ने 'पृथ्वीराज पराजय' नामक एक रौद्ररसात्मक नाटक लिखा था । यह नाटक बाद में उपलब्ध नहीं रहा । रवीन्द्र के जीवनीकार प्रभातकुमार मुखोपाध्याय का अनुमान है कि परवर्ती युग में रचित 'रुद्रचण्ड-नाटक', 'पृथ्वीराज-पराजय' का रूपान्तर-मात्र है । इस लुप्त उदाहरण को छोड़ देने पर 'वाल्मीकि-प्रतिभा' नामक गीति नाटय को उनकी प्रथम नाटक रचना की प्रचेष्टा कहा जा सकता है । पहले जिस घरेलू वातावरण का उल्लेख किया गया है 'वाल्मीकि-प्रतिभा' के साथ उसका सम्बन्ध है । 'विद्वज्जन-समागम' नाम की एक सभा बीच-बीच में जोड़ासांको की ठाकुर-हवेली में बैठती थी । उसी सभा के मनोरंजन के हेतु इन चिरसरस गीति-नाट्य की रचना हुई थी । रवीन्द्रनाथ के इसके प्रधान कारीगर होने पर भी बिहारीलाल, ज्योतिरिन्द्रनाथ तथा अक्षय चौधुरी के हाथ का काम इस रचना में मिल जाता है । उस समय के लिखे हुए अधिकांश नाट्यकारी के अधिकांश नाटक कब के सूखकर रस विहीन हो विदा ले चुके हैं, किन्तु बीस साल के युवक द्वारा रचित यह नाटक अब भी अम्लान है । जब भी इसका अभिनय होता है दर्शकों की कमी नहीं होती ।
मधुसूदन दत्त ने प्रथम बँगला काव्य की रचना करके अपने बन्धु को लिखा था कि शेर ने रक्त का स्वाद पा लिया है अब भला छुटकारा कहाँ ? प्रथम नाटक की रचना के बाद रवीन्द्रनाथ की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की हुई । कुछ ही वर्षों के भीतर ‘रुद्रचण्ड’, 'कालमृगया', 'प्रकृति का प्रतिशोध', 'नलिनी' एवं 'मायार खेला' उन्होने लिख डाले । 'रुद्रचण्ड' नाटक का नायक रुद्रचण्ड दस्यु है । नागरिक सभ्यता और राजपद के विरुद्ध उसका निदारुण विक्षोभ नाटक में प्रकट हुआ है। नाटक में दो चरित्र और हैं-रुद्रचण्ड की बालिका कन्या अमिया तथा चाँद कवि | इस नाटक को यदि हम स्मरण न रख सकें तो भी कोई हानि नहीं- किन्तु इस बालिका को और इस कवि को भूलने से काम नहीं चलेगा । ये दोनों परवर्ती नाटकों में नाना नामों से और आखिरकार सब नामों में रूपान्तरित होकर समाविष्ट होते चले गए हैं ।
'कालमृगया' नाटक परवर्ती युग में 'वाल्मीकि-प्रतिभा' के साथ युक्त हो गया है। 'मायार खेला' गीति नाट्य है । यद्यपि 'वाल्मीकि-प्रतिभा' और इसमें प्रभेद इतना ही है कि पूर्वोक्त में तो घटना-विन्यास तथा चरित्र सृष्टि पर अधिक जोर दिया गया है, पर 'मायार खेला' में वह चेष्टा नहीं की गई है—सुर के धागे में हृदयावेग को पिरो देना ही इसका उद्देश्य रहा है ।
रचना की दृष्टि से 'प्रकृतिर प्रतिशोध' अपक्व होने पर भी यहाँ सबसे पहली बार रवीन्द्रनाथ ने अपने जीवन-तत्त्व को प्रकाशित करने की चेष्टा की है । 'प्रकृतिर प्रतिशोध' की बालिका 'रुद्रचंड' की अमिया का रूपान्तर है ।
