प्राचीन मिस्र जाति के धर्म-तत्त्व (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
प्राचीन मिस्र जाति के लोग बड़े धर्मनिष्ठ होते थे और उनके धर्म-सिद्धांत उनके जीवन के प्रत्येक कार्य में सम्मिलित रहते थे। वह मूर्ति-पूजक थे और जीवन-उपयोगी वस्तुओं को प्रतिमाएँ बनाकर उनकी पूजा करते थे। जल, भूमि, अन्न, नील नदी, आकार, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र और मृतात्माओं का आवाहन करते थे। लेकिन समस्त जाति सब देवताओं की अनुयायी न होती थी। भिन्नभिन्न प्रांतों के देवता भी पृथक होते थे और उन प्रांतों के लोग अपने ही देवताओं को सर्वश्रेष्ठ समझते थे। यद्यपि मुख्य-मुख्य देवताओं के स्वरूप में अंतर था लेकिन वास्तव में वह सब एक ही थे। उदाहरणतः हेलियोपोलिस नगर में ‘रा’ नाम से सूर्य की पूजा होती थी लेकिन तिब नगर में उसी को ‘आमन’ के नाम से पूजते थे। इन दोनों स्थानों में सूर्य की प्रतिमा भिन्न-भिन्न थी।
वह लोग अपनी देवताओं को मनुष्य की भांति जीवधारी समझते थे, हाँ, बुद्धि, ज्ञान, बल और पराक्रम में उन्हें मनुष्यों से ऊँचा मानते थे। मनुष्यों की तरह उनमें भी इच्छाएं और भावनाएं मौजूद थीं। यह देवतागण सपरिवार थे, उनके स्त्री, बालक और अन्य संबंधी भी थे। उनकी पत्नी और पुत्र भी देवताओं की तरह पूज्य माने जाते थे। बाज नगरों में देवताओं की जगह देवियों की ही पूजा होती थी। पर विद्वानों के मतानुसार मिस्र के उच्च श्रेणी के लोग एकेश्वरवादी थे।
मिस्र के देवताओं में सबसे प्रतिभाशाली सूर्य था। उसका स्वरूप और आभूषण बादशाहों के सदृश थे। उसके सिर पर आभा का मंडल और एक सांप बना होता था जो तेज की प्रखरता का सूचक था। लोगों की कल्पना थी कि वह वायुमंडल में एक यान पर बैठा हुआ है और कई मल्लाह उस यान को खींचते हैं। जब वह क्षितिज के ऊपर आता है तो उसके लोचनों की तेजस्वी शिखाएँ समस्त भूमिमंडल को आलोकित कर देती हैं और प्राणियों को बल और तेज प्रदान करती हैं। वह नित्य अपनी यान पर खड़ा होकर अपने शत्रुओं से लड़ता और उन्हें परास्त करता है। संध्या हो जाने पर वह पाताल में जाकर शयन करता है। सूर्य के प्रकाश का एक अलग देवता था जिसका नाम ‘होरूस’ था। वह प्रतिदिन प्रातःकाल एक सुंदर नवयुवक के रूप में प्रकट होकर आकाश-मंडल में विचरता है और अंधकार के देवता से जिसका नाम ‘सित’ है नित्य लड़ता रहता है। आकाश के देवताओं के बाद मिस्री लोग अन्न और खेती के देवताओं और देवियों को मानते थे जिनका काम भूमि को उपजाऊ बनाना है। यह लिखा जा चुका है। कि मिस्र के पृथक-पृथक स्थानों में भिन्न-भिन्न देवता मान्य समझे जाते थे। लेकिन कालांतर में जब मिस्र में एक सर्वदेशीय राज्य स्थापित हो गया तो यह पार्थक्य मिट गया। समस्त देवगण सार्वभौम हो गए।
इन सब देवताओं में ‘आइसिज’ और ‘उजेरियस’ सर्वप्रधान थे। यह ` ‘उजेरियस’ प्रकाश का देवता था और अपने भाई ‘सित’` को, जो तिमिरदेव समझा जाता था, दुश्मन था। उसके विषय में यह किंवदन्ती थी कि वह प्रभात को आकाश-सागर से निकलकर दिन भर अपना प्रकाश फैलाता रहता है। रात को उसका भाई ‘सित’ द्वेषवश उसे मारकर टुकड़े- टुकड़े कर डालता है। उसकी पत्नी ‘आइसजि’ उसके शव पर बैठकर विलाप करती है। ‘सित’ का डंका बजने लगता है और संसार में अंधकार छा जाता है। लेकिन ‘उजेरियस’ का पुत्र ‘होरूस’ क्षितिज से निकलकर अपने पिता की हत्या का बदला लेता है और ‘सित’ को मारकर फिर संसार में ज्योति फैलाता है। यह अभिनय नित्य होता रहता है।
