प्रभात-समीरण उर्फ सुबह की हवाएँ (व्यंग्य) : श्रीलाल शुक्ल
Prabhat-Samiran Urf Subah Ki Hawaein (Hindi Satire) : Shrilal Shukla
(एक ऐसी प्रेम-कथा, जो कई फिल्मों के आधार पर बनी है और जिसके आधार पर कई फिल्में बनी हैं। उसमें दो फिल्मों का परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है:)
'एक महान देश के अतीत की महान सांस्कृतिक विभूतियों को चित्रित करता हुआ एक महान चित्र।'
अथवा
'दो दिलों की कहानी, जिन्हें बेदर्द दुनिया मिलने नहीं देती, पर मुहब्बत भी वह शै है जो आग पानी में लगाती है - इसके बाद रुपहले पर्दे पर देखिए।'
अहा! इस लोक में प्रणय की भी कैसी महिमा है! न तात, न मात, न भ्राता, न भ्रातृज - कोई सत्य नहीं है। प्रणय-तत्व ही चरम सत्य है। इसी के आधार पर मानव रोदसी-रमण करता है, आकाश-आस्फालन करता है, महीधरों का मर्दन करता है। विच्छुरितवसन बनता है। भवन-भस्मीकर की उपाधि पाता है। प्रणय परम पवित्र है।
(दुनिया में मुहब्बत भी क्या चीज है? न बाप, न माँ, न भाई, न भतीजा - कोई सच्चा नहीं है। सच्ची अगर कुछ है, तो मुहब्बत है। इसी के सहारे इनसान हवा से लड़ता है, आसमान से भिड़ता है, पहाड़ों से टकराता है। अपना गरेबाँ फाड़ सकता है, अपना घर उजाड़ सकता है। मुहब्बत बहुत ही नेकपाक है।)
अत: इसमें विस्मय ही क्या कि कुमार उदयन का प्रेम कुमारी पुष्पिता से हो गया। उदयन एक महासामंत के कुमार थे। वे गंधर्वलोक से प्रशिक्षित होकर विमान द्वारा आकाश-मार्ग से जंबूद्वीप स्थित भरतखंड में आए। पुन: भूमियान द्वारा अपने पुर के निकट पहुँचे। अनुपलब्ध प्रवृति के कारण वहाँ उनका गैहिक स्वर्णशकट नहीं पहुँच सका। अत: कुमारी पुष्पिता द्वारा परिचालित रथ पर बैठे वे अपने प्रासाद पहुँचे। पुष्पिता महासामंत के एक ऐसे सामंत की कन्या थीं जिन्हें कूट-प्रपंच के दोषों पर निष्कासन मिला था। तथापि, समागतवय की प्रेरणा: नयनाभिमुख होते ही उनमें रागोदय हुआ। दोनों कुछ काल व्रीडावनत रहे। फिर स्मितमुख हो कर रथोद्भूत स्वर-लहरी के आश्रय पर साथ-साथ सांगीतक की अवतारणा करने लगे।
(इसीलिए इसमें अचंभा ही क्या कि उठल्लू बाबू फूला से मुहब्बत कर बैठे। उठल्लू बाबू बड़े जमीदार के लड़के थे। विलायत में तालीम पा कर, हवाई जहाज से एशिया के अंदर वे हिंदुस्तान आए, फिर रेल पर चढ़ कर अपने गाँव के स्टेशन पहुँचे। खबर मिलने में गड़बड़ी हो जाने के कारण उन्हें घर की सवारी न मिल सकी। तब वे एक ऐसी बैलगाड़ी पर बैठ कर घर गए जिसे फूला हाँक रही थी। वह जमींदार के एक ऐसे पुराने नौकर की लड़की थी जिसे फरेब के जुर्म में निकाल दिया गया था। पर उमर का तकाजा; निगाह मिलते ही उनमें मुहब्बत हो गई। दोनों कुछ देर शर्माए, फिर मुस्कराए, फिर बैलों के खुरों की आवाज में दोनों एक साथ एक गाना छेड़ बैठे।)
