पोई का मचान (बांग्ला कहानी) : विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय

Poi Ka Machaan (Bangla Story) : Bibhutibhushan Bandyopadhyay

श्री सहायहरि चटर्जी महाशय बाहर से आकर आंगन में पांव रखते-रखते अपनी पत्नी से बोले, ‘एक बड़ा-सा कटोरा या लोटा देना तो। तारक महाशय ने ताड़ का वृक्ष काटा है। अच्छा रस मिलेगा, थोड़ा ले आऊं।’

पत्नी अन्नपूर्णा पुआल से बने रसोई घर के बरामदे में पाड़े की धूप तापती हुई बोतल में जमा नारियल का तेल झाड़ू की सींक के सहारे निकाल कर अपने बालों में लगा रही थीं। पति को आता देख वह अपने कपड़े को थोड़ा-सा खींच कर संभल जरूर गयीं मगर न तो उनके कहने पर कोई कटोरा या लोटा देने के लिए उठी और न ही कोई जवाब दिया।

सहायहरि बाबू थोड़ा आगे बढ़कर बोले, ‘क्या बात है, तुम बैठी हुई हो। एक लोटा ला दो न। खेन्ती-वन्ती सब कहां चली गयीं। तुमने तेल लगाया है इसलिए रसोई में नहीं जाओगी?’

अन्नपूर्णा तेल की बोतल बगल में रख कर कुछ देर तक अपने पति की ओर एकटक देखती रही। फिर अत्यन्त संयत स्वर में बोली, ‘तुमने मन-ही-मन क्या ठीक किया है, बता सकते हो।’

पत्नी के इस अतिरिक्त शान्त स्वर को सुनकर सहायहरि बाबू का दिल मारे डर के धड़कने लगा। उन्होंने महसूस किया कि यह तो आंधी आने के पूर्व के आकाश की स्थिति है। इसलिए वे बेचैन होकर उस आने वाली आंधी की प्रतीक्षा करते हुए जरा घबराये हुए बोले, ‘क्यों। फिर क्या हुआ...?’
अन्नपूर्णा पहले से भी शांत स्वर में बोली, ‘देखो ढोंग मत करो, अगर तुम्हें ढोंग ही करना है तो किसी और समय करना। तुम कुछ नहीं जानते हो न, तुम्हें कोई खबर भी है, क्या तुम मुझे बता सकते हो कि जिसके घर में इतनी जवान लड़की हो, वह निश्चिन्त होकर मछली पकड़ते हुए, रस पीकर दिन कैसे बिता सकता है? गांव वालों ने क्या अफवाह फैलायी है, तुम्हें मालूम है।’ सहायहरि बाबू बोले, ‘क्या, क्या अफवाह फैलायी है?’
‘क्या अफवाह फैलायी है। यह तुम मुझसे पूछने के बदले

चौधरी के घर जाकर पूछो, वही बेहतर होगा। सिर्फ मछुआरों और कहारों की बस्ती में घूम-घूमकर दिन बिताने से भद्र लोगों के गांव में निवास नहीं किया जा सकता। समाज में रहने से उसके नियम-कानून मानकर चलना ही पड़ता है।’ सहायहरि बाबू हैरानी में पड़ गये। वे कुछ कहने ही जा रहे थे कि फिर उसी स्वर में अन्नपूर्णा बोली, ‘हम लोगों को बहिष्कृत कर देंगे। कल चौधरी के चंडीतल्ला में यह सब बातें हो रही थीं। हम लोगों का छुआ पानी भी नहीं पीयेंगे गांव वाले। सगाई होने के बाद लड़की की शादी नहीं हुई। लोगों का कहना है कि वह परित्यक्ता है। गांव के किसी भी काम में लोग अब तुम्हें बुलायेंगे भी नहीं। हां, इससे तो तुम्हारा अच्छा ही हुआ न। जाओ, अब जाकर उन्हीं मछुआरों और कहारों की बस्ती में रहो।’

सहायहरि बाबू बड़े ही तिरस्कृत ढंग से बोले, ‘ओअ, ये बात है। मैं तो समझ रहा था न जाने क्या हो गया। बहिष्कार करेंगे। सबने कर लिया, बाकी बचा है वह कालीमय ठाकुर, हुंह।’

अन्नपूर्णा तिलमिला उठी। बोली, ‘क्यों, तुम्हारा बहिष्कार करने में और भी ज्यादा कुछ लगेगा क्या? क्या तुम इस समाज की बहुत बड़ी हस्ती हो। न घर है, न द्वार है, न तो रत्ती भर की क्षमता है। चौधरी लोग तुम्हारा बहिष्कार करेंगे, भला यह कौन-सी बड़ी बात होगी। और बात तो सच ही है कि लड़की जवान हो गयी है।’ अचानक अपना स्वर धीमा करके बोली, ‘न तो शादी करने की चिन्ता है, न और कुछ। क्या यह काम भी मुझे ही करना पड़ेगा। मैं उसके लिए लड़का ढूंढ़ने निकलूं।’

सहायहरि बाबू समझ गये कि जब तक वे पत्नी के सामने खड़े रहेंगे, तब तक उसका स्वर कम नहीं होगा। इसलिए जल्दी से एक कटोरी उठाकर बाहर के दरवाजे की ओर चलने लगे। लेकिन दरवाजे तक जाते-जाते कुछ देखकर रुक गये। फिर अचानक खुशी के स्वर में बोले, ‘यह क्या देती बेटी...यह क्या है रे, तुम्हें यह सब कहां से मिला? ओह, आज तो मजा...’

