प्रकृति रसिक की रसिक प्रकृति (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती

Prakriti Rasik Ki Rasik Prakriti (Bangla Story) : Shibram Chakraborty

हीरु ने मन ही मन अपना नाम बदलकर रखा कठभूति । गुरु - भक्ति गुरुतर रूप में बदलने के बाद जो हालत होती है वही उनकी हुई।

गोमा पैसेंजर के इंटरक्लास में केवल दो ही यात्री थे। एक तो हीरु और दूसरा एक प्रौढ़ व्यक्ति था। रामराजा तल्ला पार होते ही प्रौढ़ व्यक्ति ने पैकेट से अधजली बीड़ी का एक टुकड़ा निकाला फिर हीरु की और देख कर पूछा - 'क्यों भाई, आपके पास दिया सलाई है?’ हीरु जैसे सुन ही नहीं रहा था।

'दियासलाई, माचिस?' (फिर ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न करता है।)

नहीं, भौ सिकोड़ कर उत्तर दिया, (मन ही मन), 'क्या मुसीबत है?' थोड़ी देर तक वह सोचता रहता है। फिर बांये पॉकेट से दियासलाई का डिब्बा निकाल लेता है। आखिर एक दियासलाई की काँटी ख़राब करनी ही पड़ी। स्वार्थी दुनिया में एक काँटी दियासलाई दे कर भी कोई सहायता करने वाला नहीं है। दोनों की दॄष्टि ही खिड़की से बाहर मैदान की और है। थोड़ी देर बाद प्रौढ़ व्यक्ति आश्चर्य से चिल्ला उठा - 'देख रहे हो? कितना सुंदर, आह! अवर्णीय!'

हीरु -'क्या है? कहां है?'

'क्यों? वह देखो, उस मैदान में। वाह! वाह! देखा, मेरे शरीर में रोमांच हो रहा है।'

'आपको देखें? रोमांच देखें? कहां है रोमांच? देखें?'

‘अरे मेरे बदन में क्या देख रहे है? उस मैदानमें देखो।'

'हाँ अब देखा, वे गाय और बैल बहुत मोटे मोटे है।'

'अरे भाई, गाय बैल नहीं, घेटूं, घेटूं (एक प्रकार का फूल)। कितना अच्छा लग रहा है ।'

नाक सिकोड़कर हीरु ने उत्तर दिया 'अच्छा यह कहिये, सारा मैदान भी घेटूं से ढक जाये तो क्या? घूंटे (उपले) होता तो काम में भी आता।'

'हाय, तुम को फूलों से प्रेम नहीं?' दीर्घ स्वास छोड़कर उसने कहा - 'प्रकृति रसिक ही कितना लोग होते है?' सिर हिलाकर हीरु ने कहा -'प्रेम क्यों नहीं है?'

'अच्छा बताओ तो सबसे अधिक तुमको कौन सा फूल पसंद है?'

हीरु सिर खुजलाने लगा, पर उसे समझ नहीं आया कि वह क्या जवाब दे।

'कुमुद, कल्हार, बेला, चमेली, मालती, रात कि रानी, गढ़हल, हेंना, हँस्योहाना, जलकमल, स्थलकमल, सारे फूलों के नाम गिना दिया। अब भी हीरु सोच रहा है - 'अब भी वह सब के सामने अपने सर्वप्रिय फूलों का नाम लिया नहीं?' तब तक नामों कि दूसरी सूची तैयार हो गयी ‘चंपा, डेज़ी, वायलेट, रोज, पॉपी, स्वीटपी तुलिप।'

'मुझे, मुझे अच्छा लगता है, बतलाऊँ? कोहरे का फूल, बेसन से माँ पकोड़ी बनाती है , खाने में बड़ा अच्छा लगता है।'

फूल जैसे कोमल हृदय पर पकौड़ी का प्रस्तर प्रहार। इस पकौड़ी प्रेमी को प्रकृति प्रेम का पाठ कैसे पढ़ाया जा सकता है?

फिर सोचने लगते है, प्रकृति प्रेम ही वास्तविक प्रेम है - अलौकिक, स्वार्थ रहित। इस अनाड़ी को पकौड़ी प्रेमी को प्रकृति प्रेम की दीक्षा देने का साहस करें या न करें? बहुत सोच समझकर प्रकृति प्रेमी ने प्रकृति प्रेम का पहला पाठ पढ़ाया।

'वह देखो। क्या देख रहे हो?'

'घेटूं, पर घेटूं कहां है?'

