पिता की सीख : हरियाणवी लोक-कथा
Pita Ki Seekh : Lok-Katha (Haryana)
सेठ चित्तरंजन दास हरियाणा के भिवानी, जिसे छोटी काशी भी कहते हैं, के नगर सेठ थे। अकूत धन के स्वामी सेठ चित्तरंजन दास के धन की धाक गंगापुर नगर के सेठ-साहूकार ही नहीं, स्वयं गंगापुर नगर के राजा तथा आसपास के रजवाड़ों तक में थी। वक्त-बेवक्त राजा समेत सभी लोग सेठ चित्तरंजन दास से ऋण ले चुके थे। सेठ न केवल धनी था अपितु धार्मिक कार्यों में भी कोई उसका सानी न था। आसपास के इलाके में खुदवाए, अनेक कुएं-बावड़ियां आज भी उसकी धार्मिक प्रवृत्ति एवं समाज कल्याण में उसकी आस्था के साक्षी के रूप में मौजूद हैं। दीन-दुःखियों की सहायता करके गरीब विद्यार्थियों को पढ़ाने में वह कभी कोताही नहीं बरतता था। जवानी में एक बेटी का पिता बना।
जिसका विवाह बड़ी धूमधाम से किया। अगर कमी थी तो बस एक बेटे की। सेठ-सेठानी ही नहीं, गंगापुर नगर के सभी लोग प्रभु से प्रार्थना करते थे कि ऐसे दानवीर सेठ को भगवान कम-से-कम एक बेटा तो दे ही दे। प्रार्थना में बड़ा बल होता है। आखिर बुढ़ापे में भगवान ने सेठ को एक सुन्दर-सा बेटा दे ही दिया। सेठ ने बेटे के जन्मोत्सव पर दिल खोलकर दान-दक्षिणा दी। अब सेठ का मन बेटे से ऐसा लगा कि वह गद्दी बड़े मुनीम को संभलवा कर चौबीस घण्टे बेटे को बड़ा होते देखता रहता, पर उसका मन नहीं भरता। बेटा लगभग 14-15 साल का हो गया था। तभी पोते का मुंह देखने के लिए सेठ ने उसे ब्याह दिया। अब नव उम्र बेटा रास-रंग में डूब गया। सेठानी बार-बार सेठ को कहती, “आप उसे वाणिज्य सिखाइए, जिससे आपके कारोबार को संभाल सके।” मगर सेठ कहता, “सेठानी! बनिए का बेटा मां के पेट से वाणिज्य सीख कर आता है। उसे सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।” खुद सेठ ने बड़ी गरीबी में बचपन बिताकर, बड़ी मेहनत से व्यापार खड़ा किया था। वह बुढ़ापे में प्राप्त पुत्र को सब सुख-सुविधाएं और मनोरंजन देना चाहता था। जो उसे बचपन तथा जवानी में प्राप्त नहीं हुआ था। आमोद-प्रमोद में डूबे, आनन्द उठाते पुत्र को देखकर सेठ को अव्यक्त सुख का अनुभव होता था। अब सुधि पाठक तो जानते ही हैं कि होनी को किसी का सुख-चैन बहुत नहीं देखा जाता तथा रंग में भंग डालना होनी तथा वक्त का पराना शगल है। तो प्रिय पाठको। सेठ को एक दिन दिल का दौरा पड़ा तथा राजवैद्य दवा-दारू करके तथा पंडित-पुरोहित, जप-जाप और दान करवाकर, निराश बैठकर सेठ की मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे। सेठ को भी आभास हो गया कि मृत्यु सन्निकट है। अब उसे पुत्र के भले की चिंता सताने लगी। उसे लगा कि उसने पत्र को व्यापार के तौर-तरीके न सिखाकर अपने कर्तव्य में कोताही बरती है। मगर अब क्या हो सकता था। समय कम जानकर अंतिम समय सांस लेने से पहले सेठ ने अपने पुत्र से तीन बातें कहीं। बेटा! अधिक समय नहीं है। सो, ये तीन बातें याद रखना। इन पर अमल करना। तुम्हें व्यापार में कभी नुकसान नहीं होगा। वे तीन बातें बताते हैं :-
1. घर से दुकान तक छांव-छांव ही जाना-आना कभी धूप में मत आना-जाना।
2. किसी को उधार दो तो वापिस मत मांगना।
3. अगर कभी धन की कमी पड़ जाए तो गंगा और यमुना के बीच खुदाई कर लेना, समुचित धन मिल जाएगा।