यहाँ आकर रवीन्द्रनाथ के जीवन का नाटक रचना में शिक्षा प्राप्त करने का यह पर्व खत्म होता है । नाटकीय गति, घटना-विन्यास तथा चरित्र-परिकल्पना सुर का नाटकीय भावप्रकाश के उपाय रूप में नियोग, यहाँ तक कि वनदेवियों तया मायाकुमारियों के गमनागमन में नृत्य का आभास, सभी कुछ इन नाटकों में प्राप्त हो जाता है । परवर्ती युग के विभिन्न प्रकार के नाटकों में इन समस्त गुणों का विकास तथा परिणति देखने को मिल जायगी, इसीलिए इस समय को मैंने शिक्षा प्राप्त करने का पर्व कहा है ।
२
'मायार खेला' रचना के कुछ समय बाद ही प्रकाशित 'राजा ओ रानी,' 'विसर्जन' तथा 'चित्राङ्गदा' में रवीन्द्रनाथ की नाटक लेखनी ने मानों पूर्ण शक्ति प्राप्त कर ली । 'चित्राङ्गदा' की आलोचना को यथास्थान के लिए स्थगित करके बाकी दो के सबंध में हम अपना वक्तव्य पहले कह लेते हैं । 'राजा ओ रानी' और 'विसर्जन' पाँच अंक के शेक्सपियरीय ढंग के त्रासदी नाटक हैं । 'विसर्जन' पूर्वतन उपन्यास 'राजर्षि' के कुछ अंशों का नाट्य कृत रूप है । बहुत-से लोग 'विसर्जन' को रवीन्द्रनाथ का श्रेष्ठ त्रासदी नाटक समझते हैं । परन्तु मेरी धारणा दूसरे ढंग की है । थोड़ी-बहुत तकनीक की त्रुटि रहने पर भी विशुद्ध मानव-रस के प्राचुर्य के कारण 'राजा ओ रानी' मुझे श्रेष्ठतर लगता है। रवीन्द्रनाथ ने परवर्ती युग में, काफी समय बीत जाने पर तकनीकी त्रुटियों को संशोधित कर लेने के उद्देश्य से 'तपती' नाटक लिखा था । हम लोगों को नवीन नाटक अवश्य मिला-किन्तु 'राजा ओ रानी' को श्रेष्ठतर रूप मिला या नहीं, इसमे सन्देह है ।
इस पर्व में कवि ने तीन प्रहसनो की रचना की थी। उनमें 'प्रजापतिर निर्बन्ध' ने 'चिरकुमार सभा' नाम से परवर्ती युग में जनप्रियता अर्जित की है । साधारणजनों के विचार में यही उनका श्रेष्ठ प्रहसन है । मेरी व्यक्तिगत रुचि 'वैकुण्ठेर खाता' के प्रति है । इसकी रसपरिधि संकीर्ण किन्तु गंभीर है, इसके पात्र संख्या में थोड़े होने पर भी सुस्पष्ट एवं सजीव हैं; इसकी हँसी निरन्तर अश्रु के साथ लगकर चलती हुई अन्तिम दृश्य में जिस अपरूप प्रहसन की सृष्टि करती है उसमें हास्य और आंखों के पानी ने हाथ मिलाया है । बहुजनों के अभिनन्दन से वंचित यह प्रहसन रवीन्द्रनाथ की एक निर्दोष सृष्टि है ।
इस पर्व के अन्तर्गत रवीन्द्रनाथ ने एक और श्रेणी के नाटकों की रचना की, जिन्हें काव्य-नाट्य कहा जा सकता है। इन रचनाओं में कवि की लेखनी और नाट्यकार की लेखनी एकत्र हो गई है, यद्यपि इन नाटकों का वैशिष्ट्य यह है कि यहाँ कवि का दायित्व सोलहो आने स्वीकृत होने पर नाट्यकार के दायित्व को हल्का बना दिया गया है । इसीलिए बहुत-से लोग इसको नाट्य-काव्य कहना चाहते हैं, अर्थात् उन लोगों के मतानुसार इन नाटकों का वास्तविक स्थान काव्य-क्षेत्र में है । यह बात यथार्थ नहीं ज्ञात होती । इनमें काव्य गुण अधिक होने पर भी इनका ठाट नाटक का है और नाटकीय परिणति का अभाव भी नाटक में नहीं है । 'गान्धारीर आवेदन', 'कर्णकुन्ती संवाद', 'नरकवास', 'विदाय अभिशाप' प्रभृति रचनाओं को अलिखित पंचांग ट्रैजेडी के आखिरी अंक के रूप में देखने की चेष्टा करने पर इन का यथार्थ रूप तथा रस का आवेदन स्पष्ट हो जाता है ।