'घेटूं क्यों? पेड़ पौधे!'

'कैसे देखूं? भाग जो रहा है। रेल गाड़ी में बैठ कर कोई पेड़ पौधे देख सकता है?' अक्षर परिचय के पहले ही बाधा, पर गुरु का सबसे बड़ा गुण सहनशीलता है।

‘वे लोग भागते नहीं है, स्थिर खड़े रहते है। गाड़ी के चलने के कारण ही ऐसा लगता है। हिलते तक नहीं। आदमी की अपेक्षा पेड़ पौधों से प्रेम करने में यही तो फायदा है ।'

हीरु ने कहा - 'हूँ ।'

प्रेम का दूसरा पाठ था - 'हम मनुष्यों से प्रेम क्यों करते है? उनके हाथ पैर है इसीलिए न? (गाड़ी के पहियों के ताल के साथ ताल देकर शिक्षा भी आगे द्रुत गति से अग्रसिर हो रही है।) वह भी केवल दो हाथ और दो पैर? पर पेड़ पौधों के तो असंख्य हाथ और पैर हैं । बोलो तो उनके हाथ पैर कहां है? वे शाखाएं-प्रशाखाएँ, फिर पेड़ पौधे छोड़कर मनुष्य से क्यों प्रेम किया जाये?'

'पेड़ों के तो पैर नहीं है।' हीरु क्षोभ प्रकट करता है।

'तभी तो भाग नहीं सकते। इसलिए उनका नाम पादप है, और इसलिए वे मनुष्य से अधिक लाभदायी है।'

'हाँ आपने ठीक कहा है।' अब प्रकृति प्रेमी ने देखा कुछ-कुछ असर पड़ रहा है। शिक्षा के बाद अब परीक्षा आरम्भ होने जा रही है। प्रकृति प्रेमी ने पूछा , -'तुम मनुष्य से प्रेम करते हो?'

'मनुष्य से? मनुष्यों से क्यों प्रेम करने जाऊंगा? प्रकृति के सामने मनुष्य का रूप? छी! मनुष्य से प्रेम करने में कितनी झंझटें है? कितनी कठनाईयाँ हैं।

खर्च भी कितना है, उसे चाट खिलाओ, सिनेमा दिखाओ, तरह तरह के प्रेजेंट दो, मनुष्य से मनुष्य प्रेम करता है?

'ठीक ही समझा है तुमने, प्रकृति के लिए बेकार खर्च जरा भी नहीं है।’ हीरु ध्यान से सुन रहा था, बोले, 'मैं भी आज से मनुष्य को तलाक दे दूंगा। मुझे जंगल से प्रेम है, जंगली जानवरों से प्रेम है। पर मनुष्य प्रधान शत्रु है मेरा, बचपन से ही मैं प्रकृति प्रेम करता आया हूँ। मेरी तो दो प्रिय पुस्तकें है - पहली 'पेड़ पौधों से प्रेम' और दूसरी 'वन जंगल का आलिंगन' बाई भवभूति भट्टाचार्य।' उसी दिन से हीरु ने अपना नाम बदल कर रखा ‘कठभूति’।

'मैं भी प्रकृति से बहुत प्रेम करता हूँ। खेल के मैदान में कितनी बार दौड़ा, कितने कप मिले?'

'मैदान में?'

'जी हाँ! क्यों मैदान प्रकृति नहीं है? जरा कुछ कठोर प्रकृति, यही न?'

'अच्छा तुम दौड़ के चैंपियन हो? क्या नाम है?'

'कठभूती चट्टोपाध्याय'

'कठभूती? इसका क्या अर्थ है?'

बहुत सोच कर हीरु ने कहा, 'कटहल की भूति, एक धीमा-धीमा सा प्राकृतिक गंध भी है, कटहल कहकर बीज बाहर फेंक दीजिये, देखिये उसके ऊपर मखियों का साम्राज्य फ़ैल जाता है। मधुर-मानोहर भिन्न-भिनाहट का राग छिड़ जाता है। जिसे अनाड़ी समझ रहे थे उसके नाड़ी में प्रकृति का छाप विद्यमान था।

'अच्छा तुम जा कहां रहे हो?'

'रांची, मामा के पास।'

'मैं भी रांची जा रहा हूँ, पर मामा के नहीं, प्रकृति के पास। सुना है वहां की प्रकृति अत्यंत रूपवती है।'

दूसरे दिन सबेरे मूरी स्टेशन पर दोनों उत्तर पड़े। उत्तर ते ही भवभूति कुछ खोजने लगे। 'पता नहीं कहां है? '

'रूकें? क्यों? कैसे? प्रकृति के सामने कोई अपने हृदय वेग को रोक सकता है?'

