Pheeka Kagaz : (Hindi Story) Amrit Rai

फीका काग़ज़ : अमृत राय (कहानी)

1

रघुनन्दन ने बाहर चौखट पर से ही पुकारा–भाई सुरेश, अब तक नहीं उठे क्या?

सुरेश ने अन्दर से ही जवाब दिया–अन्दर चले आओ न, बाहर से ही क्यों बाँग देते फिर रहे हो?

रघुनंदन ने अन्दर जाते हुए मीठी चुटकी ली–इतना सोना न तो तुम्हारी आदत में दाखिल है और न हक़ में। यह नयी बात क्या?....अंदाज़ तो यही लगता है कि उनकी पोटली में बँधा-बँधा दूसरे हीरे-जवाहरात के संग, शायद यह निराला हीरा भी आ गया...क्यों है न?

सुरेश को बग़लें झाँकते देख जवाब दिया रजनी ने– रघुबाबू, अगर आपकी राय हो तो ये सारे बेशक़ीमत हीरे-जवारात आप की खूँट में बाँध दिये जायँ।

रघुनन्दन अब मुँह चुराये तो कैसे, लेकिन कुछ तो कहना ही है–नहीं भाभी, मेरी इस टाट जैसी खादी में भला ये क्या फबेंगे, तुम्हीं सोचो न? मैं अपना दरिद्र ही भला, कौन उसका भार सँभाले? उस काम के लिए तो मैंने सुरेश को ही चुना है। इतना ही क्यों, जब वह मुझे बीमार ही छोड़ कर, हीरों की यह पोटली गले लटकाने चला गया था, क्यों सुरेश, तब भी तो उसे मेरी सहायता की चाहना नहीं हुई, तो भला आज ही ऐसा क्यों हो?

बात यों है कि रघुनन्दन और सुरेश दोनों पड़ोसी हैं। दीवारें दोनों मकानों की मिली हुई हैं। सुरेश डी० पी० आई० के दफ्तर में नौकर है और रघुनन्दन एक वर्क-शाप में। दोनों पहले एक संग ही पढ़े थे। रघुनन्दन दसवीं जमात के बाद कारख़ाने में काम करने चला गया, लेकिन सुरेश सिलसिला बाँधे सीधा ग्रेजुएट होकर रहा और उसके बाद नौकरी में दाखिल हुआ।

सब से बड़ी दिल्लगी तो यह रही कि अभी-अभी, चार महीने भी पूरे नहीं हुए, सुरेश ने रजनी से शादी की है। रघुनन्दन ने सुरेश की शादी में भाग लिया, यह शत प्रतिशत ठीक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जहाँ तक फ़ोटो देखने का सम्बन्ध है, रघुनन्दन का हाथ, सुरेश के निकटतम होने के नाते, उसमें सब से ज़्यादा रहा है। सुरेश के साथ अकेले में उसने अपनी होने वाली भाभी की आँखों, गोल मक्खन-सी कलाइयों, कुन्दन-से दमकते रंग और बिल्ली के बच्चों जैसे मुँह की बड़ी प्रशंसा की है। (सुरेश को बुरा जरूर लगा था कि उसकी भावी पत्नी के मुँह की तुलना बिल्ली के बच्चों के मुँह से की जाय!) और उसे ऐसी रति-सी बहू पाने के उपलक्ष्य में बधाइयाँ भी दी थीं, लेकिन जब रति को लाने के लिए बनारस जाने का वक़्त आया, तब बेचारा बीमार पड़ गया, और फिर सुरेश को, सब के होने के बावजूद, कैसी अकेलेपन की कुरेदन हुई, यह तो सुरेश ही कह सकता है।

2

रघुनन्दन सुरेश का पुराना सहपाठी भी है, अन्तरंग भी।

रघुनन्दन किसी से कुछ छिपाता नहीं और मन में मैल रखना भी नहीं जानता। इस कारण वह सब का बहुत प्रिय है–रजनी का भी। जिस दिन रजनी ने घर में पैर रखा, पहला सवाल जो उसने पूछा, यह था–रघुनन्दन बाबू का जी कैसा है, यह पूछवा लेते तो बड़ा अच्छा होता।