'सती' तथा 'मालिनी' में नाटक रूप अपेक्षाकृत स्पष्ट है, यद्यपि इनकी भी प्रधान सम्पदा काव्य है ।
'लक्ष्मीर परीक्षा' एक सार्थक परीक्षा है । 'क्षणिका' काव्य में कथ्य भाषा के द्वारा कवि जो काम करवा लेना चाहते थे उसी काम को सार्थकतर ढंग से उन्होने इस नाटक में करवा लिया है।
३
इसी समय रवीन्द्रनाथ के अध्यात्म जीवन में एक महत् परिवर्तन प्रारम्भ हो गया था-और स्वाभाविक था कि इसकी छाप उनकी सब प्रकार की रचनाओं पर पड़ती, यहाँ तक कि नाटकों में भी । मानव जीवन में ऋतु-क्रम का प्रभाव तथा प्रतिक्रिया इस बार उनके नाटकों का उपादान बन बैठी और 'शारदोत्सव', 'राजा', 'अचलायतन', 'फाल्गुनी' प्रभृति नाटकों को जन्म मिला । घर के उत्सव आदि की माँग पूरी करने के लिए वे जैसे नाटक लिखते थे इस बार वैसी माँग शान्तिनिकेतन विद्यालय की ओर से आई । इसीलिए हम देखेंगे कि इस समय के बहुत-से नाटक-जैसे 'शारदोत्सव', 'अचलायतन', 'फाल्गुनी' -भूमिकाहीन हैं । उन दिनों शान्तिनिकेतन में छात्राओं का दाखिला नहीं होता था--और देश का वातावरण भी मिश्र अभिनय के अनुकूल नहीं था । इसके अतिरिक्त इस समय इन्होंने 'प्रायश्चित्त' तथा 'डाकघर' की भी रचना की ।
'प्रायश्चित्त' पूर्वलिखित 'बौठाकुराणीर हाट' का नाट्य रूप है । धनंजय वैरागी का चरित्र इसकी प्रधान सम्पदा है। हिंस्र प्रतिरोध की वाणी लेकर वह उपस्थित हुआ । गांधी के आविर्भाव से पहले धनंजय वैरागी का आविर्भाव मानों प्रभात से पूर्व प्रभात-पक्षी का आगमन था ।
'डाकघर' रवीन्द्रनाथ का सर्वोत्तम नाटक है । नाटक की रचना बहुत-कुछ परियों की कहानी के ढाँचे में ढली हुई है। इसकी विस्तृत आलोचना यथासमय करेंगे।
'राजा' नाटक को 'सिम्बोलिक' नाटक कहा जाता है । 'राजा' तथा 'अचलायतन' ' में भारतीय साधना के दो प्रधान तत्त्वों का योग है । दास्य, सख्य तथा मधुर रस की साधना में मधुर रस की साधना सबसे कठिन है— इसीका निदर्शन है सुरगमा, ठाकुरदा तथा सुदर्शना के चरित्र में, विशेष रूप से सुदर्शना के मानसिक द्वन्द्व में । 'अचलायतन' में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग तथा भक्तिमार्ग के चित्र प्रदर्शित किये गए हैं -- वहाँ कहा गया है कि इनका समन्वय ही जीवन की यथार्थ सिद्धि है । 'फाल्गुनी' नाटक में कवि ने दिखाया है कि विश्व-प्रकृति में जो लीला चल रही है वही लीला रूपान्तरित होकर मानव प्रकृति में भी प्रसारित हो रही है । वसन्त और यौवन ही सत्य है, शीत और जरा दृष्टि का भ्रम-मात्र है । 'शारदोत्सव' में का वक्तव्य है कि यह जो जगत् अनन्त सौन्दर्य तथा सुधा के द्वारा मानव को ऋणी बनाए हुए है— मानव उस ऋण का प्रतिशोध दुःख को पाकर ही कर सकता है । दु.ख की पूंजी से सौन्दर्य का ऋण-शोध करने पर ही आनन्दलाभ सम्भव हो सकता है ।
