प्रकृति से एक होती सोच : मंगला रामचंद्रन

Prakriti Se Ek Hoti Soch : Mangala Ramachandran

सुलेखा अपनी पोती और अपने बेटे के बीच हो रही रोचक वार्ता को सुनते-देखते कब कल्‍पना लोक में विचरने लगी उसे स्‍वयं भी पता नहीं चला। वरना मज़ेदार बातों से सुलेखा के होठों पर आई स्मित की रेखा की गोलाई का रूप बदल गया होता। जब बेटे आनंद ने उसे चेताया तब जाकर उसका ध्‍यान गया कि नव्‍या का मुंह फूला हुआ है और आनंद सुलेखा से पूछ रहा था – ‘आप इतनी खुश क्‍यों हो रही हैं? वो अपने लोक में जब गोते लगाने लगती है तो उसे सामने जो कुछ घट रहा होता है उसका पता ही नहीं चलता है। वरना आनंद और नव्‍या के वार्ता में कब गंभीर या झगड़े वाला मोड़ आ गया ये समझ आ जाता और उसके चेहरे पर भी गंभीरता का आवरण चढ़ जाता।

नव्‍या वर्तमान बच्‍चों की तरह ढेरों प्रश्‍नों का एक बैंक अपने दिलोदिमाग में रखकर ही शायद पैदा हुई थी। सुलेखा को अच्‍छा भी लगता था जब उसकी जिज्ञासा को शांत करने का उसे मौका मिलता। जब भी नव्‍या और आनंद में दोस्‍तों की तरह बातों का आदान-प्रदान होता तो सुलेखा पुलक से भर जाती।

वो अपने बचपन में पहुँच जाती। तीन बच्‍चों में सबसे छोटी और अपने बाबा की दुलारी। वो अगर सामने ना दिखे दफ्तर से आतें ही बाबा की आंखें उसे ही तलाशती। एैसा मौका शायद ही कभी आया हो जब बाबा बाहर से घर आयें और सुलेखा की हलचल भी प्रारंभ ना हुई हो। बाबा के लिए पानी का गिलास लाकर देना, हाथ से बैग या जो भी सामान हो लेकर रखना और साथ-साथ उसकी जबान भी अपना काम करते रहती। नव्‍या के दिल में दिमाग में जो कुछ भरा होता, खुशी के – ग़म के या नाराजी के सब कुछ बाबा के सामने उजागर हो जाये तो मानों उसे शांति मिल जाती। उसके बाबा तो उससे बातें करते हुए आस-पास का सब भूल जाते थे। कितनी बार पत्‍नी कहती – ‘आप भी बस इस बातूनी की बातों पर इतना ध्‍यान और समय देते हैं कि जरूरी काम भी भूल जाते हैं।

सुलेखा के भाई-बहन भी कुढ़ते रहते ‘बाबा के लिए हम लोग तो मानों कुछ भी नहीं हैं। बस जो कुछ है वो सुल्‍ली ही है।

पर तब भी नव्‍या और आनंद के बीच जो एक खुलापन, मित्रवत व्‍यवहार होता है वैसा सुलेखा चाह कर भी अपने बाबा के साथ नहीं रख सकी। वो स्‍वयं को नव्‍या की जगह रखकर अपने पिता की कल्‍पना आनंद में करती। यदि वो अपने ख्‍याली पुलाव का खुलासा करे तो कौन विश्‍वास करेगा। बेटा-बहू उसकी हंसी उड़ायें तो उसे हैरानी नहीं होगी। अभी जिस तरह नव्‍या अपने पापा से दोस्‍त की तरह हँसी मजाक भी कर लेती है तो दुश्‍मानों की तरह दोनों लड़ भी पड़ते हैं। साथ ही बिना हिचक के समय-समय पर दोनों एक दूसरे की सराहना भी कर के अपने-अपने स्‍नेह का प्रदर्शन भी कर लेते हैं। कितना भरपूर रिश्‍ता है, बच्‍चे को घर बाहर किसी तीसरे के कंधे के सहारे की जरूरत ही नहीं होगी।

