पहला प्यार (स्पेनिश कहानी) : एमिलिया पार्डो बाजान

Pehla Pyar (Spanish Story in Hindi) : Emilia Pardo Bazan

तब मेरी आयु क्या होगी? ग्यारह, बारह या तेरह, क्योंकि इसी उम्र में मन प्यार में पड़ने लगता है....।

प्यार कब हुआ, इस पचड़े में पड़ने के बजाय यह जानना ज्य़ादा सही होगा कि यह कैसे हुआ। मैं तब चाची के घर पर था। चाची चर्च जाती, मैं उनके बेडरूम में जाकर संदूक और दराजों की तलाशी लेता और उन चीज़ों को खोजता, जिन्हें वह बहुत संभाल कर रखती थीं। उनका संदूक अजायबघर की तरह था, जहां कुछ न कुछ अतुल्य मिल जाता। जैसे संदल की सुगंध, जो उनके सफेद कपड़ों को सुगंधित करती थी। आलपिन खोंसने की साटन की गद्दी फीकी पड़ गई थी। बुने हुए दस्ताने बारीक काग़ज़ में लपेटे गए थे, संतों के चित्र, सीने-पिरोने की चीज़ें, नीले मखमल का जालीदार बटुआ जिस पर बगुले काढे गए थे, कोनों में पड़ी अंबर और चांदी की माला। मैं इन्हें देखता और फिर यथास्थान रख देता। लेकिन एक दिन संदूक के ऊपर वाले हिस्से में जहां एक छोटी सी दराज थी, वहां मुझे सोने जैसी चमकने वाली कोई चीज़ दिखी। मैंने अपना हाथ वहां बढा दिया और सोने के चौखटे में लगा लगभग तीन इंच लंबा हाथी दांत का सूक्ष्म चित्र वहां से निकाल लिया। वह कोई सुंदर सी तसवीर थी, बिलकुल मेरे सपनों की परी सरीख़ी। चित्र वाली लड़की की उम्र लगभग बीस वर्ष होनी चाहिए। उसका चेहरा अंडाकार था, होंठ भरे-भरे और अधखुले से, वह किसी को तिरछी नज़र से देखती प्रतीत हो रही थी, उसके गालों में गड्ढे देख कर लग रहा था मानो कामदेव ने उसे फुर्सत से बनाया था। उसके सिर पर बेहद नफासत से स्कार्फ बंधा था, जिसमें से कसकर बांधा हुआ लटों का गुच्छा....चेहरे को अद्भुत आभा दे रहा था। यह स्कार्फ पुराने ढंग का था, जो उसकी गर्दन के पिछले भाग से उठता था और उसकी युवा गर्दन को सलीके से दर्शाता था, माथे के करीब आता तो गालों में पड़ते डिंपल्स को और ख़ूबसूरत बना देता। मैं चित्र को हाथ में लिए न जाने कितनी कल्पनाओं से भर गया।

मुझे एहसास हुआ कि मेरी नानी-दादी के समय की स्त्रियां शरीर को उतना नहीं ढकती थीं, जितना हमारे समय की स्त्रियां ढकती हैं। हालांकि ऐसा मैं पुराने समय के चित्रों को देख कर ही अंदाज़ा लगा सकता था। कमर के ऊपर वे लगभग पारदर्शी जाली सी पहनती थीं, जिनमें उनकी युवा सुंदरता और उभर कर दिखती थी। गले में पहनी गई मोतियों की माला पूरी शान से उनके वक्ष को सुशोभित करती। चित्र में बडी अदा से उठा हुआ उनका हाथ दिखता था, जिसमें हमेशा कोई प्यारा सा कढ़ा हुआ रुमाल होता था।