इसके उपरान्त 'मुक्तधारा' तथा 'रक्तकरबी' कवि के उल्लेखयोग्य नाटक हैं । 'शारदोत्सव' से लेकर 'फाल्गुनी' तक नाटक का विषय है मानव के साथ ईश्वर का सबंध और मानव के साथ प्रकृति का सबंध । 'मुक्तधारा' और 'रक्तकरबी' में जो व्यक्ति दिखाई पड़ता है वह है सामाजिक मानव । यहाँ संघर्ष है व्यक्ति के साथ सामाजिक व्यवस्था का अभिजित् और रंजन उस व्यक्ति के प्रतिनिधि हैं जिनका क्रमश रुद्ध धारा तथा यन्त्र-दानव से द्वन्द्व छिड़ गया है । कवि का वक्तव्य कि यन्त्र की सहायता द्वारा यन्त्र को पराभूत करने से यन्त्र की ही जय घोषित होती है । अपने प्राणों द्वारा यन्त्र को आघात पहुँचाना होगा-उससे प्रारम्भ में प्राणों की हानि होने पर भी आखिरकार यन्त्र का प्रभाव शिथिल हो जाता है | अभिजित् मर गया, परन्तु 'मुक्तधारा' का बाँध भी टूट गया। रंजन भी मरा है, परन्तु यन्त्र नगरी की भित्ति भी हिल उठी है। इन दोनों नाटकों में कवि ने एक आधुनिक जटिल समस्या पर विचार किया है ।
४
'नटीर पूजा' नाटक १९२६ में प्रकाशित हुआ । कहानी का चयन एक बौद्ध जातक से किया गया है । नाटक का शिल्प मूल्य काफी ऊँचे स्तर का है— किन्तु इस नाटक की देन कुछ और भी है। मेरा ऐसा विश्वास है कि 'नटीर पूजा' नृत्य-नाट्य में परवर्ती युग में लिखित नृत्य-नाट्यों की धारणा बीजाकार में निहित है । उस धारणा के अनुकूल क्षेत्र तथा दृष्टान्त का समर्थन कवि के जावा द्वीप के भ्रमण-काल में दृष्ट नृत्य-नाट्य कला से प्राप्त किया है । नृत्य-नाट्य की धारणा कवि के मस्तिष्क में थी -यदि अभाव था तो केवल सजीव नृत्य के नाट्य कला के उदाहरण का । जावा द्वीप ने उस उदाहरण को ला उपस्थित किया । रवीन्द्रनाथ के जीवन के अन्तिम दिनों की सार्थकतम नाटक रचना की धारा नृत्य-नाट्य के इस जल-प्रवाह पथ में प्रवाहित हुई है । 'चित्रागंदा', 'चण्डालिका', 'श्यामा' तथा 'तासेर देश' नृत्य-नाट्य रवीन्द्र नाट्य-प्रतिभा की अंतिम तथा सार्थकतम सृष्टि है । नाट्य-प्रतिभा शब्द में शायद यह नूतन शिल्प कला का सर्वांगीण रूप प्रकाशित नहीं हो पाया । क्योंकि इसमें आकर सम्मिलित हुआ है काव्य, स्वर, नाट्य तथा नृत्य का चतुरंग प्रवाह । आशा करता हूँ, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि इन नृत्य-नाटकों में रवीन्द्र-शिल्प-कला का तथा रवीन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा का प्रकाश हुआ है ।
५.