चौदह-पन्द्रह वर्ष की एक लड़की दो छोटी-छोटी लड़कियों को साथ लेकर आंगन में आयी। उसके हाथ में एक बण्डल पोई का साग था। डंठल मोटे और पीले हो गये थे। देखकर लग रहा था कि किसी ने पके हुए पोई की लताओं को अपने बागान को साफ करने के दौरान उखाड़ फेंका है और यह लड़की उसके बागान के जंजालों को उठाकर यहां ले आयी है। छोटी लड़कियों में से एक के हाथ खाली थे और दूसरे के हाथ में दो-चार पके हुए पोई के पत्तों में लिपटी कोई चीज थी।

बड़ी लड़की काफी लम्बी है। सुडौल चेहरा और सिर के बाल तेल विहीन बिखरे हुए हवा में इधर-उधर उड़ रहे हैं। बड़े से चेहरे पर दो बड़ी-बड़ी पर शान्त आंखें। कलाइयों में दो पैसा दरजन वाली पतली-पतली कांच की चूड़ियां जो सेफ्टीपिन के सहारे एक साथ बंधी हुई हैं। सेफ्टीपिनों को देखने से लगता है कि ये एक युग को पार कर दूसरे युग में कदम रख चुकी होंगी। शायद इसी लड़की का नाम खेन्ती है। क्योंकि उसने अपना दूसरा हाथ पीछे की ओर बढ़ाया और छोटी लड़की के हाथ से पोई के पत्तों में लिपटी वस्तु को लेकर उसे खोलकर अपने पिता को दिखाते हुए बोली, ‘चिंगड़ी मछली है बाबा। बूढ़ी गया से रास्ते में खरीदा है। पहले तो देना ही नहीं चाह रही थी। बोली, ‘तुम्हारे बाबा के पास पहले का दो पैसा बाकी है।’ मैं बोली ,‘दो न बुआ, मेरे बाबा क्या तुम्हारा दो पैसा लेकर भाग जायेंगे।’ तब जाकर दिया...। और ये पोई-पत्ता, घाट के किनारे राय काका बोले, ‘इसे ले जा। देख न कितनी अच्छी मोटी-मोटी...’

रसोई के बरामदे में बैठी अन्नपूर्णा वहीं से चिल्लायी, ‘हां, ले जा। कितना अमृत दे दिया है उन लोगों ने तुम्हें दान में। पका हुआ, लकड़ी की तरह का सूखा पोई का साग। दो दिन बाद वे इसे बागान साफ करने के लिए खुद उखाड़ फेंकते। इससे कहा ले जा और यह उठा लायी। अच्छा ही हुआ उन लोगों को और तकलीफ करके जंजाल साफ नहीं करना पड़ेगा। सब-के-सब गधे मेरे ही पल्ले आ पड़े। इतनी बड़ी हो गयी हो, तुम्हें शर्म नहीं आती इस मुहल्ले से उस मुहल्ले घूमते हुए। तुम्हें मैंने घर से बाहर कदम रखने के लिए मना किया है न। शादी हो गयी होती तो अब तक चार बच्चों की मां बन जाती। खाने के नाम पर होश ही नहीं रहता है। कहीं साग तो कहीं बैगन...और बाप हैं कि कहीं रस तो कहीं मेरा सर। चल फेंक, कह रही हूं, जल्दी से फेंक।’

वह लड़की स्तब्ध और भयमिश्रित दृष्टि से अपनी मां की ओर देखती रही। फिर धीरे-धीरे अपने हाथ के बंधन को ढीला कर दिया। पोई का वह गुच्छा उसके हाथ से नीचे गिर गया। अन्नपूर्णा डांट कर बोली, ‘जा तो राधी, इसे उठाकर तालाब के किनारे फेंक आ। अगर फिर तुमने घर से बाहर कदम रखा तो मैं तुम्हारी टांगें तोड़कर रख दूंगी।’

छोटी लड़की ने उस बण्डल को जमीन से उठाया और मां के आदेशानुसार उसे फेंकने के लिए जाने लगी। वह बहुत छोटी थी, उससे सारा बोझ उठाया नहीं गया। कुछ डंठल इधर-उधर बिखर गये। सहायहरि बाबू के बच्चे अपनी मां से काफी डरते थे।
सहायहरि बाबू साहस करके झिझकते हुए पत्नी से बोले, ‘बच्चे हैं। इतने उत्साह के साथ जब लाये ही हैं...तो तुम उसे...’

पोई का बोझ ले जाती हुई छोटी लड़की तुरंत रुक गयी। पीछे मुड़कर अपनी मां की ओर देखा। अन्नपूर्णा उसकी ओर देखकर बोली, ‘नहीं, नहीं, जाओ, तुम इसे फेंक कर आओ, लड़कियों का इतना लालची होना ठीक नहीं। एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाकर पका हुआ साग भीख मांग कर ले आयी है। जाओ, इसे जल्दी से फेंक आओ।’

सहायहरि बाबू ने अपनी बड़ी बेटी की ओर देखा। उसकी आंखों में आंसू छलछला आये थे। उन्हें बहुत दुख हुआ। लेकिन बेचारे करते भी क्या, लड़की उनको चाहे जितनी ही प्यारी हो, उसका पक्ष लेकर इस भरी दुपहरी में अपनी पत्नी को गुस्सा दिलाने का साहस उनमें नहीं था। वे कर ही क्या सकते थे, चुपचाप घर से निकल गये।

खाना बनाते-बनाते बड़ी बेटी की करुणा भरी आंखें याद आते ही अन्न्पूर्णा को ‘शीतल षष्ठी’ के दिन याद आ गए। उस दिन जब अन्नपूर्णा पोई-साग पका रही थी, तब खेन्ती ने कहा था, ‘मां, इस साग का आधा मैं खाऊंगी और बाकी आधा तुम सब मिलकर खाना।’

