पॉकेट-बुक (कहानी) : हेनरी लैवडेन
Pocket-Book (Story) : Henri Lavedan
मोशिया करवेऊ चूहे की तरह ऑफ़िस से बाहर आया जब वह बाहर आ रहा था तो उससे उसके कई मित्रों ने छिपकर जाने को कहा था। उसने लगभग तीन फ्रेंक खो दिए थे। अब वह जल्द ही घर पहुँचना चाहता था। रास्ते में उसे एक आदमी ने यह ख़बर दी कि घर पर उसकी स्त्री उसकी राह देख रही है। उसे शीघ्र ही घर पहुँचना चाहिए। पर दरवाजे के निकट पहुँच कर उसने अनुभव किया कि उसका साहस लुप्त होता जा रहा है। पता नहीं उसकी स्त्री ने उसे क्यों बुलाया ? भीतर का क्या दृश्य होगा।
धीरे-धीरे सीढ़ी पर पाँव रखता वह ऊपर चढ़ने लगा उसका हृदय इस समय तीव्रता से धड़क रहा था। जब वह एक मंजिल पार कर दूसरे पर पाँव रखने जा रहा था कि ऊपर किसी के खखारने की आवाज़ आई। उसने अपना सिर ऊपर उठाया और देखा कि रेलिंग को पकड़कर उसकी स्त्री आधी लटकती खड़ी है। उसके हाथ में एक दीपक भी है। अब वह और भी घबड़ा गया। पर सीढ़ियाँ चढ़ता रहा। उसने अपने चेहरे पर उड़ते हुए भय के चिह्नों को मुस्कान में छिपाने की कोशिश की। ज्यों ही वह ऊपर पहुँचा उसे कुछ बोलने के पहले ही उसकी स्त्री बोल उठी-
"खैर, आए तो तुम। मैं बड़ी अधीरता से तुम्हारी राह देख रही थी।” उसका हाथ तेजी से पकड़ते हुए वह बोली, "तुम नहीं जानते कि मैं तुमको कितनी आश्चर्यजनक बात बताने जा रही हूँ। आओ।"
वे कमरे में गए। स्त्री ने दरवाजा बन्द कर लिया और बोली, "अभी तुम्हें पता लग जाएगा।" कहकर वह बड़ी तेज़ी से हँसी ।
"तुम मुझे परेशान कर रही हो, लोनी बताओ न, क्या बात है ?" करवेऊ ने कहा ।
"क्यों? पर सुनो, एक घंटे पूर्व मेरे साथ एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना घटी है। तुमने उपन्यास पढ़े हैं? अवश्य पढ़े होंगे-बोली !"
"हाँ पढ़े तो हैं, पर तुम्हारा मतलब?"
"क्या तुम नहीं अनुमान लगा सके? एक बार कोशिश करो।"
"बताओ क्या बात है? मैं प्रार्थना करता हूँ।"
"मैं सेन्ट होनोरे से जब वापस आ रही थी तो रास्ते में मुझे यह मिल गया।"
बड़ी मुश्किल से उसने अपने जेब से एक काली और कठोर चीज निकाली, फिर उसका चेहरा गम्भीर हो गया जैसे वह कोई बहुत महत्त्वपूर्ण बात कहने जा रही हो। उसने उसे अपने पति की ओर बढ़ा दिया और बोली, "इसे देखो, तुम्हारी क्या राय है ?"
करवेऊ ने उसे इधर-उधर पलटकर देखा फिर कहा, "अरे यह तो एक पॉकेट बुक है ।"
"इसके अन्दर तो देखो।"
सावधानी से करवेऊ ने उसे खोला। कुछ कागज बाहर उड़कर गिर पड़े। स्त्री को बुरा लगा। बोली, "यह मुझे दो।" पॉकेट बुक का पहला पन्ना खोल कर उसने कहा, देखो। कुछ समझे। यह कोई विदेशी व्यापारी कम्पनी के हिस्से का कागज है। मैं नहीं कह सकती कि इसकी क़ीमत क्या होगी।"
"यह तो आश्चर्य है कि तुम इसे पा गईं।"
"हाँ, वहाँ सड़क पर मिल गई।"
"किसी का गिर गया होगा ।"
"हाँ और क्या?"