यथासंभव संक्षेप में रवीन्द्र नाट्य प्रवाह का एक परिचय प्रस्तुत किया जा चुका है । अब फलोपलब्धि के संबंध में प्रासंगिक मन्तव्य भी संक्षेप में पूरा कर लें ।
रवीन्द्रनाथ के नाटक बीच-बीच में पेशेवर रंगमंच पर खेले गए हैं, किसी-किसी नाटक ने, जैसे 'चिरकुमार सभा' और 'शेष रक्षा', सामयिक रूप से लोक-प्रियता भी प्राप्त की है। फिर भी कहना पड़ेगा कि पेशेवर रंगमंच की गति-प्रकृति के साथ रवीन्द्र नाट्य प्रवाह का कभी भी मेल नहीं हो पाया है । क्यों ? शायद दर्शक उस स्तर तक पहुँचने में समर्थ नहीं हुए हैं । फिर पेशेवर रंगमंच पर जो नाटक प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं उनकी सृष्टि पेशेवर अभिनेता तथा रंगमंच के समुद्र-मंथन में होती है यानी वह सारी वस्तु एक प्रकार से समवेत शिल्प की सृष्टि रचना होती है । रवीन्द्रनाथ के नाटकों का जन्म निभृत में हुआ, नहीं तो पारिवारिक परिवेश में; यह चीज़ उनकी अपनी प्रचेष्टा की सृष्टि है । इसलिए इसकी वास्तविक सम्पदा काव्य-रस है ।
बहुत-से समालोचक ऐसे होते हैं जो नाटक के साहित्यिक मूल्य को नितान्त गौण समझते हैं, उनके मत में दर्शकों को आनन्द का परिवेशन करना ही नाटक का एक मात्र उद्देश्य है । यह मत हम ग्रहण नहीं कर सकते । नाटक मुख्यतया साहित्य है और उसी रूप में इसकी आलोचना होनी चाहिए ।
इस दृष्टि से विचार करने पर हम देखेंगे कि रवीन्द्र के नाटकों का मूल्य असीम है । रवीन्द्रनाथ से पहले भी गीति नाट्यों की रचना हुई है तथापि उनके प्रारम्भिक युग में लिखित 'वाल्मीकि-प्रतिभा' और 'मायार खेला' अब तक उपभोग्य है, मनोरजन के क्षेत्र में भी उनके मूल्यों की हानि नहीं हुई ।
'राजा ओ रानी' और 'विसर्जन' बँगला-साहित्य के श्रेष्ठ त्रासदी नाटक हैं । बंगला-नाट्य-साहित्य में प्रहसन की संख्या की कमी नहीं है । किन्तु 'चिरकुमार सभा' के समान मार्जित, सूक्ष्म, सर्वजन उपभोग्य प्रहसन और दूसरा नहीं है-इसकी प्रतिष्ठा जैसी व्यापक है, वैसी ही सहज है इसकी ग्रहणीयता ।
उनके द्वारा रचित काव्य-नाटक-जैसे 'चित्रांगदा', 'गान्धारीर आवेदन', ‘कर्ण-कुन्ती संवाद’, ‘नरकवास' प्रभृति रवीन्द्र साहित्य की श्रेष्ठ सम्पदा है । इस क्षेत्र में उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है ।
'शारदोत्सव', 'फाल्गुनी' प्रभृति ऋतु-नाट्य क्रम में और 'डाकघर', 'राजा', 'मुक्तधारा', 'रक्तकरबी' प्रभृति सिम्बॉलिक नाट्य क्रम में उन्होने नवीन धारा का प्रवर्तन किया है, केवल बँगला साहित्य में ही नहीं, संभवत: भारतीय साहित्य में भी ।
और जीवन की अन्तिम अवस्था में लिखित नृत्य-नाटक उनकी अपनी मौलिक सृष्टि हैं-इस क्षेत्र में वे नव मार्ग का निर्माण कर गए हैं।
काव्य और कहानी के अतिरिक्त नाट्य-रस में रवीन्द्र प्रतिभा का सुष्ठुतम प्रकाश प्राप्त होता है, और नाटक के श्रेणी-वैचित्र्य तथा नव्य-नूतन धारा-प्रवर्त्तन में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता है |
'राजा' (१९१०)