उसे देखने के पहले ही, रजनी रघुनन्दन को मानो पहचानती थी और रजनी के आने के तीसरे दिन जब रघुनन्दन ने पूर्ण स्वस्थ होकर चौखट के बाहर ही से पुकार कर कहा, ‘भाभी नमस्ते’ तो रजनी को लगा कि यह आदमी युग-युग से मानो उसका परिचित है, और सदा से ऐसा ही है, चित्र के एक़दम अनुरूप, सरल, स्नेही, सौम्य, उदार, अपना।

और उसी पल से रजनी और रघुनन्दन की मैत्री का सूत्रपात हुआ। रघुनन्दन ने रजनी में एक अबोध बालिका को पाया, जिसे वह निश्शंक मैत्री के लिए अपना सकता है।

रघुनन्दन हुनरयाफ़्ता मज़दूर है और है नगर की मज़दूर सभा का एक प्रमुख कार्यकर्ता। लेकिन फिर भी वह सुरेश की अपेक्षा कम व्यस्त रहता है। सुरेश तो ऐसा कुछ चक्की पीसने के काम में लगा है कि आँख उठाने तक की फुरसत नहीं मिलती, सुबह ९ बजे का गया-गया, कहीं रात के ९ बजे लौट पाता है। इसीलिए ऐसा अंदेशा था कि रजनी एक मसोसने वाला अकेलापन महसूस करेगी, और विशेषकर अभी-अभी जब उसका कोई परिचित भी नहीं है। लेकिन कुछ तो पुस्तकें और उससे ज़्यादा रघुनन्दन का सुरेश के आदेशानुसार, दोपहर में एक घण्टा आकर उसके पास बैठ रहना, उसकी तबीअत को बहला देता था।

रजनी उसे श्रद्धा के साथ देखती और उसकी उपस्थिति में अपने को धन्य समझती; रघुनन्दन एक अस्पष्ट गुदगुदी के साथ उसे देखता, वह गुदगुदी जिसके अंतस्, में कलुष नहीं होता, बल्कि जो दो तरुण हृदयों के लिए बहुत स्वाभाविक है। और उसकी कोर भी पवित्र ही कहनी चाहिए, क्योंकि अपनाने या पा लेने की उस अस्पष्ट लालसा या आकुलता को ज़मीन बनाकर तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता, जब तक उसकी रूपरेखा निश्चित न हो जाय।

3

अकेला आदमी रघुनन्दन। एक दिन ऐसा हुआ कि उसकी महराजिन न आयी। कोई शाम सात का वक़्त था। सुरेश अभी दफ्तर से न लौटा था। रजनी की तबीअत अकेले ऊब-सी रही थी। उसने सोचा, चलो देखें रघुनन्दन बाबू आये कि नहीं। कुछ मन ही बहलेगा, कैसा खरा आदमी है।

रजनी ने अन्दर जो पैर रखा तो रघुनन्दन चिल्ला पड़ा–अरे कौन घर में घुसा आता है? कोई भठियारखाना बना रखा है कि बिना पूछे–जाँचे...

कारण, रजनी खम्भे की ओट में थी और रघुनन्दन धुँए में घुटा हुआ चूल्हा फूँक रहा था। रजनी कुछ क्षण चुप रही। फिर धीमे-धीमे प्रश्न के दोनों भागों का उसने उत्तर दिया–चोर; भठियारखाना तो नहीं लेकिन अपनी माँद समझकर आयी हूँ।

रघुनन्दन ने अचकचाकर कहा–अरे तुम? रजनी? लेकिन भाई माफ करना, यह चोर की माँद तो नहीं! यह तो रघुनन्दन बाबू की एकाकी गृहस्थी है।

रजनी ने कहा–हूँ...तभी तो चूल्हे का इस तरह फूँकना? क्या खूब है यह गृहस्थी, क्यों रघु बाबू?