सुलेखा जब छोटी ही थी उसकी मां पर संयुक्‍त परिवार का बोझ भी था, वृद्ध सास-ससुर और घर की अहम् जिम्‍मदारियों ने उन्‍हें इतना समय ही कहां दिया था कि बच्‍चों के लाड़-प्‍यार में मगन रहे। जब सुलेखा पांच-छ: वर्ष की हो रही थी तभी उसके बाबा को दूसरे शहर में तबादला हो गया और वो अपनी पत्‍नी और तीनों बच्‍चों को लेकर वहां चले गये। तब तक सुलेखा के चाचू नौकरी करने लगे थे, उनका ब्‍याह भी हो गया था सो दादा-दादी को दिक्‍कत नहीं हुई। फिर बच्‍चों की स्‍कूल की छुटिटयों में तो वहां डेरा डलता ही था। नये शहर में आकर बड़े दोनों बच्‍चों को तो स्‍कूल और शिक्षा ने व्‍यस्‍त कर लिया था पर सुलेखा को अपना दिन ही नहीं मन भी खाली-खाली लगता। बाबा को यहां पहली बार अपनी बच्‍ची से ‘पहचान बढ़ाने’ को मौका मिला। घर में माता-पिता या अन्‍य बड़ों की उपस्थिति में ये संभव न हो पाता था। जब सुलेखा और उसके बाबा की नये सिरे से दोस्‍ती हुई तो बाबा को तो मानों एक नये उत्‍साह और ऊर्जा ने पूरी तरह घेर लिया। कितनी बार बाबा सोचते कि इतनी खुशी आखिर उनसे लुका छिपी करती हुई कहां छुपी थी।

सुलेखा के ऊब और खीझ से भरी दिनचर्या और मन को अपने बाबा का स्‍नेह और दुलार यूं लगता मानों तपते ग्रीष्‍म में श्रावण की वृष्टि हुई हो। बच्‍ची का मन यूं खिल गया मानों जीवन को नया अर्थ मिल गया हो। ऊब से भरी सुलेखा पंछी की तरह चहकने लगी। स्‍कूल में उसकी टीचर्स भी उसमें आये गुणात्‍मक परिवर्तन से खुश थी। जब वो दस वर्ष की हुई तब उससे दस वर्ष बड़ी दीदी ने कॉलेज से ग्रेजुएशन कर लिया था और उसके विवाह की चर्चा जो अस्‍पष्‍ट स्‍वरों में हुआ करती थी वो मुखर हो गई। छ-सात वर्ष बड़ा भाई तो वैसे भी दादा-दादी, चाचू सबका लाड़ला और खानदान को बढ़ाने वाला पौध था। उसको मात्र लाड़-प्‍यार ही मिला करता, बुढ़ापे की संभावित लाठी जो था। पर अभी तो सुलेखा अपने बाबा के साथ जिस तरह खुश रह रही थी, उसे और किसी की ओर देखने की फुरसत भी ना थी और ना अधिक जानने की इच्‍छा। पहली बार उसे लग रहा था कि घर में किसी के स्‍नेह को पाने की वो अकेली प्राप्‍तकर्ता है। हालांकि अब मां की रोकटोक प्रारंभ होने लगी थी। प्रतिदिन शाम होते-होते सुलेखा स्‍वयं को बाबा के साथ समय बिताने को तैयार कर लेती थी। स्‍कूल का होमवर्क निपटा कर अगले दिन के लिए स्‍कूल बैग तैयार करने तक सारे कार्य इतनी तल्‍लीनता और मुस्‍तैदी से करती जाती मानेां बस जंग जीत ही चुकी हो। उन दिनों लड़कियों के लिए खुलकर जीना किसी जंग की तरह ही तो थी। उसकी दीदी को भी तो उसके दादा-दादी, मां कितनी-कितनी तो चेतावनियां दिया करते थे। जब से दीदी के ब्‍याह की बातें लगभग तय होने को हो गई तो मां दीदी पर प्‍यार उड़ेलने लगी, अब तो सुलेखा रोका टोकी का केन्‍द्र बन गई।

‘सुलो, बाबा के आते ही गले में झूल मत जाना, बच्चों जैसे लाड़ मत करने लगना, अब तू बड़ी हो रही है।' – ये मां का नित्‍य का जप होता, बाबा के दफ्तर से लौटने के पहले।

सुलेखा पूछती – ‘बड़े तो सब होते है, आपने किसी को साल दर साल छोटा होते देखा है क्‍या?’ – वो तो मज़ाक में पूछती पर मां खीझ जाती – ‘मुझे यही डर था, अपने पिता के लाड़ में तू बोलना बहुत अधिक सीख गई है। जब लड़कियां बड़ी होने लगती हैं तो पुरूषों से दूरी बनाकर रखती हैं। यहां तक कि अपने पिता और भाई से भी। बैठने-उठने में संभलकर रहती हैं ................