'राजा' नाटक की कहानी कुशजातक नामक बौद्ध जातक से ग्रहण की गई है । मूल कहानी यह है कि वाराणसी के राजा कुश ने सिंहासनारोहण के उपरान्त कान्यकुब्ज राजा की कन्या सुदर्शना से विवाह किया। जब सुदर्शना ने देखा कि उनके पति अतिशय कुरूप हैं तब आधिव्यथिता वे पित्रालय वापस चली गईं । इस ओर कुश कान्यकुब्ज में,जाकर नानाविध नृत्य कला के द्वारा अपनी पत्नी के मनोरंजन की चेष्टा में तल्लीन हुए। ऐसे समय अपने श्वसुर के परामर्श से यतीश्वर नामक रत्न धारण करके कुश ने दिव्य रूप लाभ किया। तब पति-पत्नी का मिलन हुआ ।
थोड़े-से शब्दों की शिल्प सौन्दर्य से विहीन तथा सभी प्रकार के आध्यात्मिक इगत से रहित इस कहानी को रवीन्द्रनाथ ने शिल्प सौन्दर्य तथा आध्यात्मिक इगत से पूर्ण नाटक में रूपान्तरित किया है ।
रवीन्द्रनाथ 'राजा' नाटक में यह कहना चाहते हैं कि विश्व का राजा जैसे इन्द्रियग्राह्य नहीं है वैसे ही इन्द्रियों से नितान्त परे भी नहीं है । विश्व के सभी प्रकार के सौन्दर्य में उसकी विभूति प्रसारित है । मन के भीतर जो एक है बाहर वे ही असंख्य रूप में फैले हुए हैं । इस रूप की उपलब्धि जिसने अपने मन से की वही राजा के स्वरूप को समझने में समर्थ हुआ । केवल-मात्र चर्मचक्षुओं से उन्हे देखने से विडम्बना तथा विभ्रान्ति का ही प्रसार होता है । चक्षु से जो पीड़ा देखी नहीं जाती, रानी सुदर्शना ने अपनी आँखों से उसे ही देखना चाहा था; परिणामत: उसे देखने के हेतु जिस विपत्ति की सृष्टि उसने की वही 'राजा' नाटक का कथानक है ।
गीत- बहुल, उत्सव-मुखरित, नाटकीय संघात से पूर्ण इस नाटक का परिचय इन नीरस तत्त्वों में नहीं है । उसे पाने का भार पाठकों पर छोडकर मैं रवीन्द्र नाथ की परिपक्व लेखनी के नाटकों की रचना-विधि के संबंध में दो-एक बातें कह लेना चाहता हूँ । 'शारदोत्सव' से प्रारम्भ करके उनके जीवन की अन्तिम अवस्था तक के प्रायः समस्त नाटकों में हम एक प्रतिमान ( Pाttेrं) की क्रमिक परिणति एव क्रमशः प्रकाशमान रूप पाते है । एक पथ और एक मेला-इस प्रतिमान का यही प्रकाशमान रूप है । यदि कभी वह पथ किसी गाँव का है तो कभी किसी काल्पनिक नगर का, यदि कभी वह गाँव का मेला है तो कभी राजा के घर का वसन्तोत्सव का मेला है । 'शारदोत्सव', 'राजा', 'फाल्गुनी', 'मुक्तधारा' में इस प्रतिमान का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है । 'अचलायतन', 'डाकघर', 'रक्तकरबी' में यह प्रतिमान आंशिक रूप में प्रकट हुआ है तथा वह अस्पष्ट भी है; शायद पथ तो है, पर मेले का पता नहीं । और इन सब मेलों तथा पथों में साधारणत: जो नर-नारी दिखाई पड़ते हैं इन नाटकों में भी उनके दर्शन मिलते हैं । बाउल, गीत- मण्डली, संन्यासी, दही वाला, लड़कों का जमघट, अन्धा गायक, गाँव का मुखिया तथा कृपण व्यवसायी इत्यादि । पथ, मेला तथा पूर्वोक्त नर-नारी-बंगदेश का यह एक अपना विशिष्ट रूप है । उस रूप को नाटक के प्रतिमान स्वरूप ग्रहण करके उन्होने अपनी कला को बंग देश की वास्तविकता पर आधारित किया है ।