इधर रघुनन्दन कुछ अपने सवाल पर और कुछ यों चूल्हा फूँकते देखे जाने पर लाल हो आया। मालूम नहीं, रजनी ने उसके इस भाव को देखा भी या नहीं लेकिन वह बोली–रघु बाबू, भला इतना परेशान क्यों होते हो। लो अगर ऐसा ही है, तो मैं बाहर चली जाती हूँ लाज लगती है, क्यों?

इस पर तो रघुनन्दन ने और दूना परेशान होकर कहा–नहीं, नहीं। मेरा मतलब यह हरगिज़ न था। तुम्हें धुआँ लगेगा, इससे कहता हूँ। खड़ी न रहो, बैठ जाओ।

रजनी ने फिर पूछा–और आप यह कर क्या रहे हैं? महाराजिन नहीं आयी क्या?

रघुनन्दन ने कहा–नहीं, आज वह बीमार...

रजनी ने बीच में ही टोककर कहा–तो मैं क्या मर गयी थी?

रघुनन्दन–यह क्या कहती हो, रजनी!

रजनी–कहती क्या हूँ? ठीक ही तो है। देखो, शीशे में ज़रा अपना मुँह तो देखो। यह भला तुम लोगों का काम है। मैं तो यह अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम बस हड़ताल भर करवा सकते हो! सो इसके उत्तर में किसने क्या कहा, यह तो लिखने वाला नहीं जानता, लेकिन कुछ मिनटों बाद रघुनन्दन चूल्हा ठण्डा करके रजनी के पीछे-पीछे चला जा रहा था।

और साथ ही बुदबुदाता जाता था–फिजूल तंग कर रही हो, रजनी।

स्नेह की उस रेशमी फाँस से वह छूट भागना भी चाहता था, और साथ ही उसमें पड़े रहना भी...आदमी का पागलपन।

रघुनन्दन का एकाकीपन, रजनी को, सहज समवेदना के कारण, अपनी ओर बुलाता। उसका मातृत्व इस निचाट सूने व्यक्ति को अपने वत्सल क्रोड़ में छुपा लेने का आग्रह करता क्योंकि उसका कोई नहीं है, वह उसकी हो जाना और उसे अपना बना लेना चाहती है। उसके भीतर आतुरता की कुरेदन-सी होती है। उसे बरबस ही खीझ होती है कि रघुनन्दन उसे अपना मानकर, उसकी सेवाओं को क्यों कबूल नहीं करता, उसे चेरी बनने का अवसर क्यों नहीं देता, उसके सहारे टेक क्यों नहीं लगाता? वह चाहती है कि रघुनन्दन उसे आदेश करे, अपनेपन का दबाव डाले। ऐसा निर्लिप्त–सा मानव, नाते-रिश्तों के प्रति इतना जड़ और निष्क्रिय रघुनन्दन उसे क्लेश पहुँचाता है...उसके नैर्सिगक स्नेह को ठेस पहुँचती है...वह इस निर्ममता तक पुकार उठना चाहती है...

जाने चाहे अनजाने उनके अपनेपन की नींव दृढ़ से दृढ़तर हो रही थी।

यों तो रघुनन्दन अपने वर्क-शाप और अपनी मज़दूर-सभा में व्यस्त रहता, लेकिन रजनी, अबोध चपलतावश उसे आकर झाँक जाने का मौक़ा ढूँढ ही लेती।