तदनंतर उनके पारस्परिक प्रणय के प्रकाश से समस्त जगत चमत्कृत हो गया। उस जनपद के निकट बहने वाली धाराओं पर दारुनिष्क्रामक बने थे। वहाँ दोनों ने वर्षा की कादंबिनी को देख 'संतप्तानां त्वमसि शरणम्', का मधुर गान किया। सरिताकूल पर लतांतराल में विद्यमान एक तरणी थी। उस पर दोनों ने नौकाविहार किया। परस्पर ही जलप्लावित हुए। एक भग्न अट्टालिका थी। उसकी प्राचीरछाया में वे बैठे। उसके धूसर अलिंद में अश्रुपात-रत हुए। उसके एक निभृत प्रकोष्ठ में जाकर हँसे। उनका प्रणय जगदविख्यात हुआ।
(इसके बाद दोनों की मुहब्बत ने वह रंग पकड़ा कि जमाना दंग रह गया। गाँव के पास नालों पर लकड़ी के पुल बने थे। वहाँ खड़े-खड़े उन्होंने बरसात के बादलों को देखा और 'ओ बादल, तुही दिलजलों का सहारा' गाया। नदी के किनारे झाड़ियों में एक नाव बँधी रहती थी, उस पर चढ़ कर दोनों नदी में घूमे। वे साथ-साथ पानी में कूदे और साथ-साथ भीगे। एक टूटी-फूटी गढ़ी थी, वे उसकी शहतीर की छाँव में जा कर बैठे। उसके मटियाले बरामदों में जाकर रोए। उसके एक कोने में हँसे। उनकी मुहब्बत जग-उजागर हो गई।)
अत: उनके माता-पिता को यह प्रणय-दशा पूर्णत: विदित हो गई। वे घोर असंतुष्ट हुए। उभय-पक्ष में अंत:पुरीय कलह का सूत्रपात हुआ। पुष्पिता का एक पुरुष से पाणिग्रहण संयोजित था। उसका नाम क्षेत्रपति संवर्धन था। यहाँ तक कि इस प्रणय-कथा का ज्ञान उसे भी हो गया।
(उनकी यह हालत उनके माँ-बाप से छिपी न रही। वे बहुत नाराज हुए। दोनों ओर घरों में अंदरुनी झगड़े-फसाद फैलने लगे। फूला की मँगनी एक किसान से हो गई थी। उनका नाम बाढ़ू था। यहाँ तक कि उसे भी यह किस्सा मालूम हो गया।)
एक दिन कुमारी पुष्पिता का मार्ग-रोध कर के क्षेत्रपति संवर्धन ने कुछ अभद्र शब्द कहे तथा कुमार उदयन की हत्या का भय दिखाया। वे आकृति और प्रकृति, दोनों से विकर्षक थे, उनका शिरोभाग खल्वाट था, शरीर पृथुल था। ईषत्तुंदिल थे। उनके परिचरों में जनपद के क्रूरतम दस्युओं एवं लंपटों का प्राचुर्य था। क्षेत्रपति संवर्धन ने उन्हें उदयन के वधार्थ प्रेरित किया।
(एक बाढ़ू किसान ने फूला को रास्ते में रोक उससे कुछ बदतमीजी की बातें की और उठल्लू बाबू का खून करा देने की धमकी दी। बाढ़ू की शकल और आदत, दोनों से नफरत होती थी। उसका सिर गंजा था, जिस्म थुलथुल था। पेट कुछ निकला था। उसके हमराहियों में वहाँ के सभी खूँख्वार डकैत व गुंडे भरे थे। उन्हीं को बाढ़ू ने उठल्लू बाबू को मारने के लिए भेजा।)