'तुम तो मुझसे भी बढ़ गए हो। आँखें तो हम लोगों के पास भी है। मैं प्रकृति नहीं, लाई और चना लूट रहा हूँ, और तुम दे रहे हो प्रकृति पर व्याख्यान।'

'चने की क्या जरूरत है? मेरे पास बहुत अधिक खाने का सामान है।'

'अरे, अभी तक बताया नहीं? तुम भी खूब ठहरे।'

'कल आपने भी कहने का नाम नहीं लिया, मैंने सोचा प्रकृति प्रेमियों को शायद एक ही समय भोजन करना चाहिए। यह सोच कर मैं भी चुप रहा।'

अच्छा ही किया, देखते-देखते टिफ़िन कैर्रिएर की तीनो मंज़िलों को भवभूति ने ही साफ़ कर दिया। अंत में तीसरी मंज़िल के आते ही कठभूति की याद आ गई उन्हें। उनके पेट में जब चूहों का नृत्य समाप्त हुआ तब प्रकृति सुंदरी की सिरस स्वर लेहरी की मृदु मधुर झंकार हो उठी। 'देखो-देखो, वह देखो, सौंदर्य रास का पारावार - प्रकृति बिना मांगे ही उड़ेल रही है। मेरी समझ में नहीं आता, निर्जन स्थानों में भी प्रकृति रानी अपनी ऐश्वर्या - छटा को क्यों बिखेर देती है?'

कठभूति अपने गुरु के ताल में ताल मिलता हुआ झूम उठता है - 'क्यों? शेर, भालू? उनकी भी तो आँखें है? मनुष्य से तीक्ष्ण। प्रकृति सुंदरी के मर्मज्ञ पशु ही है।'

'तो क्या हम पशु हैं?' भवभूति का पारा चढ़ जाता है।

'नहीं नहीं, जरा जीभ फिसल गयी, पशु ही नहीं, पशु भी।'

टेम्परेचर शुन्य पर पहुँच जाता है।

'यह तो बिलकुल सच है, 'ब्यूटी ऑफ़ द बीस्ट' में यह स्पष्ट हो जाता है।'

पर मैं बार-बार यही सोचता हूँ कि जब मेरी आँखें जवाब दे देंगी, प्रकृति रानी तलाक दे देगी, तब मैं कैसे जीवित रहूँगा? उनके परिवयक्त दीर्घ श्वास के साथ ही कठभूति का व्यवस्थापत्र पेश हो जाता है -

'क्यों? तब जीने की जरूरत ही क्या है? आत्महत्या कर लीजियेगा।'

'अरे भाई, आत्महत्या करना इतना आसान नहीं है।'

'इतना कठिन भी क्या है? टीका न लगा कर चेचक के रोगितों कि सेवा करें, कटहल खाकर हैजे के रोगी का उपचार करें, फिर देखिये आत्महयता पाप ही नहीं लगेगा। थोड़ा सा पुण्य पॉकेट में भर उस लोक की यात्रा कर आये । मैं न मिटटी के तेल के लिए पैसा खर्च करने की सलाह दूंगा, न राशि खरीदने के लिए।

अचानक फिर भवभूति वृक्ष समूह सौंदर्य की ओर आकर्षित हो गए। कितनी देर तक इस रूप सुधा का पान कर सकेंगे? काश गाड़ी कि गति कुछ धीमी हो जाति।'

'चैन खींच दूँ?' चैन को देखकर कठभूति ने कहा।

'क्यों? चैन क्यों?'

'थोड़ी देर गाड़ी रूक जाएगी और तब तक प्रकृति के आलिंगन का आनंद मिलेगा।'

'और ५० जो गिनने पड़ेंगे?'

कठभूति को बहुत ही दुःख पहुँचता है। रुपये की बात से प्रकृति के अमूल्य सौंदर्य की माप करना कठभूति को असह्य था।

इसी के बाद एक दूसरा स्टेशन आ गया।

यहाँ गाड़ी काफी देर तक रूकती है। गाड़ी के रूकते ही - 'अभी आ रहा हूँ।' कहकर कठभूति पीछे कि खिड़की से कूदकर अन्तर्हित हो जाता है। काफी देर हो जाने पर भी लौटने का नाम नहीं लेता। चारों ओर देखकर एक दीर्घ श्वास छोड़ा भवभूति ने। इस प्रकृति के राज्य में कहीं कठभूति खो तो नहीं गया। कहीं किसी पेड़ कि डाल पकड़कर झूला तो नहीं झूल रहा?'

