फल : सिक्किम की लोक-कथा

Phal : Lok-Katha (Sikkim)

बहुत समय पहले एक गाँव में एक घर था, जिसका मुखिया बहुत ही सभ्य था। घर में पिता के अलावा उनकी पत्नी और तीन बेटे हुआ करते थे। वह सभ्य घर का मुखिया बहुत ही स्वाभिमानी था। उन्हें हमेशा इस बात की चिंता रहती कि उनके बाद उनके बेटों का जीवन कैसा होगा और वे किस तरह अपने जीवन का निर्वाह करेंगे?

उनका बड़ा बेटा बड़ा चतुर था। पढ़ना-लिखना जानता था। अपने आसपास वालों के झगड़ों को सुलझाता था, समझदार था। देश-परदेश की जीवन शैली से वह परिचित था। हाँ, उसका घर-बार, खेती-बाड़ी के काम में दिल नहीं लगता था। जबकि पिता रात-दिन खेती-बाड़ी में काम करके आज तक अपने परिवार का गुजारा करता आ रहा था, इसलिए अपने बड़े बेटे को देखकर उनको बहुत दुःख पहुँचता। उन्हें लगता, खेती-बाड़ी में काम नहीं करेगा तो खाएगा क्या? पिता खेती-बाड़ी के सिवा कोई काम सोच नहीं पाया था; पर बहुत कष्टमय जीवन स्थिति में भी कभी किसी के सामने लाचार होकर हाथ नहीं फैलाया था और यही वह अपने बेटों से उम्मीद करता था।

मझला बेटा अनपढ़। वह अपने पिता के संग खेती के कार्यों में व्यस्त रहता, उसे उसी काम में रुचि भी थी। वह अच्छी नस्ल के पशुओं को पालकर जीवन का गुजारा करना चाहता था। पिता को मझले बेटे से बहुत उम्मीदें थीं, पर उन्हें इस बात की चिंता रहती कि उसके अनपढ़ होने के कारण अपने सामान को बाजार में बेचते हुए वह ठगा जाएगा। जबकि उनका सबसे छोटा बेटा बहुत ही आलसी था। उसे कुछ आता-जाता नहीं था, उस पर आलस्य के कारण किसी कार्य के प्रति उसका कोई रुझान नहीं था। दिन भर सोना ही उसे अच्छा लगता। ऐसे ही समय व्यतीत हो रहा था। बड़ा बेटा पंचायत बन गया था, और कुछ कमाने लगा था। अपना कमाया हुआ धन सुरक्षित रहे, इसलिए अपने पिता को दे रखा था। मझले बेटे ने भी खेती-बाड़ी से फसलों को बेचकर कमाई हुई रकम पिता को रखने को दी थी, जबकि छोटे के पास रकम के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं थी। पिता छोटे को लेकर सदैव चिंतित रहता। एक दिन छोटा जंगल को गया हुआ था, रास्ते में उसे कोई चमकती हुई चीज मिली, जिसे लाकर उसने अपने पिता को दिया। पिता उस वस्तु को लेकर पारखी के पास गए। जहाँ उन्हें पता चला, उस वस्तु की कीमत पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ हैं। उन्हें लेकर पिता घर लौट आया।

एक दिन उन्होंने अपने सारे बेटों को बुलाया और कहा, "अब मैं संन्यास की ओर जा रहा हूँ। अब मेरे बिना तुम सभी को अपने बलबूते पर अपने जीवन का गुजारा करना होगा। तुम्हारी जो भी जमापूँजी है, उसे मैं तुम्हें लौटाए दे रहा हूँ, उसी के सहारे जीवन में आगे अपना निर्वाह करना। मेरा आशीर्वाद तुम सभी के साथ है।" कहकर सबकी जमा-पूँजी उन्हें लौटा दी। बड़ा बेटा 150 स्वर्ण मुद्राओं का मालिक था तो मझले की 133 स्वर्ण मुद्राएँ थीं। जबकि छोटे की तकदीर चमक गई थी, उसके हाथों में पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ थीं। सभी को उनकी संचित संपत्ति देकर पिता काशी चल दिए।

कुछ समय बाद पहाड़ की ओर लौटते हुए उन्हें अपने बेटों की सुध लेने की चाह जगी। वे अपने बड़े बेटे के पास गए। उन्होंने देखा, अपने गाँव का प्रधान बनकर न्याय के पथ पर चलकर उसने इतना कमा लिया था कि उसका परिवार अपना गुजारा आसानी से कर सकता था। अपने बड़े बेटे को देखकर पिता बड़ा खुश हुआ। वह अपने दूसरे बेटे के घर गया, वहाँ उन्होंने देखा कि उनके मझले बेटे के यहाँ गाय-बैलों की जोड़ी, धन-धान्य से मझले बेटे का घर बहुत ही शोभायमान था। उसकी बढ़ती संपन्नता को देखकर पिता को बहुत खुशी हुई। उन्होंने अपने पोते, बहुओं को भी बहुत ही स्वस्थ और तंदुरुस्त देखा। उन्हें देख उन्होंने कल्पना की कि उस कम जमा पूँजी में भी इन बेटों ने जीवन में इतनी सफलता अर्जित की है, इसलिए उनमें सबसे ज्यादा जमा-पूँजी तो छोटे के पास थी, इसलिए वह तो आज और भी संपन्न अवस्था में जीवन व्यतीत कर रहा होगा!

ऐसा खयाल आते ही पिता को इस बात की प्रसन्नता हुई कि अपने बेटों को लेकर उनके मन में जो भय-शंका व्याप्त थी, वह पूरी तरह जाती रही। उन्हें लगा, जीवन की अंतिम घड़ी में उन्हें किसी तरह का कोई दुःख नहीं रहेगा। इस संसार से आसानी से उन्हें मुक्ति मिल जाएगी। यही सोचते हुए वे अपने छोटे बेटे के यहाँ पहुँचे। पर यह क्या? उसका घर-बार टूटा-फूटा, मैला, दरिद्रता अपनी चादर फैलाए वहाँ बिछी थी। उन्हें यकीन नहीं आया। बेटे-बहू कहीं दिखे नहीं। वहीं अपने बेटे को खोजते जब एक घर में पहुंचे तो देखा, वह वहाँ नौकर का काम करता है, जिसके बदले उसे दो जून की रोटी मिल जाती है। आसपास वालों से बात करने पर पता चला कि पहले यही कितनी संपन्न अवस्था में था, पर मेहनत करना जानता नहीं। पत्नी सारा लूटकर और छोड़कर चली गई। कमाए हुए धन को जाने में वक्त नहीं लगा। अब चारों ओर गरीबी थी। पिता अपने बेटे की ऐसी दयनीय अवस्था देखकर यकीन नहीं कर पाया। जीवन में श्रम नहीं करने का यही परिणाम था। सबसे ज्यादा धन होने के बावजूद छोटे बेटे की स्थिति सबसे खराब हो चुकी थी। पिता जिस बात से भयभीत थे, वही हुआ था। जीवन भर मेहनत, श्रम करके खानेवाले स्वाभिमानी पिता का अपना बेटा दूसरों के घरों में काम कर दो समय की रोटी पा रहा था। पिता का मन इस हालत को देखकर बहुत आहत हुआ, पर वह कुछ कर नहीं सकते थे। बेटे ने जो पाया था, वह उसी के कर्मों का फल था।

(साभार : डॉ. चुकी भूटिया)

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