पिशाचों की पोथी और पंडित की कथा : मृणाल पाण्डे

Pishachon Ki Pothi Aur Pandit Katha : Mrinal Pande

बहुत समय पहले की बात है, अनंगपाल नाम का एक बडा ही बाहुबली सातवाहन सम्राट् हुआ। सात समुद्र, चौदह भुवन और सात बडी नदियाँ सब उसके। नसीब होता है अपना अपना, उसका राजपाट देख कर लोगबाग कहते।

वजह यह कि इत्ता बडा सम्राट् किसी राजघराने में नहीं, बडे साधारण परिवार में जनमा था। बाप उसका मजूरी करता था और माँ घरों में झाडू बरतन। बचपन में इस बालक का नाम हुआ करता था, घुरपतरी। इस अजीब नाम की अपनी खास वजह थी। दरअसल उसकी माँ के सारे बच्चे पैदा होते ही सौरी में ही मर जाते थे। हार कर वह वह मसान साधनेवाली एक सिद्धिमाता के पास गई। सिद्धिमाता हर अमावस की रात को मसान जावै और डाकिनी शाकिनियों से बतियावै। चरस का दम लगाये तो हाथ भर ऊंची लौ उठती। आँखें उसकी सदा लाल लाल कपार पर चढी रहतीं।

थोडी देर तक माता का कपाल देख आंखें मूंदी फिर बुदबुदाने लगी।कुछ देर बाद वाने नेत्र जो हैं सो खोले और कई, कि अरी अभागन, तेरे कपार पर तो निपूती रहना ही लिखा हैगा।जभी तेरे बालकन को बार बार षष्ठी माता सौरी में मार जाये है।खैर।इस बार तेरा बालक जनमे तो वाको पैदा होते ही अफीम चटा के घर के बाहर एक घूरे पर पर फिंकवा दीजो।मैं अचानक आके बाहर से जोर जोर से पूछूंगी कि, ‘’अरे किस मरा हुआ बालक इस घूरे पर पडा हैगा? चलो इसे मैं ही इसे पीछे की नदी में बहा दूं।तौ मेरी बात सुन के षष्ठी माता को लगेगा कि चलो छुट्टी हुई। और वा जो है सो वापिस लौट जावेगी।फिर मैं तेरे नशे में सोते बालक को चुपचाप पिछवाड़े से तेरे घर लाकर तुझे दे जाऊंगी।तू उसे घुरपतरी नाम से पाल लियो।जो पूछो तो कहियो कि ये तो किसी का घूरे पे फेंका बच्चा तुझको घूरे पर मिला था जब बेल पतरी तोड़ रही थी।मेरा कोखजाया नहीं।वाई से जाको नाम या के बप्पा ने रख दओ घुरपतरी|’’

एक बोतल दारू और तीन चिलम गाँजे की कीमत तय हुई।सही समय पर यह किया गया।और षष्ठीमाता को झाँसा दे कर बालक घुरपतरी घर आ गया।

पर जभी कह दई थी सिद्धिमाता ने घुरपतरी की अम्मा से, कि अभागन तेरे नसीबों तो निपूती रहना लिक्खा हैगा।सो उसकी बात गलत कैसे होती?

अब हुआ ये, कि देश का राजा चैतन्यपाल तीन तीन रानियों के होते हुए भी निपूता रहा आया।जब उमर उसकी ढल गई, उसे बारंबार खयाल आने लगा कि अगर वो राजगद्दी खाली छोड गया, तो घात लगाये बैठे दुसमन कहीं उसके जमे जमाये राज को तहस नहस न कर देवें।सो उसने ठानी कि वो अपने बाद गद्दी पर बिठाने के लिये कोई अच्छा सा बालक खोजेगा, जिसे ठीक से पालपोस कर महाराजा के सिंहासन पर बैठकर राज चलाने लायक बना सके।

हाथ के हाथ दरबारियों और ज्योतिषियों की कई टोलियाँ चारों दिशाओं में फैल गईं।कुछ दिन बाद महाराज को रपट मिली, कि राजधानी के पास ही एक गरीबनी के घर घुरपतरी नाम का एक बडा निडर तेजस्वी नन्हा बालक हैगा।बताते हैं कि बचपन में एक बार खेल खेल में उसने जंगल में शेर के दाँत गिन लिये थे।फिर एक दिन वह नदी से मगरमच्छ का बच्चा भी उठा लाया था।लोगों ने यह भी बताया कोई सिद्धिमाई बहुत पहले ही कह गई है, कि उसकी कुंडली में तौ राजा बनने का पक्का योग है।