गाड़ी छूटने वाली है, इतने में ही कठभूति दौड़ते दौड़ते उपस्थित हो जाता है । 'काम ख़तम करके ही आ गया।' हांफते कठभूति ने कहा।

'कहां गए थे, बतलाओ तो?' भवभूति ने पूछा, 'क्या पता, किसी पेड़ पर लटक गए होंगे? '

'जी नहीं, इस २० मिनट मे डेढ़ मील दौड़ गया और आया हूँ, पता है आपको?'

'अच्छा हवा खाने गए थे?'

'जी नहीं, डेढ़ मील कि दूरी पर एक जगह रेल लाइन टेडी हो गयी है। उसके मुँह पर फ़्लैश प्लेट को हटा कर रख आया हूँ।'

'क्यों? तुम्हारे अकेले का तो फ़्लैश प्लेट है नहीं जो तुम हटाकर बाद में खाओगे? क्या है फिशप्लेट?'

'फिशप्लेट है लाइन का जोड़।'

'तो इससे क्या?'

'बस वहां से गाड़ी के जानेपर गाड़ी डीरेल होगी, उलट भी सकती है। बस फिर क्या कहना है? मन भरकर प्रकृति कि रूप सुधा का पान करेंगे। एक पैसा भी खर्च नहीं है।' जब सारे रहस्य का भेद खुला, क्रोध से आँखें लाल हो गई, होंठ फड़कने लगे । भवभूति के मुहं से एक शब्द भी नहीं निकला।

तब क्या वह केवल रांची ही नहीं, बल्कि रांची को एक ही कमरे में बगल में बैठकर ले जा रहे है? क्या विद्यादान का प्रतिफल गुरु हत्या है? कठभूति कि प्रकृतिनिष्ठा की पराकाष्ठा देख कर उनकी समझ में नहीं आया की हंसे या रोयें।

'अब हम लोगों को सौंदर्य के स्वर्ग से एक कदम भी कौन हटा सकता है? न कहीं खींचना पड़ेगा, न जुर्माने के लिए कमर टटोलनी पड़ेगी । क्या मज़ा है? ' - जोर से हंसने लगा, हे हे हे हे ...।

हीरु की प्राणघातक हंसी से भवभूति का शरीर रोमांचित या गद्द-गद्द हो उठता है। क्या करें? अब तो सोचने का भी समय नहीं है। चैन खींच कर गाड़ी रोक दें?

पर ५० रुपये न देने पर जेल खाने या पागल खाने का आश्रय लेना पड़ेगा। भयंकर समस्या, प्राणरक्षा करने पर धन हानि होती है, न रक्षा करें तो प्राण हानी होती है। तो क्या चुने? किससे सलाह लें? समय ही कहां है? पर मैं भी क्यों नहीं सोच लेता? उधर उतने रूपयों की हानि, इधर एक नन्हा सा प्राण। कहीं खींचे? गाड़ी रोकें? करें धन हानि? धनान्त करें या प्राणांत करे, विकट समस्या थी।

भयंकर चीत्कार। हाहाकार मच गया। पर इस आनंदअभृतिका अवसर भवभूति को कहां? वे लुढ़ककर एक गड्डे में गिर पड़े। गिर कर तुरंत उन्होंने कमर टटोली। कमर की गाँठ ही उनका तीसरा मोनीबा है। इस के बाद उन्होंने अपने आप को चिकोटी काट कर रखा। अरे बापरे, अपनी चिकोटी के दर्द से चिल्ला उठे। उन्होंने संतोष की सांस ली, आखिर उनके धन और प्राण दोनों ही रक्षित है। आनंद विभोर होकर कुछ दूर पर ही कठभूति नाच रहा था। विशेष कुछ उसे चोट भी नहीं लगी थी। गड्डे में झांक कर कठभूति ने कहा -'देखिये तो भवभूति दा! कितना स्वच्छ, कथा सुन्दर, कितना मनोहर! केवल प्रकृति के गोद में हम लोग है। प्रकृति के रससिक्त रसातल में है है हो हो!’

वही प्राणघातक हंसी, भवभूति की कठोर दृष्टि कठभूति की ओर थी।

(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)

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