फाँसी (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Phaansi (Hindi Story) : Jainendra Kumar

1

सुन्दर युवा है। साधारण ही पढ़ा और इकहरी देह का है। उम्र कोई पैंतीस वर्ष। आकृति में कुछ विशेषता नहीं । केवल आँखों में न जाने क्या है । देखते ही दहशत होती है, पर तुरंत ही उसे जानने को जी हो आता है, फिर मित्रता पाने की इच्छा होती है। इसी तरह परिधान में कुछ विशेषता नहीं, केवल चौबीसों घंटे लंगोट बाँधे रहता है। इसी का नाम मोहन सिंह है। इसी के सिर पर दस हजार रुपये इनाम बोला गया है।

"क्यों, वह क्या करता है ?"

किसी ने उससे पूछा था। उसने उत्तर में कहा था, "उपकार और कविता । " फिर पीछे से समाधान करने के तौर पर कहा था, "डकैती !”

किन्तु उपकार तो नाप-तोल करने की और देखने की चीज नहीं है, वह साबित करने की भी चीज नहीं है, और न गिनाने की ही है। इससे उपकार की बात तो नहीं की जा सकती। हाँ, उसकी कविताओं और डकैतियों का थोड़ा-सा रेकार्ड है।

'शमशेर' उसका उपनाम है । डकैतियों में भी, कविताओं में भी यही नाम प्रसिद्ध है। शमशेर से ही लोग डरते हैं, उसी की तारीफ करते हैं और बहुत-से हैं जो उसी के एहसान मानते हैं । वे मोहन सिंह को नहीं जानते बस, शमशेर को जानते हैं।

जहाँ एहसान की बात है, वहाँ कितने उसके उपकृत हैं और कितने उसके शत्रु — यह बताना कठिन है; परन्तु उसका कहना है कि दुनिया के लोगों के उस बहुत ही सूक्ष्म और अविचारणीय भाग को छोड़कर, जो धनमत्त, अधिकारमत्त व्यक्तियों को लेकर उठ खड़ा हुआ है, और उन्हीं के छल छिद्र, जोर-जुल्म और षड्यन्त्रों के आधार पर आज सबके सिर बैठने का दम्भ करता है- मनुष्यता के उस जघन्य अंश को छोड़कर सब उसके पूज्य हैं। अतः सबका ही वह हितैषी है, सबका सेवक है।

लेकिन दुनिया का वही जघन्य सम्मानित पुरुष का गुट कहता है - " शमशेर शैतान है, पापी है, डाकू है । उसकी जिंदगी बख्शने लायक नहीं।" और इसका प्रतिवाद कोई नहीं करता। दीनों की, असहायों की, बालकों और माताओं की, दलितों, आर्तों और दयार्थियों की अंधाधुंध संख्या, जो 'शमशेर' के उपकारों को जानती है, प्रतिवाद में एक शब्द नहीं कहती, प्रतिकार में एक उँगली नहीं हिलती। क्या वह मूक है, क्या वह अपंग है ? या स्वीकार करती है कि उनका उपकारी शैतान है ? 'शमशेर ' उनकी अयाचित सहायता करता है, चुप-चुप उनकी पैसे से, और और प्रकार से रक्षा करता है। यह सब उनके लिए ठीक है, लेकिन आज उसे फाँसी लगे तो यह भी कदाचित ठीक ही है !

इसलिए जब कानून कुछ कहता है, तो माना जाता है, यह देश भर की सम्मति है । 'शमशेर' को इसमें भारी संदेह है । पर संदेह भारी हो तो विश्वास पर उसकी लाचारी नहीं है, और कानून की लाचारी है, क्योंकि कानून पर पुलिस है। इससे उसकी सम्मति न सुनी जा सकेगी। अस्तु ।

हम उसकी डकैतियों का हिसाब बिना सरकारी रजिस्टर देखे यहाँ नहीं दे सकते। वह रजिस्टरों में दर्ज है। पर उसकी कविताओं का रेकार्ड लोगों के हृदय में बसा है, जबान पर लिखा है। शब्द याद नहीं, नमूना नीचे है-

लोगों ‘शमशेर' से डरते क्यों हो ? वह फौलादी है, पर देखो, कितना झुक जाने को तैयार है।

लेकिन खबरदार ! उसकी धार के सामने न पड़ना, वह न्याय की तरह बारीक है।

'शमशेर' दो बातें जानता है— बहादुरी और गरीबी। जिनमें दोनों नहीं, वे क्या आदमी हैं ? बहादुर अमीरी जीतता है, बनिया उसे ठगता है। बहादुर को सिर झुकाओ, बनिये की अमीरी छीन लो !

बहादुर अमीरी को ठोकर मारता है, बनिया उससे चिपटता है। बनिये को नंगा कर छोड़ो ! उसका 'बनियापन' उतार लो! उसे आदमी बनने दो!

विजेता सम्राट अभिनन्दनीय हो, पर पिछलगुए गीदड़ ! क्या गीदड़ों की अधीनता स्वीकार करोगे? उन्हें सिर झुकाओगे ? मर मिटो, पर तने रहो, मर्द रहो !

'शमशेर' ने किताब में देखा - इन गीदड़ों के गोल का नाम है- 'आरिस्टोक्रेसी ।' इस आरिस्टोक्रेसी में 'शमशेर' आग लगाने चला है। तुम भी आओ।

आरिस्टोक्रेसी ! कम्बख्त गरीबी के सिर पर पैर रखकर कहती है- हम हैं आरिस्टोक्रेसी ! ऐ लोगो, शमशेर के साथ मिलकर कहो- हम तेरा मुँह काला करेंगे।

'शमशेर' सरकार से कहता है- "तुम उसे फाँसी दोगे ?" लोगों से कहता है-

"तुम उसके लिए रोओगे ।" दोनों से कहता है- "दोनों भूल में हो।"

और सबसे वह कहता है- "दया पाप है, रोना पातक है। मत रोओ, मत रहम खाओ।"

तुम प्यार के गीत गाते हो। 'शमशेर' मना नहीं करता, पर कहता है— पहले वहाँ दरख्त की खोह में बसेरा डाले, त्रस्त, चार दिन के भूखे, उस परिवार को देख आओ, फिर प्यार को जी रहे तो करना ।

अपने स्त्री-बच्चों के बीच तुम अपने को ऐसे भूले जा रहे हो, जैसे परमात्मा नहीं है, और जवाब तुम्हें नहीं देना !

प्यार !― यह जरूरत है। कौन कहता है कि नहीं, लेकिन जीवन पहली जरूरत है। पहले उसे पैदा करो, दीनता का सत्यानाश करो !

जानते हो, ‘शमशेर' प्यार का क्या करता है ? उसे कुचल डालता है, फिर जरा रो लेता है और अपने काम में लग जाता है।

लेकिन लोगो, ‘शमशेर' बेवकूफ है। प्यार कभी कुचले मरा है ? कुचले से और भर न आए, वह प्यार ही क्या ? इसी प्यार का दूसरा नाम है - दुःख । यह दु:ख 'शमशेर' का शिवा है ।

लेकिन शमशेर - शमशेर रहेगा। प्यार आएगा आए। वह बहेगा क्यों, भूलेगा क्यों? दुनिया को याद रखेगा, और वहाँ अपनी टेक को याद रखेगा।

2

जाड़े की रात चुप-चुप फैली है। अँधकार निस्पंद पड़ा है। हवा बर्फ की ठंड से सिसकारियाँ लेती हुई इधर से उधर भाग रही है; और वे मोती-से तारे काँपते हुए इस शांत अन्धकार में से सोती और जागती दुनिया का सब हाल देख रहे हैं ।

दो बजे होंगे।

घना जंगल है। कँटीली झाड़ियाँ आपस में चिपटी हुई दूर तक फैली हुई हैं । उसके बीच में से अनगिनत पगडण्डियाँ इधर-उधर चारों तरफ से आकर एक-दूसरे को काटती हुई न जाने कहाँ किधर को निकली चली जा रही हैं। जहाँ जरा पैर रखने की जगह दीखती है, वही पगडण्डी है। लेकिन कुछ कदम चलने पर ही वह खत्म हो जाती है और कँटीली झाड़ियों का एक झुरमुट सामने आ खड़ा होता है ।

रास्तों की इसी भूल-भुलैय्या में एक व्यक्ति कम्बल का एक पुराना लबादा ओढ़े, नंगे-सिर, मुँह से सीटी बजाता हुआ चला जा रहा है। न उसे समय की चिन्ता है, न अपनी चिन्ता है। कभी गुप-चुप हँसते तारों को देखता है, कभी सुन्न झाड़ियों को देखता है। क्या रास्ते को भी कभी देखता है ?

अचानक उसका ध्यान बँटा, वह ठहरा। एक दहलाने वाली आवाज उसके कान में पड़ी। पूछा जा रहा है- "कौन है ?"

कुछ ठहरकर उसने पूछा - " क्या है ?"

प्रतिध्वनि हुई - "कौन जा रहा है ?"

पूछा - "आप कौन हैं ?"

" ग्रेटहार्ट !"

ग्रेटहार्ट के नाम से रात को आदमी थर्राते हैं । व्यक्ति ने उत्तर दिया-

"मैं हूँ शमशेर !"

“मैं तुम्हें गिरफ्तार करता हूँ।"

"आप ?"

“हाँ।”

“मेरा सौभाग्य। लेकिन गिरफ्तार होने की मेरी इच्छा नहीं है।" एक फायर हुआ ।

कर्नल ग्रेटहार्ट अचूक गोली मारते हैं, पर शमशेर को किसी गोली ने नहीं छुआ। शमशेर ने कहा - " यह क्या कर्नल साहब ?"

"मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता । सीधी तरह गिरफ्तार हो जाओ!"

"मैंने कहा, कर्नल साहब, मेरी ख्वाहिश अभी नहीं है गिरफ्तार होने की। "

"नहीं है तो मरोगे ।"

" क्या डर है ?"