The king of the Dark Chamber नाम से अनूदित होकर 'राजा' नाटक ने विदेश में सम्मान प्राप्त किया था ।
'डाकघर' (१९२२)
मुक्ति के लिए जो असीम व्याकुलता मानवात्मा अनुभव करती है— उसी मुक्ति-व्याकुल मानवात्मा का प्रतीक है 'डाकघर' नाटक का रुग्ण नायक बालक अमल । मुक्ति के संबंध में लोगों की धारणा बड़ी विचित्र है । विषयासक्त व्यक्ति इसे विडम्बना समझते हैं-इसीलिए गाँव का मुखिया, माधवदत्त, कविराज प्रभृति अमल को घर में रोके रखना चाहते हैं, उसके मनोभाव को उत्कट व्याधि समझकर उसके इलाज द्वारा उसको रोगमुक्त करना चाहते हैं । दूसरी ओर ठाकुरदत्त तथा राजवैद्य जानते हैं कि यह मानव का स्वभाव है । वे लोग उसे प्रश्रय देते हैं, अमल को उत्साह देते हैं, कहते हैं 'राजा' अवश्य ही उसे पत्र लिखेंगे, नहीं तो इतने समारोह के साथ डाकघर खोलने का क्या उद्देश्य हो सकता है । मेरी तो यह धारण है कि विश्व का सम्पूर्ण सौन्दर्य राजा का डाकघर है । निरन्तर मन के पास डाक चली आ रही है । अमल की तरह हम लोगों में से बहुत-से उसकी भाषा नहीं पढ़ पाते । तब भी अमल का यह विश्वास है कि ये सारी चिट्ठियाँ राजा की लिखी हुई हैं, परन्तु हमारे पास वह विश्वास भी नहीं है । अमल विश्वासी है। हम लोग अविश्वासी माधवदत्त की मण्डली के हैं, जिन्हे ठाकुरदा ने 'चुप रहो अविश्वासियो' कहकर धमकाया था । ऐसे विषय को नाना भाँति के चरित्रों के समन्वय से नाटक का आकार दिया जा सकता है-इस बात पर 'डाकघर' नाटक को पढ़े बिना विश्वास करना कठिन है । अन्यत्र मैंने कहा है कि 'डाकघर' एक निर्दोष नाटक है । 'डाकघर' स्वल्प परिसर में रचा गया नाटक है। रचना का आयतन जितना छोटा होता है रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा उतनी ही उज्ज्वल हो उठती है । इसी कारण क्षुद्रतम परिसर में गठित नाटकों में ही उनकी प्रतिभा उज्ज्वलतम रूप में प्रतिभासित हुई है ।
'मुक्तधारा' (१९२२) 'रक्त करबी' (१९२६ )
'मुक्तधारा' नाटक के साथ पूर्वतम नाटक 'प्रायश्चित्त' की थोड़ी बहुत समता है— कहानी अंश मे, और एक पात्र दोनों ही नाटकों में है धनंजय वैरागी । यह धनंजय वैरागी रवीन्द्रनाथ द्वारा परिकल्पित चरित्र-समूह में अन्यतम श्रेष्ठ चरित्र है । १९०६ में ‘प्रायश्चित्त' जब सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ-तब धनंजय वैरागी के मुख से हिंसा प्रतिरोध की वाणी देववाणी के समान प्रतीत हुई थी, और बहुतों को देववाणी के समान ही अवास्तव लगी थी । किन्तु १९२२ में जब 'मुक्तधारा' प्रकाशित हुआ तब धनंजय वैरागी की वाणी को एक वास्तविक भित्ति का सहारा प्राप्त हो गया था, क्योंकि इसी बीच गांधी जी का प्रादुर्भाव हो गया था । 'प्रायश्चित्त' और 'मुक्तधारा' में इनके अतिरिक्त और कोई समानता नहीं है, तो भी दोनों नाटक दो विभिन्न प्रवृत्तियों की रचनाएँ है । पहले उल्लेख किया गया है कि 'बलाका' काव्य की रचना के समय से, चाहे काव्य हो या नाटक या अन्यान्य अनेक रचनाएँ-अर्थात् रवीन्द्र-साहित्य में एक नव दृष्टि या चेतना का स्वरूप प्रकट होने लगा था । व्यक्ति की व्यक्ति के साथ अथवा व्यक्ति को प्रकृति के साथ लीला-खेल दिखाकर कवि अब तृप्त नहीं होते, अब तो वे व्यक्ति के साथ समाज का संबंध और संघर्ष दिखाना चाहते हैं । चिरकाल का लीलामय मनुष्य अब आधुनिक युग के संघर्षशील मानव रूप में रवीन्द्र-साहित्य में दिखाई पड़ने लगा । 'मुक्तधारा' और 'रक्तकरबी' इसी भाव-धारा के श्रेष्ठ उदाहरण हैं ।