बालक की कुंडली मंगवाई गई।बात सही थी।कुंडली में बालक के बादशाही करने वाला जब्बर योग था।बस रातोंरात बात घुरपतरी का दोबारा सौदा हुआ, और कुल जमा चार बरस की उम्र में राजा चैतन्यपाल ने उसको गोद ले लिया।घुरपतरी तौ गरीबों का बालक, दिन भर बिन महतारी बाप के घर बंद रहने का आदी।एकाध दिन कुनमुनाया फिर राजमहल में खेलता कूदता आनंद से रहने लगा।

बच्चा बेचने के बाद कहते हैं घुरपतरी के घरवाले अपनी गठरी मुठरी ले कर कहीं दूर चले गये। शहर या देस में वे किसी को दोबारा नहीं दिखे।

जब तक घुरपतरी अठारह बरस का हुआ तो बूढे महाराजा ने उसको तमाम तरह के हथियार चलाने, पटेबाज़ी और पहलवानी की बढिया तालीम दिलवा दी थी।फिर एक बडा भारी जज्ञ हुआ और घुरपतरी को अब एक नया नाम मिला: जुबराज अनंगपाल।सिच्छकों का कहना था कि जुबराज अनंगपाल एक बडा तेजस्वी लड़ाका साबित होगा क्योंकि डर तो वह जानता ही न था।पढने लिखने की बाबत थोड़ी बहुत जो कमी रह गई थी, उसको पूरने को अच्छी पत्नी मिल जावे तो सब चंगा हो जायेगा।

उनकी सलाह मान कर महाराज चैतन्यपाल ने अनंगपाल का रिश्ता पडोसी देश के महापंडितों के घर से राजकुल से रिश्तेदारीवाली एक पढी लिखी कन्या राधिकासुंदरी से कर दिया।इस शादी के बाद सारी जिम्मेवारियाँ पूरी करके महाराज चैतन्यपाल ने अनंगपाल को राज सौंप कर शुभ घडी में अपनी देही त्याग दी।

बोलो ॐ शांति!

सो बच्चा, अब अनंगपाल का राज शुरू हुआ।श्री श्री महाराजा अनंगपाल।सारा दरबार रोज़ उसको झुक कर सलाम करता।नये महाराजा के दो पक्के विचार थे।पहला कि महल से बाहिर घर, सड़क या बाग बगीचों में लोगबाग चाहे जो जो बोलियाँ बोलें, लेकिन राजदरबार के लायक तौ बस संस्कृत।उसे भी एकदम ठीक तरैयां से बोलना बहुत जरूरी है।

विचार ये हतो, कि मनुख का वाम यानी बाँया हाथ जो है, वह शौच के बाद नीचे नीचे की सफाई करता है, फिर उसे मिट्टी से धोया जावे है।इसी वजह से पंडित लोग शरीर का बाँये हिस्से को अशुद्ध कहै हैं।सो महाराज अनंगपाल के राज में दक्षिणपंथ, यानी दाहिने हाथ की मरजाद पक्की तौर से कायम की जावेगी।और संस्कृत को दुनिया जहान की सबसे बेहतरीन भाषा का दर्जा भी दिया जावेगो।भीतर की बात ये, कि खुद महाराजा की संसकीरत तनिक गड़बड़ थी।इसीलिये वह दरबार में ज्यादेतर चुपचाप पंडितों को ध्यान से सुनता।

दरबार खतम होता तो महाराजा रनिवास में जाते।वहाँ रानी और उसकी राजचेलियों से संस्कृत में मीठी कवितायें और श्लोक सुनते समझते।

महाराजा अनंगपाल के दरबार का नाम और ऊंचा होवे, यह सोच कर उन्ने अब सगरे मुल्क के नौ बडे नामी गिरामी संस्किरत के पंडितों को खूब पैसा दे कर अपना दरबारी बनाया।और हर बरस देव दीवाली पर महाराजा अनंगपाल के नाम पर एक नदी पर दो बजड़ों में भारी संसकिरत कविता का दंगल भी होने लगा।दूर दूर से बडे ज्ञानी ध्यानी, गवनहारियाँ, रईस और परजा ये दंगल देखने सुनने आने लगे।इस तरियाँ नेमधरम और नवरत्नों के कारण अनंगपाल जल्द ही चारों दिशाओं में एक बडा लडैया ही नहीं, पंडतों और नियम कायदों का भी सरपरस्त करके भी जाना जाने लगा।