घर में कोई नहीं था। वह खुद ही जाकर आंगन और दरवाजे के आस-पास पड़े हुए पोई के डंठल उठा लायी। बाकी उठाया नहीं जा सकता था, क्योंकि उसे तालाब किनारे राख के ढेर पर फेंका गया था। फिर उस साग में चिंगड़ी मछली मिलाकर सबसे छिपाकर उसने सब्जी बनाया।

दोपहर को भोजन की थाली में पोई का साग देखकर खेन्ती ने आश्चर्य और प्रसन्नता भरी दृष्टि से मां की ओर डर कर देखा। अन्नपूर्णा काम करती हुई एक-दो बार उसके सामने से गुजरी। उसने देखा कि क्षण भर में ही खेन्ती साग खत्म कर चुकी थी। उसकी थाली में साग का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था। वह अच्छी तरह जानती थी कि उसकी बेटी इस साग के लिए जीभ की किस हद तक दुर्बल है। इसलिए उसने पूछा, ‘क्यों रे खेन्ती, तुझे और थोड़ा-सा साग दूं।’ इतना अच्छा प्रस्ताव सुनकर उसने खुशी से गर्दन हिला कर उसका समर्थन किया। कुछ सोच कर अन्नपूर्णा की आंखें भर आयीं। यह अपने आंसू छिपाने के लिए छप्पर में सूख रही मिर्च की टोकरी से मिर्च लेने के बहाने आंखें ऊपर कर ली।

कालमय के चंडीमण्डप में उस दिन सहायहरि बाबू को बुलाया गया। संक्षिप्त भूमिका गढ़ने के बाद एकबारगी उत्तेजित स्वर में कालीमय बोले, ‘अब वह दिन नहीं रहा। केष्टो मुखर्जी की बात लो, पहले तो अच्छे व्यक्तित्व वाला, ज्ञानी लड़का नहीं होने पर बेटी को नहीं देगा, की रट लगाये हुए था। अन्त में देखो, उसकी क्या हालत हुई। हरि के बेटे के साथ, हाथ-पांव पकड़कर, बेटी की शादी करवायी। आहा, क्या ज्ञानी, गुणी, व्यक्तित्व वाला ब्राह्मण मिला। जिसके सात पुरखे सड़े हुए ब्राह्मण माने जाते हैं। हां, तो समाज में पहले जैसा नियम-कानून अब कुछ बचा भी है क्या? हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, तुम्हारी बेटी को ही लो। तेरह वर्ष की हो गयी।
सहायहरि बाबू बीच में ही टोककर बोले, ‘सावन में तेरह...’

‘हां-हां तेरह और बारह में फर्क ही क्या है? बारह ही क्यों तेरह और सोलह में भी क्या फर्क है? तेरह हो या सोलह हो, या फिर पचास ही क्यों न हो। यह मेरे हिसाब रखने वाली बात नहीं है। तुम्हारी बेटी है, तुम ही हिसाब रखो। पर सगाई हो जाने के बाद तुमने शादी करने से मना क्यों कर दिया? एक तरह से तो यह छोड़ी हुई लड़की है। शादी होना और सगाई होना, दोनों एक ही बात है। तुमने यह कैसे सोच लिया कि समाज में रहकर तुम इस तरह का नीच काम करोगे और हम लोग चुपचाप बैठकर तमाशा देखते रहेंगे। लड़का आखिर लड़का ही होता है। राजपुत्र नहीं होने पर क्या तुम्हारा दामाद नहीं बन पायेगा? गरीब आदमी हो, ज्यादा दान-दहेज नहीं दे पाओगे, यही सोचकर सीमान्त मजूमदार के बेटे को ठीक कर दिया था। मानता हूं कि वह लिखना-पढना नहीं जानता है, पर जज-मजिस्ट्रेट नहीं होने पर क्या कोई इन्सान नहीं होता? घर है, बागान है, तालाब है और सुना है कि इस वर्ष तो थोड़ी-सी जमीन पर अमन ने धान की खेती भी की है। बस, और क्या चाहिए? दो भाई हैं, खाने-पीने की कोई कमी तो नहीं है।’

इस रिश्ते का इतिहास इस प्रकार है कि मटिगांव के मजूमदार महाशय के पुत्र का रिश्ता कालीमय बाबू ही लाये थे। मजूमदार महाशय के पुत्र के साथ सहायहरि बाबू की बेटी का विवाह करा देने में कालीमय बाबू का इतना आग्रह क्यों है? इस संबंध में लोगों को कहना है कि मजूमदार महाशय से कालीमय काफी रुपया उधार ले चुका था, साथ ही कई महीनों का सूद भी बाकी था और मजूमदार महाशय उस पर शीध्र ही कानूरी काररवाई भी करने वाले थे। इसलिए इस रिश्ते को जोड़कर वह मजूमदार महाशय को खुश करना चाह रहा था। लेकिन यह सिर्फ एक उफवाह ही थी, जो उनके विरोधियों द्वारा फैलायी गयी थी। पर सहायहरि बाबू द्वारा यह विवाह तोड़ने के पीछे कारण कुछ और ही था। सगाई हो जाने के दो-चार दिन बाद सहायहरि बाबू को पता चला कि वह लड़का अपने ही गांव में एक कुम्हार की बहू के साथ कुकर्म करने के चक्कर में उसके परिवार वालों द्वारा काफी पीटा गया था और इसी वजह से उसने कई दिनों तक बिस्तर पकड़ लिया था। ऐसे लड़के के हाथ में अपनी बेटी का हाथ ेदेना सहायहरि बाबू को मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने यह रिश्ता तोड़ दिया।