'अब खाली गोली न होगी।"

"क्या डर है ?"

एक गोली सनसनाती हुई आयी और शमशेर के कन्धे से पार हो गयी। एक हाथ से उसने गोली के आर-पार छेद बन्द कर लिया। उसने सुना - " मान जाओ, यह गोली सिर में लगेगी।"

शमशेर ने कहा- "अरे गोविन्द ! "

दो आदमियों ने जाने कहाँ से आकर, न जाने कैसे, पल भर में कर्नल को खाली हाथ कर दिया। कारतूस भरा-का-भरा रहा। कर्नल ने कहा- 'फायर!"

पाँच गोलियाँ दन्न से दगीं। वे दोनों धरती पर लोट गये। इसी समय मालूम हुआ जैसे काले भूतों की फौज की फौज जमीन से निकल पड़ी है। दो-एक क्षण कुछ पता न चला क्या हो रहा है। फिर कर्नल के पाँचों सिपाही शमशेर के सामने पेश किये गये। खुद कर्नल भौंचक, निहत्थे खड़े रहने दिये गये ।

शमशेर ने कहा- " इन पाँचों को बाँधकर यहीं छोड़ दो।" कर्नल से कहा- "कर्नल साहब, आज आपको मेरे साथ चलना होगा। देखिए, आपने मेरे पाँच आदमियों की हत्या की है। क्या आपकी जान पाँच से अधिक है ?"

इतना कहकर शमशेर ने अपने खाली हाथ को कर्नल साहब के हाथ में डालकर उन्हें अपने साथ ले लिया।

अपने आदमियों से कहा - "तुम लोग जाओ, पर निश्चिन्त न रहो । आज पाँच आदमियों की हत्या का पाप मेरे सिर और चढ़ा है। भगवान मालिक है !"

कर्नल ग्रेटहार्ट चुपचाप शमशेर के साथ चल रहे थे। शमशेर भी चुप है। दोनों सोच रहे हैं। क्या सोच रहे हैं ? क्या सोच रहे हैं ?

कुछ देर बाद शमशेर ने कहा - "कर्नल साहब ! जो हूँ वह न होता तो मैं आपका सेवक होता और धन्य होता ! "

दोनों ने दोनों को देखा।

शमशेर ने कुछ देर बाद पूछा - " साहब, पहले आपने खाली फायर किया, फिर कन्धे पर गोली मारी। आपने यह गलती क्यों की?"

" गलती... ?" और बीच में रुककर कर्नल चुप हो गये।

" आपके कानून में पाँच आदमियों की जान की कुछ कीमत नहीं है । फिर आपने मेरी जान क्यों बख्श दी? आप चाहते तो मुझे पहली गोली में मार सकते थे। " कर्नल ने कुछ जवाब नहीं दिया ।

" आपने क्या मुझ पर रहम किया ?"

" तुम्हें फाँसी चढ़ाना है, इसलिए नहीं मारा।"

"कर्नल साहब, क्या आपके नजदीक जान की कुछ कदर नहीं है ?"

"नहीं!"

"क्यों नहीं ?"

" तुम्हारे साथ बहस नहीं माँगता । "

"कर्नल साहब आप मेरे हाथ में हैं।"

कर्नल भौं सिकोड़कर रह गये ।

“मैं आपको मार सकता हूँ ।"

कर्नल ने फिर उपेक्षा का एक 'एह' कर दिया और बस !

कर्नल ने अपनी उपेक्षा न तोड़ी।

"सुनते हैं ? आपको मार दिया जाए तो?"

"..."

"कर्नल साहब, मैं आपको मार दूँ तो ?"

कर्नल ने विस्मय से देखा - " तो ?... तो क्या ?... कुछ नहीं ।"

शमशेर ने सोचा - यह शख्स अपनी जान की कदर नहीं करता, इसलिए इसे अधिकार है दूसरे की भी न करे ।

इधर कर्नल ने सोचा - कैसा अद्भुत जीव है । कन्धा आर-पार बिंध चुका है, फिर भी हँसकर बातें कर रहा है।

शमशेर ने कहा—“कर्नल, आप बड़े हैं, मैं छोटा हूँ, लेकिन...।"

कर्नल ने झटककर कहा - " मैं तुमसे नहीं बोलना चाहता । "

"क्यों ?"

"तुम आदमी नहीं हो ? जानवर हो ।"

इस पर शमशेर हँसा। चाहता था ठठाकर हँस पड़े। कहा - "यह देखते हैं ?" और यह कहकर जख्म पर से अपना हाथ हटा लिया । लाल ताजे गर्म लहू का एक फव्वारा-सा छूट पड़ा। कुछ सेकेन्ड बाद अपने हाथ से जख्म बन्द कर हँसते हुए शमशेर ने कहा, "इस... इसके बाद चुप रह जाने की आदत जानवर में कम होती है। आदमी में भी बहुत नहीं होती ।"

कर्नल के जी में रोना उमड़ आया। उनके भरे जी ने देखा। शमशेर वीर है, खून का खिलाड़ी है; किन्तु सरकारी तर्क ने कहा- कुछ हो, वह डाकू है। इस पर अपनी उमड़न को भीतर ही रोक उपेक्षा के गर्व से भरकर वह चुप ही खड़े रहे ।

शमशेर ने मुस्कराते हुए कहा - "साहब, खून बहुत आ रहा है। बताइए, क्या करूँ? यह आपकी कृपा है।"

कर्नल की देह में पर्याप्त बल था । उन्होंने एकदम पकड़कर शमशेर को नीचे डाल दिया। वह कुछ भी समझ पाए कि इतने में जख्म पर से उसका हाथ हटाकर कर्नल ने अपनी कमीज में से एक टुकड़ा फाड़कर जख्म बाँध दिया ।

अब शमशेर का सिर कर्नल की गोद में था । शमशेर ने कहा- " यह धोखा! "

कर्नल ने कहा- " अँग्रेज ऐसे ही होते हैं। "

अपनी कमीज को चीर - चीरकर घाव की ड्रेसिंग करने के बाद कर्नल फिर उसके साथ चल दिए । एक फूस के मकान के किनारे पर थपथपाकर शमशेर ने कहा - " मान !" थोड़ी देर तक किवाड़ न खुले ।

"मैं हूँ मोहन।”

“सरदार!” कहकर विस्मय से 'मान' ने तुरन्त किवाड़ खोल दिये। शायद आज ही लौटने की सरदार की आशा न थी ।

"मान, उम्मीद से पहले ही कर्नल साहब हमारे यहाँ आये हैं । तो भी हमारी ओर से कमी न होनी चाहिए। "

'मान' स-सम्भ्रम हट गया।

वे दोनों कमरे में पहुँचे। नीचे फूस था। दो मामूली खाटें पड़ी थीं। बिस्तर के नाम पर भी उन पर कुछ न था । खूँटी पर हरीकेन लालटेन लटक रही थी। एक जंगली मेज थी। उस पर कुछ कागज, एक डायरी, एक पेंसिल- ये चीजें थीं। हाँ, एक आले में रामायण की छोटी-सी जिल्द थी। कमरे भर में और कुछ न था ।

कर्नल साहब को जिस खाट पर बैठाया, उसी पर शमशेर आप बैठ गया। मेज को खींचकर दोनों के बीच में कर लिया।

मान आया तो उसने कहा - " पहले साहब के लिए अच्छा बिस्तर लाना होगा।"

साहब हिन्दी खूब जानते हैं, और अब वह बहुत बन्द रहना भी नहीं चाहते । पर शमशेर जो उन्हें राजधर्म और समाज शास्त्र की चर्चा में खींच ले जाना चाहता है, उसमें वह पड़ना नहीं चाहते। वह शमशेर के बारे में सोचते हैं- ' यद्यपि व्यक्ति अच्छा है, पर परिस्थितियाँ अनुकूल न मिलीं। इसी से आज यह डाकू है, बेचारा ! - कहीं अच्छी शिक्षा पायी होती, तो कितना सुन्दर नागरिक आज यह होता ! '

इसी समय शमशेर ने कहा - "शिक्षा ! आज इसने हिन्दुस्तान को क्या बना दिया ? हृदय की सारी विभूति को यह चूस लेती है, आदमी को दम्भ करना सिखाती है, वास्तव से हटाकर नकल करना सिखाती है; अपने शब्दजाल में सच्चाई को ढक लेती है, और अपने बड़े-बड़े कोषों और ग्रन्थों को दिखाकर आदमी को उलझा देती है । यह विद्या आदमी की सबसे बड़ी दुश्मन है। आज एक बहुत बड़ी विद्या का नाम है - कानून | हजारों लाखों डेढ़-डेढ़ फुट ऊँचे पोथे उसका ताना-बाना पूरने में बन चुके हैं। और कर्नल साहब, आपकी उस सारी कानून की विद्या का उद्देश्य क्या है ? क्या स्वतन्त्रता का कुचलना नहीं ? वह स्वतन्त्रता जो हमें परमात्मा ने दी है और जिस तक पहुँचना इस विश्व की सार्थकता है। क्या यह विद्या, उनको जो अन्यायी हैं पर जबरदस्त हैं- सिर पर चढ़ाने और उनको, जो न्यायी हैं इसलिए चुप हैं, पैरों तले कुचल डालने के ही काम नहीं आती? क्या सत्य की हत्या के काम नहीं आती ? क्या..."

कर्नल ने शान्त भाव से कहा - " शमशेर, ज्यादा बोलो नहीं। थोड़ा दूध पीकर सोलो, घाव को आराम होने दो!"