एक दिन दस्युओं ने विजन-वन में कुमार के रथ की वल्गा पकड़ ली और उन पर आक्रमण किया। तुरंत साधु, कुमार, साधु! किसी को उन्होंने पाद-प्रहार से पीड़ित किया, किसी को कर-प्रहार से कर्तित किया, किसी को मुष्टि-प्रहार से मर्दित किया। इस प्रकार समस्त दस्युओं का दमन करके, स्वंय म्रियमाण अवस्था में उन्होंने प्रासाद के अंत:पुर में प्रवेश किया। उनकी रक्त-रंजित सज्जा देख कंचुकी काँपे, विदूषक विषण्ण हुए, परिचारिकाएँ पर्याकुल हुईं, उपचारक अवसन्न हुए।
(नतीजा यह हुआ कि एक दिन सुनसान बियाबान में उठल्लू बाबू की गाड़ी रोक कर डकैतों ने उन पर हमला किया, पर शाबास, मेरे पट्ठे! किसी को उसने पैर से पटका, किसी को हाथ से काटा, किसी को मुक्के से मारा। यों डकैतों को दबा कर, वे अपने मकान पर आए और अंदर घुसे। वे खुद चोट खा चुके थे और मरने की हालत में थे। यह देख कार-परदाज काँपे, भँड़ैत भड़भड़ाए, नौकरानियाँ घबराईं, डाक्टरों के दिल बैठ गए।)
महार्हरत्नजटित पर्यंक पर तिरस्करिणी द्वारा अदृश्यमान कुमार श्वेतपटाच्छादित सज्जा में म्रियमाण पड़े थे। कुमारी पुष्पिता लोकाचार का निराकारण करके उनके दर्शनार्थ आईं। देखते ही उन्होंने चीत्कार किया, और चीत्कार करती हुई, बाणविद्ध मृगी-सी पलायित हुईं वे शिवालय में पहुँचीं और वाष्पावरुद्ध कंठ से उच्च स्वर में गायन करने लगीं, 'चंद्रशेखर, चंद्रशेखर, पाहि माम्।'
(उठल्लू बाबू कीमती पलँग पर लेटे थे। चारों ओर पड़े पर्दों ने उन्हें ढँक दिया था। जिस्म पर सफेद पट्टियाँ बँधी थी। फूला दुनिया का लिहाज छोड़ उन्हें देखने पहुँची। देखते ही उसके मुँह से चीख निकली। चीखती हुई, वह गोली खाई हिरनी जैसी वहाँ से भागी और शिवाले में आ कर रुँधे गले से चिल्ला-चिल्ला कर गाने लगी, 'मेरी नैया प्रभू जी बचाना।')
गायन के उपरत होते ही, प्रवर्धमान दीपशिखा के इंगित से कुमारी पुष्पिता को उदयन के चेतना-लाभ का ज्ञान हुआ। अब वे मत्त-मयूरी-सी लास-लालित पद-क्षेपण करती, संगीत-निरत भाव में प्रत्यावर्तित हुईं, किंतु हंत दैव! संवर्धन ने पुन: मार्ग-रोध करके उन्हें अपने सैंधव अश्व पर बैठा लिया एवं निमेष मात्र में सघन कानन के अंधकार में विलीन हो गया।
(गाना खत्म होते ही शिवाले के चिराग की लौ ऊँची ऊठी। बस फिर क्या था! फूला ने समझ लिया कि उठल्लू बाबू को होश आ गया है। अब वह मस्त मोरनी-सी फुदकती, नाचती, गाती वापस लौटी, पर हाय री किस्मत! बाढ़ू रास्ता रोके था। उसने फूला को अपने सिंधी घोड़े पर बिठाया और पलक मारते जंगल के अँधेरे में गायब हो गया।)