मिस्र देश के बहुत से नगरों का दावा था कि ‘उजेरियस’ के शरीर के टुकड़े उनके मंदिरों में भूमिस्थ हैं। ‘उजेरियस’ का मातम मनाने के लिए वर्ष में एक दिन नियत कर दिया गया था। उस दिन समस्त देश में आर्तनाद सुनाई देता था और महिलाएँ ‘उजेरियस’ के बालों के शोक में अपने केश नोच डालती थीं।
‘साई’ नगर के पुजारी एक झील के तट पर उजेरियस के जीवन-मरण और पुनर्जीवन की घटनाओं को ताजिया बनाकर दिखाते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार हिरोडोटस ने ताजियों का यह दृश्य देखा था लेकिन उसे ताकीद कर दी गई थी कि वह इसका कहीं उल्लेख न करे।
मिस्री देवताओं की प्रतिमाएँ अपनी विचित्रता में भारतीय प्रतिमाओं से कम न थीं। किसी का धड़ मनुष्य का था तो सिर पशु का और किसी का धड़ पशु का था तो सिर मनुष्य का था। होरूस का सिर चिड़िया के सिर के सदृश है, आइसिज का गाय के सिर के सदृश। ‘आनोबीस’ नामक देवता का सिर गीदड का है और ‘फताह’ का सिर बैल के समान है।
मिस्र देश-निवासी बहुधा पशुओं को पवित्र समझते और उनकी पूजा करते थे। उसमे से सिंह, ग्राह, गाय, सियार, बिल्ली, मेढा और लवा आदि विशेष आदरणीय थे। इन पशुओं को मारना या किसी प्रकार का कष्ट देना वर्जित था। रोम वालों ने जिस समय समस्त संसार पर आधिपत्य जमा लिया था उस समय एक रोम-निवासी ने एक बिल्ली को मार डाला था। जनता ने उससे बिल्ली के खून का बदला लेना चाहा। मिस्र के राजा ने, जो रोम का करद था, चाहा कि उसे लोगों के हाथ से बचा लें, लेकिन उसका कुछ वश न चला। बिल्ली के घातक को लोगों ने मार डाला। प्रत्येक मंदिर में इन पशुओं में से एक न एक अवश्य ही पाला जाता था और भक्त-जन आकर उसकी पूजा करते थे। एक ईसाई पादरी ने इस प्रथा का इन शब्दों में मजाक उड़ाया है – ‘जब कोई आदमी मंदिर में आता है तो पुजारी महाशय गंभीरता और गौरव के साथ कुछ गाते और परदा उठा देते हैं कि उसे देवता के दर्शन कराएँ। तब वह आदमी क्या देखता है कि एक बिल्ली या एक मगर या एक सांप या कोई है।दूसरा जानवर प्रकट होता है जो एक सुसज्जित फर्श पर बैठा या लेटा हुआ रहता है।‘
तिब नगर के व्यापारियों ने एक घड़ियाल को हिलाकर उसके कानों में सने को बालियाँ और हाथों में कंगन पहनाए थे।
यूनान देश के एक यात्री ने, जो ईसा मसीह का समकालीन था, शद्दो नगर के घड़ियाल का दर्शन किया था, वह उसका यों वर्णन करता है – ‘पुजारी कुछ मीठी रोटियाँ, कुछ तली मछलियाँ और कुछ शहद लेकर मेरे साथ झील पर गया। घड़ियाल झील के किनारे लेटा हुआ था। दो आदमियों ने उसका मुँह पकड़कर खोला, एक आदमी ने पहले रोटियाँ उसे मुँह से डाल दीं, फिर मछलियाँ और कुछ शहद आदि भी डाले गये। तब घड़ियाल झील में कूद गया और दूसरे किनारे पर जाकर लेट रहा। उसी समय एक और यात्री वह वस्तुएँ लाया। पुजारी उसे भी लेकर झील पर गया और घड़ियाल को वह चीजें फिर खिला दीं।’