नवरत्नों को महाराजा के दो बडे हुकुम थे: एक कि वाम जो है किसी रूप में दरबार में न रहे। इसलिये राज दरबार में सगरे सभासदों के आसनों पर जो गावतकिये होंगे, वे सिर्फ दाहिनी तरफ रखवाये जायेंगे ताकि दरबार में सगरे लोगों का झुकाव हर दम दाहिनी तरफ ही दिखे।

दूसरा: श्री श्री महाराज अनंगपाल के दरबार में कोई दरबारी कभी शहर या देहात की आम लोगों की बोली में बातचीत न करे, न सुने।नियम कायदों, जन सुनवाई, कला फला पर जो बहस हो, सौ टक्का शुद्ध संसकिरत में ही।

राजदरबार के नवरत्नों में सबसे बडे महापंडित थे गुणाढ्य।गुणाढ्य के बारे में मसहूर हतो कि संसकिरत के महापंडित तौ वे हते ही, पर राज में बोली जानेवाली हर भाखा को भी वे जानते थे।

सुभाव से गुणाढ्य पंडित चुप्पे थे।अपनी गद्दी पर बडी विनय से उन्ने कोई भी गावतकिया लगाना यह कह कर मने कर दिया, कि वे हमेशा सतर योग मुद्रा में पद्मासन लगा कर ही बैठते हैं।न वे कभी दाहिनी तरफ झुकेंगे, न बाँईं तरफ।

राजा अनंगपाल ने यह मान लिया।वजह ये, कि गुणाढ्य जो थे, वे महापंडित भी थे अउ बात के पक्के भी।तिस पर जब बोलते तो ऐसी मीठी संस्कृत में, कि महाराज के कानों में जैसे अमृत पड जाता।

फिर भी दरबार में गुणाढ्य हमेशा चेहरे पर बिला शिकन लाये सबकी सुनते थे।खुद जब महाराज उनसे कहते तभी वे बिना अटके नपी तुली बात कहते थे।

अहाहा क्या तो भाषा, क्या तो बादल जैसी घनेरी आवाज़।न एक शब्द ज़्यादा न एक शब्द कम।

उनका यही टशन अनंगपाल को बहुत लुभाता था।भीतरखाने वह सोचते रहते कि काश, धमधम धड़म धड़ैया लड़ैया होने के साथ साथ वे ऐसे ही बोलनहार भी होते।

अब राजा तो राजा।बंदा दरबार में या लडाई के मैदान या दुश्मनों की फौज से तो इशारों से ही निपट ले, पर रनिवास में उसके लिये भी हर रात करना बड़ा मुसकिल।राजा से रंक तक कोई भी हो, जहाँ तीन चार जाम सुंदर जनानियों के बीच पिये नहीं, कि सब पर्दे और ज़ुबानें खुल जाती हैं।

है कि नईं?

हां, तो एक रात जब राजा महारानी राधिकासुंदरी के साथ फव्वारे के किनारे रसपान करता हुआ बतियाँ कर रहा था, दूर कहीं कोई ऊंट बलबलाया।

‘अजी भला यह कौन सा पशु है?’ रानी ने पूछा।

महाराजा अनंगपाल बोले, ‘उट्र!’

महाराज का यह कहना था कि महारानी तो महारानी, उसके साथ उनके मैके से आईं विदुषी सखियां- दासियाँ भी हँस पड़ीं।

‘उट्र नहीं, उष्ट्र कहिये, उष्ट्र |’ हंसी रोक कर महारानी बोलीं।‘ उट्र तो

गांव जवार की बोली में कहते हैं।’

महाराज ने मुंह खोला पर किसी तरैयां उष्ट्र शब्द न कह सके।

रनिवास की सारी महिलाओं को फिर हंसी का दौरा पड गया।

खिसिया कर उठते हुए अनंगपाल राजा ने राजहठ ठाना, अब तो मुझे संस्कृत एकदम बढिया तरह बोलना, जल्द से जल्द सीखनी ही होगी।

अगले ही दिन शहर में मुनादी भी कर दी गई:

‘- सुनो! सुनो! सुनो! राजमहल को ज़रूरत है ऐसे सिच्छक की, जो श्री श्री महाराज जू को छ: महीने के भीतर एकदम बढिया संस्कृत बोलना सिखा दे।यह काम उसने तय समय में भली तरह से कर लिया, तो उसको इनाम में एक हज़ार एक सोने के सिक्के दिये जायेंगे।पर अगर नहीं कर पाया, तो उसका सर खड्ग से काट दिया जायेगा।’

उस शाम शहर में चर्चा यही रही कि क्या महाराज को कोई शिक्षक सिर्फ छ: महीने में एक रैपिडली संस्कृत स्पीकिंग कोर्स करा पायेगा?

