प्राण-प्रतिष्ठा (कहानी) : विभा देवसरे
Pran-Pratishtha (Hindi Story) : Vibha Devsare
सनी ने स्कूल से लौटकर अपना बस्ता टाँगते हुए खामोश खड़ी अपनी बड़ी बहन पारू को देखा। आँखों के इशारों से ही कुछ जानना चाहा। पारू ने सिर को नकारात्मक अंदाज में जब हिलाया तो सनी लगभग चीख उठा, "मुझे तो मालूम था, इस घर में कभी कुछ नहीं हो सकता। मैं अपने सब दोस्तों से कहकर आया हूँ कि छुट्टियों में हम लोग घूमने जा रहे हैं और यहाँ कभी कोई प्रोग्राम ही नहीं बनता। पारू दीदी, तुम देखना, एक-दो दिन में बुआजी अपने परिवार सहित आ जाएँगी या फिर मम्मी की वह लाडली बहन। फिर यह नहीं सुनाई देगा कि बहुत महँगाई बढ़ गई है, एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता। बस, सारा रोना हम लोगों के ही सामने होता है। कभी हमारी कोई इच्छा पूरी नहीं होती।"
सनी ने गुस्से में अपने जूते-मोजे उतारे और लगभग उन्हें फेंकते हुए चप्पल पैरों में डाल दरवाजे की ओर बढ़ा ही था कि पारू ने आवाज दी, "अरे, स्कूल से लौटा है, कुछ खा तो ले।"
इसी बीच सरोज कमरे से निकल बाहर जाते हुए सनी को रोकते हुए बोली, "कहाँ जा रहा है, सनी ? अरे बेटा, खाना तो खा ले। पारू, तूने अब तक उसे कुछ खाने को भी नहीं दिया। चलो सनी, स्कूल के कपड़े भी नहीं बदले, कुछ खाया भी नहीं और चल दिए खेलने । "
सनी ने माँ से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, "नहीं खाना है, मुझे जाने दीजिए। "
सरोज ने आश्चर्यचकित हो पारू से पूछा, "क्या हुआ है इसे ? तुझसे कुछ झगड़ा हो गया क्या ?"
पारू ने भी लगभग चिढ़ते हुए कहा, "मैं क्यों झगडूंगी ! इसी से पूछिए, क्यों नाराज है?"
सनी को प्यार से मनाते हुए सरोज उसे अपने कमरे में ले आई। पारू भी उनके संग ही आकर माँ के पास बैठ गई। माँ ने सनी से पूछा, "अब बता, क्या बात है ? स्कूल में किसी से झगड़ा हुआ क्या? इस तरह नाराज क्यों है ?"
अभी भी मुँह फुलाए बैठा था। उसे चुप देख पारू बोली, “मम्मी, सनी इसलिए नाराज है कि तुमने और पापा ने छुट्टियों में कहीं घूमने चलने को कहा था और कल से छुट्टियाँ शुरू हैं, लेकिन अभी तक कोई प्रोग्राम नहीं बना। हम लोगों की तो कभी कोई इच्छा पूरी होती ही नहीं है। क्या हमें बुरा नहीं लगेगा ?"
सरोज ने गुस्से से अपना माथा पीट लिया, "मेरी तो समझ में नहीं आता कि तू इतनी बड़ी हो गई, सुबह से तुझे कितना समझा चुकी हूँ! बजाय इसके कि अपने छोटे भाई-बहनों को समझाए, तू और उन्हें भड़काती है। "
पारू ने चिढ़ते हुए कहा, "मेरे पीछे क्यों पड़ी हैं? मैंने सनी से कुछ नहीं कहा।"
पारू को इस तरह दुःखी होता देखकर सनी बोल पड़ा, "मम्मी, आप दीदी को क्यों कह रही हैं ? कल ही पापा कह रहे थे कि छुट्टियों में हम सब कहीं घूमने चलेंगे। मैंने अपने सब दोस्तों से भी कह दिया है; पर..."