इस घटना के दो दिन बाद की बात है। पेड़ों के बीच में से थोड़ी-सी धूप आकर आंगन में पड़ी थी। सहायहरि बाबू सुबह उठकर उसी धूप में बैठकर बड़े सुकून के साथ तम्बाकू पी रहे हैं। बड़ी बेटी खेन्ती चुपचाप आयी और बोली, ‘बाबा चलेंगे नहीं, चलिये न, यही मौका है। मां घाट पर गयी है।’

सहायहरि बाबू ने पता नहीं क्या सोचकर एक बार घाट के रास्ते की तरफ देखा। फिर बोले, ‘तो खेन्ती बेटी जल्दी से शाबल ले आ।’ अपनी बात खत्म करके वे जल्दी-जल्दी तम्बाकू पीने लेगे। फिर एक बार सतर्क दृष्टि से घाट की ओर देखा। इतने में खेन्ती अपने देानों हाथों से पकड़कर खींचते हुए एक बड़ा शाबल लायी। उसके पश्चात् पिता-पुत्री दोनों बड़ी ही सावधानी के साथ मुख्य द्वार से बाहर निकल गये। दोनों का हाव-भाव देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये लोग किसी के घर सन्दूक तोड़ने जा रहे हैं।

अन्नपूर्णा अभी-अभी नहा-धोकर, कपड़े बदल कर चूल्हा जलाने ही जा रही थी कि मुखर्जी परिवार की छोटी लड़की दुर्गा आकर बोली, ‘खुड़ीया, मां ने कहा कि आज वह पूजा नहीं कर पायेगी। तुम चलकर हम लोगों की ‘इतू पूजा’ का जुगाड़ कर दोगी।’

मुखर्जी के घर जाते वक्त रास्ते के बायीं ओर विभिन्न प्रकार के फलों और जंगली पेड़ों का घना जंगल पड़ता है। जाड़े की सुबह में उस जंगल से एक जंगली महक आ रही थी। लम्बी पूंछवाला एक पीला पक्षी इमड़ा के पेड़ की इस डाल से उस डाल पर फुदक रहा था।

दुर्गा अपनी उंगली से इशारा करके बेली, ‘खुड़ीमां-खुड़ीमां, देखो कितनी सुन्दर चिड़िया है।’ चिड़िया देखने के लिए जंगल की ओर देखते ही अन्नपूर्णा का ध्यान किसी अन्य चीज की ओर केन्द्रित हुआ। घने वन के अन्दर से एक आवाज आ रही थी। ऐसा लगा जैसे कोई कुछ खोद रहा है। दुर्गा की आवाज सुनते ही वह आवाज आनी बन्द हो गयी। अन्नपूर्णा वहां कुछ देर रुकी। फिर चलने लगी। वे अभी कुछ ही दूर गये थे कि जंगल के बीच से फिर वहीं खोदने की आवाज सुनाई पड़ने लगी।

मुखर्जी परिवार के यहां से काम करके लौटने में अन्नपूर्णा को कुछ देर हो गयी। घर लौटकर देखा कि खेन्ती तेल की कटोरी सामने लिये धूप में बैठकर अपने बालों को खोलने में व्यस्त है। उसने अपनी बेटी की ओर तीक्ष्ण दृष्टि डालते हुए देखा। फिर रसोई में जाकर चूल्हा जलाने की तैयारी करने लगी। फिर बेटी से बोली, ‘अभी तक नहाई नहीं। कहां थी अब तक।’

खेन्ती नहाने गयी। इसके थोड़ी देर बाद ही सहायहरि बाबू एक पन्द्रह-सोलह किलो वजन का ओल कन्धे पर लादे आंगन में आये। अपने सामने पत्नी को देखकर जवाबदेही के लिहाज से बोले, ‘उस मुहल्ले का मयशा चौकीदार कह रहा था, ठाकुर दा, आपके पिजा जी के रहते आप लोग बीच-बीच में इधर आया करते थे। आजकल तो हमारे मुहल्ले में आपकी चरण-धूलि ही नहीं पड़ती। मेरे बगीचे में एक बड़ा-सर ओल है। ठाकुर दा आप जब आ ही गये है तो...’
अन्नपूर्णा एकटक पति को देखती रही। फिर पूछा, ‘बरोजपोटा के बगान में कुछ देर पहले क्या कर रहे थे।’

सहायहरि बाबू अचरज भरी आवाज में बोले, ‘मैं, नहीं-नहीं, मैं कब। कभी नहीं, मैं तो अभी-अभी...’ सहायहरि बाबू को देखकर ऐसा लग रहा था, मानो पत्नी की बात सुनकर वे आसमान से गिरे हों।

अन्नपूर्णा उसी तरह स्थिर दृष्टि से पति को देखती हुई बोली, ‘तीन चौथाई जिन्दगी तो इसी तरह काट दिया। अब तो एक पांव कब्र की ओर बढ़ाये हुए हो। बाकी बचे दिनों में अब और झूठ न ही बोलो तो अच्छा है। मैं सब जानती हूं। सोचा था, बला घाट पर गयी है, अब और क्या... दुर्गा की मां ने बुलवाया था। मैं उस मुहल्ले में जा रही थी। जाते वक्त जंगल में से किसी के जमीन खोदने की आवाज आ रही थी। हमारी आहट पाते ही वह आवाज बन्द हो गयी। फिर सुनाई पड़ने लगी। मैं तभी समझ गई कि तुम्हारे सिवा और कोई नहीं होगा। अरे, जरा सोचो भी। अपना नहीं तो अपनी बेटी के लिए ही सोचो। चोरी करो, डाका डालो, झूठ बोलो। जो मन में आये करो। पर उस लड़की की जिन्दगी तबाह करने पर क्यों तुले हुए हो?’