व्यक्ति और समाज के भीतर यन्त्र नाम की एक नूतन सत्ता के आगमन के कारण व्यक्ति और समाज का संबंध जटिलतर हो उठा है । समाज अर्थात् संघवद्ध मानव-यन्त्र देवता का समर्थक है-और व्यक्ति है यन्त्र-विरोधी । और इस सूत्र से व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध जटिलतर हो उठा है । समाज अर्थात् संघवद्ध मानव-यन्त्र देवता का समर्थक है-और व्यक्ति है यन्त्र-विरोधी और इस सूत्र से व्यक्ति और समाज में संघर्ष अनिवार्य हो उठा है । अभिजित् के साथ उत्तरकूट के लोगों का संग्राम छिड़ गया है— कारण बीच में 'मुक्तधारा' के बाँध के समान यन्त्र का आगमन हुआ है। रंजन के साथ 'रक्तकरबी' के राजा का विरोध है- क्योंकि यक्षपुरी की यान्त्रिक व्यवस्था बीच में आ गई । इस प्रकार की अवस्था में क्या करना चाहिए । रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि विरोध से बचे रहने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, यन्त्र पर आघात करना होगा, परन्तु यन्त्र द्वारा नहीं, प्राणों द्वारा । उससे प्राणों की हानि होगी, अभिजित् और रंजन दोनों को ही मरना पड़ा है | किन्तु इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । बृहत्तर यन्त्र के द्वारा यन्त्र को पराजित करने से यन्त्र की ही जय घोषित होती है । प्राणों से आघात करके प्राणों की जय घोषित करनी होगी, यही कवि की वाणी है । प्रसंगत: उसीसे प्रमाणित होगी व्यक्ति की विजय |
'मुक्तधारा' और 'रक्तकरबी' दोनों की यही मर्मकथा है ।
किन्तु इन दोनों रचनाओं का साहित्य-रस का बोध इतनी सरलता से नहीं हो सकता । कवि के जीवन की अन्तिम अवस्था के तत्त्व से मुक्त इन नाटकों में नाटक की दृष्टि से 'मुक्तधारा' मुझे श्रेष्ठ लगता है । तुलना में 'रक्तकरबी' की नाटकीय गति मन्थर है । 'रक्तकरबी' नाना शाखा प्रशाखाओं में अपने-आपको विस्तृत कर लेने पर मन्यर हो गया है । हाथों द्वारा निक्षिप्त अव्यर्थ-सन्धान तीर की भांति 'मुक्तधारा' की गति ऋजु तथा एकाग्र है ।
अग्रेजी में जिसे Myth making क्षमता कहते हैं, एक नूतन जगत् के निर्माण की वह क्षमता रवीन्द्रनाथ में प्रचुर मात्रा में पाई जाती है । 'रक्तकरबी' में इस दुर्लभ वस्तु का सुष्ठु प्रकाश मिलता है । यक्षपुरी नामक एक किंवदन्ती के जगत् को लोक तथा रूप की भित्ति पर निर्मित करके कवि ने उसे विश्वास योग्य बनाया है । इन सब रचनाओं में शिल्पी के साथ चिन्तक का सार्थक समन्वय घटित हुआ है—और इसने उन्मुक्त कर दिया है भारतीय साहित्य के सम्मुख एक नूतन सम्भावना का प्रशस्त द्वार ।