मान्दस नगर के लोग एक बकरी की पूजा करते थे और हेलियोपोलिस नगर का देवता एक पक्षी था जिसे यूनान के लोग ‘फीनिक्स’` अर्थात् उसका कहते थे।
मिस्र वाले उसके विषय में बड़ी विचित्र कथाएँ बयान करते थे। उनका विश्वास था कि हर पाँच सौ वर्षों में एक बार उन पक्षियों में से एक ‘रा’ नगर के मंदिर में आता है। वह अपने साथ अपने बाप की लाश भी लाता है। उसको मुर में, जो एक प्रकार का सुगंधित गोंद है, लपेटकर वहाँ रख देता है। वह पहले मुर को अंडे के आकार का बनाता है, फिर उसमे छेद करके लाश को उसमे रखकर छेद को बन्द कर देता है। यह पक्षी कई शताब्दियों तक जीवित रहता हे और जब मरने के दिन निकट आते हैं तो वह सुगन्धित लकड़ियों का एक छोटा-सा पिंजरा बनाकर उस पर चढ़ता है और भस्म हो जाता है। उसकी राख से एक जवान बाहर निकलकर उड़ने लगता है। अरबी और फारसी ग्रंथों में भी इन्हों कथाओं का समर्थन किया है।
मंफीस नगर में एक ऐसी गाय की पूजा करने की प्रथा थी, जिसका रंग काला, माथे पर उजला और त्रिकोण दाग और पूंछ पर घने बाल हों। उसे आपीस कहते थे। मिस्र के लोगों का कथन था कि ऐसी गाय आकाश में चमकने वाली विद्युत से पैदा होती है। जब ऐसी गाय कहीं मिल जाती थी तो पुजारी लोग उसके चिह्नों को भली-भाँति देखकर उसे आपीस का स्थान देते थे। किंतु इस पूज्यपद पर कोई गाय पच्चीस वर्षों से अधिक न रहने पाती थी। अगर कोई इस अवस्था को पहुँच जाती थी, तो पुजारीगण उसे एक पवित्र जल-स्रोत में मग्न कर देते थे और उसकी जगह कोई दूसरी गाय तलाश कर लाते थे। यदि आपीस पच्चीस वर्षों के पहले मर जाती थी तो उसकी लाश में मसाला लगाकर कब्र में गाड़ देते थे। जिस समय तिब नगर मिस्र देश का साम्राज्य-स्थान हो गया तो उस नगर का देवता ‘आमने’ अन्य सब देवताओं से श्रद्धेय माना जाने लगा। वह अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान समझा जाता था। वह संसार की सृष्टि करने वाला सब बापों का बाप और सब माताओं की माता खयाल किया जाता था। लोग इन शब्दों में उसकी स्तुति करते थे –
‘तू जाग, ओ आकाश की दोनों सीमाओं के मालिक, ओ चमकने-दमकने वाले देव, तू आकाशों में भ्रमण करने वाला है, तेरे शत्रुओं का सर्वनाश हो। तू पापियों को निर्वासित कर देता है। तूने नास्तिकों की वीरता और पराक्रम को धूल में मिला दिया है। तू सबल है, नास्तिक निर्बल है, तू ऊँचा है और नास्तिक नीचा है, तू सशक्त और तेरा शत्रु अशक्त है। ओ जीवों के आधार, तू हमारे बादशाह को चिरंजीवी बना, उसको अन्न और जल से परिपूरित कर, उसके बालों के लिए सुगंधि प्रदान कर। संसार तेरे प्रकाश से ज्योतिर्मय है। तू वह है जिसके परों से बिजली पैदा होती है, तू वह सिंह जीव है जिसकी गरज शत्रुओं को भयभीत कर देती है, तू वह पुत्र है जो नित्य जन्म लेता है, तू वह वृद्ध है जो अमर है। तू उस स्थान का स्वामी है, जहाँ तक कोई नहीं पहुँच सकता।’