फिर गुलाबी जाड़े आये जिनमें एक सिहरन और एक खुनकी थी।

लेकिन इससे भी ज़्यादा डूब जाने का मौक़ा तो रजनी और रघुनन्दन और सुरेश को तब मिला, जब सरदी कुछ घनी हुई और अँगीठियाँ आयीं। दिन भर के थके-माँदे सुरेश और रघुनन्दन, साँझ के गहरी हो जाने पर एक साथ रजनी के पास लौटते–उसी प्रकार जैसे दो दिशाओं से बहती आती सरिताएँ मुहाने पर एक हो जाती हैं। कमरे में, आरामदेह गरमी में अँगीठी तापते हुए जाड़े की लम्बी घड़ियाँ वे बातचीत में गुज़ार देते। रघुनन्दन अपने भाई-बन्दों, मज़दूरों की तकलीफों और मुसीबतों का चित्र दर्द के साथ खींचता। सुरेश और रजनी दोनों ही रघुनन्दन को श्रद्घा से देखते। फिर एक समय ऐसा भी आया कि जब ऐसा लगा कि रघुनन्दन एक ज्वार का नाम है, जो सबको संग समेटे लिये जा रहा है और उसमें डूबते-उतराते व्यक्ति, उसके भाटे की कामना न करके, उसी तरह उसमें समाते और खोते हुए चले जाना चाहते हों, लेकिन रघुनन्दन को इसकी परवाह नहीं थी कि कौन उसे कैसे देखता है। वह एक लगन अपनी राह चला जा रहा था और उसकी लगन सबको अपनी ओर खींच रही थी। रजनी को खासकर ज्वार के थपेड़े सुखद थे और उसकी महानता का सुरूर पति-पत्नी दोनों पर एक-सा था। लेकिन बात यह बेख़बरी की थी।

उसकी उत्पत्ति विकास और विस्फोट से अनभिज्ञ, रजनी के अन्दर एक नैसर्गिक भाव लहरें मारने लगा। राह अँधेरी थी, लेकिन प्रकाश मिलेगा, ऐसा विश्वास था।

दिन बीतते रहे, लेकिन थकान के साथ नहीं जैसी कि उनकी आदत है, बल्कि एक शरबती उल्लास के साथ, जिसमें रत्न-मिल जाने का भाव अँगड़ाई ले रहा था।

किन्तु ख़बर इसकी न तो सुरेश को थी, न रघुनन्दन को और न रजनी को।

4

रजनी जब बनारस मैके गयी तो उसकी गोद में एक तीन महीने का बच्चा था। आज उसे वहाँ गये भी करीब छः सात महीने हो गये। सुरेश को अकेले घर में परेशानी होती है और उसकी कामना है कि रजनी को बुला लिया जाय। रघुनन्दन की भी सलाह ऐसी ही है क्योंकि उसे अलग, सूना घर काटे खाता है और रजनी उसके जीवन का कैसा अंश हो गयी है, इसका अंदाज़ उसे आजकल हो रहा है। लेकिन रजनी को लाने में परेशानी है, सुरेश बीमार है। ख़ैर कोई बात नहीं, रघुनन्दन जाकर भाभी को लिवा लाने को तैयार है। इससे अच्छी और कौन-सी बात हो सकती है। सुरेश अपने श्वसुर को तार दिये दे रहा है कि वह खुद किसी कारण से आ सकने में असमर्थ है। वह अपने भाई से भी प्यारे मित्र को भेज रहा है और वे रजनी को उसके साथ कर दें। रघुनन्दन जाकर रजनी को लिवाता लायगा, घर का सूनापन कटेगा।