शमशेर—'' आप यह क्या कह रहे हैं? मैं आपसे पूछता हूँ, आप इस कानून का कैसे समर्थन कर सकते हैं। आज दुनिया इससे पिस रही है, क्या आप यह नहीं देख सकते ? क्या-"

कर्नल ने कहा- "घाव का जोखिम मत बढ़ाओ, शमशेर, जरा चुप रहो।" शमशेर ने उसी आवेश में कहा - "क्या आप नहीं देख सकते कि कानून में भाव हक का है, प्रेम का नहीं । आँख अपराध पर है, समता पर नहीं। अंकुश त्रस्त पर है, शासक पर नहीं। वह चक्की है, जिसे एक पीसता है तो दस पिसते हैं। आप क्या पीसने वाले की मुट्ठी ही मजबूत कर सकते हैं, और कुछ नहीं कर सकते ? क्या "

कर्नल ने कहा—“चुप, देखो वह तुम्हारा 'मान' आ रहा है। "

मान कर्नल साहब की हैसियत के उपयुक्त बिस्तर ले आया है और दूसरी खाट पर बिछा देता है।

इससे पहले कि शमशेर कुछ कहे, कर्नल बोलते हैं- "तुम्हारा नाम 'मान' है ? देखो, अपने सरदार के लिए दूध लाओ। उन्हें सख्त चोट आयी है ।"

तब शमशेर ने कहा—“ देखते नहीं ? साहब के लिए जल्दी कुछ लाओ।"

'मान' गया। कर्नल ने कहा - " मैं तुम्हें बोलने न दूँगा।"

शमशेर ने कहा- " आप उस बिस्तर पर जाइए! "

कर्नल ने कहा- "नहीं। आहत का कुछ अधिकार होता है और फिर मैं जानवर नहीं हूँ। तुम उस पर आराम से सो सकोगे।"

"नहीं।"

"नहीं।"

इस 'नहीं' पर शमशेर की आँखों में दो बूँद आँसू आ गये। कहा - "साहब, मैं डाकू हूँ, पर गरीब हूँ । मेरे लिए वह बिस्तर नहीं है !"

इस पर कर्नल चुपचाप उस खाट पर चले गये ।

अब दोनों चुप थे। दोनों कुछ सोच रहे थे। दोनों कुछ पा रहे थे। इतने में मान बाकायदा ट्रे कप, कॉफी और टोस्ट के साथ आया। एक सकोरे में दूध भी था ।

कर्नल ने कहा- "मुझे भूख नहीं है, मैं नहीं खाऊँगा ।"

शमशेर-‘“ऐसी रूखी मेहमानी कभी न मिलेगी, मेरे पास और क्या है?"

"नहीं, सो बात नहीं। मुझे जरूरत नहीं है।"

'साहब मेरी मेहनत का पैसा है। सच्चा पैसा है- आप यकीन रखें।"

कर्नल - " शमशेर मुझे जरूरत नहीं है।"

इस पर शमशेर ने मान से कहा - "मान, तो सब चीजें ले जाओ। मुझे भी जरूरत नहीं है।"

मान ले जाने की तैयारी में लगा। कर्नल ने देखा - इस आहत सहृदय व्यक्ति की खातिर सब-कुछ करना होगा ।

उन्होंने कहा - " तुम्हें जरूरत है शमशेर । "

"नहीं।"

कर्नल ने मान से कहा- " अच्छा रहने दो, तुम जाओ!" कर्नल ने बिना कुछ कहे - सुने अब खाना शुरू कर दिया। वह भी अपना दूध पी गया।

कर्नल साहब ने फिर शमशेर की खाट पर आकर उसकी पट्टी ठीक की। फिर वहीं बैठकर उसे सो जाने का अनुरोध करने लगे। शमशेर ने आपत्ति की। अपने लबादे में से पिस्तौल निकालकर मेज पर रख दी और कहा - " मैं समझता था आप मेरे बन्दी हैं पर देखता हूँ उल्टे मैं आपका बन्दी हो गया हूँ और फिर मैं बन्दी का करता भी क्या। ऐसे बहादुर की हत्या का पाप मैं उठा सकता हूँ !"

थोड़ी देर बाद वह खुर्राटे लेने लगा ।

कर्नल अपनी खाट पर आ गये, पर सो न सके। उन्होंने कमरे के चारों तरफ देखा। दरवाजे के बाहर देखा । कोई पहरेदार नहीं है, कोई डर नहीं है। पिस्तौल देखी । बिल्कुल नई कारीगरी की है, पाँच कारतूसों की और पाँचों भरे हैं। देखकर, फिर मेज पर रख दी।

कुछ सोचकर फिर पेंसिल उठाई। खुले कागजों में सब से ऊपर कुछ लिखा और साढ़े सात आने पैसे गिनकर मेज पर रख दिये ।

मन में कहा - " शमशेर और हम दोस्त नहीं हो सकते। दुश्मनी ही हमें जेल देती है। लेकिन मैं तुम्हें गलत नहीं समझूँगा, शमशेर । फाँसी दिलवाऊँगा तब भी गलत नहीं समझूँगा ।" और फिर एक बार चारों ओर निगाह डालकर झोपड़े से बाहर हो गये।

दरवाजे से उनके निकलते ही शमशेर ने झपटकर कागज उठा लिया। लिखा था-

रोटी दो दोस्ट.................तीन आने
मक्खन.............................डेढ़ आने
कॉफी, डेढ़ प्याला..........ढाई आने
शक्कर...............................दो पैसे
कुल साढ़े सात आने नकद

पढ़कर उसे सोच आया- "तो क्या उसे आतिथ्य का अधिकार भी नहीं है ?"

शमशेर का जी भर - सा गया। फिर मन में उसने कहा- 'कर्नल, तुम कब समझोगे मैं तुमसे कम सच्चा नहीं हूँ । समाज के लिए भी तुमसे कम आवश्यक और कम उपयोगी नहीं हूँ ।'

और, कोई आध घण्टे बाद उसने जगाकर अपने आदमियों को हुक्म दिया-

"यहाँ से जल्दी कूच कर देना होगा । "

सबेरे सूरज निकलते-न- निकलते वहाँ सुनसान हो गया। आदमी का निशान भी न था ।

कोई ग्यारह बजे वहाँ पुलिस का धावा हुआ। खुद जिले के पुलिस कप्तान कर्नल ग्रेटहार्ट साथ हैं | पर पहाड़ सी आशाओं के नीचे वहाँ चूहा भी न निकला। तिनके- तिनके को उलटा-पलटा, पर कुछ न मिला।

मिली तो वह कर्नल साहब को साढ़े सात आने की चिट्ठी मिली। चिट्ठी लेकर कर्नल ने किसी के सुनने, न सुनने की परवाह किये बगैर कहा - " शमशेर बहादुर ही नहीं, होशियार भी है।"

3

लेकिन कप्तान साहब की शिकायत की गयी है। उन्हें एक चिट्ठी मिली है - " कर्तव्य से च्युत होना अफसर के लिए बड़े खेद की बात है। उनके जैसा मुस्तैद अफसर अब तक 'शमशेर' को पकड़ने में कामयाब न हो ! सुना जाता है, उन्होंने ढील से काम लिया है। यह बताने की जरूरत नहीं कि किस तरह शमशेर समाज के लिए जहर साबित हो रहा है, किस तरह यह जहर फैलता जा रहा है, और किस तरह उसका स्वच्छन्द रहना अत्यन्त भयंकर है। महीने के भीतर वह न पकड़ा गया तो उनका तबादला कर दिया जाएगा।" यह चिट्ठी का भावार्थ है ।

कर्नल साहब ने अपने समाज शास्त्र के ज्ञान की सहायता से, तर्क की सहायता से और बड़े अफसरों की डाँट के पत्र की सहायता से अपनी कर्तव्य - बुद्धि को और सचेत कर लिया है।

उन्होंने तय कर लिया है – समाज की रक्षा का दायित्व उन पर है। कानूनन शान्ति-रक्षा के वह उत्तरदाता हैं, और कानून हर किसी के हाथ में नहीं दिया जा सकता। किसी को उसे अपने हाथ ले लेने की स्वतन्त्रता नहीं हो सकती। इसका अर्थ अराजकता, अनियंत्रण, धाँधलेबाजी होंगे और यह धाँधली कभी श्रेयकर नहीं । प्रकृति भर में अनियम को स्थान नहीं, वहाँ भी नियम का राज्य है... तो शमशेर बहादुर है, तो क्या उसे फाँसी अवश्य लगेगी।

भेदिए ने खबर लाकर दी है। आज कर्नल साहब अपने चुने हुए पन्द्रह आदमियों के साथ शाम से ही उस मकान को घेर लेंगे। कानों-कान खबर न होने पाएगी। वह खुद हिन्दुस्तानी लिबास में जाएँगे, और उनके सिपाही भी मामूली गंवार के वेश में पहुँचेंगे।

4

शमशेर अपनी एक माँ के यहाँ है। उसके न अपनी माँ है, न बाप है । वह छोटा था, जब दोनों उसे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये। दोनों साथ-साथ नहीं गये, अलहदा- अलहदा गये। वे दीन थे। गाँव में रोटी का कोई धंधा न जुड़ सका। इसलिए अपने इकले भाग्य को आजमाने के लिए दोनों को बिछुड़ जाना पड़ा। फिर उनका मिलन न हुआ। बालक मोहन बहुत दिनों तक अपनी माँ के साथ रहा। लेकिन जब एक समय तीन रोज तक दोनों माँ-बेटों को खाने को कुछ न मिला, तो माँ ने सोचा, 'माँ की गोद से तो बेटा शायद परमात्मा की गोद में ही भला रहे ।' और वह जी कड़ा करके जंगल में सोते मोहन को अकेला छोड़कर चल दी। उसके जगने पर इस एक माँ ने ही उसे रोता पाया था और आश्रय दिया था।

कौन जाने आज शायद माता-पिता और पुत्र - तीनों ही जीवित हों - पर कहाँ, कितनी दूर ? किसी को एक-दूसरे का पता नहीं ।

तीनों एक-रक्त, एक-प्राण, एक अस्तित्व में बँधे तीन प्राणी हैं, किन्तु आज तीनों के बीच भाग्य के कैसे विषम महासागर आ फैले हैं। तीनों जीवित, पर तीनों के लिए मरेसे भी अधिक... हाय दरिद्रता, हाय दया ! और हाय, ओ ईश्वर !