दिग्दिगंत में इसकी प्रचारणा हुई। कुमार उदयन चेतना पा कर प्रहृष्ट मुद्रा में लेटे थे। सूचना पाते ही वे खंग:पाणि हो कर अपने यावनीय अश्व पर आरुढ़ हुए और उसी ओर गमनोद्यत हुए जिधर संवर्धन गया था। इस दशा में पुत्र को जाता देख, पूर्व अमर्ष का त्याग कर, उदयन के पिता महासामंत निष्कर्मण्य भी शास्त्रसज्जित हो उन्हीं की ओर प्रवाधित हुए।
(चारों ओर इसकी खबर फैली। होश में आ कर उठल्लू बाबू खुशी से लेटे थे, खबर पाते ही हाथ में तलवार ले कर वे अपने अरबी घोड़े पर सवार हुए और तेजी से उसी ओर बढ़े जिधर बाढ़ू गया था। यों बरखुरदार को जाता देख, उठल्लू बाबू के बाप जमींदार निठल्लू बाबू ने गुस्से को थूक दिया। वे भी हथियार से लैस हो कर उन्हीं के पीछे रवाना हुए।)
चार योजन तक वे अश्वों को अपरिकल्यत्वरा से धावित करते रहे। तदनंतर पर्वत-श्रेणी पर एक विराट गह्वर के आ जाने से मार्ग में व्यतिकर समुपस्थित हो गया। क्षेत्रपति संवर्धन को रुकना पड़ा। द्रुतगति से पृथ्वी पर उतर कर कुमार संवर्धन से वह खड्गयुद्ध करने लगा। कुमारी पुष्पिता संत्रस्त नेत्रों से इस घटना को देखती रहीं।
(सोलह कोस तक तीनों होश गुम कर देने वाली रफ्तार से घोड़े भगाते रहे। इसके बाद पहाड़ी पर एक भारी खुड्ड आ गया और बाढ़ू का रास्ता रुक गया। वह घोड़े से कूद कर जमीन पर आ गया उठल्लू बाबू के साथ तलवार चलाने लगा। फूला सहमी निगाहों से यह सब देखती रही।)
प्रथमत: कुमार उदयन संवर्धन को प्रताड़ित करते-करते गह्वर तक ले गए, पुन:संवर्धन ने उदयन को वही स्थान दिखाया। गह्वर पर एक रज्जु प्रलंबित थी। उससे निलंबित हो कर दोनों ने युद्ध किया। पुन: गह्वर की कोटि पर आ कर उन्होंने वैसा ही युद्ध किया। तत्पश्यात उदयन ने संवर्धन के शरीर पर आरोहण करके करवाल कला दिखाई, पुन: संवर्धन ने उदयन पर आरोहण करके अपनी कला दिखाई। कुमार उदयन क्रमश: संज्ञा-शून्य हो ही चले थे कि महासामंत निष्कर्मण्य ने पीछे से आ कर संवर्धन को रणाह्वान दिया। संवर्धन ने बिना उत्तर दिए एक परिघास्त्र निष्कर्मण्य प्रक्षिप्त किया।
(पहले उठल्लू बाबू ने बाढ़ू को मारते-ढकेलते खुड्ड तक पहुँचाया, फिर बाढ़ू ने उनको वहाँ तक ढकेला। एक रस्सी भी खुड्ड पर टँगी थी, दोनों उससे लटक कर तलवार चलाते रहे। फिर दोनों खुड्ड के किनारे आ कर लड़ते रहे। फिर उठल्लू बाबू ने बाढ़ू पर तलवार चलाई। उठल्लू बाबू बेहोश होने लगे कि पीछे से जमींदार निठल्लू बाबू ने आ कर बाढ़ू को ललकारा। बाढ़ू ने बिना कुछ कहे एक कटार फेंक कर निठल्लू बाबू पर मारी।)
