पीली पतंग (तमिल कहानी) : उमा जानकीरामन (अनुवाद : एस. भाग्यम शर्मा)

Peeli Patang (Tamil Story in Hindi) : Uma Janakiraman (Translator : S. Bhagyam Sharma)

>विशाली अभी तक नहीं उठी। पाँच बजते ही जैसे रबड़ के गेंद के समान उछल कर उठ जाने वाली विशाली आज विस्तर पर सिकुड़ कर पड़ी है। ‘‘विशा.... गुड मार्निग!’’ पास जाकर वासु ने उसे छुआ तो उसका दिल घबरा गया क्यों कि उसका शरीर बुखार से तप रहा था।

‘‘अरे तुम्हें क्या हो गया है?’’ वासु ने घबराकर पूछा ‘‘उमं ...पूरी रात बहुत सिर दर्द हो रहा था। अब देखो तो बुखार आ गया। उल्टी आयेगी ऐसा भी लग रहा है।’’

‘‘मुझे क्यों नहीं जगाया? कैसी लड़की हो तुम? चलो उठो। एक पेरासिटामोल देता हूँ। ले लो’’ कह कर उसके माथे को चूमा।

‘‘मुझे क्यों नहीं जगाया? कैसी लड़की हो तुम? चलो उठो। एक पेरासिटामोल देता हूँ। ले लो’’ कह कर उसके माथे को चूमा।

‘‘नहीं जी! मैं वैसे ही सम्भाल लूंगी।’’ अपने बढ़े हुए पेट के साथ विशाली धीरे से उठ बैठी।

‘‘गरम सोठ की काफी बना कर देता हूँ उसे पी कर सो जाओ। मैं आफिस में छुट्टी के लिये कह देता हूँ।’’

‘‘छुट्टी......बस फिर तो! मुझे वह हिटलर काट-काट कर टुकड़े-टुकड़े कर देंगी।’’

‘‘मेडिकल सर्टीफिकेट दें देंगे।’’

‘‘नहीं अययों! इम्पासिबिल! आज आफिस में डीलर्स मीटिंग है। मुझे पास ही खडे़ रहना होगा।’’ कहकर धीरे से उठकर बाथरूम के अन्दर गई। तो वासु का मन दुखी हुआ।

बराबर साढे़ आठ बजे आफिस में प्रवेश कर गई विशाली। उसका सिर दर्द कम ही नहीं हुआ। मुहँ कड़वा कड़वा लग रहा था व उल्टा- उल्टा हो रहा था।

‘‘बेटा क्या कह रहा है?’’ कहती हुई एकाउण्टेंट हेमा ने उसके कमर पर हाथ फेरा। वह डीलर्स की मिटिंग के कारण जल्दी आ गई थी।

पोस्ट से, कोरियर से आये पत्रों को खोलकर ठीक किल्प लगाकर रखा। कुछ जरूरी पत्रों को टाइप कर ई-मेल से भेजा।

नये आये स्टाक को एंटरी कर ठीक किया। जो सामान दें चुके उसके पैसे आ गये या नहीं यह देखने के लिये चेकों कों जाँचा। डेढ घण्टे में जल्दी-जल्दी सब कामों को खतम करते समय, हिटलर के यहाँ से बुलावा आ गया।

‘‘विशालम मेम चाय पी लो।’’ चपरासी बाबू के कहते कहते विशाली फटाफट सीढ़ियां चढ़ने लगी। ‘‘क्यों भई, गर्भवती लड़की को रोजाना कम से कम बीस बार तो सीढ़ी चढवा कर रहती है। ये कोई औरत है क्या? राक्षसी है।’’ पीउन बाबू दांत पीसते हुए बोला।