आज शमशेर अपनी उन्हीं माँ के यहाँ है जिन्होंने उसे अपना वात्सल्य देकर और सब कुछ देकर बड़ा बनाया, और जिसे अपने हृदय की सारी भक्ति और सेवा देकर उसने अपनी माँ बनाया है। माँ अब वय से जर्जर हो चली है। इधर वह बहुत दिनों से उसकी खबर नहीं ले सका है। उसका व्यवसाय ही ऐसा है या कहिए, उसका नाम ही ऐसा है। आज वह खतरों और सब संकटों को स्वीकार करने के लिए कटिबद्ध होकर माँ के पास आया है। माँ अब बहुत दिनों तक नहीं रहेगी। उसने भी निश्चय कर लिया है, उसे भी बहुत दिनों तक नहीं रहना है। यहाँ आते समय उसने अपने आप से कहा था- "जीवन का लोभ ! छिः शमशेर ! तू इतना निकृष्ट है ! तूने कहा था न, कि तुझे अतिथि होकर दुनिया में रहना होगा। न जाने कब यहाँ से डेरा उठाने का वक्त आ जाए ।"

इसलिए अब निश्चिन्तता से वह माँ की सेवा करने आया है।

इधर शमशेर के बहुत काल से खबर न लेने से माँ बहुत बिगड़ रही थी। सोचती थी — यह कहूँगी, वह कहूँगी; लेकिन जब आते ही शमशेर ने कुछ हँसती और कुछ रुँधी आवाज से कहा—“अम्मा कैसी है तू ?" तो उन्हें बिगड़ने की याद जाती रही, और उन्होंने गदगद कण्ठ से पूछा - "कहाँ रहा रे?"

माँ उस सब हास्य के, उस सब प्यार के बावजूद जो वह अपने बेटे पर बरसाती है, दिन-दिन क्षीण होती जा रही है। यह जानने में शमशेर को देर न लगी। वह और भी सचिन्त, संलग्न - भाव से उसकी सेवा करने लगा ।

रात को वह दो-दो बजे तक खुद माँ की सेवा में रहता, पैर दबाता, कहानी .सुनाता और सुनता। माँ को कहानी कहना जितना रुचता था, उससे कम सुनना नहीं, और शमशेर के लिए तो इससे बड़ा सौभाग्य न था ।

रात के बारह बजे होंगे। माँ को नींद न आती थी। पैताने बैठकर शमशेर तलुओं में मालिस कर रहा था। उसने कहना शुरू किया- "माँ, सुन देख, सोना मत । कहीं तू सो जाए, और मैं कहता ही रहूँ ।"

फिर एक कहानी सुनाई - " एक राजा था । सात लड़के थे । छोटा अपनी माँ को बहुत मानता था, राजा को नहीं। राजा ने नाराज होकर उसे देश निकाला दे दिया। रानी के लिए सूना हो गया। उसका जी किसी काम में न लगता। अन्त में वह भी जंगल में चली गयी। जंगल में एक रोज उसका बेटा मिल गया। उसे बड़ी खुशी हुई। अब उसे कहीं न जाने देती, अपने पास ही रखती और सब काम खुद करती । उसे डर लगा रहता था—कोई उसे उठा न ले जाए। एक रोज की बात - रात का वक्त था कि एक दैत्य आ खड़ा हुआ। डरावना मुँह था, लाल-लाल आँखें...।"

माँ एकदम चीख मार मूर्छित हो पड़ी ।

शमशेर चिल्लाया- "माँ ! माँ ! "

किसी ने कहा- " शमशेर, तुम्हें गिरफ्तार कर लूँ तो क्या हो ?"

शमशेर ने मुड़कर देखा, कर्नल हैं। उसने बड़ी नम्रता से कहा - "साहब, यह मर जाएगी।"

"दया माँगते हो ?"

"अपने लिए नहीं ।"

"यह कौन है ?"

"पुत्रहीना एक माँ, मेरी माँ है।"

"अच्छा, भागने की कोशिश तो न करोगे!"

"माँ को छोड़कर कहीं न भाग सकूँगा।"

"अच्छा, अपनी पिस्तौल दो। तुम शैतान हो ।"

शमशेर ने अपनी पिस्तौल जेब से निकालकर दे दी।

" अच्छा, अब मैं जाता हूँ। और देखो, यह लो। इसकी सिर पर मालिश करना, गश दूर हो जाएगा। और इस शीशी में टॉनिक है । रोज देना - दूध के साथ। बदन में ताकत आएगी, मैं जाता हूँ ।"

गये और जाते-जाते लौट आये। आकर कहा - "देखो, अपनी माँ से निबटकर तुम अपने को मुझे सौंप दोगे, इसका वचन दो। मैं तुम्हारा विश्वास करना चाहता हूँ ।"

" अपनी बेहोश माँ के पैरों में सिर डालकर वचन देता हूँ।"

"माँ की खबरदारी रखना।"

कर्नल चले गये ।

दवा की मदद से माँ को कुछ देर बाद होश हुआ । आँख फाड़कर माँ ने पूछा— "बेटा, बेटा ! वह कहाँ गया ?"

"कौन माँ ?"

"वही तेरा कहानी वाला दैत्य ! डरावना, लाल-लाल आँखें। बेटा, मैं डर गयी । तो वह तुझे लेने नहीं आया था ?"

" मेरी माँ, मैं कहानी भूल गया था। वह दैत्य नहीं, देवता था।"

5

कर्नल ग्रेटहार्ट ने मकान से बाहर आकर अपने आदमियों को इकट्ठा किया। कहा-

'भीतर कोई डाकू नहीं मिला, अब यहाँ से चल देना होगा ।"

सिपाहियों को आराम से रात बिताने में कुछ आपत्ति नहीं हुई ।

कर्नल के साथ वापस चलने को वे तैयार हो गये। इसी समय एक करारी आवाज आयी - "ग्रेटहार्ट !"

कर्नल मुड़े। देखा - उनके अफसर सर सेवेज हैं।

कर्नल ने कहा, "सर, आप!"

"जी, मैं ही, और कोई नहीं । "

"आज्ञा... ?"

" तो... शमशेर मकान में नहीं है ?"

"मुझे तो कोई डाकू अन्दर नहीं मिला । "

"झूठ बोलते हो।"

'झूठ मैं नहीं बोला करता । "

'अच्छा, चलो मेरे साथ अन्दर चलो।"

कर्नल सर सेवेज के साथ फिर मकान में गये ।

शमशेर अब दुगने प्यार से, दुगने चाव से और दुगने सोच के साथ माँ के पैर मलता-मलता वही कहानी पूरी कर रहा था । उसे देखते ही सेवेज ने कड़कती आव में कहा - "ग्रेटहार्ट, यू ट्रेटर, यह शमशेर नहीं तो कौन है ?"

"जी, मैं नहीं जानता। वह अपनी माँ का बेटा है। मैं इसे डाकू नहीं समझ सका।"

माँ आवाज सुनकर और इन दोनों की सूरतों को देखकर एकदम सहम गयी। मुँह से बोल न निकला । मूक- मूढ़ इन्हें देखती रही। जब उसने सर सेवेज की मुद्रा भली प्रकार देख पायी तो दहशत से काँप गयी। जोश में एकदम बिस्तर से उठ बैठी और शमशेर को अपने सारे अवशेष बल से चिपकाकर चिल्ला पड़ी - "बेटे!”

सेवेज ने रिवाल्वर तानकर कहा - " शमशेर, अलग हो ! बुढ़िया को नहीं मारना चाहता।"

शमशेर ने कहा, "जरा ठहरिए !"

माँ बेटे को गोदी में छिपाने की कोशिश कर रही है, और स्वयं भी मानो उसमें छिपना चाह रही है।

कर्नल - "सर, ही वुड सरेण्डर।" (सर, वह अपने आपको सौंप देगा ।)

सेवेज – “यू डेविल्स बोथ ! गेट अवे यू ट्रेटर।" (ओ शैतान, दूर हट दगाबाज ! )

कर्नल–“सर, माइण्ड, यू डोण्ट किल हिम।" (सर, सावधान, उसे मार न दें।)

सेवेज–“यू इनफाइड्ल! अवे विद यू एन् योर पिटी।" (ओ बेईमान, अपनी दया कर दूर हो !)

कर्नल ने रोकने के लिए अभी अफसर की बाँह को छुआ ही था कि रिवाल्वर का घोड़ा दबा। आग की लपकती हुई जीभ-सी बाहर निकली। लेकिन निशाना जरा टेढ़ा हो गया, गोली जर्जरित माँ की हड्डी - पसलियों को तोड़ती हुई सीने के आर- पार हो गयी। क्षण के बहुत ही सूक्ष्म भाग तक छटपटाकर शमशेर की बची-खुची, मुट्ठी- भर, जीर्ण-शीर्ण हड्डी और देह की माँ ठण्डी हो गयी।

शमशेर दर्दभरी आवाज में चिल्लाया- "माँ ! माँ !" फिर सँभलकर कहा - " कम्बख्त, ये तूने क्या किया ?"