आज भी मैं उस प्रभाव को भूल नहीं पाता, जो मुझे उस चित्र को देख कर महसूस हुआ। मैं न जाने कितनी देर सुख के क्षणों में डूबा रहा, कठिनाई से सांस लेता रहा और अपनी आंखों से चित्र की ख़ूबसूरती पीता रहा। न जाने कितनी सुंदरियों के चित्र देख चुका हूं। मगर उस चित्र में क्या था कि सुंदरी की मूक मुस्कुराहट और चंचल छवि ने मुझे उद्वेलित कर दिया था। यह किसी चित्रकार की कोरी कल्पना नहीं थी, रक्त-मांस की जीती-जागती छवि थी। उसकी गहरी रेखाएं शंका में डालती थीं, सफेद सुंदर दंत-पंक्ति दिखाने के लिए होंठ ज़रा से खुले थे....। मैंने तसवीर को पकड़ा, उसे सांसों में भरा और अपने होंठों को उसके पास ले जाने लगा कि....बरामदे में पांव की आवाज़ सुनी। चर्च से लौट कर आती मेरी चाची थीं। मैंने उनकी दमे वाली खांसी और गठिया से पीड़ित पांव घसीटने की आवाज़ सुनी। सूक्ष्म चित्र को वापस दराज में रखने, बंद करने, खिड़की में जाने और निर्दोष और उदास भाव-भंगिमा बनाने के लिए मेरे पास बहुत कम समय था।

चाची ने शोर मचाते हुए प्रवेश किया, क्योंकि चर्च की सर्दी ने उनके ज़ुकाम को बिगाड़ दिया था, जो अब पुराना मर्ज़ बन चुका था। मुझे देख कर उनकी छोटी झुर्रीदार आंखें चमक उठीं। मेरी चोरी पकड़ते हुए वह मुझे थपकी देते हुए सामान्य भाव से पूछने लगीं कि क्या मैं हमेशा उनकी संदूक खंगालता हूं?

फिर धीमे-धीमे मुस्कुरा कर बोलीं, 'अच्छा ज़रा रुको तो, तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ है, जिसे तुम ज़रूर पसंद करोगे। उन्होंने अपनी बास्कट की जेब से काग़ज़ में लिपटे केक और बर्फी के टुकड़े निकाले, जिन्हें देख कर ही मेरा जी मिचला गया।

चाची की बूढ़ी-बीमार छवि को देखने और चिपचिपी मिठाइयां खाने की इच्छा मुझे बिलकुल नहीं थी। वर्षों की दौड़, क्षतिग्रस्त दांत, कमज़ोर निगाहें, मुरझाया चेहरा, मूंछें, भूरी कनपटियों पर खिंच आए भूरे बाल, पीली-लटकती हुई गर्दन....उस सुंदर चित्र के आगे यह छवि कितनी बेजान थी। मैंने मिठाई लेने से इंकार कर दिया। एक क्रोध भरा पौरुष भाव मेरे मन में जगा और मैंने ज़ोर देकर कहा, 'मैं नहीं चाहता, मुझे नहीं चाहिए।

'तुम्हें नहीं चाहिए? क्या अजूबा है! तुम तो बिल्ली से भी अधिक लालची हो।

'पर मैं छोटा बच्चा नहीं हूं, अपने को ऊपर उठाते हुए मैंने कहा और पंजे के बल खड़े होकर कहा, 'मुझे मिठाई की परवाह नहीं'।

मेरी चाची ने मुझे कुछ स्नेह और कुछ क्रोध भरी नज़र से देखा, अंतत: वह हंसीं। उनका भयावह जबड़ा मुझे दिखाई देने लगा। वह इतनी हंसी कि होंठों को छिपाते हुए उनकी ठोडी और नाक मिल गई और झुर्रियों का पहाड़ सा गालों पर दिखाई देने लगा। मुंह के साथ ही सिर व शरीर भी पूरी तरह हिल रहे थे।

मैं शीघ्रता से मां के कमरे में गया, जहां मैंने साबुन और पानी लिया और अपने हाथ-मुंह को मल-मल कर धोया और चित्र वाली लड़की की कल्पना में डूब गया।

उस दिन से यह नियम बन गया...। ज्यों ही चाची बाहर जातीं, मैं कमरे में सरक जाता, संदूक खोलता, सूक्ष्म चित्र निकालता और विचारों में खो जाता। यह सब एक मिनट की गतिविधि होती। मुझे लगता कि उसकी आंखें मेरी आंखों के भीतर झांक रही हैं और सांस चल रही है। मैं उसका चुंबन लेने की कोशिश करता लेकिन डरता कि कहीं मेरी धृष्टता पर वह नाराज़ न हो जाए। फिर मैं उसे अपनी छाती से चिपका लेता, अपने गालों से सटाता। मैं कोमल व्यवहार करता कि कहीं उसे कोई चोट न पहुंचे।