रजनी के यहाँ रघुनन्दन लोगों का बड़ा प्रिय अतिथि रहा–जमाई का अन्तरंग था ही, ऊपर से निजी व्यक्तित्व। अब रघुनन्दन सब को लेकर परसों लखनऊ जा रहा है। लेकिन जाने के पहले, रजनी को सारनाथ देखने की इच्छा है। कौन कह सकता है फिर मौक़ा मिले, न मिले। अरे कह तो सब यह सकते हैं कि इतनी जल्द ईश्वर का क़हर नहीं गिरा पड़ रहा है और रजनी को सारनाथ देखने का मौक़ा मिलेगा और हज़ार बार मिलेगा। लेकिन रजनी कहती है, वह जायेगी ही। शायद कोई रोकथाम मुमकिन नहीं है, बेचारा रघुनन्दन पसोपेश में पड़ा है। आखिरकार वह बारिश आ जाने के वास्तविक और सच्चे बहाने की ओट में छुप जाना चाहता है। रघुनन्दन रजनी से कहता है–देखती नहीं कितनी सख़्त बरसात शुरू हो गयी है। एक दिन में शहर पानी में डूब जाता है। इसमें आख़िर ज़िद की कौन-सी बात है? कौन-सा ऐसा तीर्थ छूटा जा रहा है, जिसके बिना तुम्हें मुक्ति नहीं? इस पर रजनी ने तिनककर कहा, तुम भी इन लोगों-सी ही कहने लगे? बेचारा रघुनन्दन दो नावों में पैर दिये खड़ा है, और जानता नहीं, किस नाव में आकर दूसरी को छोड़ दे। वह आख़िरी बार कोशिश करता है–रजनी बचपना न करो। मुझे तुम्हें ले जाने में इनकार नहीं है...। इस पर रजनी तो फिर चलते क्यों नहीं? कहकररघुनन्दन को टोकना चाहती है, लेकिन वह अपना वाक्य पूरा करता है–लेकिन सवाल इसी बारिश का है। रजनी ने कहा कि ये सब फ़िजूल बातें हैं, किसी की ले जाने की मन्शा न हो, तो मैं भी ऐसे बहानों का अम्बार लगा सकती हूँ। आसमान क्या आज ही के दिन फटा पड़ रहा है। कैसा साफ़, नीला–सा है। क्यों नहीं है? इस पर रघुनन्दन क्या कहे, आसमान साफ़ है इससे किसे इनकार है भाई लेकिन ऐसे धोखेबाज़ मौसम की कौन चलावे। और जो तुम आसमान फटे पड़ने की बात कहती हो, सो उसका क्षण कोई भी नहीं बता सकता; आसमान नहीं ही फट पड़ेगा, इस विश्वास की भित्ति इतनी दृढ़ नहीं है जितनी समझे हुए हो।

लेकिन चाहे बारिश हो, आसमान ही क्यों न फट पड़े, रजनी जायेगी। ज़िद सरासर रजनी की है। रघुनन्दन लाचार है। यों मारे-मारे फिरने में उसका कोई क़सूर नहीं है।

तो रजनी और रघुनन्दन सारनाथ गये और जैसा कि इरादा था, वे शाम तक घूमा किये–रजनी के बच्चे को उसकी नानी ने मोहवश अपने पास रख लिया था–उन्होंने सारी प्रमुख जगहें देखीं, और एक जगह अपनी याद भी अंकित कर दी।

पहले गोधूलि ने छापा मारा, फिर संध्या ने। लेकिन जैसे ही इन्होंने घर चलने की सोची, पलक मींचते-मींचते भर में, काले-काले कालिख से भी काले बादलों ने आसमान को छिपा लिया। लगा, आसमान सचमुच ही फट पड़ेगा, और रघुनन्दन ने कहा भी था ऐसे धोखेबाज मौसम की कौन चलावे।

कहीं आश्रम लेने की ग़रज़ से अतिथि गृह की ओर बढ़े और उन्होंने मकान की देहलीज़ लाँघी ही थी एक कान के पर्दे फाड़ देने वाली गड़बड़ाहट के साथ पानी मोटी-मोटी धारों में गिरने लगा। लगा, प्रलय आज ही हो जायगा और महाकाल का नृत्य भी आज ही होगा। बिजली गरजती हुई, फुफकारती हुई आसमान में लपक रही थी और उसके आवेश को देखकर न जाने कैसा लगता था। ज़मीन दहल उठती थी, साथ ही बेचारे आदमी का दिल अलग दहल उठता था। बादल अलग गरज रहे थे। ज़मीन पर अँधेरा, आसमान में अँधेरा। सब जगह मौन छाया हुआ था। दिशाएँ साँय-साँय कर रही थीं। सब कुछ निश्चय और निस्तब्ध था, मानो प्रकृति दहशत में काँप रही हो।

ये दो मतवाले मूर्ख उस अतिथि गृह में ईश्वर-ईश्वर कर रहे थे। रजनी बिजली चमकने से काँप तक उठती और रघुनन्दन को ढाढ़स बँधानी पड़ती।

पानी थमने की प्रतीक्षा करते-करते आठ बजा नौ बजा। पानी बदस्तूर गिर रहा था।

रघुनन्दन ने रजनी में जान डालने की कोशिश की–अब?