सर सेवेज को अफसोस करने की फुरसत नहीं थी। शमशेर को बचा देख वह दूसरा फायर करने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन तो भी जरा ठिठक रहे थे। कर्नल हतबुद्धि खड़े थे और सुन्न से शमशेर को देख रहे थे ।

शमशेर और भी सँभला। कहा, “जाओ, साहब जाओ ! मेरी माँ मुझे अब न मिलेगी, तो भी आप जाओ।"

सेवेज –‘"गेट रेडी आई फायर ।" (तैयार हो, मारता हूँ गोली ।)

शमशेर –“साहब, मुझे व्यर्थ हत्या मत दो। देखो, चले जाओ।" सेवेज–“टॉक अवे, डॉग । आई ब्लो दाऊ अप इन ए सेकण्ड ।" (बक ले, एक सेकण्ड में मैं तुझे उड़ा दूँगा ।)

शमशेर - "देखो, यह तीसरा वार है । अब भी वक्त है चले जाओ।"

सेवेज – " ओ, इट् गेट्स लेट लेट मी फिनिश । " ( देर हो रही है। लाओ खत्म कर दूँ।)

शमशेर ने माँ के ताजे लहू में हाथ रँगे और सिंह की तरह पलक मारते सेवेज पर झपट पड़ा। घोड़ा दबे-न-दबे उससे पहले अफसर का हाथ शमशेर के कब्जे में था।

"यू कर्नल, व्हाट दि डेविल आर यू स्टेयरिंग ऐट ?" (कर्नल, क्या ताक रहा है ?)

मिनट भर में अफसर को नीचे पटककर उसका रिवाल्वर शमशेर ने अपने हाथ में ले लिया। फिर उसकी ओर तानकर कहा-

“साहब, तुम मरना चाहते थे, लो मरो । लेकिन जिंदगी में मेरी यह पहली हत्या है।"

कर्नल ने अब जैसे जागकर कहा, "शमशेर, खबरदार !"

शमशेर अफसर को नीचे दबाए रहा। कर्नल की ओर देखकर कहा - "क्या है, कर्नल ?"

'शमशेर, हत्या न कर सकोगे।"

"कर्नल, यह हत्यारा है। मेरी माँ को इसने मारा है।"

"ठीक है। तुम्हारी माँ नहीं आएगी। इसको मारने से भी नहीं आएगी।"

"कर्नल, इसने मेरी माँ को मारा है। मेरी माँ को ! क्या तुम यह समझोगे ?"

'शमशेर ! तुम मर्द हो न! आँसू पोंछो, छोड़ो, खड़े हो, हत्या मत लो !"

"कर्नल, तुम मुझे गुस्सा क्यों दिला रहे हो ?"

“छिः ! शमशेर !”

'चुप कर्नल, चुप! मैं इसे मारूँगा, जीता न छोडूंगा।”

" शमशेर, एक बात सुनो। इसकी एक माँ है। वह घर पर बैठी होगी। सोचती होगी मेरा बेटा अब आएगा, अब आएगा, । तुम इसे मार दोगे तो, शमशेर, उस माँ का क्या होगा ?"

शमशेर कुछ रुका। फिर क्या हुआ कि चिल्ला पड़ा। 'ओह, कर्नल !' और रिवाल्वर फेंक, अफसर छोड़, उसने दोनों हाथों से अपना मुँह ढक लिया और फूट- फूटकर रोने लगा। फिर माँ के वक्ष स्थल से निकलते हुए लाल-लाल लहू में लोट- लोटकर उसने कहा- "अरी माँ, सुन, मैं कभी किसी को न मारूँगा।"

सेवेज साहब उठ गये। कपड़े झाड़-पोंछ लिए । अब उन्हें सीधे घर पहुँचने की जरूरत सूझती थी। उनकी माँ से उन्हें और कुछ लाभ हुआ या न हुआ, पर यह लाभ बहुत ही जबरदस्त हुआ। उन्होंने सोचा- "माँ को चलकर एक हिन्दुस्तानी के पागलपन की बात सुनाएँगे। लेकिन कर्नल ने उन्हें रोक लिया। कहा - " शमशेर को अब गिरफ्तार करना होगा। उसका वक्त अब आ गया है।"

शमशेर जब जरा शांत-चित्त हुआ तो कर्नल ने पास पहुँचकर कहा, “चलो, शमशेर, अब हमारे साथ चलो। अब तुम्हारी गिरफ्तारी का वक्त आ गया।”

"साहब, मुझे माँ का क्रिया-कर्म करना होगा। "

कर्नल - " शमशेर, दुनिया का मोह अब न करो। चलो, नहीं तो देर होगी।"

शमशेर - " साहब... बिरादरी ! और... आप... "

कर्नल - "हम ईसाई हैं, तुम हिंदू हो, यही न ? छि:, इसका भी लोभ तुम्हें बना है ! जिंदगी का मोह छोड़ा, बिरादरी का अभी बना ही है ! "

शमशेर - "साहब ! यह न होगा।"

कर्नल - " न होगा ? मैं तुम्हें मर्द समझता था, क्या यह समझना गलत होगा ? नहीं, मैं तुम्हें कमजोर नहीं बनने दूँगा ।... सिपाही !... तीन आदमी इधर आओ। इन्हें गिरफ्तार करो। "

शमशेर ने माँ के पैर से माथा रगड़कर हथकड़ियों के लिए हाथ आगे कर दिये। दोनों हाथ हथकड़ियों से जुड़ गये। पाँच आदमियों ने चारों तरफ होकर उसकी जंजीर सँभाली, और जब कैदी बाहर निकला तो एक जुलूस का जुलूस उसके साथ था । दस सिपाही आगे, दस पीछे, पाँच साथ। सेवेज सबसे आगे, और कर्नल सबसे पीछे।

कैदी रो नहीं रहा है। कर्नल भी रो नहीं रहे हैं।

सेवेज गर्व से भरे हैं - अपनी विजय कैसे कहूँगा, कैसे छुपाऊँगा । शमशेर को पकड़ना और किसी के लिए क्या सम्भव है ?

6

सवेरा हो आया है। सूरज उतना ही लाल और उतना ही गरम है। हवा भी वैसी ही तेज और वैसी ठण्डी है। लेकिन मालूम होता है, ओस आज रात रोज से ज्यादा रोई है, धरती मालूम से ज्यादा भीगी । दरख्त भी जैसे अभी-अभी आँसू बहा चुके हैं।

जुलूस चल रहा है।

नदी का पुल आया है। पानी का यहाँ सुभीता रहेगा । मंजिल सख्त हो चुकी है। यहाँ थोड़ा विश्राम कर लें ।

सेवेज खुशी में फूल रहे हैं और अपनी डींग की बातें सोचने में मस्त हैं। कर्नल साहब हठात कैदी की परवाह नहीं करना चाहते। कैदी अपने पाँचों रक्षकों की रक्षा में सुरक्षित है।

उसे प्यास लगी है, क्या पानी पीना चाहता है ? रक्षकों की परीक्षा का अवसर आया है। लेकिन वे अपने अधिकार को तत्परता के साथ निबाह रहे हैं । वह जानते हैं - शमशेर को बन्दी रखना कोई छोटा अधिकार नहीं है। जंजीरें उन्होंने कस के पकड़ ली हैं, हथकड़ियों को एक निगाह देख लिया है, और नपे-नपे कदम से सत्तरह आदमियों की अत्यन्त बारीक, तत्पर और एकाग्र दृष्टि की कैद में कैदी किनारे तक ले जाया जा रहा है।

किनारे पर पानी पीने को कैदी झुका, लेकिन, क्या हुआ !

मुट्ठी वैसे ही सख्त बँधी है, जंजीरों पर जरा भी खिंचाव नहीं पड़ा है, बीसों आँखें वहीं-की-वहीं जमीं हैं, लेकिन देखते-देखते मानो जादू के बल से हथकड़ियाँ अलग जा पड़ी हैं, और कैदी झपटकर पानी में अदृश्य हो गया है !

कैदी फरार हो गया ! कैदी फरार हो गया !

'कैदी फरार हो गया' का शोर चारों दिशाओं में गूँज उठा । लो दौड़ो, यह करो, वह करो - कैदी फरार हो गया। मानों आकाश और धरती दोनों एक स्वर से यही गूँजने लगे। लेकिन किसी को सबरे - ही सबेरे उस ठण्डे पानी में उतरने की न सूझी। इतने में कैदी न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया। जब लोग पानी में कूदकर जैसे-हो-वैसे कैदी को पकड़ लाने को तैयार हुए, तब उन्हें यह समझने में देर न लगी कि अब उसका कुछ परिणाम न होगा और व्यर्थ साहस करने की आवश्यकता नहीं है ।

जितनी देर में यह शोर उठा और खत्म हुआ, उतनी देर में सेवेज साहब के बड़े ऊँचे-ऊँचे हवाई किले गिरकर तहस-नहस हो गये। और उनकी बेबूझ खुशियाँ गुस्से में बदल गईं और वह गुस्सा उतरा कर्नल साहब पर ।

"कर्नल, तुमने कैदी को क्यों भाग जाने दिया ?"

"मैंने! नहीं, कभी नहीं।"

" फिर वह कैसे भागा ?"

"मालूम होता है, जरूर किसी शैतान की मदद से।"

" शैतान ! वह शैतान का साथी है ?"

" और नहीं तो क्या ?"

"कर्नल, वह बड़ा खूँखार आदमी है। "

"साहब, वह कहता था- मैं जरूर तुम्हारे अफसर को मारूँगा।"

“हाँ!”

