पीढ़ियों का संघर्ष (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Peedhiyon Ka Sangharsh (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
पुरातन और नवीन का संघर्ष सब देशों और कालों में होता है।
हिंदी में इस समय हो रहा है, इसमें चिंतनीय या नाक-भौं सिकोड़ने की सुविधा देनेवाला कुछ नहीं है। सतत परिवर्तनशील, इसीलिए प्रगतिशील मानव समाज में युगानुकूल नए आदर्शों की प्रतिष्ठा होती है, नवीन मूल्य सामने आते हैं। इसमें कुछ बिगड़ता है, तो कुछ बनता भी है।
एक पीढ़ी पूज्य होती जाती है, उसे मंदिर में बिठाना पड़ता है, कभी-कभी जल और पुष्प अर्पित करना पड़ता है। दूसरी पीढ़ी कर्म के क्षेत्र में आ जाती है। बूढ़ा किसान अपने जवान बेटों को हल लेकर खेत जाते हुए देखता है, तो उसकी छाती गर्व से फूल उठ है और चिलम की फूँक के साथ उसके मन से बेटों के लिए आशीर्वाद निःसृत होता है । लेकिन अगर तारुण्य से दीप्त बेटों को खेत पर जाते देखकर नष्ट-यौवनं बूढ़े के मन में शूल चुभने लगे और वह केवल अपनी सत्ता और अस्तित्व बनाने के लिए उनके खेत में जाकर अड़ंगा डाले, नवीन बीज और नवीन खाद डालने से रोके, 'हमारे समय में' - कहकर बार-बार उन पर हीनता आरोपित करे तो बूढ़े के प्रति बेटों के मन में खीझ पैदा होगी ही ।
और अगर बेटे भी केवल इस कारण कि किसान बूढ़ा हो गया है, उसका मजाक उड़ाएँ, उसके पुरातनपने पर फब्तियाँ कसें, उसे निपट मूर्ख समझें, तो बूढ़ा भी खीझ पड़ेगा ।
हिंदी काव्य में यह दुतरफा खीझ इस समय चल रही है। खूब जोर से चल रही है, मजे में चल रही है। छायावादी खेत में कुछ लोगों ने एक खास किस्म के बीज बोए थे, वे उगे भी और 25-30 सालों तक खेत हरे-भरे रहे। लेकिन युग तो रुक नहीं सकता। मनुष्य की विकासमुखी प्रवृत्ति को कोई रोक नहीं सकता। नवीन पीढ़ी आयी और उसने दूसरे किस्म के बीज बिखराए । बस यहीं झगड़ा शुरू हो गया।
एक ओर दुराग्रह !
दूसरी ओर उद्धतता !
अनेक छायावादी कवियों को जानता हूँ, जो रात को एकांत में बैठकर नयी कविता लिखने की कोशिश करते हैं और जब नहीं बनती, तो सबेरे उठकर लोगों से कहते हैं- "नयी कविता सब कूड़ा-करकट है।"
और अनेक नवीन कवियों को भी जानता हूँ जो यह समझते हैं कि विगत पीढ़ी को बुरा कहने और गाली देने से ही वे युगप्रवर्तक के रूप में स्वीकार कर लिए जावेंगे ।
साहित्य में बुढ़ापा सफेद बालों या झुर्रियों का नाम नहीं है । साहित्य में बुढ़ापे का अर्थ है नवीन चेतना ग्रहण करने की शक्ति का लोप, अपनी मान्यताओं और मूल्यों को बदलने की भीरुता, 'आज' के बदले विगत 'कल' में ही जीने का मोह, प्रतिभा का शैथिल्य ! यह सब न हो, तो साहित्य में बूढ़ा आदमी 'परिपक्व' कहलाता है। अपनी अपरिवर्तनशील प्रवृत्ति के कारण अनेक लोग राह में जाकर चट्टान की तरह डट गए और खुद ही चिल्लाए - 'गतिरोध हो गया! गतिरोध हो गया !!' भले आदमी, तुम्हीं तो राह में अड़ गए हो, तुम्हीं चिल्लाते हो कि राह बंद हो गयी है। जिसे चलना है, वह आखिर तुम्हें लाँघकर ही तो जाएगा। तब तुम चिल्लाओगे, 'हमें लात मारते हैं ! हमारा अपमान करते हैं ये !!'
साफ बात है - काम कर सकते हो, चल सकते हो, तो चलो। अन्यथा देवता बनकर मंदिर में बैठो, हम कभी-कभी आकर अक्षत, पुष्प चढ़ाएँगे, आरती भी कर देंगे। लेकिन अगर तुम भक्तों को इकट्ठा कर राह चलनेवालों पर पत्थर फिंकवाओगे, तो तुम्हें कौन पूजेगा ?