रजनी पहले तो चुप रही फिर अस्फुट स्वर में बोली–उसमें कहना-सुनना क्या है? पानी गिरा है तो गिरेगा ही और हम भी उसे गिरने ही दें।

रघुनन्दन–तो फिर मैं ही कब यह कहता हूँ कि तुम एक चाँदनी टाँगकर पानी रोक दो? वह तो गिरेगा ही क्योंकि हमारे बस का नहीं है। लेकिन हमारा इन्तज़ाम कैसे होगा?

रजनी–अब तो आफ़त में फँस ही गये। जैसे कुछ इन्तज़ाम होना होगा, होगा। लेकिन अच्छा यही है कि इस परेशानी में मेरा एक साथी भी है।

रघुनन्दन–अरे यह सब जाने भी दो। इन्तज़ाम अपने आप तो होने से रहा, करना तो हमीं को होगा। दूसरे चाहे तुम मानो या न मानो, फँसी तो तुम आफ़त में अपने ही कर्मों?

रजनी ने मानो रोते हुए कहा–जो चाहे सो कह सकते हो। लेकिन तुम्हारे साथ हूँ इसीलिए भरोसा करती हूँ कि जो गाज गिर पड़ी है उसे...

रघुनन्दन ने वाक्य पूरा किया–झेल सकूँगी, यही न? लेकिन अगर वह हम दोनों की शक्ति के बाहर की साबित हुई तो?

रजनी ने भोलेपन से कहा–तो दोनों संग डूब जायँगे, यही कहना चाहते हो न?

रघुनंदन–मैं यह तो नहीं कहना चाहता, लेकिन यह जरूर कहना चाहता हूँ कि तुम हो बच्ची और तुम्हारी ज़िद तुम से उम्र में बहुत बड़ी है।

यह कहकर रघुनन्दन मुक्त रूप में हँसा और बाहर की बिजली भी थोड़ी देर को शर्मा गयी। रजनी भी मुस्करायी और दोनों हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे–प्रतीक्षा में दस बजा।

पानी थमने का तो नाम ही नहीं लेता–रघुनंदन ने कहा।

रजनी ने कहा–मालूम नहीं कब का बदला देवों ने हम से निकालने की सोची है। ऐसा बनवास! सोने-बैठने का ठिकाना नहीं, न एक कम्बल, न कुछ। ठंडक अलग हड्डियों में घर बनाने को आतुर है।

और जब बारह बजे तब भी बाहर जाँघ तक पानी था और अतिथि गृह के दालान तक में पानी लहरें मार रहा था। बिजली उतने ही जोर से कौंध रही थी, और उसका किसी भी पल गिर जाना कोई आश्चर्य न था ।

रघुनंदन ने कहा- अब तो यहीं सोना होगा।

रजनी - चारा ही क्या है? सो लेंगे।

रघुनंदन - तो फिर एकाध कंबल - वंबल की ज़रूरत कम से कम तुमको तो होगी ही ।

और वह उस दूसरे आदमी से इस विषय में पूछताछ करने चला, जो उसी न मालूम कब आकर लेट गया था।

रजनी एक फटी-सी दरी नीचे बिछा, कंबल ओढ़, आँचल मुँह पर डाल और सर के नीचे हाथ देकर सो जायगी । और रघुनंदन अलग निचाट फ़र्श पर सो जायगा । रजनी सच ही कहती है, क्या चारा है?

.... रघुनंदन के पैर अँधेरे में डगमगाये, सँभले, फिर डगमगाये, मतिभ्रम हुआ, फिर मस्तिष्क नील आकाश की तरह स्वच्छ हो गया... फिर तुमुल संघर्ष हुआ....