" पर क्या ? कल पापा ने कहा है और हो सकता है कि कार्यक्रम बन जाए। पर बेटे, तुम लोग अब समझदार हो रहे हो, घर की हालत भी जानते-समझते हो। अकेले एक पापा की कमाई से इतना बड़ा घर परिवार सँभालना क्या आसान है ? इस तरह मन छोटा तो नहीं करते हैं।" सरोज बच्चों को जितनी गहराई से समझा रही थी उतनी ही गहराई से अपने बच्चों का दुःख भी महसूस कर रही थी - मासूम इच्छाओं को कब तक दफनाती रहेगी ? इसका कोई हल उसके सामने नहीं था ।
कहने को उसके पति सरकारी गजटेड ऑफिसर थे। थोड़ी-बहुत ऊपरी कमाई भी हो जाती थी, पर वह भी आटे में नमक के बराबर थी। बड़े शहर के खर्चे भी बड़े। यह हाल तो तब है जब वे लोग महानगर की एक अति साधारण सी बस्ती में रहते हैं, जहाँ उसे यह भी बताने में शर्म आती है कि उसके पति गजटेड ऑफिसर हैं। हालाँकि यह भड़ास जब-तब वह महिलाओं के बीच निकालने से नहीं चूकती थी और उस दिन किचन में अपने पति के लिए कुछ स्पेशल जरूर बनाती। फिर भी सरोज सच्चाई को अनदेखा नहीं कर पाती और अब तो बढ़ती हुई पारू को देखकर उसका दिल और बैठ जाता- कैसे ब्याहेगी अपनी बेटी को ? कहाँ से लाएगी इतना दहेज कि उसकी बेटी की जिंदगी में कोई खरोंच न पड़ने पाए। अच्छे लड़के तो बिकते हैं और उसके पास इतने पैसे कहाँ हैं! जब भी वह अपने पति नरेश से इस बात की चर्चा करती है तो वह चुपचाप छत देखते हुए जाने कब सो जाते हैं और सरोज अपनी सूनी निगाह में भी बेटी के लिए सपने बुनने लगती - 'पता नहीं तेजी से बदलती दुनिया में जमाने भर की माँएँ कब बदलेंगी जब वे सिर्फ अपने लिए जी सकें ? बच्चों का दर्द उनके रोएँ रोएँ से कोई छुड़ा दे।' अपने बह आए आँसुओं को आँचल से पोंछती सरोज सनी का सिर सहला रही थी। पारू से माँ का दुःख देखा नहीं गया, माँ के संग वह भी रो पड़ी।
सरोज ने दोनों को समझाते हुए कहा, "इस तरह परेशान नहीं होते। तुम क्या समझते हो, तुम्हारे पापा नहीं चाहते हैं कि वे अपने बच्चों की इच्छाएँ पूरी करें; लेकिन वे कितने मजबूर हो जाते हैं, इसे समझ पाना बिलकुल आसान नहीं है।"
"लेकिन मम्मी, खर्चे तो होते ही हैं। कभी बुआजी आ जाती हैं, कभी मौसीजी आ जाती हैं। वे लोग भी तो हमारे ही जैसे हैं, क्या हम उनके घर नहीं जा सकते हैं?" सनी ने समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा।
पारू ने भी सनी की बात पर मुहर लगाई, "हाँ, मम्मी, इस बार हम लोग भी उनके घर जाएँगे और हम भी उन लोगों के बच्चों की तरह खाने-पीने की फरमाइश करेंगे, तब पता चलेगा कि कितना खर्च होता है इस महँगाई के जमाने में किसी की खातिरदारी करने में!"