तभी बाबा हंसते हुए घर में घुसे – ‘हमारी सुलेखा को क्‍या पाठ पढ़ाया जा रहा है?’

बाबा सदा ही उसे पूरे नाम से बुलाते थे। उनका कहना था कि जब इतना सुंदर नाम रखा है तो उसे बिगाड़ कर या आधा अधूरा कर के क्‍यों बुलाना।

‘इसे कौन पाठ पढ़ा या सिखा सकता है। आपने जो इतना सिर पर चढ़ा रखा है।'

‘सुशीला ऐसे जली कटी क्‍यों सुना रही हो। मैं तो इंदु से भी इतना ही स्‍नेह करता हूँ। पर बुजुर्गों के सामने स्‍नेह प्रदर्शन करना अच्‍छा नहीं माना जाता था वरना वो तो प्रथम संतान के नाते सबसे अधिक स्‍नेह पाती है।'

इंदु को पिताजी की बात सुन बहुत अच्‍छा लगा, वो मन में बोली ‘यूंही सुल्‍ली से जलती रही।‘

‘अपनी संतान को सभी प्‍यार करते है, पर लड़की जात को अपने व्‍यवहार में थोड़ा चौकन्‍ना और सजग भी होना चाहिये। वही समझा रही थी।' – मां अंदर जाते हुए बोली।

तभी सुलेखा से सात वर्ष बड़े भाई ने उसे छेड़ते हुए कहा – ‘दीदी ससुराल चली जायेगी, फिर उनके हिस्‍से के घर के काम तुझे ही तो करना होगा।'

‘तो क्‍या हुआ, आपको लगता है मुझे ये सब काम करना नहीं आता है?’ - सुलेखा ने फटाक् से पूछा।

‘सुलेखा तो कर लेगी या सीख लेगी पर बेटा रवि तुम भी अब इन कामों में हाथ बंटाओगे।' – बाबा ने हंसते हुए कहा।

‘क्‍यों, मैं क्‍यों करूँ वो भी घर के काम?’ – रवि ने नाक-भौ सिकुड़ते हुए कहा।

‘क्‍यों, तुम किसी नवाब या राजा के बेटे हो या तीस मार खां? वर्तमान में लड़के-लड़की के काम में बंटवारा नहीं होता। सबको जरूरी कार्य संपादित करना आना चाहिए जिससे वक्‍त जरूरत पर कोई काम अटक न जाए। मैं भी तो तुम्‍हारी मां को घर के कार्यों में मदद करता हूँ कि नहीं। हालांकि रिटायर हो जाऊँगा तो और अधिक कर पाऊँगा।' – बाबा कुछ जोश में ही गये थे।

सुशीला रसोई से आते हुए बोली – ‘बस-बस; कुछ ज्‍यादा ही जोश में आ गये हैं। घर में मां बाबूजी को आपकी बातें सुनकर तो दिल का दौरा ही पड़ जायेगा।'

बाबा बोलना तो बहुत कुछ चाह रहे थे पर मुस्‍कुरा कर रह गये। बुजुर्गों को मान देने की बात पर तो उन्‍हें अपने कितने ही विचारों को दफन करना पड़ता है। ये जानते हुए भी कि आपकी सोच ठीक और प्रगतिवादी है और समयानुकूल भी है पर - - -

‘क्‍या बात है, कुछ कह नहीं रहे है, बस मुस्‍कुरा कर रह गये।' – सुशीला उस दिन काम से जल्‍दी फारिग हो गई थी। इंदु को रसोई के कार्य में दक्ष बनाते हुए उसे अच्‍छी सहायक जो मिल गई।