अधिकतर नवरत्नों की निजी राय में यह संभव नहीं था।फिर भी वे दरबार में आकर अपने अपने गावतकिये पर दाहिनी तरफ झुक जाते थे।सो बाहरखाने सबने कहा कि योग्य सिच्छक मिलने की देरी है, मेधावी महाराजजू अवश्य उत्तमोत्तम संसकिरत को जो आजकल कहवें हैं, विद प्रॉपर एक्सेंट, सीख लेंगे।फिर हम उनसे सुनेंगे वेद, वेदांग…

जब हँस-हँस कर नवरत्न महाराज को अपनी राय बता रहे थे, उनकी सुनते सुनते अचानक आमतौर पर पद्मासन लगा कर शांत बैठे रहनेवाले गुणाढ्य पंडित को गुस्सा आ गया।

उन्ने पहली बार सर उठाया और बोले, ‘यह असंभव है।जिसने बचपन से किशोरावस्था तक बरसों कभी किसी गुरुकुल में रह कर ठीकठाक देवभाषा नहीं सीखी हो, उसे इस उम्र में छ: महीने में संपूर्ण संसकिरत कोई नहीं सिखा सकता।मैं भी नहीं।और अगर किसी माई के लाल ने यह कर दिखाया, तो मैं संस्कृत बोलना और दरबार दोनो को छोड कर जंगल चला जाऊंगा।’

होनी देखो? जाने कहाँ से एक जीर्ण शीर्ण धोती पहने शिक्षक महोदय सभा में आगये।उन्ने हाथ जोड कर भरी सभा में ऐलानिया कहा, कि वे महाराज को संस्कृत का संपूरन ज्ञान दे सकते हैं।तारीख नोट कर ली जाये अगर उसके छ: महीनों के भीतर उन्होने महाराज जू को संपूरन संसकिरत में स्नातक पदवी न दिला दी, तो जो सज़ा चोर की, सो उनकी।

थोडी देर तक जिसको कहते हैं सभा में सुई टपक सन्नाटा छा गया।सिच्छक जी अगले दिन से ही सुबह शाम काम पर लग गये।

अचंभे की बात।छ: महीने बाद महाराज दरबार में सचमुच धड़ल्ले से साफ सुथरी संसकिरत बोलने लगे।नकचढी महारानी राधिकासुंदरी भी अब उनकी बोली बानी में खोट ना ढूंढ सकै थीं।

गुरु को महाराज के वादे के मुताबिक खज़ाने से एक हज़ार एक सोने की मुहरें दी गईं, और महारानी ने भी उनको पैर छू कर इतनी भरपूर दच्छिना अलग से दी कि उस बंदे की सात पीढियों का ठिकाना हो गया! इसके बाद वह जैसे चुपचाप आया था, चला गया।और घुरपतरी के माता पिता की ही तरह उसको फिर किसी ने न देखा।

अब दरबार में खबर आई कि गुणाढ्य जी भी तुरत झोला ले कर कहीं दूर जाते दिखै हैं।घर गिरस्तीवाले थे नहीं कि बीबी बच्चों का झमेला होता, चल पड़े सो चल पड़े।

महाराज ने सिर्फ कहा, ‘हूं।’

कुछ दिन तक खुसुरपुसुर हुई फिर दाहिनी तरफ झुक कर बैठनेवाले दरबारी, बिना गाव तिकये के उस सतर बैठनेवाले को भूल गये।

अब गुणाढ्य की सुनो।चलते चलते वे गहरे जंगल के बीच बनी एक मलिन पिशाच बस्ती में जा पहुंचे।पिशाच लोग सदियों से यहीं पत्तों की झोंपडियों में रहते आये थे।जंगल की बजाय उनको शहर में अपनी जान का खतरा लगता था।जंगल के कंदमूल फलों और जंगली अनाज पर वे मज़े से ज़िंदा रहते और राजा के लिये हर हफ्ते उनकी पसंद का जंगली पशु मार कर उसका गोश्त राजमहल से भेजे गये दरबानों को दे देते।मांस के बदले में उनको जंगल में यहाँ बस्ती बसाने का पट्टा मिल गया था।

धूप से संवलाई चमड़ी वाले, दुबले पतले और गज़ब के मेहनती इन लोगों की बाबत पंडित ने सुना तो था, पर पिशाच समाज या उनकी इस जंगली पैशाची बोली से उनका कोई सीधा सरोकार नहीं था।