यह कहकर सेठ ने अंतिम सांस ली। नगर में कोहराम मच गया। राजा तक सेठ की अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुआ। सेठ-पुत्र ने बड़ी श्रद्धा से पिता की अन्त्येष्टि, पिंडदान तथा अन्य धर्म-कार्य निबटाए। महीना भर इन सब कामों में बीत गया, तो उसकी माता ने उसे व्यापार संभालने की बात कही। अब सेठ-पुत्र क्योंकि रास-रंग का आदी हो चुका था। सो, देर रात तक जागकर सुबह देर से उठता था। सो, जब वह पहले दिन हवेली से दुकान पर जाने लगा, तो बाहर कड़ी धूप निकली थी। उसे पिता की पहली सीख याद आई कि छांव में ही दुकान पर जाना है। तो वह घर वापिस लौट आया तथा शामियाने वाले बुलाकर घर से दुकान तक शामियाने लगवा दिए। इस तरह वह रोज लगभग ग्यारह बजे शामियाने की छांव में दुकान जाता, वहां बैठने की क्योंकि आदत नहीं थी, अतः अनमना-सा दो-तीन घण्टे बिताकर शामियाने की छांव में दो बजे घर लौट आता तथा सोता रहता। रात फिर पुराणी आदत के मुताबिक रास-रंग में डूब जाता। दुकान गुलामों, मुनीमों के भरोसे रह जाती। लोग धीरे-धीरे सेठ के बेटे की बुद्धि पहचान गए। वह पिता के कहे अनुसार उधार देता और वापिस नहीं मांगता। हर दुकान-ऑफिस में चालाक कार्यकर्ता होते ही हैं, सो उन्होंने सेठ के बेटे की मूर्खता का लाभ उठाया और अपने आदमी भेजकर उधार ली और हड़प गए। एकाध ईमानदार नौकर-मुनीम ने सेठ-पुत्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन झाड़ खाई। आखिर एक दिन व्यापार चौपट हो गया। घर की जमा-पूंजी रास-रंग में खत्म हो गई। भरे-पूरे घर में फाके की नौबत आ गई। अब सेठ-पुत्र को पिता की तीसरी बात याद आई कि मुसीबत के समय गंगा-यमुना के बीच खुदाई करना। सेठ-पुत्र हैरान था कि गंगा नदी और यमुना नदी के बीच हजारों मील के फासले में कहां खुदाई करे? उसने अपनी मां से इस बात का मतलब पूछा तो सेठानी कहने लगी, “बेटा! मर्दो की गूढ़ बातों का अर्थ हम कैसे जानें? हां, तुम्हारे पिता के एक बहुत पुराने बूढ़े मुनीम पास के गांव में रहते हैं। वे शायद कुछ बतला सकें। तुम उनसे मिल लो।” सेठ-पुत्र अगले दिन बूढ़े मुनीम के यहां जा पहुंचा तथा जाकर सारी बात खुलासा करके कहने लगा, “मैंने पिता की आज्ञा मानकर घर से दुकान तक शामियाना तनवा दिया था तथा हमेशा छांव में ही दुकान में तथा दुकान से घर में आया। किसी को उधार देकर पैसा वापिस नहीं मांगा फिर भी व्यापार चौपट हो गया। अब यह तीसरी बात का सर-पैर ही नहीं पता लग रहा। शायद मृत्यु से पहले पिताजी का दिमाग खराब हो गया था, जो ऐसी उल्टी सीख मुझे दी।” बूढा मुनीम कुछ देर गंभीर होकर सोचता रहा। फिर कहने लगा, “बेटा तुमने अपने पिता की बात का सिर्फ सतही अर्थ लगाया, मर्म नहीं समझा।” अन्यथा यह हालत न होती। असल में सेठ के कहने का अर्थ इस तरह था :
पहली सीख- ‘छांव जाना-छांव आना’ इसका अर्थ था, सुबह धूप निकलने से पहले दुकान पर जाना तथा सांझ सूरज छुपने के बाद ही घर पर लौटना। इस तरह तुम पूरा दिन दुकान संभालते तथा व्यापार खूब चलता। दूसरी सीख- ‘उधार देकर वापिस मत मांगना’ इसका अर्थ है कि जिसे तुम सौ रुपए का उधार दो, सवा सौ रुपये की संपत्ति, गहना आदि रहन रखकर दो, जिससे तुम्हें उधार वापिस न मांगना पड़े। उधार लेने वाला स्वयं उधार देकर संपत्ति लौटाए।
तीसरी सीख- ‘गंगा-यमुना के बीच खुदाई करना, तो चलो इसका रहस्य तुम्हें तुम्हारे घर चलकर समझाता हूं।’ मुनीम को लेकर सेठ-पुत्र घर आया। मुनीम ने गौशाला में जाकर गाय बांधने के दो खूटे दिखलाकर कहा, “तुम्हारे पिता की दो गाएं थीं। उनके नाम थे गंगा और यमुना। वे इन खूटों पर बंधती थीं। सो, तुम उनके बीच में धरती खोदो।” सेठ-पुत्र ने जब वहां खुदाई की तो वहां पर हीरे-जवाहरात भरा कलश मिला। अब सेठ-पुत्र ने उस पैसे से दोबारा व्यापार जमाया तथा वह सूरज निकलने से पहले दुकान पर पहुंच जाता तथा सांझ को सूरज छुपने पर ही घर लौटता। उधार देता मगर संपत्ति और गहने रखकर। बूढ़े मुनीम को पिता समान जानकर उससे सलाह लेता। कुछ ही दिनों में उसका व्यापार फिर चल निकला तथा खूब धन कमाकर उसने भी पहले से ज्यादा बड़ा खजाना भावी पीढ़ी के आड़े वक्त के लिए गंगा-यमुना के बीच गाड़कर सुरक्षित रख दिया। कहानी कहती है कि किसी भी बात को सोच-विचारकर उस पर अमल करना चाहिए, सतही तौर पर नहीं।
(डॉ श्याम सखा)