चाची के कमरे में जाकर संदूक खोलने से पहले मैं बाल धोता, कंघी करता, ख़ुद को सुंदर बनाता, मानो कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहा हो। मैं प्राय: बाज़ार में हमउम्र लड़कों से मिलता, जो अपनी पे्रमिकाओं के पत्र, फोटो और फूल मुझे दिखा कर पूछते थे कि क्या मेरी कोई प्रेमिका नहीं है? शर्म से मेरा गला जकड़ जाता और उत्तर में मैं केवल अपनी गूढ़ मुस्कान छोड़ देता। जब वे अन्य लड़कियों की तारीफ के पुल बांधते तो मैं कंधे झटका कर उन्हें तिरस्कार से कहता, 'हुं-हुं।

एक रविवार मैं छोटी चचेरी बहनों से मिलने और उनके साथ खेलने उनके घर गया। वे वास्तव में सुंदर थीं और उनमें से सबसे बड़ी अभी पंद्रह वर्ष की नहीं हुई थी। हम दूरबीन से मनोविनोद कर रहे थे। तभी लड़कियों में से एक ने, जो अभी 12 की भी मुश्किल से हुई थी, चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा और थोड़ा शर्माती हुई अपनी मुट्ठी मेरे हाथ में खोलती बोली, 'इसे ले लो। मैंने हथेली खोली तो देखा कि वह एक गुलाब की कली थी।

छोटी लड़की मुस्कुराकर मेरी ओर टेढी नज़र से देखती भाग गई, लेकिन मैं तुरंत चिल्लाया, 'अरे नहीं-नहीं, इसे तुम ही रखो! उस पूरी दोपहर फिर उसने मुझसे बात नहीं की और आज तक इसके लिए मुझे क्षमा भी नहीं किया। हालांकि अब उसका ब्याह हो चुका है और उसके तीन बच्चे भी हैं।

सुबह-शाम मिला कर जो दो-तीन घंटे मेरी चाची चर्च में बिताती थीं, उसमें उस चित्र को देखने की चाह पूरी नहीं होती थी। आख़िर मैंने उस चित्र को अपनी जेब में रखने का निश्चय किया। पूरे दिन मैं उसे लोगों से छिपाता रहा, मानो कोई अपराध कर दिया हो। मैंने सोचा कि चित्र में मौजूद लड़की मेरी गतिविधियां देखती होगी तो सोचती होगी कि मैं किस हद तक मूर्ख हूं। यदि मैं ज़ुराबें उतारना चाहता या कोई भौंडा सा काम करना चाहता तो मैं पहले चित्र को किसी सुरक्षित स्थान पर रख देता, ताकि आज़ादी से उस काम को कर सकूं। चित्र को मैं रात भर तकिए के नीचे छिपाता। कई बार जागता कि कोई मुझे ख़ज़ाने से वंचित न कर दे। अंत में मैं उसे तकिए को नीचे से निकालता और अपनी छाती पर रख कर सो जाता। सुबह मुझे अपने सीने पर उसकी छाप दिखाई देती।

चित्र की वह स्त्री फोटो की तरह नहीं, बल्कि जीवित, मिलनसार, सुंदर छवि के साथ मेरी ओर आती और मुझे उड़नखटोले में ले जाने को आतुर हो जाती। मधुर अधिकार से वह मेरे करीब आती, मुझे स्टूल पर बिठाती, मेरी भौंहों, आंखों पर अपनी झूलती लटों से दुलार दिखाती, अपना हाथ मेरे सिर पर फेरती। मैं उसके लिए प्रार्थना पुस्तक से पंक्तियां पढ़ता, बांसुरी बजाता और फिर वह मुस्कुरा कर मुझे धन्यवाद देती। अंत में कुछ अजीब सी यादें मेरे मस्तिष्क पर छाने लगीं। मैं कहीं अतीत में खो गया। मुझे लगता मानो मैं किसी जन्म में सेवादार था, सड़कों पर गाना गाता था....।