"हाँ मम्मी, दीदी बिलकुल ठीक कह रही हैं। आने दो पापा को, हम लोग पापा से यह बात जरूर कहेंगे। चाहे कुछ हो, इस छुट्टी में तो हम लोग जाएँगे, जरूर जाएँगे।"
सरोज को भी लगा कि बच्चे बात कुछ गलत नहीं कह रहे हैं। ननद और बहन के घर जाने पर कम-से-कम खाने-पीने और रहने की सुविधा तो मिल ही जाएगी। फिर दोनों शहरों में रहती हैं, बच्चों का घूमना भी हो जाएगा।
आखिर, छुट्टियाँ बाहर बिताने का कार्यक्रम बन ही गया। सनी और पारू के लिए यह सूचना सपने के सच होने जैसा था। दोनों बहुत प्रसन्न हुए। छोटी मीता भी पारू और सनी के साथ बहुत प्रसन्न थी। अब समस्या थी कि जब वे सब लोग इन पंद्रह दिनों तक घर से बाहर रहेंगे तो दादीजी का क्या होगा ? कैसे दादीजी से कहा जाए कि वे कुछ दिनों के लिए अपने छोटे बेटे के घर चली जाएँ ? सरोज हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।
लेकिन बच्चों से दादीजी को जानकारी मिल गई और वे स्वयं सरोज से बोलीं, “तुम लोग छुट्टियों में कहीं बाहर जा रहे हो, मैं भी सोच रही थी कि रामदयाल की अम्मा के साथ कुछ दिन के लिए वृंदावन हो आऊँ।"
सारी समस्याएँ आनन-फानन में निबटती जा रही थीं और वह दिन भी आ गया जब सरोज एवं नरेश परिवार सहित रेलयात्रा पर निकल पड़े थे। वे सभी छुट्टियाँ बिताने घर-परिवार की झंझटों से कहीं दूर जा रहे थे। बच्चों की तो खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। कुछ ही घंटों बाद टिफिन कैरियर खुला। सबने आलू-पूड़ी खाई और सरोज ने टिफिन समेटा पारू टिफिन के जूठे डिब्बे को पानी से खंगालने के लिए वॉश बेसिन की ओर चली गई। सेकंड में ही धड़-धड़ की आवाज के संग ट्रेन की बोगियाँ पलटनी शुरू हुईं और सारा माहौल चीख पुकार में बदल गया। कौन कहाँ है, कैसे है, जी भी रहा है या दुनिया से कूच कर गया- - सारे प्रश्न करुण और भयावह चीत्कार में खो चुके थे। किसी को अपनों की सुध नहीं थी। आती-जाती साँसों ने ही जीवित बचे रहने का संकेत दिया था। बेहोश सरोज ने जब अस्पताल में आँखें खोलीं तो पता चला कि चार दिन पहले हुई ट्रेन दुर्घटना में उसकी दाहिनी टाँग टूट गई है। सिर में भी पट्टी बँधी थी। दर्द से कराहते हुए उसने अपने बच्चों और पति के बारे में नर्स से पूछा। नर्स ने नाम-पता नोट किया। दो दिन बाद सरोज को पता चला कि उसके पति, सनी और मीता दूसरे वार्ड में हैं। वे भी घायल अवस्था में हैं। सरोज ने नर्स और डॉक्टर से बहुत अनुरोध किया कि वह उसकी बेटी पारू के बारे में भी खोज करें। सरोज रोज वार्ड बॉय से, जमादार से सबसे प्रार्थना करती। यहाँ तक कि अपने पासवाले मरीज से भी कहती कि किसी तरह पारू का पता लगाएँ। रोज पारू के नाक-नक्श, उम्र और कपड़ों के बारे में भी सबसे कहती; पर पारू के बारे में कोई उसे कुछ नहीं बता पाता । सरोज अब पहले से काफी ठीक हो चली थी। पति और बच्चों से भी वह मिल चुकी थी । वे अस्पताल से डिस्चार्ज हुए। उससे पहले सरोज और उसके पति ने अस्पताल के सारे वार्ड में पूछताछ की। उस लिस्ट में भी खोजबीन की, जो दुर्घटना के समय बनी थी। कुछ लोगों ने बताया कि दुर्घटनाग्रस्त लोग उसी शहर के दूसरे अस्पताल भरती हुए थे। वहाँ भी वे लोग गए, लेकिन पारू नहीं मिली।