“हाँ... सर... आपने उसकी माँ को मारा, ठीक न किया। वह जरूर कुछ-न- कुछ आफत ढाएगा।"

"अह! हम डरता थोड़े ही है - लेकिन यह जंगल ठीक नहीं है, हमको जल्दी अपनी जगह पहुँचना चाहिए।"

विश्राम उखड़ गया और तेज रफ्तार से अफसर बँगले पर पहुँच गये।

7

कर्नल ग्रेटहार्ट की बदली हो गयी। उन्हें बर्मा के किसी जिले में भेज दिया गया। उनकी जगह दूसरे अफसर आये हैं । वह अपने हस्ताक्षर A Fairish (ए. फेरिश) करते हैं, लेकिन उनका नाम यह नहीं है। वह अँग्रेज से ज्यादा अँग्रेज हैं। उनसे बढ़कर ठाठ से रहते हैं, उनसे गोल अंग्रेजी बोलते हैं। उनसे बिगाड़कर उर्दू बोलते हैं, और उनसे ज्यादा बार खाना खाते हैं। सिर्फ जरा कम गोरे हैं, सिर्फ इससे कोई उन्हें हिन्दुस्तानी समझे - यह वह पसन्द नहीं करते ।

नये अफसर बहादुर हैं या नहीं हैं, वह होशियार अवश्य हैं। उनकी अफसरी ही उस बात की है। उन्होंने अपनी जिन्दगी में एक वार नहीं खाया है और केवल एक बार गोली चलायी है, और वह तब जब खतरा न था। फिर भी बहुत-से दुर्दात डाकुओं के पकड़ने का श्रेय उन्हें मिला है। उनकी इस प्रसिद्धि के कारण ही जिले में उन्हें भेजा गया है।

जब से अफसर आये हैं तब से बंगले से बाहर नहीं निकले। बंगले पर सख्त पहरा रहता है और जब वह टहलने को बाहर निकलते हैं, तब पहरा भी साथ घूमता रहता है। परन्तु अफसर साहब सरगर्मी से तदबीर सोचने में लगे हुए हैं। पहले दिन ही वह इस तरह चुस्त हैं। उन्हें यकीन है अगर वे शमशेर से बचे रहे, तो शमशेर उनसे न बच सकेगा।

रात के ग्यारह बजे एक व्यक्ति उनसे मिलने आया है। अपने खास कमरे में वह उससे बातें कर रहे हैं ।

"कहो, क्या हुआ ?"

"जी मुझसे न हो सकेगा।"

"न हो सकेगा ! क्यों ?"

"साहब, वह मेरा दोस्त है।"

" दोस्त है, इसलिए तो काम तुम्हारे लिए और आसान है।"

"साहब, लोग मुझे जीता न छोड़ेगा।"

"किसी को कानों-कान खबर न होने पाएगी।"

"साहब, रुपये किस काम आएंगे, जब अपने स्त्री-पुरुष ही अपने न रहे। "

'क्या लोग उसे इतना पसन्द करते हैं।"

'साहब, गाँव में कौन ऐसा है जिसका उसने कुछ-न-कुछ भला न किया हो। "

" तो कहो, तुम नहीं कर सकते । "

"नहीं कर सकता।"

"देखो, दस हजार थोड़े नहीं हैं। जमीन दिलवा दूँगा । "

"जी नहीं।"

“नहीं! अब के 'नहीं' कहा तो जेल में डलवा दूँगा।"

व्यक्ति अविचलित... चुप ।

"खैर, मैं दस मिनट की और मुहलत देता हूँ । सोच लो । "

अफसर चले जाते हैं। और व्यक्ति सोचता है- क्या वे आँखें आज न दीख पड़ेंगी? जब-जब मैं आया तब-तब वह मेरे रास्ते किसी-न-किसी तरह आ गयीं। क्या आज अप्रकट ही रहेंगी ?

थोड़ी देर में धीरे से दरवाजा खोल जुलैका अन्दर आयी ।

"मैं तुमसे बातें करना चाहती थी । "

व्यक्ति मूढ़ हो रहा ।

'तुम शमशेर को जानते हो ?"

"जानता हूँ।”

'वह कैसा है ?"

जुलैका ने जल्दी छुट्टी न दी। एक-एक बात उसने पूछी, और प्रत्येक जानकारी पर उसकी बेचैनी बढ़ती गयी । अन्त में उसने पूछा-

"उसकी घरवाली है ?"

"उसकी घरवाली नहीं है।"

"उसने शादी नहीं की ?"

"नहीं।"

"वह ऐसा है ?"

"वह औरत से डरता है । "

बगैर रुके जुलैका ने पूछा, "तुम उसके दोस्त हो ?"

"मैं उसे जानता हूँ।"

"तुम मेरी दोस्ती पसन्द करोगे ?"

व्यक्ति का रोम-रोम चाह से और लाज से सुन्न हो रहा ।

जुलैका ने एकदम उसका हाथ पकड़कर कहा - " तुम मेरी दोस्ती नहीं चाहते ?"

व्यक्ति चुप ।

" मेरी एक बात मानोगे ?"

"...?"

" मानोगे ?"

व्यक्ति ने अपने अंत:करण की लालायित स्वीकृति आँखों में भरकर जरा-जरा पलक उठाकर देखा—यौवन के वसंत में कुन्द की यह कली कैसी विवशता से खिल रही है।

" मानोगे ?...देखो शमशेर को ला दो। मैं देखूँगी वह कैसा है। कैसे वह फाँसी पर चढ़ता है।?"

अफसर ने आकर पूछा - " कहो हवालात जाओगे, या.... "जी, काम मुश्किल है, देखूँगा। लेकिन पन्द्रह हजार दिलवाइए।"

"अच्छा।"

8

अफसर का बड़ा अस्त्र और बड़ी लड़की जुलैका है। साहब ने नाम को संस्कृत करके जुली रेबेका बना दिया है।

यह लड़की दिल की जगह आग लेकर आयी है। इसने बहुतों को खींचा है। जो इसके सम्बन्ध में अपने सौभाग्य के परीक्षार्थी हुए हैं, इसने उन्हें जलाकर खाक कर छोड़ा है। लेकिन स्त्री है। चाहती है – कोई इस आग को पानी कर दे। चाहती है - जलने का अन्त हो । तरल बनकर उसके बहने का समय आए। वह जल रही है और ठण्डक की प्यासी है। पानी नहीं चाहती, बुझना चाहती है। कोई हो जो बर्फ के स्तूप की तरह उज्ज्वल हो, कठोर हो, ठण्डा हो; उसके जी के भीतर की जलती आग की लपटें जिसके चरणों को छूकर शीतल हो... आँसू बन चू जाएँ और वह वैसा ही स्फटिक शिला-सा खड़ा रहे। जिसके पास से मिले कुछ नहीं, प्यास ठण्डी भर हो जाए। इसलिए अपनी आग का सब पर प्रयोग करने को तैयार हो जाती है। इसीलिए अनायास वह साहब के हाथों बड़ा प्रबल अस्त्र साबित होती है।

दर्जे-पर-दर्जे पास करती हुई वह अब बी. ए. में पहुँच गयी है। वह इस तरह कहाँ तक बढ़ेगी, कहाँ तक पहुँचेगी, इसका कुछ ठिकाना नहीं है। कोई उसे नहीं जानता। अपनी मालिक वह खुद है। हाय, कोई उसे मालिक नहीं मिलता ।

पिता पर शासन करती है, उपन्यासों का अध्ययन करती है, और अपनी परीक्षाएँ करती है। इसके अतिरिक्त वह और कुछ नहीं करती।

9

माँ का क्रिया-कर्म करने के बाद से शमशेर अदृश्य है, अगम्य है, शान्त है। दुर्गम्य, वह जंगल में रहता है, और चुप रहता है। लेकिन आज वह - मैला, रूखा, किन्तु सुन्दर - गाँव में आया है। यहाँ उसका मित्र सजन सिंह रहता है। सजन सिंह अपनी शिक्षा के लिए काफी सम्माननीय व्यक्ति है । शमशेर का वह विश्वासभाजन रहा है, विश्वास का पात्र भी रहा है।

मकान के अन्दर ।

दोनों आमने-सामने दो खाटों पर बैठे हैं। शमशेर ने कहा- "सजन भैया, मेरी माँ मर गयी! तुम जानते हो, मेरे लिए वह कौन थी ! "

" शमशेर, अब किया क्या जा सकता है! भगवान की मर्जी! इतने खिन्न मत हो !”

"मैं बहुतेरा जी लिया। अब किसके लिए जीऊँ !”

" तुम्हारी बड़ी आयु है, शमशेर ।"

"आयु का मैं क्या करूँ, जब पुण्य ही नष्ट हो गया। इसके बाद जीने की इच्छा करना बड़ी विडम्बना है । माँ मेरी पुण्य - प्रतिमा थी, वह चली गयी! जो स्नेही हैं, उन्हें कब तक कष्ट दूँ? पुण्य क्षीण हो जाने पर उनकी मित्रता भी मुझे कब तक प्राप्त होगी ? सजन भैया, जीवन के पुण्य को खोकर, रसहीन, मित्रताहीन, उद्देश्यहीन और जीवनहीन दिन बिताने से क्या लाभ? और सजन भैया, सरकार को मेरी जरूरत है, शायद नरक में भी मेरी जरूरत है। और सजन तुम जानते हो, सरकार आदमियों के भले-बुरे की जिम्मेदार है। सजन बहस न करो, मुझे एक बात कहने दो।"

" शमशेर, यह तुम क्या बक रहे हो ?"

"मैंने क्या कभी बका है! यह तो मेरे बिलकुल मन की बात है।"

" लेकिन क्यों ? तुम भित्रहीन तो नहीं हो। "

"सजन भाई, शायद मित्रों को मेरी जरूरत नहीं। मेरी मित्रता उनके लिए भार है।"

सजन भैया जरा ठिठक गये।

"सजन, जानते हो, मेरे पास कुछ नहीं है। एक कच्चा मकान है। उसमें भी कोई दीन बेचारा आकर बस गया है। बस एक चीज है। वह मैं तुम्हें देना चाहता और मेरा है कौन ?"

'आज तुम दुःखी क्यों हो शमशेर ?"

"मेरे पास दस हजार रुपये हैं । तुम्हारे सिवाय मैं किसी को न दूँगा । "

"...........?"