‘बाबा, आज पता है स्‍कूल में क्‍या हुआ? – सुलेखा लाड़ से बाबा के पीठ की ओर से गर्दन में दोनों हाथ डाले चहकने लगी।

बाबा मानों इसी का इंतज़ार कर रहे थे। अपना पूरा प्‍यार सुलेखा पर लुटा देने के लिए तैयार से उसके दोनों हाथों को पकड़ते हुए बोले – ‘अब आज क्‍या अजूबा हो गया? –

सुशीला बीच में ही बोल पड़ी – ‘सुलेखा तो ना समझ है पर आप तो समझदार हैं। क्‍यों नहीं समझते कि लड़कियां जब बड़ी होने लगती हैं तो पुरूषों के साथ व्‍यवहार में उन्‍हें संयत रहना पड़ता है। -

बाबा कुछ खीझ और कुछ क्रोध में ऊँचे स्‍वरों में बोले – ‘कैसी वाहियात बातें करती हो। दुनिया में क्‍या हो रहा है, सोच कितनी खुली हो गई इसका कुछ अंदाज़ा भी है तुम्‍हें। पुरूषों के साथ, मैं अपनी बेटी के लिए पुरूष हो गया, पिता या जनक के पावन, स्‍नेहपूर्ण रिश्‍तों को तुमने एक पल में कैसे ध्‍वंस्‍त कर दिया‘' – बात खत्‍म्‍ करते हुए उनकी आंखों में गीलापन और उदासी तिर आई।

एक बारगी सुशीला शर्म और डर से जड़ सी हो गई कि बच्‍चे भी उसकी सोच को कितना गिरा और निष्‍कृट मानेगें। पति को तो वो अपनी बात या विचार किसी तरह प्रेषित कर ही लेगी। अथक प्रयत्‍नों से साहस जुटा कर बोली – ‘गर्मियों में इंदु का ब्‍याह जब घर से करायेगे तो मां–बाबूजी के सामने अपनी बच्‍ची की हरकत के लिए वो बच्‍ची की मां को ही कोसेगें। जिस तरह इंदु को मैंने सिखाया और दूसरे प‍रिवार में बहू के रूप में प्रतिष्ठित होने की तैयारी करवाई वो गलत है क्‍या? मैं अगर सुलेखा को भी उसका भला सोच कर कुछ कहूँ तो मैं उसकी दुश्‍मन हो गई - - मां की भी आंखे गंगा- जमुना हुई जा रही थीं।

सुलेखा बहुत अधिक तो कुछ समझ नहीं पा रही थी, पर उसके कारण बाबा को मां से कुछ सुनना पड़े ये उसे स्‍वीकार नहीं था। उसने तय किया कि वो मां की बातों पर कान देगी। अब वो बाबा के गले में नहीं झूलती, उसकी बातों में पंछी की चहक और कलख तो रहा ही नहीं। गंभीरता ओढ़ने के प्रयास में कभी-कभी हास्‍यास्‍पद स्थिति तो कभी कष्‍टमय वातावरण हो जाता। घर में सहज स्‍वच्‍छ बहती हवा वाला माहौल तो मानों सपना ही हो गया।

एक दिन जब तीनों बच्‍चे घर में नहीं थे तो पति-पत्नि में कुछ खुल कर वार्तालाप हुआ।

‘सुशीला, देख रही हो ना कि सुलेखा कैसी मुर्झाई सी लगती है। शायद मैं ही इसका गुनहगार हूँ। पर उस दिन के बाद वो मुझसे पहले की तरह लाड़ से ना बात करती है ना पास आकर बैठती है। मैं भी तो कितना संकोची हो गया हूँ मानों अपराधी हूँ।' – बाबा के उदासी और आत्‍मग्‍लानि से भरे स्‍वरों से सुशीला द्रवित हो गई।

‘मेरा भी दोष है मैं आपको अलग से, अकेले में कुछ कहती तो बात यूं बिगड़ती नहीं। मुझे भी कई बार लगता है कि मां -बाबूजी के मान-सम्मान के खातिर हम पुराने विचारों से जकड़े रह गए।  लेकिन फिर करें क्या?  उनकी बातों का निरादर भी तो नहीं कर सकते।' - मजबूरी और  बेचारगी सुशीला की वाणी में इस तरह घुली-मिली हुई थी मानो वो भी कहीं ना कहीं से आज़ाद होना चाह रही है।  