सरोज अपने पति और दोनों बच्चों सहित घर वापस आ गई थी। पारू को भुला पाना संभव नहीं था और उसका मिलना और भी असंभव था। समय बीतता रहा। सरोज और उसके पति तो यह मान चुके थे कि अब पारू इस दुनिया में नहीं है लेकिन बूढ़ी दादी को न जाने अपने ठाकुरजी पर कैसा अटूट विश्वास था कि उनकी लाडली पोती एक दिन जरूर आएगी। धुँधली आँखों में गहरी चमक भरा विश्वास था। जब कि सरोज को तो उसके पति ने इस बात के लिए भी तैयार कर लिया था कि अगर कहीं भूले-बिसरे भी पारू लौटी तो हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। जवान है, न जाने क्या-क्या उसके साथ गुजरी होगी। इसलिए उन्होंने तो पारू का क्रिया-कर्म और मृत्यु का सारा संस्कार भी संपन्न कर दिया था। जाति- बिरादरी और समाज से भी इस बात पर मुहर लगवा ली कि उनकी बेटी पारू अब इस संसार में नहीं है। पर बूढ़ी दादी का क्या हो, जिनकी धुंधलाई आँखों में पा की प्रतीक्षा समाई हुई थी। उनके ठाकुरजी ने उनके विश्वास को संकल्प में बदल दिया था, जब कि वह पारू को खोज निकालने में हर ओर से लाचार थीं।
सर्दियों की गहराती शाम सूरज पूरी तरह अपनी उजास समेट चुका था । सरोज ने देखा, घर के सामने एक टैक्सी रुकी। फिर टैक्सी का दरवाजा भड़ाक से बंद करती पारू भागी-भागी माँ के गले से लिपटकर फूट-फूटकर रो दी। सँवलाया सूखा चेहरा, अस्त-व्यस्त बाल और मटमैला सलवार सूट हतप्रभ सरोज समझ नहीं पा रही थी कि क्या यह उसकी पारू है! और पारू थी कि उसके आँसू नहीं थम रहे थे। वह लगभग चीख रही थी, "तुम लोग मुझे कहाँ छोड़कर आ गए थे?"
तभी लड़खड़ाती दादी आईं। उन्होंने पारू को कलेजे से चिपटा लिया। वह कहे जा रही थीं, "मुझे अपने ठाकुरजी पर पूरा भरोसा था।"
पारू के पापा भी आ गए थे। उनके चेहरे पर बिछड़ी बेटी के लौटने का कोई सुखद भाव नहीं था। एक दहशत थी। बार-बार वे अपनी पत्नी सरोज को देखते और सरोज उनको ।
टैक्सी ड्राइवर सरदारजी ने बताया, "इस लड़की ने मुझसे बहुत मिन्नतें कीं कि मुझे मेरे घर छोड़कर आओ। दरअसल, यह हमारे पड़ोस के एक कंपाउंडर के घर पिछले चार महीनों से रह रही थी। एकदम गुमसुम रहनेवाली इस लड़की को सब पगली समझते थे क्योंकि ये अपनी याददाश्त खो बैठी थी; लेकिन कंपाउंडर की पत्नी इसे बहुत प्यार करती थी, इसका बहुत खयाल रखती थी। इसे अपनी बेटी समझती थी। कंपाउंडर भी इसे अपनी बेटी मानता था इस लड़की के आ जाने से निस्संतान कंपाउंडर दंपती बहुत प्रसन्न थे। एक दिन अचानक ही कंपाउंडर की पत्नी को भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर मायके जाना पड़ा। पति की देखभाल के लिए वह इस लड़की को छोड़ गई। अचानक एक दिन रात में पड़ोसी कंपाउंडर के घर चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। इसका रक्षक बना कंपाउंडर ही इसका भक्षक बनना चाह रहा था। पारू ने जब विरोध किया तो उसने इसे बहुत मारा और बचाव में जब यह भागी तो इसका सिर दीवार से जा टकराया। यह बेहोश हो गई थी। तब तक हम इसकी मदद के लिए पहुँच गए थे। होश में आने पर इसकी याददाश्त लौट आई थी। अपने माँ-बाप को याद करके यह खूब रोई । इसने अपना पता दिया और मुझसे बहुत मिन्नतें कीं कि मुझे घर पहुँचा दो। मुझे भी लगा कि शरीफ घर की लड़की है। इसे इसके घर पहुँचा देना चाहिए । दरअसल मेरी भी बेटियाँ हैं और मैं बेटियों का दर्द समझ सकता हूँ।"
पारू के पिता ने आगे बढ़कर अभी कुछ कहना ही चाहा था कि दादी अपना छोटा सा बटुआ टैक्सीवाले सरदारजी को थमाती भाव-विभोर हो उठीं, "भैया, तुमने तो हमारा विश्वास लौटा दिया। तुम्हारा अहसान भुला पाना...अरे बहू...नरेश, ऐसे ठगे से क्यों खड़े हो ? तुम्हारी खोई अमानत तुम्हारे सामने है। इसे अंदर ले जाओ।"
नरेश गुस्से से तमतमाए बस इतना ही कह पाए, "अम्मा, बस करो। अंदर जाओ। और सरदारजी...आगे कुछ कहते कि सरोज ने उन्हें रोक लिया। नरेश टैक्सी ड्राइवर सरदारजी को लेकर दरवाजे की ओर बढ़ गए।
इस बीच दादी अपनी लाडली को लेकर अपने कमरे में जा चुकी थीं और सरोज एवं नरेश यह नहीं समझ पा रहे थे कि पारू का क्या करें ? सरोज की आँखों से बराबर आँसू बह रहे थे ।
अचानक नरेश बोले, “सुबह होने से पहले हमें पारू को ठिकाने लगाना होगा।"
सरोज लगभग चीख उठी, "क्या कह रहे हो ? क्या उसे मार डालोगे ?"