स्टेशन जाने के थोड़ी देर पहले अस्तव्यस्त सा रघुनंदन रजनी से एक ज़रूरी काम का बहाना करके बाहर चला गया।

जब रजनी ने अपना टँगा हुआ ऊनी ब्लाउज़ सर्दी की वजह से पहनने को उठाया तो उसमें एक सफ़ेद काग़ज रखा मिला, जिसमें लिखा था-

'रजनी,

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सके, यद्यपि ऐसा करना मैं स्वयं पाप और कायरता समझूँगा, क्योंकि इस अनुपात का सम्बन्ध तुमसे है, उस तुमसे जिसे मैंने परिचय के पहले क्षण से पूजना शुरू कर दिया था; उस तुमसे, जो मानवता की प्रतीक है, उस तुमसे जो माँ है। तुम आज चाहो तो सोच सकती हो कि मैंने तुम्हें भुलावा देकर, तुम्हारा मोती छीन लिया है। यदि ऐसा कोई विचार तुम्हें सताये, तो मैं किसी भी रूप में प्राण देकर भी, जुर्माना दे सकूँगा, दूँगा। समाज को मुझे सजा देने का अधिकार है, मैं इसमें शक नहीं करता, लेकिन मैं शपथ खाकर कहता हूँ रजनी, अपने अपराध के विषय में मैं अन्धकार में हूँ ।

मैं तुम्हें देवी के समान पवित्र देखता हूँ। मुमकिन है इसके लिए कुछ ज़्यादा अभिमान अपने लिए विश्वास और साहस की ज़रूरत होती हो लेकिन मैं मौत के तख़्ते पर भी खड़ा कह सकता हूँ मैं पूर्ण निर्दोष हूँ, और गोकि दुनिया के किसी कानून में मुजरिम खुद फैसला नहीं करता, लेकिन मेरा विश्वास है कि उसका अपना फैसला सबसे ज़्यादा वज़न रखता है।

रजनी, अगर कहा जाय तो हम तो केवल औज़ार रहे, उस षड्यंत्र के जो हमारी बुनियाद उस पर बनी हुई इमारत के खिलाफ करती है। यह सारी इमारत ही ग़लत है और उसके ढहने की कामना करते हुए तुमसे क्षमा चाहता हूँ।

- रघुनन्दन ।

रजनी के चेहरे पर एक खिन्न और विषण्ण मुस्कराहट आयी और मुर्झा गयी-घाव हरा है।...वह भी रघुनन्दन की अपेक्षा अधिक ज्योति में नहीं है । अन्धकार से मुझे प्रकाश में ले चल - उसे धर्मग्रंथों का कहीं सुना हुआ वाक्य याद आया।

5

कोई चार महीने बाद ।

रजनी बैठी बच्चे को दूध पिला रही थी। शाम के सात बजे थे। सुरेश हाथ में अखबार लिये विक्षिप्त सा आया। उसका ढाँचा तक क्रन्दन कर रहा था। आँख में बड़े-बड़े विवशता के आँसू, गिर पड़ने को विकल, झूल रहे थे, गाल पर कुछ मद्धिम रेखाएँ खिंची हुई थीं। रजनी के हाथ में अखबार का पन्ना देते हुए उसने कहा- पढ़ो! उसका गला रुँधा हुआ था और वह आराम कुर्सी में बेदम-सा गिर पड़ा और इस तेजी से जल्दी-जल्दी साँस लेने लगा मानों उसका दम घुट रहा हो।