धीरे-धीरे मैं दुबला होने लगा, जिससे मेरे माता-पिता, चाचा-चाची चिंतित हो गए।

'इस आयु में हर चीज़ डराने वाली है। मेरे पिता ने कहा, जो स्वास्थ्य और चिकित्सा से जुडी कई किताबें पढ़ा करते थे। मेरी काली पलकों को, सिकुडी आंखों, पीले होंठों को पढ़ते और फिर भूख न लगने की मेरी परेशानी से चिंतित होते।

'खेलो बेटा, खाओ-पीयो। वह कहते और मैं उदासीनता से उत्तर देता, 'मेरा मन नहीं'।

उन्होंने मेरी बेचैनी को जानने की कोशिश की, फिर मुझे थिएटर ले जाने लगे। कुछ समय बाद मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई और ताज़ा झागदार दूध पीने को देने लगे। बाद में वह मेरे सिर और पीठ पर ठंडा पानी डालते। मैंने ध्यान दिया कि जब मैं अपने पिता को शुभ प्रभात कहने जाता तो वह काफी देर तक मुझे घूरते और कई बार तो अपनी रीढ़ पर मैं उनकी निगाहें जमी हुई महसूस करता। मैं चालाकी से अपनी आंखें नीची कर लेता था, यह निश्चय करते हुए कि अपना अपराध स्वीकार करने के बजाय मर जाना अच्छा है।

जैसे ही मुझे परिवार के स्नेही अकेलेपन से छुट्टी मिली, मैंने अपने आपको चित्र के साथ अकेला पाया। एकाएक पवित्र भावना कहीं उड़ गई और मैं चतुराई से फोटो का फ्रेम निकालने और हाथी दांत से उस सुंदरी को बाहर निकालने में सफल हो गया। जैसे ही मैंने अपने होंठ चित्र पर जमाए और उसके बालों की सुगंध को महसूस किया, मैंने एहसास किया कि यह सचमुच कोई जीवित छवि थी, जिसे मेरे कांपते हाथों ने थाम रखा था। मुझ पर बेहोशी तारी हो गई और चित्र पकड़े हुए ही मैं सोफे पर अचेत होकर गिर पड़ा। होश आया तो मैंने अपने माता-पिता और चाची को चिंतामग्न देखा। मेरे पिता बड़बड़ाते हुए मेरी नाड़ी देख रहे थे। चाची पंजे जैसी अपनी अंगुलियों से मुझसे वह चित्र लेने का प्रयास कर रही थीं और मैं उसे ज़ोर से पकड़े हुए था।

'मेरे प्यारे बच्चे... इसे छोड़ दो। तुम इसे गंदा कर रहे हो। उन्होंने पुकारा, 'देखो, जब भी तुम चाहोगे, मैं इसे तुम्हें दिखा दूंगी, लेकिन अभी तुम इसे नष्ट करने में लगे हो।

'इसे इसके पास ही रहने दो। लड़के की हालत ठीक नहीं है, मां ने प्रार्थना सी की।

चाची ने उत्तर दिया, 'अरे कैसे रहने दूं? आख़िर कौन ऐसा दूसरा चित्र बना सकेगा? आजकल कोई ऐसा सूक्ष्म चित्र नहीं बना पाता। यह मेरे बीते दिनों की याद है और मैं भी बीते दिनों की चीज़ हूँ। अब मैं वैसी नहीं हूं, जैसी इसमें दिखाई गई हूँ। ये मेरी जवानी की तसवीर है...।

भय से मेरी आंखें फैल गईं। मेरी अंगुलियों की पकड़ ढीली पड़ गई। पता नहीं कैसे मुंह से निकला, 'इस चित्र में तुम हो चाची?'

'क्यों तुम्हें भरोसा नहीं कि कभी मैं सुंदर थी? हूं तो अब भी सुंदर, लेकिन तब 23 साल की थी और अब? अब तो भूल गई हूं कि कितने साल की हूं।

मेरा सिर शर्म से झुक गया। मैं फिर से अचेत हो गया। पिता ने मुझे उठाकर बिस्तर पर लिटाया और दवा खिलाने लगे। इसके बाद मैं जल्दी ही ठीक हो गया, लेकिन फिर कभी भी मैंने चाची के घर जाने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की।

(अनुवाद: भद्रसैन पुरी)

साभार : स्पेन की श्रेष्ठ कहानियां, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

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