किंतु दैवी विधान, 'कि एक श्वेत जटाधारी मानव ने महासामंत के सम्मुख आ कर वह परिघात्र अपने वक्ष पर झेला और वहीं संज्ञाशून्य हो कर भू-लुंठित हो गया।' महासामंत विलाप करते हुए बोले, 'अहह, सामंत विचक्षण, तुम्हारा यह अंत!' विचक्षण बोले, स्वामिन, स्वामिन, स्वामी के प्राण-रक्षण में मेरा प्राण-भक्षण हो यह परम सौभाग्य है।' विचक्षण का प्राणांत हो गया। महासामंत और भी रोने लगे; कुमारी पुष्पिता भी कुररी-सदृश्य आक्रोश करने लगीं। सामंत विचक्षण ही कुमारी पुष्पिता के पिता थे।
(पर किस्मत की क्या कहिए, एक सफेद बालोंवाले इंसान ने जमींदार निठ्ठलू के आगे आ कर उस कटार को अपनी छाती पर रोक लिया और बेहोश हो कर वहीं जमीन पर लोट गया। निठ्ठलू बाबू रोते हुए बोले, 'हाय, बुझावन भाई, तुम यों गए!' बुझावन भाई बोले, 'मालिक, मालिक की जान बचाने में अपनी जान जाए, इससे बढ़ कर और क्या हो सकता है।' बुझावन मर गय। निठ्ठलू बाबू और भी रोने लगे। फूला भी चील की तरह चीख कर रोने लगी। बुझावन ही फूला के बाप थे।)
इस स्थिति में संवर्धन ने एक और परिघास्त्र प्रक्षिप्त किया जिसके आघात से महासामंत निष्कर्मण्य प्रणवोच्चार करते हुए परम गति को प्राप्त हुए। संवर्धन की इस अनवधानता से लाभ उठा कर कुमार उदयन ने भी खड्ग का एक ऐसा प्रहार किया कि संवर्धन का एक घोर चीत्कार के साथ प्राणांत हो गया और वह गह्वर की गहनता में विलीन हो गया।)
(इस दुख की घड़ी में बाढ़ू ने एक और कटार फेकी जो निठ्ठलू बाबू की छाती में जा लगी और जिससे उनके मुख से निकला, 'राम, हे राम' और वे वहीं ढेर हो गए। बाढ़ू का ध्यान अपनी ओर न होने से मौका पा कर उठ्ठलू बाबू ने उस पर तलवार का वह वार किया कि वह भी चीख मार कर मर गया और खुड्ड की गहराइयों में गुम हो गया।)
अब सर्वत्र आनंद व्याप्त हो गया। पाटल राग रवि अंबरतल से अवलंबित हो रहा था। तरु शिखरों पर रक्तांगराग छाया था। कमल मुकुलित था तो कोककुल प्रफुल्लित होने वाला था। खगकुल कुलकुलायमान। तारकुल तमतमायमान था। ऐसे काल में दो प्रेमी पितृहीन हो कर, शत्रुहीन हो कर, अर्थात निष्कंटक अवस्था में अश्वों पर चढ़े वही गान गाते हुए लौट रहे थे जो उन्होंने कुछ काल पूर्व अपनी रथ-यात्रा में गाया था। ओम शांति:।
(अब चारों ओर बहार छा गई। लाल-लाल सूरज आसमान में लटक आया। पेड़ों की फुनगियों पर रंगीनियाँ बिखर गईं। कमल मुरझाने लगा तो कोकाबेली फूलने लगी। चिड़ियाँ चहकीं, तारे चमके और अपने बापों को गँवा कर, दुश्मनों को मिटा कर, यानी सब मुसीबतें सुलझा कर मस्ती के साथ, घोड़ों पर चढ़े हुए, दो इश्कपरस्त वही गाना गाते हुए वापस लौटे जो कुछ दिन हुए उन्होंने बैलगाड़ी पर बैठ कर गाया था। दि एंड।)
टिप्पणी... आज के चलन के अनुसार इस कहानी के फिल्मों का शीर्षक 'प्रभात समीरण' उर्फ 'सुबह की हवाएँ' इसीलिए रक्खा गया है कि इसमें सुबह की हवाओं का कोई जिक्र नहीं है।