"अगर कहो तो खाना खाने के बाद चलकर इसे किसी थाने में जमा करा आवें। क्या इरादा है तुम्हारा?"
"हाँ-हाँ, अवश्य में रखना थोड़े ही चाहती हूँ इसे।"
वे चुप होकर बैठ गए फिर एकाएक स्त्री ने कहा, "वह जो कल हमारे यहाँ खाना खाने आया था, मौरीन, उसे दिखाओ, यह क्या है।"
वह कागज़ मौरीन को दिखाया गया। उसने अच्छी तरह कागज़ों को देखकर कहा, 'रूसी - आस्ट्रियन रेलवे ।' यह तो तुम्हारी क़िस्मत जग गई है। कम-से-कम चालीस हज़ार फ्रेंक के होंगे।"
"चालीस हजार फ्रेंक !" दोनों उछल पड़े।
“और तुम जानते हो?" मौरीन ने कहा, "कुछ ही वर्षों में इनकी कीमत दुगुनी हो जाएगी, मैं इन चीजों को अच्छी तरह जानता हूँ।" फिर हँसते हुए कहा, "अगर मैं तुम्हारी जगह पर होता ... । "
थोड़ी देर बाद जाकर उन्होंने उस पॉकेट बुक को थाने में जमा कर दिया। उनका नीरस जीवन पहले सा ही व्यतीत होने लगा और देखते-देखते आठ महीने बीत गए। नवाँ महीना भी आधे के लगभग समाप्त हो गया था। एक दिन स्त्री ने करवेऊ से कहा, "क्या तुम विश्वास करोगे? मैंने पता लगाया है। अभी तक उस पॉकेट बुक को लेने कोई नहीं आया है।"
"अच्छा! सचमुच ।”
"हाँ!" वह बड़ी खुश थी।
फिर दोनों प्रतिदिन उसका पता लगाने जाते। वहाँ का दारोगा उन्हें देखते-देखते ऊब गया था। अब उन्होंने तय किया कि अगर कोई न मिले तो हमीं क्यों न उसे ले लें।
उस रात वे सो न सके। अपने-अपने बिछौने पर बैठे वे रात भर दीपक के धुंधले प्रकाश में हवाई क्रिले तैयार करते रहे। उन्होंने समुद्र के किनारे एक क़िला बनाने का निश्चय किया और उसका नाम भी सोच लिया "बिलालोनी।' उन्होंने एक नौकर भी रखने का सोचा।
एक दिन शाम को उसने अपनी स्त्री से कहा, “अब हम नहीं रुक सकते । कल उसे हम माँग लाएँगे।"
दूसरे दिन उसने नौकरी भी छोड़ दी क्योंकि अब वह अपने को अमीर समझ रहा था।
एक दिन अखबार में उसने देखा, 'पेटाइटस डालेस में स्वेस भवन की बिक्री।'
करवेऊ ने उसका दाम सबसे अधिक, पन्द्रह हजार फ्रेंक लगाया और पन्द्रह दिन के भीतर ही दाम जमा करने का सौदा कर लेने का वायदा किया।
अन्त में बारह जनवरी को बड़ी खुशी से दोनों ने अच्छे-अच्छे कपड़े पहने थाने पर जाकर दारोगा के सामने हस्ताक्षर करके पॉकेट बुक माँग लाए।
इतने दिनों की प्रतीक्षा के मीठे फल की आशा में वे गिरजा में जाकर भगवान को धन्यवाद देने लगे। खुशी में उन्होंने मौरीन को अपने यहाँ दावत भी दी। दावत को समाप्त कर उन्होंने यह खुशख़बरी सुनाई और पॉकेट बुक जिसे इन्होंने लोहे के सन्दूक में बन्द कर रखा था-शान से सबके सामने रखा। मौरीन ने पॉकेट बुक पढ़ना शुरू किया।
"रूसी और आस्ट्रियन रेलवे।" उसने कहा, "मेरे भाई, छह महीने हुए यह कम्पनी फ़ेल हो गई। अगर तुम्हें कोई इसका तीन सौ फ़्रैंक भी दे तो ले लो।"