‘मुझे बहुत पहले पहल करनी थी। बड़ों का आदर करते हुए भी सड़ी-गली परंपराओं का विरोध किया जा सकता था। घर की शांति भंग ना हो और स्वयं को ‘सुपुत्र’ साबित करना ही तो जीवन का मकसद नहीं हो सकता। ये तो वही हुआ कि गलत बातों या विचारों को आंखों के सामने प्रतिपादित होते रहने देना और उन सब से आंखें मूंदे रखना। हर दशक में इतने बदलाव हो रहे हैं, नई सोच विकसित होती जा रही है, अगर उन पुरानी लकीर को पीटते रहेंगे तो बच्चों का विकास सही तरीके से कैसे होगा।'    

-बाबा ने पत्नी को उत्साह दिलाते हुए कहा - ‘बच्चों के लिए जो भी सोच प्रगतिकारक हो और उनके जीवन को संवारें उसे हम दोनों ही स्वीकारने  से हिचकेंगें नहीं। तुम भी अपनी सोच का दायरा विस्तृत करो, बच्चों के विकास के लिए जो भी उचित और अच्छा होगा उसे अपनाने से पीछे मत हटो। मां-बाबूजी को जवाब मैं दूंगा।‘ मानो एक दूसरे से सहमत होते हुए एक तरह से दोनों ने नये संधिपत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए हों।

सुलेखा भी अब इतनी नासमझ नहीं रह गई थी कि मां-बाबा की बात समझ न आये या उनका बच्‍चों के लिए जो संचित स्‍नेह है उसे ना समझे। पर फिर भी सारी जिंदगी एक विचार उसका पीछा करता ही रहा कि उसे बाबा का स्‍नेह पूरी तरह से मिलते-मिलते कुछ शेष रह गया। उम्र के सत्‍तहरवें वर्ष भी कभी-कभी ये विचार आ-आकर दस्‍तक देता है। अभी जब बेटे के घर नव्या, आनंद और अदिति को आपस में बातें, हंसी मजाक, बहस और दुनिया भर की बातें तीन दोस्‍तों की तरह होते देखती है तो एक सुकून सा मिलता है। बराबरी का एहसास और एक दूसरे की भावनाओं का आदर मानों समानांतर साथ-साथ रहते हैं।

उक्‍त दिन तो सुलेखा अचंभित ही हो गई थी और स्‍वयं के साथ घटी घटना को याद करने से रोक नहीं पाई। नव्‍या स्‍कूल से आकर आनंद से पूछने लगी – ‘मम्‍मी कहां?’ ‘मम्‍मी शीला आंटी के यहां ऑफिस के कागज देने गई हैं। क्‍यों क्‍या काम है मम्‍मी से आनंद ने यूं ही मुस्‍कुराते हुए पूछ लिया।

‘कोई खास बात नहीं, मम्‍मी को बताना है कि मेरे पीरीयडस् शुरू हो गये और मैंने हाऊस कीपींग की डॉली मैडम से बता कर पैड (सैनेटरी नैपकिन) ले लिया था।' – जीवन के इस प्रमुख प्रसंग को बड़े ही सहज तरीके से अपने पापा से कह कर नव्‍या फ्रेश होने चली गई।

पर मैं हड़बड़ा गई। मुझसे रहा न गया – ‘अदिति को फोन कर के बुला लो ना!