सहायहरि बाबू बरोजपोटा के जंगल में नहीं थे, इस बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कई प्रमाण देने की कोशिश की। पर पत्नी की स्थिर दृष्टि के सामने उनकी एक भी नहीं चली। न ही उनकी किसी बात के साथ पहले कही गई बातों का कोई तालमेल बन सका।
करीब आधा घंटा बाद खेन्ती नहाकर लौटी। आंगन में आकर एक बार तिरछी नजर से उसने सामने पड़े हुए विशाल आकृति वाले ओल को देखा। फिर मासूम-सा चेहरा बनाकर आंगन में बंधी रस्सी पर अपना भीगा कपड़ा फैलाने लगी।

अन्नपूर्णा ने बुलाया, ‘खेन्ती जरा इधर आना।’ मां की आवाज सुनकर खेन्ती का चेहरा पीला पड़ गया। वह धीरे-धीरे चलकर मां के सामने हाजिर हुई। मां ने पूछा, ‘इसे तुम दोनों मिलकर उखाड़ लाये हो न।’
खेन्ती मां के चेहरे की ओर कुछ देर देखती रही फिर जमीन पर पड़े उस ओल को एक बार उसने देखा। फिर मां की ओर देखा और कड़ी दृष्टि से बगल वाले बांस-वन की ओर देखने लगी। उसके माथे पर बूंद-बूंद पसीना चुहचुहा आया। फिर भी उसने अपनी जुबान नहीं खोली।
अन्न्पूर्णा कठोर स्वर में बोली, ‘तेरी जुबान क्यों बन्द है, तुम इसे उखाड़ कर लायी हो या नहीं।’

अन्नपूर्णा आग-बबूला हो गयी। बोली, ‘पाजी, चंडाल, आज तुम्हारी पीठ पर मैंने डंडा न तोड़ा तो देखना। बरोजपोटा के घने जंगल में तू चोरी करने गयी थी। इतनी सयानी हो गयी, कई साल पहले शादी की उम्र हो गयी, दिन दहाड़े जहां बाघ-चीता छिपे रहते हैं, वहां तू ओल चुराने गयी थी। अगर गुसाई लोग तुम्हें पकड़वा दें तो तुम्हारा ससुर तुम्हें छुड़ाने आयेगा? अरे, हमें खाने को मिलेगा तो खायेंगे, नहीं मिलेगा तो नहीं खायेंगे। इसके लिए चोरी। हे भगवान, इस लड़की को लेकर मैं कहां जाऊंगी?’
दो-तीन दिनों के बाद एक दिन शाम को धूल-धूसरित हाथ-पैर लिये खेन्ती आकर मां से बोली, ‘मां, मां। एक चीज दिखाऊंगी, आओ न।’

अन्नपूर्णा ने जाकर देखा कि उसके घर की सरहद की टूटी दीवार के पास छोटे-छोटे जंगली पौधों का जो वन था, उसे खेन्ती ने अपनी छोटी बहन की सहायता से साफ कर वहां एक सब्जी बागान बनाने की तैयारी कर रखी है। फिलहाल उसने अपने बागान की शुरुआत एक दुबले-पतले पोई के पौधे से की है। और बाकी सारे पौधों की कल्पना खेन्ती अपने दिमाग में छिपाये हुए हैं। अन्नपूर्णा ने देखा उस पोई के पौधे को पुरानी साड़ी की पाड़ से इस तरह बांधकर खेन्ती ने ऊपर बंधे बांस के टुकड़े से लटकाया है, जैसे वह फांसी पर लटका दिया गया हो। वह हंसते हुए बोली, ‘पागल लड़की। यह भी कोई पोई साग लगाने का मौसम है? यह साग तो बरसात के मौसम में लगाया जाता है। अभी तो यह बगैर पानी के मर जायेगा।’
खेन्ती बोली, ‘कैसे मरेगा? मैं रोज इसमें पानी डालूंगी।’
अन्नपूर्णा बोली, ‘देख बच भी सकता है। आजकल तो सुबह काफी ओस पड़ती है।’

इस वर्ष जाड़ा भी कुछ अधिक ही पड़ा है। सुबह उठकर सहायहरि बाबू ने देखा उनकी दोनों छोटी लड़कियां चादर लपेटे कटहल के पेड़ के नीचे सूरज निकलने की प्रतीक्षा कर रही हैं। बड़ी बेटी एक टूटी हुई टोकरी में मुखर्जी के घर से गोबर लेकर कांपते हुए आयी। सहायहरि बाबू बोले, ‘अरे बेटी खेन्ती, तुझे ठंड-वंड भी नहीं लगती है क्या? सुबह उठकर एक चादर तो ले सकती हो। देखो तो कितनी ठंड है।’
‘अच्छा बाबा, अभी ले लेती हूं। कोई खास ठंड तो...’

‘जा बेटी, अभी ओढ़ ले। बीमार पड़ जाओगी।’ सहायहरि बाबू घर से बाहर निकल गये। जाते-जाते सोचने लगे, क्या मैंने बहुत दिनों के बाद अपनी बेटी का चेहरा देखा है। मेरी खेन्ती इतनी सुन्दर हो गयी है। मैंने पहले तो कभी ख्याल ही नहीं किया।

पौष संक्रांति का दिन है। शाम का वक्त है। अन्नपूर्णा पीठा बनाने के लिए एक देगची में पीसा हुआ चावल, मैदा और गुड़ अच्छी तरह मिला रही थी। खेन्ती थोड़ी दूर बैठकर नारियल की खुरचन तैयार कर रही थी। अन्न्पूर्णा इस काम में खेन्ती की सहायता लेना नहीं चाहती थी, क्योंकि वह दिन भर इधर-उधर जंगल आदि में घूमती रहती है। पता, नहीं, किसे-किसे छूकर आती थी। मगर खेन्ती जब बहुत जिद् करने लगी तो उसने बेटी को हाथ-मुंह धुलवाकर, कपड़े बदलकर इसे छूने दिया।

वह अपने हाथ का काम खत्म कर चूल्हे पर कड़ाही बैठाने ही जा रही थी कि उसकी छोटी बेटी ने अपना दाहिना हाथ दिया, ‘मां जरा-सा...’
अन्नपूर्णा ने देगची को सामने खींचा, फिर अपनी उंगलियों से पकवान बनाने के लिए तैयार मीठा मिश्रण निकाल कर छोटी बेटी की पसरी हुई हथेली पर रख दिया। तब तक उसकी मझली बेटी मुटी ने भी जल्दी से अपने दाहिने हाथ को कपड़े से पोंछ कर मां के सामने बढ़ा दिया, ‘मां, मुझे भी जरा...’