कुछ दिन तक गुणाढ्य अनमने अलग थलग रहे।फिर झरने के पानी जैसी उनकी मीठी पैशाची सुन सुन कर उनका मन जंगल की तरफ मुड चला।पिशाच लोग शुरू में इशारे करते हुए उनको रोज़ कभी फल मूल दे जाते थे, कभी दूध का दोना।जब जवान जोड़े फल या अनाज बीनने या शिकार को जाते, तो गांव के बूढों के साथ गुणाढ्य भी जा बैठने लगे।उन्ने जब पाया कि अरे ये बाहरिया तौ उनकी बोली बोलता है, सगरे पिशाच उनसे खुल चले।बच्चे निडर उनके आसपास दिन भर खेलते रहते, कभी कभार गुणाढ्य उनके लिये लकडी की गाडी या पत्तों के खिलौने भी बना देते।कई बार बचकाने झगडे सुलझा देते।बालकन की गुत्थमगुत्था बोगडने से पहले ही रोक देते।बच्चे और बूढे सबन को उनतें बडो मोह छोह को नातो बनि गयो।शाम गये जब मायें बच्चों को टेरने आतीं, तो अब अपने छाल के बने कपडों से कुछ खाने पीने की घर में पकाई सामग्री ‘पिशाची पंडत’ के पास भी रख जातीं।

धीमे धीमे चारों तरफ से पिशाचों की सदियों की जमा कथाओं, किंवदंतियों, कहावतों मुहावरों का पूरा एक पिटारा खुलने लगा।गुणाढ्य बडे ही ध्यान से बच्चों को कहानी सुनाती बूढी नानी दादियों से लोककथायें सुनते।जवानों से प्रेम पीरीत के गाने सुनते और बूढों से सुनते सदियों पुराना उनका इतिहास और किंवदंतियाँ: कैसे बनी धरती? चांद-तारे? सुरज देवता? कैसे उपजे जंगल? नदी नाले ताल सरोवर, जलचर, थलचर? और मानुख जात और उसके देवता?

जितने जंगल के पेड पत्ते, जितने आसमान में तारे, उनसे सौ गुना अधिक, हरी भरी रसीली आम पैशाची कहानियाँ कनरसिया गुणाढ्य की झोली दिनरात भरने लगी।पिशाच तो अनपढ थे।पैशाची कहानियाँ दिन रात उनके बीच मुखामुखी ही बांची जातीं।पर गुणाढ्य का मन किया उनको यह सब लिखना होगा, ताकि सनद रहे।

का हो पिशाची पंडत? पिशाचों के मुखिया ने एक दिन महुआ पीते हुए पूछा।काहे परीसान हौ?

गुणाढ्य ने उनको बताया कि वे उन सबसे सुनी कहानियों को लिख कर एक बहुत बडी सी पोथी बना देना चाहते हैं।पर कैसे?

पत्तियों की बनी बीडी पीते मुखिया सोचने लगे।

कुछ दिन बाद एक बच्चों के झुंड ने उनको एक बडा सा चमडे का बंडल थमा दिया।हर पिशाच ने अपने शरीर की खाल का एक अंश छील कर मुखिया जी के कहे से उनके पास जमा करा दिया था, कि पिशाची पंडत कथाओं की पोथी रच सकें।कुछ जन आए और उनको चुपचाप तुमडी में भरा अपना खून और सुघड़ता से तराशी एक टहनी से बनी कलम भी दे गये।बिन कहे जंगल ने कहा लिख, पिशाची पंडत, लिख!

बस।पोथी का लिखना शुरू।

कभी हंसते, कभी सर हिला हिला कर अहा अहा करते, और कभी भुंकार भर भर रोते गुणाढ्य ने आखिरकार पिशाची कथाओं की एक बहुतै भारीभरकम पोथी बना ही डाली।

अब? मुखिया ने पूछा।

-‘मन है कि एक बार महाराज अनंगलपाल को भी अपने भाई बहनों के इस दुर्लभ ज्ञान की झलक दिखा दूं।पर कैसे?’