नरेश ने आदेश भरे स्वर में कहा, "चीखो मत, मुझे कुछ सोचने दो। इस लड़की को हम अपने घर में नहीं रख सकते। चार महीने जाने किस-किस के साथ क्या-क्या हम समाज में मुँह दिखाने लायक रह सकेंगे क्या ? फिर मीता की भी हमें शादी करनी है।" आँसू पोंछती सरोज को डपटते हुए नरेश ने कहा, "इस तरह रोने से कुछ नहीं होनेवाला । हम पारू को सुबह उजाला होने पर नारी निकेतन छोड़ आएँगे ।" लेकिन सरोज कुछ कहे, इससे पहले नरेश बोले, "तुम्हें सिर्फ चुप रहना है। तुमसे पूछकर मैं कोई निर्णय नहीं लेने जा रहा हूँ।"
पारू के बारे में किए गए निर्णय के बारे में दादी माँ जान चुकी थीं। रात भर पोती को कलेजे से लगाए सुबकती रहीं। सुबह पाँच बजे उन्होंने पारू को उठाया । पारू को अपनी पूजा की साड़ी और गंगाजल देती हुई बोलीं, “जा, जल्दी से नहा- धोकर तैयार हो जा।"
पारू आश्चर्यचकित दादी को देख रही थी और हकबकाकर दादी माँ से पूछ बैठी, “इतने सवेरे नहा लूँ। क्यों दादी, क्या हुआ ?"
दादी ने दृढ़ आवाज में कहा, "बस, जो कह रही हूँ, वह जल्दी कर । समय बहुत कम है।" पारू को आदेश देती हुई दादी माँ बाहर दरवाजे की ओर बढ़ गईं।
नरेश ने अम्मा को बाहर जाते देख बिस्तर पर पड़े पड़े ही आवाज दी, "कहाँ जा रही हो, अम्मा?"
अम्मा क्षण भर को रुकीं और बहुत विश्वास एवं दृढ़ता के साथ बोलीं, ‘“मोहल्ला न्योतने जा रही हूँ। आज पूजा है "देवी की प्राण-प्रतिष्ठा है । "
सरोज घबराई हुई सी सास के पास लगभग दौड़ती हुई आकर खड़ी हो गई। भौचक - सी सास को देखते हुए बोली, "क्या कह रही हो, अम्मा? कैसी पूजा ? कैसी प्राण-प्रतिष्ठा ?"
"नहीं समझोगी, बहू, तुम नहीं समझोगी। औरत होकर औरत का दर्द नहीं समझोगी तो घर की लड़कियाँ ऐसे ही बेसहारा और दर्द सहती रहेंगी। जानना चाहती हो न कि मैं कौन सी पूजा की बात कर रही हूँ, तो सुनो, मैं पारू को नारी निकेतन नहीं जाने दूँगी। वह इस घर की बेटी है, वह देवी स्वरूपा है। उसके साथ जो भी हुआ वह एक हादसा हो सकता है। बीमार मानसिकता की भले वह शिकार हुई हो, लेकिन हमारी निगाहों में और अपने घर में वह पवित्र है। उसके जीवन की सुरक्षा के लिए ही मैं भरे समाज में देवी के रूप में उसकी प्राण प्रतिष्ठा करने जा रही हूँ।”
और इससे पहले कि सरोज कुछ कहे, दादी चली गई थीं - मोहल्ले को न्योतने। नरेश और सरोज ठगे से एक-दूसरे को देखते रह गए थे।