समस्त मिस्र-निवासियों का विश्वास था कि जब कोई प्राणी मर जाता है तो उसमे कोई अंश जीवित रहता है। इस अंश को वह आत्मा कहते थे। आत्मा का आकार शरीर के समान है और अंत:स्वरूप विचार के समान है। वह अदृश्य है, उसे स्पर्श करना असंभव है। उनका यह अनुमान था कि मरते समय जीव मुँह से निकलता है। उनके मतानुसार यह जीवन अपने शरीर पर अवलंबित रहता है। अगर काया सुरक्षित न रखी जाएँ तो जीव इधर-उधर मारा-मारा फिरता है। मृतक की सबसे बड़ी सेवा और उसके जीव के साथ सबसे बड़ा उपकार यह है कि शव सड़ने-गलने से बचाया जाए। इसलिए मसाले लगाने की प्रथा पड़ गई थी। हिरोडोटस ने मसाले लगाने की प्रथा का सविस्तार वर्णन किया है। वह लिखता है कि मिस्र के प्रत्येक नगर में कुछ लोग ऐसे रहते हैं जो मसाले लगाने का व्यवसाय करते हैं। जब मृतक का वारिस शव को मसाला लगाने वाले के पास ले जाता है तो वह उसे लकड़ी के नमूने दिखाता है। यह नमूने तीन प्रकार के होते हैं, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। हर नमूने का मूल्य उसकी हैसियत के अनुसार होता है। जब मजूरी तय हो जाती है तो वारिस लाश को मसाला लगाने वाले को सौंपकर घर चला जाता है।
उत्तम श्रेणी का मसाला लगाने के लिए पहले लाश के सिर का भेजा निकालते थे, इस तरह कि कोई अर्क सिर में पहुँचाकर उसमे भेजे को हल करते थे, फिर एक आंकड़ा नाक के नथनों में डालकर भेजे को बाहर निकालते थे। तब लाश की पसली पीटकर आंतें बाहर निकाल लेते थे और शराब से धोकर अंतडी में सुगंधित औषधियाँ भर देते थे। इसके पश्चात् लाश को सत्तर दिन खारे नमक में रखते थे, फिर उसको धोते थे और गोंद लगाए हुए कपड़े की पट्टियाँ उस पर लपेटते थे। मसाला लगा चुकने के बाद लाश वारिस को दे दी जाती थी। वह लाश के आकार का एक खाना बनवाकर लाश को उसमे रख देता था और वह दीवार के सहारे से खड़ा कर दिया जाता था।
मध्यम श्रेणी के मसाले की विधि यह थी कि एक प्रकार का गोंद नली द्वारा मुर्दे के पेट में पहुँचाते थे और पेट को फाड़े और आंत को निकाले बिना ही छेद को बन्द कर देते थे, जिससे गोंद बाहर न निकल सके । फिर शव को सत्तर दिन तक खारे नमक में रखते थे। तब नमक में से उसे निकालकर गोंद का पानी बाहर निकाल देते थे। उस पानी के साथ अंदर का मल भी निकल जाता था। खार में रहने के कारण मांस गल जाता था और लाश में हड्डी और चमड़े के सिवाय और कुछ बाकी न बचता था।
निकृष्ट श्रेणी के मसाले की विधि इससे भी सरल थी। लाश के अंदर गोंद पहुँचाकर उसे खारे नमक में रख देते थे। गरीब लोग प्राय: इसी तरह के मसाले लगवाते थे।
मिस्र के कब्रिस्तान में ऐसी लाशें बहुत-सी मिलती हैं और योरोप के लोग ऐसी हजारों लाशें खोद ले गए हैं। वहाँ के प्रसिद्ध अजायबघरों में मसाले लगी हुई लाशें मौजूद हैं।
प्राचीन मिस्र-निवासियों का विश्वास था कि जीव को भी प्राणियों की भाँति भोजन-वस्त्रादि की आवश्यकता होती है। गरीब लोग तो मसाले लगी लाशों को बालू में गाड़ देते थे लेकिन अमीरों में उसके लिए अलग मकान बनवाने की प्रथा थी। यह मकान एक विस्तृत गृह या कम-से-कम एक कमरे के बराबर होता था। आदिकाल के बादशाहों के समय में यह शव-शाला मीनार के सूरत की बनवाई जाती थी। मंफीस नगर के समीप एक शहर के बराबर भूमि शव-शालाओं से भरी हुई है। कोई-कोई मीनार पंक्तियों में बनाए गए हैं, जैसे गर्मी में रहने के घर बने