"देखो इनकार न करो। स्वीकार करो, और मुझे दुनिया से विदा लेने दो।" सजन भैया टपाटप आँसू गिराने लगे। उन्होंने बहुत जोर लगाकर कहा— " जानते हो शमशेर, मैं तुम्हारी पन्द्रह हजार कीमत लगा चुका हूँ ।"

"यह तो और भी अच्छा है। मेरे मित्र को पाँच हजार और मिलेंगे ।"

सजन सिंह की रुलाई खुलकर फूट निकली।

शमशेर ने कहा, "भाई, दुःखी मत हो । तुम धोखे से घृणा करते हो, मैं भी करता हूँ। लेकिन यह धोखा नहीं है। अगर फिर चित्त शान्त न हो तो इन रुपयों को दीनों के काम में लाना । वह रुपया है भी तो दरअसल उन्हीं का - उन्हीं के लिए। "

मित्र ने रोते-रोते कहा - " तुम आये थे तब मैं सोच रहा था - तुम्हें कैसे पकड़ाऊँ ? तब मुझ पर गाज क्यों नहीं गिरी।"

शमशेर ने कहा, "उस बात को इस भयानक रूप में मत देखो। जैसे मैं देखता हूँ, उसी रूप में देखो। मुझे मरना है। आज नहीं तो कल मरना तो होगा। सरकार न ढूँढ़ पाए, यह असम्भव । उसकी बड़ी-बड़ी बातें हैं, बड़े-बड़े भेदिये हैं। पर यह सम्भव न भी हो, तो भी मरना तो होगा ही । हाँ, वैसे मरने से थोड़ा-बहुत उपकार अब भी मेरे हाथ में है, वह मैं न कर सकूँगा ? अगर पकड़ा गया, तो यह मेरा रुपया- मेरे सिर का रुपया न मिलेगा। और शायद वह मित्र उसका ठीक उपयोग कर सके !"

सजन ने अत्यन्त त्रस्त होकर कहा - "हाय शमशेर..." और वह अधिक कुछ न कह सका।

शमशेर ने कहा, “दुःख मत मानो। मैंने बहुत सोचा है। और राह नहीं है। पाप की चेतना दूर करो। मत समझो, मित्रघात कर रहे हो । समझो मित्र की इच्छा पूरी कर रहे हो। वह इच्छा पूरी कर रहे हो जिसके बाद इच्छा अशेष हो जाएगी। सोचते हो, मैं क्यों मौत चाहता हूँ ! मौत ऐसी तुच्छ वस्तु है कि उसका चाहना लज्जास्पद है। चाहने को मेरे पास उससे बड़ी वस्तु है ! जीवन है, और मोक्ष है। मौत मोक्ष नहीं है, और मैं मौत नहीं माँगता । पर, मौत मोक्ष में रुकावट भी क्यों है ? इससे, मौत को टालना भी मैं नहीं माँगता । देखता हूँ, उसका समय आया है। इस बारे में मेरे जी में भूल नहीं है। मेरी मौत से दुनिया की अर्थ-सिद्धि है। मेरी भी परमार्थ - सिद्धि है। विश्व की अर्थ-सिद्धि करने व्यक्ति की मौत आती है। परमात्मा उसे भेजता है । व्यक्ति क्यों न उसे धन्यवाद के साथ ले और आगे बढ़े ? और क्यों उस व्यक्ति का मित्र भी उसमें सहयोग न दे ? यही करके तुम्हारे भीतर की पाप की ग्लानि अपनी आग से जलकर नष्ट होगी। और उपाय नहीं है। और मैं क्या मोहन हुआ जो एक क्षण के लिए भी मैंने अपनी मौत टालने की इच्छा या चिन्ता की ? और तुम क्या मित्र जो अन्त समय मित्र के काम न आये ?"

सजन अतिशय कातर हो उठा। कहा - " तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ शमशेर, मेरी रक्षा करो। मुझसे और कुछ मत कहो । मेरा परलोक मत बिगाड़ो ! मुझे सँभलने दो!"

शमशेर ने सजन के दोनों जुड़े हाथों को अपने हाथों में थाम लिया। उसकी डबडबाई आँखों में भरपूर देखते हुए कहा - "नहीं-नहीं, सजन, मैं देखता हूँ, क्या होगा। वही होगा जो कहता हूँ । यही सँभलने का मार्ग है। हिम्मत करो। मर्द की तरह सँभलो, मित्र की तरह काम करो। चलो उठो ।"

शमशेर अपने मित्र सजन को पुलिस के पास खबर देने के लिए भिजवाकर ही माना। इधर से शमशेर ने उसे धकेला, उधर से जुलैका की आँखों ने उसे खींचा।

वह बेचारा विवश चला गया।

10

अफसर साहब ने गुस्से में कहा, "यह फिर चुप ?" सजन सिंह रो रहा है और चुप है ।

"अरे कुछ कहता भी है ?"

भरी हुई आँखें, विवशता और मूक मौन !

" अच्छा, दिल कब्जे में कर ले !"

अफसर का प्रस्थान। कुछ ठहरकर जुलैका का आगमन ।

"सजन, मैं कितने दिन तुम्हारा इन्तजार करती रही !”

सजन चुप । क्षण बाद एकाएक जैसे चीखकर उसने कहा - "वह इस वक्त मेरे मकान पर है। " मानों डंक पकड़कर झटके के साथ भीतर से खींच निकालकर वह वाक्य जो बाहर हुआ है, जो जिगर को चीरता हुआ आया है।"

जुलैका इस अप्रत्याशित जोर पर सहमकर क्षण- इक स्तब्ध रह गयी। फिर कहा, "सजन, कैसे अच्छे हो तुम! आओ, मेरे कमरे में चलो। "

सजन स्तम्भित मंत्र-मुग्ध उठ गया।

स्वर्ग के कमरे में।

"बैठो।" कुर्सी पर वह बैठ गया । सामने कोच पर अस्त-व्यस्त निःसंकोच वह बैठ गयी।

"क्या कहते थे ? उसी शमशेर की बात कहो। "

बेचारे सजन से एक-एक बात कहलवा ली गयी । सुनने पर जुलैका बोली, "तुम्हारा शमशेर बड़ा मूर्ख है !"

सजन व्यथा से, प्यास से और लाज से बेसुध हो रहा ।

अचानक अफसर का आगमन ।

" कम्बख्त! कुत्ता ! हरामी !"

उसने आँख उठाकर देखा, जुलैका काफूर ! तड़ से एक बेंत उसकी कनपटी को उधेड़ गया।

11

उसी खाट पर, वही शमशेर ।

सामने आरक्त अचंचल सौदामिनी-सी पूरी तनकर खड़ी हुई जुलैका । 'शमशेर, तुम गिरफ्तार हो ! "

“हाँ?"

" पुलिस आ रही है।"

" आती होगी।"

"तुम्हें फाँसी लगेगी।"

"जानता हूँ।"

"बचना चाहते हो ?"

"कैसे?"

"मैं बचा सकती हूँ।"

" सो तो जानता हूँ । पर क्यों बचा सकती हो?"

"फाँसी से मुझे दहशत होती है। फाँसी बुरी चीज है । "

"जुलैका, मैं किसलिए, किस के लिए बचूँ ?"

" मेरा नाम !... तुम कौन हो ? कैसे लेते हो ?... कैसे जानते हो जी ?"

"अफसर की लड़की को न जानूँगा ? तुम्हें बहुत दिनों से जानता हूँ। अब तक नाम लेता रहा हूँ, क्या अब न लूँ?"

" शमशेर, तुम ढीठ हो ।"

" हो सकता है। पर तुम्हें जब छोटी देखा था, जुलैका कहा था। तब की लगी बान क्या सहज छूटती है ? तो भी क्या चाहती हो तुम्हें कहूँ ?"

"कुछ हो, तुम नाम न ले सकोगे।... तो तुम बचना नहीं चाहते ? "

"किस के लिए ?"

"तुम्हारा कोई नहीं ?"

" सब कोई सब-कुछ अब मौत है । "

जुलैका - "नहीं शमशेर, मैं जुलैका हूँ। मैं मौत नहीं हूँ। मैं तुम्हें बचा सकती हूँ... और मैं मौत भी हूँ ।"

शमशेर—“बचाने की ताकत मुझ पर न खर्चे । मैं क्या लेकर बचूँ ? बचूँ इसलिए कि किसी और को लेकर मरूँ ? नहीं जुलैका ।"

"जुलैका! "अच्छा, तुम जुलैका कहो। मैं नाराज नहीं हूँ। तुम कहो, मैं नाराज न हूँगी। तुम सब कुछ कह सकते हो। शमशेर, तुम यह भी क्यों नहीं कह सकते कि मैं तुम्हें बचाऊँ ? मुझ पर कोई नहीं है, और तुम बच जाओगे। तुम क्यों मौत चाहते हो ?"

शमशेर - " मैं वह तक भी नहीं चाहता।"

जुलैका - "नहीं, शमशेर, कुछ चाहो, किसी को चाहो । कुछ करो, पर चाहो । चाह जिंदगी है। "

शमशेर - " इसलिए मेरे लिए मौत है।"

जुलैका - "मौत की बात मत करो। शमशेर तुम जानते हो, मैं नहीं जानती। पर मैं कहती हूँ, तुम जिओ और जीतो । अगर कोई नहीं है जिसके लिए जिओ और जीतो, तो मैं..."

शमशेर—“ ठहरो जुलैका । मैं फाँसी के लिए जी रहा हूँ। क्या फाँसी के लिए हार जाऊँ ?"

जुलैका - "ओह, नहीं, तुम बड़े खराब हो। तुम्हें मालूम नहीं मैं जुलैका हूँ ... पर... तुम्हें मालूम है।... तुम किसी और के लिए कुछ नहीं कर सकते ? कहो, देखो - किसी भी और के लिए।"

शमशेर - "किसी के लिए ?"

जुलैका - "कोई और किसी के लिए।" शमशेर – "नहीं। ”

जुलैका - " तो तुम मरोगे । "

शमशेर –“ तैयार हूँ।”

जुलैका के जाने के आध घण्टे बाद बन्दूक और किरचों से सजे बहुत से सिपाहियों ने आकर शमशेर को पकड़ लिया। पीछे फेरिश साहब आये और अकड़ के साथ कैदी को गिरफ्तार करके चल दिये । कोई देखता - उनकी पर-कटी तितली- सी मूँछों का एक-एक बाल खड़ा हो गया था।

12

अवसर पाते ही जुलैका ने पूछा, “पापा, शमशेर गिरफ्तार हो गया क्या ?"