खेन्ती चूंकि इस समय साफ-सुथरा पहन कर नारियल खुरचने बैठी थी, वह जानती थी कि इस समय मांगने पर मां झिड़क सकती है, इसलिए काम करते हुए चुपचाप बार-बार लोलुप दृष्टि से उधर देख रही थी।

अन्नपूर्णा बोली, ‘खेन्ती, जरा वह नारियल का खोल देना। उसमें तुम्हारे लिये थोड़ा-सा रख दूं।’ खेन्ती ने लपक कर नारियल का खोल उठाया और मां की ओर बढ़ा दिया। अन्नपूर्णा ने उसमें थोड़ा ज्यादा ही मिश्रण रख दिया।
मझली बेटी पुटी बोली, ‘बड़ी मां ने बहुत सारा दूध लिया है, रांगा दीदी खीर बना रही थी। उनके यहां कई तरह का पीठा बनेगा।’

खेन्ती काम करते-करते बोली, ‘इस बेला फिर बनेगा क्या, उस बेला तो उनके यहां ब्राह्मण निमंत्रित किए गए थे। सुरेश काका और उस मुहल्ले के तिनू के बाबा को खाने पर बुलाया था। उसी समय तो खीर, रसपुली, मूंग की बर्फी वगैरह सब बनी थी।’

पुटी ने पूछा, ‘अच्छा मां, बिना खीर के क्या ‘पाटिसापटा’(एक प्रकार का पीठा) नहीं बनता? खेन्ती कह रही थी, बिना खीर के पाटिसापटा बनती ही नहीं है। मैं बोली क्यों, मां तो सिर्फ नारियल से ही बनाती है, वही खाने में इतना अच्छा होता है।’
अन्नपूर्णा तवे पर तेल डालती हुई सवाल का जवाब ढूंढ़ने लगी।

खेन्ती बोली, ‘हां खेन्ती तो वैसे ही बड़ी-बड़ी बातें करती है। खीर डालकर घी में तलने से ही अच्छा पीठा बन जाता है। उसी दिन की तो बात है। उनके घर दामाद आया था। मैं देखने गयी तो खूड़ी मां ने मुझे पाटिसापटा दिया। खाया तो उसमें से एक अजीब महक आ रही थी। और मां के बनाये पीठे से क्या कभी कोई खराब महक आती है? पाटिसापटा में खीर देने से खाक अच्छी बनती है।’

धिक्कार भाव के साथ अपनी बात समाप्त करते हुए खेन्ती अपनी मां की आंखों की ओर देखती हुई बोली, ‘मां जरा-सा नारियल ले लूं?’
अन्नपूर्णा बोली, ‘ठीक है, लो। पर, यहां बैठकर मत खाना। मुंह से गिरेगा, उधर जाकर खा।’

खेन्ती थोड़ा-सा नारियल लेकर दूर खड़ी हो खाने लगी। अगर सचमुच चेहरा मन का दर्पण होता है तो खेन्ती के चेहरे को देखकर साफ जाहिर हो रहा था कि उसे खाते हुए कितना अधिक मानसिक तृप्ति का अनुभव कर रही है।
करीब एक घंटा बाद अन्नपूर्णा बोली, ‘तुम लोग एक-एक केला-पत्ता लेकर बैठो तो मैं तुम लोगों को गर्म-गर्म परोसती हूं। खेन्ती, उस बेला का थोड़ा-सा भात बचा है, मैंने पानी डाल कर रख दिया है। उसे भी लेती आ।’

खेन्ती को मां का भात वाला प्रस्ताव बुरा लगा, यह उसके चेहरे से साफ पता चल रहा था। पुटी बोली, ‘मां दीदी को सिर्फ पीठा ही खाने दो न। उसे अच्छा लगता है। भात अभी रहने दो, कल सबेरे हम तीनों मिलकर खा लेंगे।’

चार-पांच पीठा खाने के बाद ही राधा ने और खाने से इन्कार कर दिया। उसे ज्यादा मीठा पसन्द नहीं है। सभी अपना भोजन समाप्त कर चुके थे। पर खेन्ती तब भी खाये जा रही थी वह शान्त भाव से चुपचाप खाये जा रही थी। खाते वक्त बातचीत नहीं करती। अन्नपूर्णा ने देखा, वह कम से कम अट्ठारह-उन्नीस पीठा खा चुकी थी। उसने अपनी बेटी से पूछा, ‘खेन्ती और लेगी।’ सिर झुकाकर खाते हुए खेन्ती ने, ‘हां’ में सिर हिलाया।
अन्नपूर्णा ने उसे और दो-चार पीठे दे दिये। खेन्ती की आंखों से प्रसन्नता झलक रही थी। वह मुस्कराती हुई संतुष्ट नेत्रों से मां की ओर देख कर बोली, ‘बहुत अच्छा बना है, मां तुम तो इसे बनाने के पहले फेंटती हो न, उसी में सब कुछ...’ वह फिर खाने में जुट गई।