होते हैं। बहुत ऊँचे मीनारों में बादशाहों को और उनसे छोटे मीनारों में अमीरों को दफन करते थे क्योंकि मीनारों के बनाने में लागत बहुत पड़ती थी। कब्र के लिए रेत के नीचे या पत्थर में तहखाना और उसके सामने एक छोटा-सा नमाजखाना, जो बाहर की तरफ खुलता था , बनाते थे। नमाजखाने में प्रवेश करने पर पिछली दीवार में एक बड़ी शिला दिखाई देती थी। उसके नीचे एक छोटी मेज होती थी जिस पर पूजादि की सामग्री रखते थे। केवल यह नमाजखाना ही कब्र का वह भाग था जहाँ आदमी जा सकता था। शेष भाग मृतक के लिए ही होता था किसी को अंदर जाकर मृतात्मा की शांति में विघ्न डालने का अधिकार न था। इसीलिए कब्र का दरवाजा न बनाते थे। नमाजखाने के पीछे एक दालान होता था। वहाँ मृतक की मूर्तियाँ रखी जाती थीं । कभी-कभी एक मुर्दे के लिए बीस से अधिक मूर्तियां बनाई जाती थीं। इसका अभिप्राय यह था कि अगर मसालेदार शव नष्ट को जाएँ तो उसकी जगह मूर्ति रख दी जाएँ। नमाजखाने के एक कोने में एक कुँआ पत्थर की चुनाई से बनाया जाता था। कुएँ के नीचे तक एक छोटा-सा रास्ता बना होता था, वहाँ पत्थरों की कंदरा बनाई जाती थी। यह मृतक का शयनागार था। उसके मध्य में सफेद या काले पत्थर की वेदी पर पड़ा हुआ मुर्दा अनंत निद्रा में मग्न रहता था। उसके निकट बड़े-बड़े बर्तन पानी से भरकर और गेहूँ तथा मांस रख देते थे। इसके बाद उस रास्ते को बन्द करके कुएँ को पत्थरों से पाटकर बन्द कर देते थे। फिर कोई मनुष्य अंदर न जा सकता था। वह कुएँ आज भी वैसे ही हैं जैसे चार-पाँच हजार वर्ष पहले थे। लाशें भी उसी सुरक्षित दशा में थीं। यहाँ तक कि बालों, दांतों और नखों में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। मृतक के घर वाले जब उसके लिए फिर खाने-पीने की चीजें पहुँचाना चाहते थे तो अंदर न जा सकने के कारण खाद्य पदार्थों को नमाजखाने में रख देते थे। कभी-कभी मुर आदि भी जलाते थे, ताकि उनकी सुगंध मृतक की नाक में पहुँच जाएँ।
कुछ काल के बाद लोगों का यह विचार हो गया कि मृतक के लिए भौतिक पदार्थों की आवश्यकता नहीं है, वरन् ईश्वर से विनय करनी चाहिए कि वह उन्हें क्षुधा की पीड़ा से बचाए। इसलिए नमाजखाने की शिला पर यह प्रार्थना लिख देते थे – ‘हम उजेरियस को सिजदा करते हैं और उससे विनय करते हैं कि वह उन तमाम चीजों को जिनका सेवन वह आप करता है – अर्थात् रोटी, मांस, दूध , शराब, वस्त्र सुगंधि – मृतक को भी प्रदान करे।’
कुछ समय के बाद मिस्र-निवासियों को यह विश्वास हो गया है कि जीवन को केवल भोज्य पदार्थों के चित्रों ही से संतोष हो जाता है। उनके लिए रोटी का चित्र बना देना काफी है। अतएव कालांतर में नमाजखाने की दीवारें चित्रांकित हो गईं। लोग जिस चीज को मृतक तक पहुँचाना चाहते थे। उसका चित्र दीवारों पर अंकित कर देते थे। जो चित्र वहाँ बने हुए हैं, उसमे किसानों के चित्र भी हैं जो जमीन को जोत और बो रहे हैं। कोई खलिहान से अनाज उठा रहा है। दर्जी कपड़ा और मोची जूते सी रहे हैं। इसी भांति बढ़ई, राज, नाचने-गाने वाले और बाजीगरों की तस्वीरें भी हैं। इसके अतिरिक्त मृतक की भिन्नभिन्न जीवित अवस्थाएँ भी अंकित की गई हैं। कहीं-कहीं वह अपनी स्त्री के साथ बैठा हुआ भोजन कर रहा है, या जंगल में शिकार खेल रहा है, या झीलों के तट पर मछलियों का शिकार खेलने में व्यस्त है।