‘कोई नहीं पिशाची पंडत।’ मुखिया बोले।‘हमलोग इसे अपने सर पर उठा के आपके साथ चले चलेंगे।’

तो बरसों या कहो सौ सालों बाद जंगल से निकला पिशाचों का पूरा एक जत्था।

आगे आगे कलम कान में खोंसे फटे धूलिहा कपड़ों में गुणाढ्य उर्फ पिशाची पंडत, पीछे दुबले पतले लेकिन पेड़ की जटाओं जैसे गठीले हाथों से येब्बडा चमड़े का ग्रंथ बाँस के लंबे तने पर टांगे पिशाच संगी।पोथी यूं दिक्खै जैसे ताज़ा किया कोई शिकार हो।रास्ते में जब जब पिशाची जत्था अपनी बोली के गीत गाता तो पिशाची पंडित भी सुर में सुर मिला लेते।भूख लगी तो ग्रंथ का बाँस डगाल पर टांग दिया जाता, फिर फल बंटते, और उबले हुए कंद के टुकडे, पानी की तुंबियाँ।जूठा सुच्चा की परवाह बिना सबके साथ गुणाढ्य भी आनंद से चबा चबा कर खाते पीते। इस तरह लंबा सफर जो कहो सो मज़े मज़े से कट गया।

आखिरकार यह विचित्र भीड राजमहल के भव्य दरवाज़े तक आ पहुंची।

अब आपै संभालो, कह कर मुखिया ने गुणाढ्य को आगे कर दिया और खुद अपने लोगों समेत कुछ दूर जा खडे हुए।गुणाढ्य घुसने को हुए तो दरबान ने बुरी तरह झिडक दिया, ‘एई जंगली पिशाच, यहाँ कहाँ आ गया है? जा भाग यहाँ से गंवार कहीं का।नहीं तो ठोंक दूंगा दो चार को।’

गुणाढ्य संसकिरत तो छोड चुके थे, सो पिशाची बपली में बोले, ‘‘भाई मेरा नाम गुणाढ्य पंडित है।महाराजा पोथियों का पंडतों का सम्मान करते हैं सो जंगल से यह ग्रंथ महाराज को भेंट करने अपने साथियों सहित पैदल इतनी दूर आया हूं।एक बार मिलवा भर दें।’’

दरबान उनको जवाब दिये बिना उनको सुनाते हुए बडी हिकारत से दूसरे दरबानों से बोला, ‘‘भाषा बोलते हैं पैशाची और कहते हैं खुद को पंडित? जानते नहीं कि यह महाज्ञानी महाराजा अनंगपाल का राजदरबार है जहाँ दरबार में सिर्फ संस्कृत बोली जाती है।’

‘यार पूछ आ एक बार।’ कोई दयावान बोला।‘गरीब जंगली लोग हैं महाराज एकाध झोली अनाज की तो भिजवा ही देंगे।’

‘ठीक है’, अगला बोला, ‘जाके पूछता हूं, पर तब तक तुम सब चमड़े की बास मारनेवाली अपनी इस गठरी समेत दूर खड़े रहो।‘

हुआ वही, जैसा दरबान बोले थे।

राजदरबार से संस्कृत श्लोक की पर्ची कुछ देर बाद वापिस आई कि, ‘पैशाची भाखा में खून की सियाही से लिखे किसी पागल लेखक के ग्रंथ को देखने की भी महाराजा जू कैसे सोचेंगे?’

गुणाढ्य ने मुड़ कर पिशाचों से इतना ही कहा कहा, ‘‘चलो वापिस।’

जंगल में पहुंच कर गुणाढ्य देर तक सोचते रहे।अगले दिन वे मुखिया से बोले, ‘‘राजमहल के दरवज्जे पर हम सबका अपमान हुआ है और हमारी कथाओं का भी।इस अपमान का दोषी मैं हूं।इसलिये बस एक आखिरी कृपा कर दो मुझ पर।एक बडी सी चिता चुनो, जिसमें पहले पन्ना पन्ना इस अभागी पोथी को अगिन देवता को चढा कर फिर खुद को भी उनको दे दूंगा।’’

रोते रोते पिशाचों ने चिता चुनी।आग लगाई तो लपटें तेज़ हुईं।पिशाची पंडित रोते रोते एक एक पन्ना आग में डालने लगे।जब आधा ग्रंथ जल चुका, तो मुखियाइन आई और उसने पति को कुछ कहा।मुखिया ने उठ कर पंडत की बाँह थाम कर कहा, ‘ पिशाची बाबा, बस।हमारी हमसबकी इच्छा हैगी कि बस एक बार हमारे चमड़े हमारे खून से लिक्खी बची हुई कहानियाँ हमको भी सुना दो।फिर जैसा आप चाहो।’

पिशाची पंडत ने कहानियाँ सुनाना शुरू किया।इतनी रसीली, ऐसी मोहक कथायें तितली जईसन पंख फैलाये उड चलीं।पिशाच तो पिशाच, एक एक करके सारे जंगल के पंछी, बिलाव खरगोश, शेर, हिरन, मोर, हाथी भालू दुश्मनी भूल कर कथायें सुनने चले आये और साथ साथ चिपक कर उनको सुनने लगे।