" और नहीं तो क्या बचता ?"

"पापा, कब से आप उसे जानते हैं ?"

"कोई दस बरस से ।"

"कैसे पापा ?"

"उँह!"

" तो नहीं बताओगे ?"

'जूली, तू बड़ी जिद्दी है । "

"मैं जानूँगी।"

"कुछ बात भी हो !"

"सुनानी होगी पापा।"

"एक रोज मैं डाकुओं के चंगुल में पड़ गया। तुम भी साथ थी। तब मैं थानेदार था, डाकुओं के लिए कीमती चीज था । कम्बख्त मुझे मार डालते । इतने में शमशेर उधर से निकला। वह उनका सरदार था। उसके हुक्म से उन्होंने हमें छोड़ दिया। जब तक मैं चलने लायक हुआ तब तक हम दोनों उसी के मेहमान रहे। आखिर 'इनसाफ का फर्ज', 'सरकार का हक' और न जाने किस-किस बात पर कितनी - कितनी सलाह देकर उसने मुझे रुखसत कर दिया। तभी से मैंने तय कर लिया, इसे पकडूंगा तो मेरा बड़ा नाम होगा। कम्बख्त भलेमानसों की-सी बात करता है । "

13

जेलखाने के अफसरों में भी और कैदियों में भी बड़ी चहल-पहल है। जेलखाने के बाहरी अहाते में बिलकुल एक तरफ एक पक्का चबूतरा है। ऊपर का हिस्सा लकड़ी का है। उसके दोनों तरफ चबूतरे से सात फीट ऊँचे लोहे के दो शहतीर हैं। उनके सिरे पर एक और शहतीर चपटा पड़ा हुआ है । बीचों-बीच एक घिरीं लगी हुई है।

यह फाँसी है !

आज इस लोहे की फाँसी को साफ किया जा रहा है। कैदी हँस-हँसकर उसे माँज रहे हैं। कैदी से अधिक उसे कौन जानेगा? कैदी मेहनत से उसे साफ कर रहे हैं। आज उसका उपयोग होगा, आज उसे साँप की तरह चमकना चाहिए।

थोड़ा-सा इसका नवीन इतिहास है। उस दिन राष्ट्र की धारा सभा में, फाँसी का कौन-सा कैसा यंत्र उपयुक्त होगा- इसकी बहस चली थी। जो विधान न जानने वाले यह कहने को खड़े हुए थे कि फाँसी का लोप हो जाना चाहिए, उन्हें 'प्वाइण्ट आव ऑर्डर' के नाम पर बैठा दिया गया था, यानी उनकी बात असंगत थी। फाँसी पर उनकी राय नहीं पूछी जा रही थी, वह तो जैसे पहले से ही निर्णीत विषय है । फाँसी है, और रहेगी। प्रश्न उसके प्रकार का था । इस पर वहाँ बहुत ही भावपूर्ण, खोजपूर्ण और ज्ञानपूर्ण भाषण हुए थे। जान लेने में किसमें कम, किसमें ज्यादा देर लगती है; प्राण निकालने में कितनी देर लगाना दया के विरुद्ध नहीं है; फाँसी की पुरानी रीति क्या है, और नई क्या-क्या हैं; दोनों एक-दूसरे से क्यों अच्छी-बुरी हैं; फाँसी की रीति में किस प्रकार विकास हुआ है; और फिर यह कि कौन कम खर्चीली है और कौन ज्यादा? क्योंकि सभ्य सरकारों में सबसे पहले और सबसे पीछे कोष की चिन्ता रहती है, आदि-आदि असंख्य दृष्टि-बिन्दुओं से इस प्रश्न पर वहाँ विवेचन हुआ था ।

उस विवेचन के परिणाम स्वरूप जो फाँसी का सबसे उपयुक्त, लोमहर्षी, मनहूस और भीषण रूप खड़ा है, आज उसी को घिस - घिसकर साफ किया जा रहा है।

हम कुछ नहीं कह सकते। देश के योग्यतम पुरुषों के प्रतिनिधियों के बहुमत के इस अनिन्द्य सुन्दर परिणाम को देखकर हमें डर लगता है !

तो भी एक बात कहना चाहते हैं। वह यह कि फाँसी पाये हुए लोगों का भी एक प्रतिनिधि धारा सभा में रहना चाहिए। वह जिसने यंत्रकार के अनुभव और आईनकार के तर्क से नहीं, वरन फाँसी पर लटककर जान लिया हो कि फाँसी किसे कहते हैं ।

14

जेल सुपरिटेन्डेण्ट, जेलर, जल्लाद और कुछ ऊँचे अँग्रेज और हिन्दुस्तानी अधिकारी फाँसी के निरीक्षण के लिए आये हैं ।

जल्लाद चढ़कर रस्सी का फँदा घिरीं में अटका देता है। रस्सी बिल्कुल नयी है। हर दफा नयी रस्सी काम में लायी जाती है। फन्दे में एक भारी बोरा लटकाया गया है।

यंत्र घूमा ! चबूतरे के फर्श के लकड़ी के तख्ते नीचे झूल गए। बोरा नीचे काले अँधेरे कुएँ में लटक गया।

सबने एक स्वर में कहा - "ठीक है !"

शमशेर के हाथ पीछे बँधे हैं। संगीनों के पहरे में वह लाया जा रहा है।

निरीक्षकों की संख्या में अब कुछ वृद्धि हो गयी है। अँग्रेज और बहुत से आ गये हैं। अँग्रेज और हिन्दुस्तानी पुरुषों की संख्या के बराबर अँग्रेज महिलाओं की संख्या है। इसमें एक हिन्दुस्तानी भी है - जुली रिबेका या जुलैका ।

दर्शकों में एक हमारे परिचित और हैं। वह कर्नल ग्रेटहार्ट । अन्तिम समय में वह आ मौजूद हुए हैं। बर्मा से वह शमशेर की हालत की बराबर खबर लेते रहते थे। उनके हाथ में कैमरा है।

शमशेर बिना मदद के चढ़ जाता है । न हँसता है, न रोता है। जैसे जो कुछ हो रहा है उस सबसे सम्बन्ध ही नहीं है, उसके दिल में जैसे कोई लड़ाई ही नहीं हो रही है।

मेमें देखती हैं और आपस में मजाक करती जाती हैं। अँग्रेज भी जैसे मजा ले रहे हैं !

जुली ने जो एक बार शमशेर को देखा है कि फिर नहीं देखा । वह कर्नल के पास आकर उससे बातें करने में लग गयी है। केवल एक व्यक्ति है, जो बँधी निर्निमेष आँखों से शमशेर को देख रहा है।

सुपरिनटेन्डेण्ट ने पूछा, “तैयार हो शमशेर ?”

" जी हाँ। "

" आखिरी वक्त है। क्या कुछ चाहते हो ?"

" थोड़ा-सा पानी चाहिए ?"

" और कुछ नहीं ?"

"नहीं।"

झपटकर जुली चबूतरे के तख्त पर पहुँच गयी, और चिल्लायी - "और कुछ नहीं, शमशेर ? और कुछ नहीं ?"

" और क्या... जुलैका ?"

" और कुछ नहीं ? मरते वक्त और कुछ नहीं ?"

'नहीं।"

'थोड़ा सा प्यार!"

"जुलैका! क्या कहती हो !"

" बिल्कुल जरा... ज़रा-सा प्यार"

"छि:!"

"अच्छा, आखिरी सवाल। उसका जवाब दे दो। तुमने ब्याह क्यों नहीं किया ?"

"जुलैका, औपन्यासिक न बनो। इसमें कुछ नहीं है । "

जुलैका हार गयी। वह बेहोश हो गयी। उसे हटा दिया गया।

अँग्रेजों ने, मेमों ने और सबने इस घटना में बड़ा मजा लिया। और कर्नल खड़े- खड़े एकटक देखते रहे।

पानी आया। शमशेर ने पी लिया।

जल्लाद ने फन्दा गले में डाला। कर्नल ने अपना कैमरा खोला।

कन्धे तक आने वाला काला खोल शमशेर को उढ़ाने की तैयारी हुई।

उसने कहा, "अगर कुछ हर्ज न हो तो यह रहने दें।"

कैदी का यह अनुनय मानने का अनुग्रह हुआ ।

कर्नल ने एक स्नैपशॉट (फोटो) ले लिया।

शमशेर ने पूछा, "कर्नल, मैं पास हो गया ?"

कर्नल के आँसू, जो न जाने कब के निकलने न पाए थे, चुपचाप कोयों में आकर ढरक पड़े !

शमशेर ने कहा, "कर्नल, ऐं तुम फेल होते हो ?"

कर्नल को बड़ी शर्म आयी और बड़ा रोना भी आया ।

वही यंत्र दबा । लकड़ी के तख्ते झूल गये। शमशेर गड़हे में लटक गया । कहते हैं - लाश उस अँधेरे गड़हे में दो-दो, तीन-तीन घण्टे झूलती रहती है, तब उतरती है।

15

जुलैका बदल गयी है। पिघलकर पानी हो गयी है और वह पानी आँखों की राह निकलते-निकलते कभी खत्म नहीं होता ।

अफसर लोग तत्परता से अफसरी निबाह रहे हैं।

सजन सिंह को धेला नहीं मिला है। सब कुछ फेरिश साहब और उनके दोस्तों की जेबों में पहुँचा है।

कर्नल ने नौकरी छोड़ दी है। हम उनके घर एक बार गये थे। फाँसी चढ़ते हुए शमशेर के फोटो के सामने खड़े होकर वे कह रहे थे - " शमशेर मैंने एक रोज़ तुम्हें मजबूती का उपदेश दिया था। मैंने ! और तुम्हें ! मेरा वह कैसा दम्भ था!”

सुनकर हम ठहर न सके, लौट आये।

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