‘‘क्या करें बाबू? हम सब तुम्हारे जैसे है क्या? हमारे बाल बच्चे है। चार पैसे बचाना हो तो सब सहना पड़ेगा। ओखली में सिर दिया तो मार खानी पड़ेंगी।’’ हेमा परेशान हो बोली अन्दर आते हुए वैशाली को कृष्णवेणी अर्थात हिटलर ने अपनी गोल गोल आँखो को फाड़ कर देखा।

पचास साल की ऊपर की उम्र की कृष्ण वेणी मेगा साइज के कुशन की सीट के अन्दर फँसी हुई बैठी थी लाल रंग की लिपिस्टिक, बाब कट बाल (कटेबाल) उसकी उम्र को कुछ ज्यादा ही दिखा रहें थे।

शार्ट हेण्ड नोट, पेन्सिल के साथ विशालाक्षी को देखते ही मेनेजर कृष्ण वेणी को जलन हुई।

पिछले साल ही शादी हुई, देखो तुरन्त पेट में बच्चा आ गया। ये एक बुराई।

विशाली की लम्बी सुराईदार गर्दन, गोरा रंग, पतली काया को देख से ईष्र्या हुई।

पचास हजार रूपये वेतन ले रहीं हूँ एसी, कार सब है। पर मेरा हाथ मुहँ सब खरदुरा है। और ये दस हजार रूपये कमाने वाली इसकी काया इतनी नरम व चमकीली कैसे है इसका शरीर। उसे उससे जलन व नफरत सी हुई। जो उसके चेहरे से टपक रहा था।

‘‘तुम क्या बेवकूफ हो? कितनी बार कहा है मैने कि जरूरी फाइल को मेरे घर भेज दिया करो? क्यों नहीं भेजा?’’ मेज पर जोर से मुक्का मारकर चिल्लाकर बोली।

‘‘मेडम फाईल को ड्राइवर के साथ भेजा था।’’

‘‘भेज कर .... मुझे काल क्यों नहीं किया? वह ले जाकर कहा मरा पता नहीं। ब्लेडी नान सेन्स!’’

बोलते समय उसके चेहरे का मांस बुरी तरह तरह हिल रहा था। उसके चिल्लाने से विशालाक्षी का सिर दर्द और बढ़ गया।

दोपहर का समय। डीलर्स मीटिंग के खतम होने पर डीलर्स व एजेन्टों के बाहर जाने के बाद विशालाक्षी की कमर में भारीपन व दर्द होने लगा। साथ में तेज भूख भी लगने लगी।

लंच बाक्स को खोल सिर्फ दो कौर ही खा पाई थी कि कृष्णवेणी का बुलावा आ गया।

‘‘मोहन दास एण्ड कम्पनी का दिया कोटेशन ले आओ क्वीक।’’

‘‘क्या परेशानी है! खाना भी खाने नहीं देती हेमा अपने सिर को पीटने लगी।

कमर दर्द, भूख, व स्वयं का पश्चाताप सब मिलकर उसके आँखों मे आँसू चमकने लगे।

‘‘छी! इसके लिये क्यों रो रही हो? हिटलर को काम्पलक्स है। शादी नहीं हुई, बच्चे नही है। अतः उसे हमें देखते ही बिना कारण ही जलन होती है। पिछले हफ्ते मुझे बिना बात प्रताडित कर गालियां देती रहीं। अब तुम फंस गई बगीचे की तरफ जाकर डिब्बे को धोकर आई। वहां एक गिरगिट भटमैला रंग का शरीर व पीला चेहरा लिए बैठा था।

विशाली को गिरगिट पर बहुत दया आती है। जब बच्ची थी तब गली मोहल्ले के लड़के, ‘‘मारो, मारो’’कर उसके पीछे पत्थर लेकर पड़े रहते।

‘‘अरे.....प्लीज....बेचारा है रे उसे छोड़ दो।’’ विशाली उनसे विनति करती। उसके पूछँ पर धागा बांध उसे घसीटते।

पर वे ही बच्चे जब हुकांर भरता हुआ दीघस्वास छोडता हुआ सांड अपने नुकीले सीगों को झुकाकर शिव मन्दिर की तरफ से आता तो ये भाग जाते। यदि मिलिट्री वालों के अल्सेशियन कुत्ते को दखते तो भी डर कर एक तरफ हो जाते।

गिरगिट बेचारा! बिना जुबान का जीव। न सींग न नुकीले दांत का प्राणी हैं उसे जो चाहे करो कौन पूछेगा?