अन्नपूर्णा बर्तनों को बटोरते हुए स्नेहपूर्ण दृष्टि से अपनी शांत, निरीह और थोड़ी भोजन-प्रिय बेटी को देखती रही। वह मन-ही-मन सोच रही थी-मेरी खेन्ती जिसके घर जायेगी, उन लोगों को बहुत सुख देगी। इतनी निरीह कि काम-काज के लिए चाहे कितनी भी डांट पड़े, मगर अपने मुंह से ‘आह’ तक नहीं निकालती। कभी किसी ने उसे ऊंची आवाज में बात करते हुए नहीं सुना।

वैशाख महीने के शुरू में ही सहायहरि बाबू के एक दूर के संबंधी द्वारा लाये गये रिश्ते के द्वारा खेन्ती का विवाह हो गया। हालांकि लड़के की यह दूसरी शादी थी लेकिन उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी। चालीस से तो अधिक होगी ही नहीं। पहले तो अन्न्पूर्णा राजी नहीं हो रही थी, पर जब देखा कि लड़का सम्पन्न है, शहर के नजदीक मकान है और सुर्खी, चूना तथा ईंट के कारोबार से कुछ पैसा भी कमाया है, तो वह राजी हो गयी। ऐसा लड़का तो बार-बार हाथ नहीं आता।

दामाद की उम्र कुछ अधिक होने के कारण पहले तो अन्न्पूर्णा उसके सामने जाने से सकुचा रही थी। पर बाद में सोचा, हो सकता है, उसके ऐसा करने से खेन्ती के दिल को चोट पहुंचे, इसलिए उसने अपने हाथों से बेटी का कोमल, पुष्ट हाथ दामाद के हाथों में समर्पित कर दिया। उसकी आंखें भर आयीं। गला रुंध गया। उससे कुछ भी नहीं बोला गया।

घर से बाहर निकल कर आंवले के पेड़ के नीचे कहारों ने डोली को ठीक से लेने के लिये एक बार नीचे उतारा। अन्नपूर्णा ने देखा, बगान के किनारे मेंहदी की डालियां जहां अपना शीश झुकाये हुए हैं, वहीं पर खेन्ती की मामूली-सी बालूचरी साड़ी का आंचल डोली से बाहर निकलकर धूल में लोट रहा है। अपनी इस अति अस्त-व्यस्त, नितान्त निरीह, थोड़ा अधिक भोजन-प्रिय बेटी को आज पराये घर में भेजते समय उसका दिल बैठा जा रहा है। क्या खेन्ती को वे लोग ठीक से जान पायेंगे? उसे समझाने की कोशिश करेंगे।
जाते समय खेन्ती ने रोते-रोते कहा था, ‘मां आषाढ़ में बाबा को मुझे लाने के लिए जरूर भेजना। इन दो महीनों को तो मैं...’
मुहल्ले की छानदीदी ने चुहल की, ‘तुम्हारे बाबा अभी तुम्हारे घर कैसे जायेंगे? पहले नाती होगा, तब न...’

खेन्ती का चेहरा लाज से लाल हो गया। आंसू भरी एक जोड़ी आंखों में हंसी की झलक लिये वह हठ करने के स्वर में बोली, ‘कैसे नहीं जायेंगे, जाते हैं कि नहीं, देखना।’

फागुन-चैत का मौसम है। शाम के वक्त छत से सूखे हुए अमावट उतारते समय अन्नपूर्णा का दिल हा-हाकार कर उठा। आज उसकी लोभी बेटी घर पर नहीं है। कहीं से भी घूम-घूम कर निर्लज्ज की तरह सामने आकर अपने हाथ पसार बिनती के स्वर में बोलती थी, ‘मां उस किनारे से जरा-सा तोड़ कर...’

साल भर से भी अधिक हो गया खेन्ती को गये हुए। फिर आषाढ़ महीना आ गया। बरसात भी शुरू हो गयी। घर के बारामदे में बैठकर सहायहरि बाबू तम्बाकू लगाते हुए बोले, ‘अरे भैया, वह तुम सोचकर ही रखो कि ऐसा होना ही है। हमारे जैसे दरिद्र लेागों को भला इससे अच्छा मिल ही क्या सकता है?’

बिशु सरकार तम्बाकू पीते-पीते बोले, ‘देखो भैया, हम जो देंगे, नगद ही देंगे। अच्छा तुम्हारी बेटी को आखिर हुआ क्या था?’
सहायहरि बाबू हुक्के से चार-पांच कश लेते हुए बोले, ‘सुना है, चेचक हुआ था। लेकिन असल मामला क्या था, जानते हो। बेटी को तो भेजना ही नहीं चाहते थे। करीब अढ़ाई सौ रुपया बाकी था न, इसलिए। बोले पहले रुपया लाओ, फिर बेटी को ले जाना।’
-एकदम चमार...

-मैंने यह भी कहा था कि आपको सारी रकम मैं धीरे-धीरे चुका दूंगा सोचा था, पूजा के लिए कुछ कम कपड़े खरीद किर उसमें से तीस-चालीस रुपये बचा लूंगा। मगर इससे वे लोग मेरी बेटी पर कलंक लगाने लगे-उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं है, खाना-पीना देखकर लगता है कि जिन्दगी में कभी खाया नहीं, और भी बहुत कुछ। पौष महीने में मैं बेटी को देखने गया। जानते हो भाई, उसे देखे बगैर मैं रह नहीं सकता था।’

सहायहरि बाबू अचानक चुप हो गये। फिर जोर-जोर से हुक्का पीने लगे। कुछ देर तक दोनों चुपचाप बैठे रहे।
थोड़ी देर बाद बिशू सरकार बोले, ‘उसके बाद क्या हुआ?’