जिन्हें देवता मान लेने में कोई देर नहीं थी, उनमें से कुछ ने वास्तव में पत्थरबाजी की और करवायी। ‘अखाड़ा', 'महंती', 'धूनी', 'दादाबाद' आदि शब्द कोरी कल्पना के नहीं हैं, ये सब चीजें हिंदी में हैं और इन सबके कारण बड़ा आक्रोश जहाँ-तहाँ देखने में आता है ।
रेडियो पर, सम्मेलन में, कान्फ्रेंसों में, पुरस्कारों में सब जगह 'नास्ति' को 'अस्ति’ का भ्रम पहनाने के लिए लोग डटे रहते हैं। समझ में नहीं आता है कि हर समय, हर उत्सव पर रेडियो पर भावहीन, शिथिल तुकबंदी पढ़ने का मोह कुछ बुजुर्गों को क्यों जकड़े रहता है, जबकि वे स्पष्ट देखते हैं कि श्रोता उन्हें केवल संकोचवश सह लेते हैं? वे सिर्फ आशीर्वाद क्यों नहीं देते ?
दूसरी तरफ का नजारा भी बड़ा मजेदार है। अनेक नवीन रचनाकारों को लगता है कि अब तक जो लिखा जा चुका है वह बिल्कुल निरर्थक है, रद्दी है। उससे कुछ सीखने का नहीं है, उसमें कोई प्राणवान तत्त्व नहीं है। इसे मूर्खता के सिवा और क्या कहा जाय ? कुछ वर्ष पहले तुलसीदास को एक-दो वजनदार नए दिमागों ने 'बुर्जुआ' कह दिया। बस, कई वर्षों तक वे बुर्जुआ रहे आए। इस बीच प्रगतिशीलों ने तुलसी को पढ़ा नहीं, क्योंकि बुर्जुआ को क्या पढ़ना? चलो छुट्टी मिली। और अभी-अभी फिर से कुछ बड़ों ने कहा कि तुलसी तो ‘प्रोग्रेसिव’ हैं। बस, अब तुलसी 'प्रोगेसिव' हो गए। पूर्ण - कंठ (Full throated) प्रोग्रेसिव कहने लगे - " तुलसी के बराबर 'प्रोगेसिव' कौन है? उन्होंने कहा है- 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।।' अत्याचारी को नर्क भेज देने का आह्वान है यह!"
एक वर्ग और है जिसे बुरा मान लिया गया है - वह वर्ग जिसने 'पेट' अथवा 'फैट (Fat) के लिए सरकार अथवा शोषक वर्ग से समझौता कर लिया है, अथवा जो कहीं राज्यसभा, कमीशन, डेलीगेशन आदि की सदस्यता का मुकुट अब अपनी साधना के सिर पर रखना चाहता है। ‘पेट’ की मजबूरी उपहास और घृणा की अपेक्षा सहानुभूति के ही योग्य है। ‘फैट' और पद की लोलुपता की मजबूरी पर अवश्य प्रहार होना चाहिए और वे हो भी रहे हैं-गद्य में भी और पद्य में भी। पर इसमें भी एक कलात्मकता होनी चाहिए। वर्ड्सवर्थ और राबर्ट सदे के 'राजकवि' हो जाने पर क्रमशः टेनीसन और वायरन ने अच्छी तीखी कविताएँ लिखी थीं, जो अभी भी उनकी सर्वोत्तम रचनाओं में मानी जाती हैं। क्या हम जो गालियाँ लिख रहे हैं, उनमें यह क्षमता है?
पीढ़ियों के अवश्यंभावी संघर्ष में वैचारिक संघर्ष व्यक्तिगत घृणा और द्वेष के स्तर पर आ रहा है, यह बात ज़रा चिंतनीय है । विगत पीढ़ी में एक प्रकार की खीझ है, जो अक्षमता तथा मूल्य-परिवर्तन से उपजी है और वर्तमान पीढ़ी में क्रोध है, जो मार्ग की बाधाओं के कारण प्रकट हुआ है। इन दोनों सीमांतों पर स्थित लोगों से अलग अनेक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनमें दृष्टि की उदारता है, और जो साहित्य में नवीन विचार, नवीन शिल्प-शैली का विकास स्वाभाविक और अनिवार्य मानकर नवीन धारा के प्रति सहानुभूति और सहयोग की दृष्टि रखते हैं। ऐसे तरुण भी हैं जो नवीन के विकास के लिए पुरातन को गाली देना या उसे निरर्थक और खोखला मानना जरूरी नहीं समझते। इनसे ही साहित्यिक सद्भावना के रक्षण की आशा है।
वसुधा, वर्ष 1 अंक 9 जनवरी 1957