इसी तरह बिना सम्बन्ध के उसे ऐसा लगा अचानक वह स्वयं एक गिरगिट जैसे बदल गई। उसे ऐसा भ्रम हुआ। डर व घिन के कारण उसे उबकाई आई और जो खाया सब विशालाक्षी ने उल्टी कर दी।

दोपहर के तीन बज रहे थे। सिर उसका चकराने लगा तो मेज पर सिर रखकर बैठी। रात को सोई नहीं उस कारण या थकावट के कारण पूरे छः मिनट तक सो ही गई।

‘‘वेरी गुड। सुपर....हा....हा... हो।’’ दोनो हाथों से ताली बजाते हुए सामने कृष्णवेनी खड़ी थी तब वह घबराकर उठी, तो पास की अलमारी मेसे एक भारी फाइल कृष्ण वेणी के पैर पर आकर गिरी।

उसे बहुत गुस्सा आया। समझ नही आया क्या करें। कृष्णवेणी ने एक फाइल उठाकर विशालाक्षी पर फेकां। विशालाक्षी ने दोनों हाथों से झपट कर उसे पकड़ लिया। फिर बोलना शुरू किया।

‘‘लुक मेडम! मैं आपकी दासी नहीं हूँ। कोई मेरे लिये आखिरी आफिस भी नहीं है। मैं इस शहर में आई, तब चेनैय सेन्ट्रल के लिये टिकट लेकर आई। एस.एस. एजेन्सी कह कर नहीं आई। आपकी खुश किस्मती की मैं अभी तक बहुत सहनशील हूँ। पहले आप मानव बनो। फिर मैनेजर जैसे बिहेब (व्यवहार) करना। आपकी असमर्थता के लिये दूसरो को दोष मत दीजियेगा। ये आपके डरपोकपन व दबुपन को ही उजागर करता है। इसे आप समझो। गुडबाय मिस हिटलर।’’

विशालाक्षी के शब्दों में जो शान्ती व धैर्य था उसे देखकर कृष्णवेणी को ऐसा लगा जैसे उसने उनके मुहँ पर थूंक दिया हो ऐसा उसने महसूस किया। अपने को समेट कर चुप रही।

आवाज सुनकर आये हेमा व पीउन बाबू अपने खुशी को छिपाते हुए मौन खड़े थे।

विशाली अपने हैड बैंग को लेकर सीढ़ियों से फट-फट कर उतरती चली गई।

बाहर के गेट को खोलते वक्त क्रोटन्स पोधे के पास एक गिरगिट ने, सिर उठाकर देखा व तुरन्त झाडी में छुप गया।

घबराकर भागे गिरगिट के मुहँ पर लाल लिपस्टिक किसने लगाया। उसमे ऊपर कटे बाल शायद, घबरायी हुई आँखे कृष्णवेणी ही ये गिरगिट है क्या? विशाली को हँसी आई। सड़क पर आकर बस स्टाप की तरफ चलना शुरू कर दिया। दूर एक पीले रंग की पतंग अपने लम्बे धागों को हिला-हिला कर तेजी से उड़ रहीं थी।

‘ये..... पतंग, तुम्हारे लिये एस समाचार है। आज से मैं भी स्वतंत्र रूप से उडूंगी। तुम्हारे जैसे ही बेफिक्र होकर।’’

विशाली गर्व के साथ चल रही थीं। उसका मन वर्षा के बाद जैसे सड़क साफ होती है वैसे ही साफ निर्मल था।

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