कथायें बांचते गुणाढ्य हंसते तो सारे श्रोता हंसते, वे रोते तो सब रोते।खाना पीना, चलना फिरना त्याग कर सब जीव दिनों तक कथायें सुनते खाना पीना त्याग कर धीमे-धीमे दुबलाते चले गये।

इधर महाराज अनंगपाल ने पाया कि उनके लिये पकनेवाले मांसाहारी भोजन में इन दिनों माँस कम होता है हड्डियाँ ज़्यादे।रसोइये को तलब किया गया।वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘प्रभो इधर कई दिनों से अजीब अजीब कुछ हो रहा है जिससे मांस की आवक बहुत कम हो गई है।सुना जंगल में बैठा कोई पगला सा आदमी एक जलती लकडियों के ढेर के पास जमा जीवों को कहानियाँ सुना रहा है।कहानियाँ ऐसी हैं कि पशु पक्षी लाने को हमारे जो दरबान जाते हैं, वे भी वहीं के हो रहते हैं।कुछ दिन बाद मिलता भी है तो कोई ऐसा ही सूखा सा शिकार।’

महाराज का हुक्म हुआ कल वे खुद जंगल जा कर देखेंगे कि माजरा क्या है।

अगले दिन शाही सवारी जंगल के भीतर पहुंची तो सचमुच वहाँ जानवरों, पिशाचों पक्षियों की एक बहुत्तै बडी भीड चुपचाप ध्यान लगाये एक के बाद एक कहानियाँ सुने जा रही थी।न खाना, न पीना, न लडना न झगड़ना।

रथ से उतर कर महाराज भी पास चले गये।देखें तो ये कहानियाँ कैसी हैं? कुछ देर तक वह भी मंत्रमुग्ध हो कर कथायें सुनते और पोथी के पन्ने जलाये जाते देखते रहे।फिर अचानक कथावाचक को पहचान कर चौंके कर बोले: ‘अरे यह तो अपने गुणाढ्य पंडित हैं! रुको भाई रुको।जलाओ मत इन दिव्य कथाओं को।’

पास जा कर महाराजा ने कथाकार को गले लगा लिया।

कथावाचन रुका तो सब जीवों ने अचानक जागकर शाही तामझाम अंगरक्षक और सैनिक देखे।

सब इधर उधर जा कर गहरे अंधकार में दुबक गये।पिशाचों का दस्ता भी ऐसे गायब हो गया जैसे कभी वहाँ था ही नहीं।

बार बार गले लगा कर पछातावा जताते हुए महाराजा ने आखिर अपने नाराज़ बिछड़े मित्र को मना ही लिया।वापसी में दोनो एक साथ महाराजा के ही रथ पर उनके साथ वापिस जाकर दोबारा उनके दरबार आये और हुकुम हुआ कि उनको उनकी गादी फिर मिलेगी और वे फिर संसकिरत बोलेंगे।

पिशाच बस्ती के दिनों की की इकलौती याद, उनके पैशाची कथाओं के ग्रंथ का आखिरी खंड ही आग से बचा था पिशाची पंडत के पास।उसे वे दिन रात पास रखते।पर दरबार तक इतना भारी बरकम ग्रंथ कैसे जाता?

कुछ सोच कर गुणाढ्य ने महाराजा से वचन लिया कि दरबार की भाषा भले संसकिरत रहे, पर देस की सभी बोलियों को संसकिरत में ढाल कर उनकी पोथियों को भी राजकीय पोथी भंडार में शामिल किया जाये।यह सब करने हेत महाराज ने गुणाढ्य के लिये राजधानी में एक बहुत बडा भाषा शुद्धीकरण विभाग (भा.शु.वि.) बनवाया।पर गुणाढ्य ने कहा कि वे अब राज दरबार में नहीं जायेंगे।सब भाषाओं पर काम करने हेत अपने शिष्यों के साथ महल से दूर अपनी अलग पर्णकुटी बना कर रहेंगे। जैसे जैसे वे तमाम तरह की बोलियों की पोथियों का संसकिरत में अनुवाद करवायेंगे तैसे तैसे उनको पोथीभंडार को भेजते जायेंगे।इससे ताकि दूर दूर से भद्रजन उनको बाँचने आयेंगे और महाराज की और भी जयजयकार होगी।

महाराज तुरत राजी हो गये।अपनी जयजयकार किसे नहीं सुहाती? दाहिने झुके दरबारियों ने भी हां में हां भरी: अरे, शुद्ध भोजन की थाली बन रही हो तो उसमें खीर पूड़ी के साथ यह चूरन चटनी भी सही।

काम शुरू हुआ सबसे पहले पिशाची पंडत ने खुद अपनी अधजली पोथी का पिशाची से संस्कृत में अनुवाद किया जिसे दरबार के खास सुलेख लिखनेवालों ने बडे जतन से भोजपत्र पर सोने की कलम से लिखा।पोथी को नाम दिया गया, बृहत्कथासरित्सागर।यानी कहानी की नदियों का सबसे बडा समंदर!