‘मेरी पत्नी रोने-पीटने लगी। उसी के कहने पर मैं पौष महीने में बेटी को देखने गया। वहां जाकर मैंने उसकी जो हालत देखी, पूछो मत। उसकी सास मुझे सुनाकर कहने लगी, ‘बिना कोई खोज खबर लिये नीच घर की लड़की को ब्याह लाने से तो ऐसा होगा ही। जैसी बेटी, वैसा ही उसका बाप। पौष महीने में बेटी से मिलने आया, वह भी खाली हाथ।’ बिशू सरकार की ओर देखते हुए सहायहरि बाबू बोले, ‘हम लोग ऊंचे खानदान के हैं या नीच घर के, यह तो तुम लोगों से छिपा नहीं है। एक समय परमेश चटर्जी के नाम से यहां बाघ और बकरी एक घाट पर पानी पिया करते थे। हां, यह बात और है कि मैं...’ अपने परिवार के विगत ऐश्वर्य के गर्व से गर्वित सहायहरि शांत भाव से अट्ठाहस करने लगे।

बिशू सरकार ने कई बार दबे स्वर में हामी भरते हुए अपना सिर हिलाया।
‘उसके बाद फागुन महीने में ही उसे चेचक निकली। ऐसे चमार हैं उसकी ससुराल वाले कि चेचक के निकलते ही उसे ‘टाल’ में मेरी एक दूर के रिश्ते की दीदी के घर पहुंचा आये । एक बार ‘कालीघाट’ पूजा करने आयी थी उसी समय उसके साथ परिचय हुआ था। न तो मुझे एक चिट्ठी लिखी न कोई खबर भेजी। दीदी के यहां से जब मुझे खबर मिली, तब मैं वहां जाकर...’
‘क्या तुम नहीं मिल पाये।’
‘नहीं। जानते हो भाई, ऐसे चमार के घर मैंने अपनी बेटी दी कि बीमारी की हालत में ही बच्ची के शरीर से उन लोगों ने सारा गहना उतार लिया था...ठीक है, तो अब चला जाये। काफी दिन निकल आया। क्या ‘चारा’ (मछली का) तैयार कर लिया है।’

फिर कई महीने बीत गये। आज फिर पौष संक्रांति का दिन है। इस बार पौष महीने के अन्त में ऐसी ठंड पड़ी है कि यहां के बड़े बुजुर्गों तक का कहना है, इतनी ठंड उन्होंने होश संभालने के बाद पहली बार देखी है।

शाम को अन्नपूर्णा पीठा बनाने के लिये पीसा हुआ चावल घोल रही थी। पुटी और राधा बोली, ‘मां, उसे और थोड़ा पतला घोलना होगा। इतना गाढ़ा क्यों बना दिया?’
पुटी बोली, ‘अच्छा, मां उसमें थोड़ा नमक डालने से कैसा रहेगा?’
‘ओह मां। देखो राधा की चादर कहां लटक रही है, अभी उसमें आग लग जायेगी।’

अन्नपूर्णा बोली, ‘इधर थोड़ा-सा खिसक आओ। चूल्हे से सटे बिना क्या आग तापना नहीं होता? चल, इधर आकर बैठ।’ पीठे के लिये चावल तैयार कर अन्नपूर्णा ने बर्तन चूल्हे पर चढ़ाया। फिर उसमें फेंटे हुए चावल को डाल कर एक बर्तन से ढंक दिया। देखते ही देखते पीठा बनकर तैयार हो गया।

पुटी ने कहा, ‘मां, दे दो। पहला पीठा मैं षष्ठी भगवान को चढ़ा आऊं।’ अन्नपूर्णा बोली, ‘अकेले मत जा, राधा को भी साथ ले जा।’
चांदनी रात थी, घर के पिछवाड़े फूलों के गुच्छों पर चांदनी लोट रही थी। पुटी और राधा ने ज्यों ही दरवाजा खोला, एक सियार सूखे पत्तों पर खस-खस की आवाज करता हुआ घनी झाड़ियों में जा छिपा। पुटी ने हड़बड़ा कर पीठे को उस झाड़ी में फेंक दिया। फिर चारों ओर के निःशब्द वातावरण में बांस की झाड़ी पर पड़ते ही दोनों डर के मारे पीछे पलटकर भागीं और आंगन में घुसकर दरवाजा बन्द कर लिया।

पुटी और राधा लौटते ही अन्नपूर्णा ने पूछा, ‘क्या चढ़ा आयी?’
‘हां मां, पिछली बार तू जहां से नींबू का पौधा उखाड़कर लायी थी, वहीं पर फेंका है।’

रात काफी हो गयी थी। पीठा बनाना भी प्रायः खत्म होने को था। चांदनी रात में एक कठफोड़वा पक्षी काफी देर से ठक-ठकर-ठक की आवाज कर रहा है। धीरे-धीरे उसकी आवाज भी धीमी होती जा रही थी। दोनों बहनें खाने की तैयारी में केले का पत्ता ले रही थीं। अचानक पुटी कुछ सोचते हुए बोली, ‘दीदी को बहुत अच्छा लगता था...’

मां और बेटियां तीनों कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं। फिर न जाने कैसे उन तीनों की दृष्टि एक साथ आंगन के एक किनारे सिमट गयी, जहां घर की उस लोभी लड़की की याद, पत्ता-पत्ता और डाल-डाल के साथ जुड़ी हुई थी। उसने कितने आशा-अरमान के साथ उस पोई के पौधे को लगाया था जो अब बरसात का पानी पीकर, कार्तिक महीने की ओस से सिंचकर अपनी कोमल-कोमल लताओं से इतना अधिक लद गया है कि अब मचान में भी उसके लिए जगह कम पड़़ने लगी है। उसने अपनी कोमल पुष्ट, यौवन से परिपूर्ण लताओं को मचान से बाहर चारों ओर लटका दिया है।

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