‘क्‍यों, किसलिए?’ – आनंद ने कह कर मेरी ओर देखा – ‘अरे आपको क्‍या हो गया, इतने परेशान क्‍यों लग रही हैं? अदिति थोड़ी देर में लौटेगी तब बता ही देंगे। वैसे हम लोग एक्‍सपैक्‍ट (EXPECT) कर ही रहे थे।' – इतना कह कर उसने नव्‍या को दूध और नाश्‍ता लेने को कहा और अपने कार्य में मशगूल हो गया।

मुझे अपना किस्‍सा याद आना लाजिमी था। दीदी का ब्‍याह हो चुका था, अब घर में हम चारों ही थे। मां इन दिनों विचारों से कुछ परिष्‍कृत हो रहीं थी। पास के ही एक महिला से कागज, रेशमी और मखमली कतरनों से सजावटी फूल, तोरण आदि बनाना सीख कर अब ‘गांव की हाट’ नामक संस्‍था में बेचने जाने लगी। महिलाओं का एक अच्‍छा संगठन सा बन गया और सुशीला ने मानों इसमें नई जिंदगी और ऊर्जा पा ली। इसके कारण उनकी खीझ भी कम हुई और वो खुश रहने लगी। सुलेखा के साथ भी उनका व्‍यवहार काफी बदल गया था। उस दिन सुलेखा स्‍कूल से जल्‍दी आई तो घर में मात्र बाबा ही थे। बाबा ने बस इतना ही पूछा – ‘अरे आज तो बड़ी जल्‍दी आ गई, स्‍कूल जल्‍दी बंद हो गया क्‍या?’

सुलेखा ने उनकी बात सुनी भी नहीं होगी, बस बस्‍ता रख कर रोते हुए बाथरूम में घुस गई। बाबा को लगा, बस बाहर निकल कर उत्‍तर देगी, स्‍कूल जल्‍दी क्‍यों बंद हो गया ये बतायेगी। पर सुलेखा तो बाथरूम से निकली ही नहीं। बाबा ने बाथरूम के दरवाजे को पीटा, बार-बार पूछा – ‘बेटी क्‍या बात है कोई तकलीफ है क्‍या? कुछ बता तो, तेरे बाबा को नहीं बतायेगीं?

अंदर से कोई जवाब नहीं, बस सुलेखा की सुबक-सुबक कर रोने की आवाज़ आ रही थी। बाबा तो इतना घबरा गये और अड़ोस-पड़ोस के किसी बच्‍चे को भेजकर सुशीला को बुलवाने का सोच रहे थे। तभी संयोग से सुशीला आती दिखी ओर उनकी जान में जान आई। उन डेढ़ घंटों के त्रासदायी अंतराल को ना सुलेखा कभी भूल पाई और बाबा भी मरते दम तक नहीं भूले होगें।

मां ने बाहर से ही पुचकार के समझा कर बाथरूम का दरवाजा खुलवा लिया। उसे माहवारी के बारे में समझा कर शांत किया और कपड़े वगैरह बदलवा कर मुंह मीठा करवाया। उसके बाद तो मां उसके और भी करीब आ गई, कई बातों में उसकी राय लेने लगी। बाबा को इस बीच जो धक्‍का लगा वो उनके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था, कितने सहमे-सहमे से थे। अभी भी सोच कर और बाबा के चेहरे को याद कर हंसी आ जाती है।

बेटे का सहज अंदाज में ‘ हम ‘एक्‍सपैक्‍ट’ करते रहे थे कहना थोड़ा अटपटा लगा। उससे भी अधिक तो नव्‍या का व्‍यवहार लगा, एकदम सहज, प्रतिदिन की तरह अपनी दिनचर्या में रत। तभी अदिति भी आ गई और कुछ मिठाई भी लेकर आई थी।

‘अरे तुम्‍हें कैसे पता चला, मैं सोच ही रही थी कि गरम हलुआ बनाऊँ।‘ – सुलेखा खुश होते हुए बोली।

अदिति कुछ समझी नहीं, बस इतना बोली – ‘शीला ने बनाई थी वो ही दी है। आपको खाना हो तो हलुवा बना लीजिए सभी खा लेगें।‘

तभी नव्‍या हंसते हुए आई बोली – ‘मम्‍मा अब प्रोटीन के साथ आयर्न (iron) भी लेना होगा।‘ – कहते- कहते गुड़ का एक डला मुंह में रख लिया।

अदिति भी खुश होते हुए बोली – ‘ओ.के. अब तो आप बहुत बड़ी हो गई।‘

नव्‍या से सुलेखा ने हैरानी से पूछा – ‘बेटे आपके पेट में या पीछे कहीं दर्द तो नहीं हो रहा?