संसकिरत में तैयार करके सुनहरी पोथी राजदरबार की शोभा तुरत बढाने भेज दी गई।पर पिशाचों के खून चमड़े पर लिखे मूल ग्रंथ को अपने दुशाले में लपेट कर, गुणाढ्य ने अपनी कुटिया के सामने एक गहरा गढा खोद कर गाड़ दिया।

कुछ दिन बाद वहाँ बरगद का एक छोटा सा बिरवा फूट आया।गुणाढ्य उसे देख कर बरसों बाद मुस्कुराये।

इसके बाद तो बरसों तक बहुत पोथियां बनीं और उनसे राजदरबार की ख्याति भी बढती चली गई।

जब तक उनका आखिरी समय आया, कथालेखक गुणाढ्य बाबा की पोथी पर उगा बरगद का वह बिरवा एक बडा सा पेड बन गया था।उसी की छाँव में आखिरी सांस गिनते बाबा ने अपने शिष्यों से कहा कि वे सब उनके कहानियोंवाले इस वट के पेड़ की सही तरह देखभाल करते रहें।

उनकी यह बात सारे राज्य में दूर दूर तक फैल गई।सैकड़ों श्रद्धालु बाबा जी का बरगद देखने को आने लगे।मेला भरने लगा और महिलायें उसे ‘कहां उपजन लागो री सुहाग बिरवा’, गाती हुई, हर तीज त्योहार पर सींचने लगीं।इलाके में कुछेक दिनों में हलफिया तौर से बूढी महिलाओं की कही बात सारे राज में पक्की मान ली गई, कि बाबाजी के बरगद के तने से चिपक कर अपना सारा दु:खडा कह डाने से जियु तो हलका होता है ही और बरगद बाबा खुस भये, तौ कई बार रात सुपने में आ के कई कई ज्ञान की कहानियाँ सुना जाते हैं जिनको सुनैभर से मोक्ष मिल जाता है।

अजिया लोग बालकन को कहती थीं, कि छांवदार बरगद के नीचे जात्री सोवें, और ऊपर बइठें तरह तरह की चिरैया।चिरैयां रंगारंग पंखोंवाली।चहकनेवाली, मसकने मटकने वाली।सबकी सब दाना चुगें उड जायें।बरगद में गोदे फले तौ उनको भी चुगें और इधर उधर दूर दूर तक जाके हगती रहें।हर बीट से उपजे एक नयो बरगद।हर बरगद के तने में नई कहानियाँ।पूजा करो, सुपने में कथायें सुनो।

उन्ने जे भी सुना था, कि कोई अक्कासपंछी तौ अक्कास में चाँद पर चरखा कातनेवाली बूढी के घर भी बीट करि आया, तौ उधर भी कहानियन के बिरवा उपजि आये।जभी पूनम की रात को उसकी रोसनी में नहाय के लोग बाग तरह तरह की कथायें कहते सुनते हैं।

बाबा के उस एक बरगद के तले सोनेवालों का कहना भी था कि बरगद की रसभरी कहानियाँ कभी न भूलतीं हैंगी।सराय के सराय हुक्का पीते जात्री बरगद बाबा की कहानियाँ और जात्रियों को भी सुनाते।बस इसी तरह कहानियाँ बरगदों की तरह फैलने लगीं।कुछ बाहरिया ब्योपारी जाते जाते अपनी नाव में बाबाजी के बरगद की टहनियों की कलम भी काटि के अपने देस ले गये और अपने अपने ढिंग बोय दईं।

लो जी सुनते हैं उन्ने भी कल्ले फेंकने सुरू कर दये।

सो ये रही कहानियन की कहानी।अब तुम जानो सुच्ची है कि नईं।हमने तौ जैसी सुनी तैसी बखानी।

एक कहानी गोगो रानी, चिडिया बैठी डाल पर,

गोदे चुन के फुर्र हुई, पर बोये बरगद हर ढाल पर।

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