रजनी ने आँखें दौड़ायीं, बड़े मोटे-मोटे अक्षरों में छपा हुआ था - 'बम्बई की मिल में ज़बर्दस्त हड़ताल । तैंतालिस हज़ार मजदूरों ने काम छोड़ा। पिकेटिंग जारी है। हड़तालियों पर गोली चली। प्रमुख हड़ताली और मज़दूर नेता रघुनन्दन शिकार हुआ । मज़दूरों में अपार रोष । अन्दर ख़बर में था- हड़तालियों का नेतृत्व करने वाले स्वर्गीय रघुनन्दन ने, जो कुछ ही काल पहले लखनऊ के मज़दूर संघ के सभापति थे, बम्बई आने के साथ ही, श्रमिक आंदोलन की रफ़्तार जितनी तेज कर दी थी, उतनी इधर होनी सम्भव न थी। उनकी निर्भीकता और सदाचारिता ने सब को मोह लिया था। मज़दूरों ने केवल अपना नेता नहीं खोया है बल्कि उससे बहुत ज़्यादा । जैसी बहादुरी से मौत को उन्होंने गले लगाया है, वह स्वयं आनेवाली मज़दूर नस्लों को इज़्ज़त के साथ कुरबान होना सिखाती रहेगी। गोली चलाने के पहले बंदूकचियों ने डराने के लिए कहा- अब हम गोली चलाते हैं, हट जाओ। इसके उत्तर में इस वीर नेता ने उनकी नपुंसकता पर अट्टहास करते हुए कहा- हम मरने ही आये... वाक्य पूरा भी न हुआ कि वे गिर पड़े। एक गोली सीने को छलनी करते हुए निकल गयी, दूसरी सर को ... I

रजनी ने अख़बार पढ़कर और मानों ढुलकते हुए आँसुओं को झूला झुलाते हुए कहा- कैसा देवपुरुष... और उसकी बात का वांछित जवाब सुरेश की हिचकियों ने पूरी तरह दे दिया।

6

जिस तरह एक तह के बाद दूसरी जमा हो-होकर नीचे की चीज़ को धुँधला और अस्पष्ट बनाती जाती है, उसी तरह छ साल कुछ धुँधलेपन का पानी स्मृति पर चढ़ाते हुए निकल गये ।

एक दम्पति और उनके तीन बच्चे सारनाथ देखने आये हैं। पति की आयु है लगभग तीस वर्ष; पत्नी की चौबीस-पचीस । बड़े लड़के की उम्र होगी सात साल की दूसरे लड़के नीलाभ की पाँच और तीसरा अभी गोद ही में है ।

एक प्राचीन स्तूप को देखते-देखते युवती ठिठककर खड़ी हो गयी । पुरुष पास आया और उसने देखा दीवाल पर महीन अक्षरों में कुछ खुदा हुआ था। उसने पढ़ा-

रजनी और रघुनन्दनः १५ अगस्त १९३८ । मैत्री और विश्वास की स्मृति में।

पुरुष ने जिज्ञासा की । क्यों रजनी ? रघुनन्दन ! उससे अलग हुए छ: वर्ष होने आये लेकिन लगता है मानो कल की ही बात हो, जब कि वह देवकुमार सा हमारे संग हँसता-खेलता, ठिठोली करता फिरता था । तुम्हें वह उस साल लेने आया था, तभी की ही बात है शायद ? मन आज भी रोने को मचलता है। कैसी जीवन शक्ति, कैसा मोहक व्यक्तित्व !

रजनी ने खिन्न मुस्कराहट और अवसाद के साथ एक छोटा-सा 'हाँ' कहा, और सुरेश को इस तरह अपने में डूबे और घाव के टाँके खोलते देख उसने नीलाभ को अपने पास खींचा, छाती से लगाया, चूमा और यों ही पूछा- नील, तुम्हारे बाबूजी... ?

नीलाभ ने सदा की भाँती प्रश्न के उत्तरार्द्ध को समझते हुए अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया और कहा यह... और सुरेश के कुर्ते के दामन को तसदीक़ करने के हेतु पकड़ लिया लेकिन रजनी ने तो केवल आकाश की ओर निहारा !

उसकी भी आँखें बुरी तरह डबडबा आयीं, लेकिन उसने अपने ऊपर वश करके पति से कहा- आओ चलो, घर चलें। मुझे अभी-अभी एक ज़रूरी काम

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