‘नहीं दादी, क्‍यों होगा? बस हेल्‍थी गरम खाना खाऊँगी तो पता भी नहीं चलेगा।' – नव्‍या आज़ाद पंछी की तरह इस तरह रही कि लगा ही नहीं कि उसके जीवन में अभी-अभी कोई बड़ा बदलाव आया हो।

सुलेखा को आश्‍चर्य भी हो रहा था और तसल्‍ली भी। उसको तो हर बार पेट में पीछे, पैरों में इतना दर्द होता था कि आधा समय रोकर ही निकलता। पहली बार तो ‘शॉक’ सा लगा था कि उसके साथ कुछ अनहोनी हो गई है।

अदिति ने ही सुलेखा को बताया – ‘यहां स्‍कूलों में बच्‍चों को पहले से ही समझा दिया जाता है कि इस स्थिति से कैसे निपटना है सो बच्‍चे भी घबराते नहीं हैं।' – फिर जैसे कुछ याद करते हुए बोली – ‘मां, मैनें तो आनंद को भी बता कर रखा था कि ऐसी स्थिति के लिए मैंने क्‍या व्‍यवस्‍था कर रखी है। बाय चान्‍स मैं उस समय घर पर न होऊँ तो ।

सुलेखा के लिए तो ये बहुत बड़ा आश्‍चर्य था। कहां वो तीन दिनों तक अछूतों की तरह घर के एक कोने में बैठी या पड़ी रहती। ये नहीं छूना, वहां प्रवेश वर्जित और भी कितने-कितने बंधन और तनाव। सुलेखा अनचाहे ही उनकड़वी यादों में बार-बार पुराने कड़वी यादों में खो जाती, जबकि अब प्राप्ति की तो कोई आशा ही नहीं है। तभी अदिति टी.वी. के सामने बैठते हुए बोली – ‘ये तो सब प्रकृति का वरदान है उसे प्राकृतिक सहज रूप में स्‍वीकार करने से बच्‍चों की समस्‍या तो यूं ही हल हो जाती है। बच्‍चों को इन दिनों की हाईजिन और अतिरिक्‍त स्‍वच्‍छता तथा पौष्टिक भोजन का भी चार्ट दिया जाता है। इसीलिये ये दिन भी उनके हंसी-खुशी आम दिनों की तरह बीत जाते हैं।'

सुलेखा बिना कहे नहीं रह पाई – ‘काश, हम लोगों के समय में ऐसी परिपक्‍व और प्रकृति से एक होती सोच रहती तो - - -'

वाक्‍य को अधूरा खींच कर फिर आगे बोली – ‘कितना अच्‍छा हुआ, अपनी बच्‍ची नव्‍या की हंसी- खुशी बनी रही। वैसे पुरानी प्रथा में से एक प्रथा मैं पूरी कर सकती हूँ क्‍या? – उन तीनों के प्रश्‍न भरे चेहरों को सुलेखा मुस्‍कुराते हुए देख कर बोली – ‘एक गिफ्ट’ इसी दिन के लिए मैंने संभाल कर रखा था, वो देना चाहती हूँ।'

‘अरे वाह दादी, क्‍या है गिफ्ट? – नव्‍या उतावलेपन से बोली।

सुलेखा अंदर कमरे मे रखा नया लैपटॉप और एक छोटा सा मखमली डिब्‍बा ले आई।

‘दादी, ये दोनों चीजें मेरे लिए हैं, सच, वाह, ये कान के बुंदे कितने सुंदर हैं। थैंक्‍यू दादी’ और वो सुलेखा के गले लग गई।

‘अब मुझे मम्‍मी–पापा के लैपटॉप पर काम करने के लिए ‘वेट’ नहीं करना पड़ेगा।'

नव्‍या और बेट-बहू के चेहरे पर पसरी खुशी ने सुलेखा के जीवन में जो भी ‘नेगेटीविटी’ थी सबको पूरी तरह पोंछ दिया। अपने जीवन काल मे एक स्‍वच्‍छ दर्पण के पदार्पण को महसूस कर रही थी, जिसमें अपने बच्‍चों का आश्‍वस्‍त चेहरा प्रतिबिंबित हो रहा था।

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