बहुत काल तक मिस्र वालों की यह धारणा थी कि जीव उसी कब्र में रहता है, जहाँ उसकी देह छोड़ दी जाती है। लेकिन कुछ समय के बाद उनका यह मत परिवर्तित हो गया और यह कल्पना की जाने लगी कि समस्त जीव भूमि के नीचे उस स्थान पर एकत्र होते हैं जहाँ सूर्य अस्त होता है। वहाँ उजरियस राज्य करता है। वह जीवों की कर्मानुसार परीक्षा करने के उपरांत उन्हें वहाँ निवास करने की आज्ञा देता है। लोगों का कथन था कि जब जीव शरीर से निकलता है तो एक नौका में बैठकर भूमि के नीचे जल-सागर में भ्रमण करता है। वहाँ उसे बड़े भयंकर दैत्य दिखाई देते हैं जो उसे भक्षण करना चाहते हैं लेकिन जीवों के रक्षक देवगण उनकी सहायता करते हैं और उसे न्यायालय तक पहुँचा देते हैं। वहाँ उजेरियस न्यायासन पर विराजमान होता है। उसके बयालीस सहायक मंत्री होते हैं जो इस बात का अनुसंधान करते हैं कि जीव ने बयालीस कुकर्मों में से किसी का आचरण तो नहीं किया है। जीवों को उनके कर्मानुसार ही दंड या फल मिलता है। पापी जीवों को कोड़े लगाए जाते हैं, वे सांप, बिच्छू आदि से कटवाए जाते हैं। पुण्यात्माएँ देवताओं का सहवास करती हुई गूलर के वृक्षों की छांह में आनंदपूर्वक अनंत काल तक विश्राम करती हैं। वह उजेरियस के साथ दस्तरखान पर बैठती और उन पदार्थों का भोजन करती हैं जो एक देवी उनके लिए बनाती है और उत्तम प्रकार के इत्र सुंघती हैं।
मिस्र वालों का यह अभीष्ट था कि जब जीव उजेरियस के न्याय-सिंहासन के सम्मुख खड़ा हो तो वह अपने को निरपराध सिद्ध कर सके । इसलिए एक छोटी-सी पुस्तक ताबूत के अंदर रख देते थे। उस पुस्तक में वह उत्तर लिखे जाते थे जो उजेरियस और उसके सहायकों को देने चाहिए। उदाहरणतः अपनी निर्दोषिता सिद्ध करनी चाहिए –
‘मैंने कभी कपट-व्यवहार नहीं किया, किसी को धोखा नहीं दिया। मैंने किसी अनाथ विधवा को नहीं सताया, किसी विभाग में झूठ नहीं बोला। अपने कर्त्तव्य-पालन में कभी आलस्य नहीं किया। किसी ऐसी वस्तु को नहीं छुआ जिसे देवताओं ने निषिद्ध ठहराया हो, किसी की हत्या नहीं की, मन्दिरों की धनमूर्ति और देवताओं के भोग-प्रसाद की ओर से कभी गाफिल नहीं रहा, मृतकों को भोजन और जल पहुँचाता रहा, अनाज तौलने में कभी कमी नहीं की, किसी की जमीन बेईमानी से नहीं ली, तोल और भाव के बिना नहीं बेचा, देव-समर्पित पशुओं को नहीं मारा, पूज्य पक्षियों को जाल में नहीं पकड़ा, पवित्र मछलियों का शिकार नहीं किया, किसी नहर को नष्ट नहीं किया और न उसे काटा। मैं निर्दोष हूँ। बल्कि मैंने भूखों को भोजन दिया है, प्यासों को पानी दिया है, नंगों को कपड़े पहनाए हैं, यात्रियों को नौका से सहायता दी हैं, देवताओं की बेदी पर भेंट चढ़ाई है, और मुर्दा की भोजनादि से सेवा की है। ऐ काजियो ! मुझे मुक्त करो और खुदा के सामने मेरी बुराई मत करो क्योंकि मेरा मुख और दोनों हाथ पवित्र हैं।’
यह उत्तर बहुधा कब्र की दीवारों पर, यहाँ तक कि मृतक के मुँह पर भी लिख दिए जाते थे।
[‘माधुरी’, दिसंबर 1923]