पत्र वाहक (बांग्ला कहानी) : शिवराम चक्रवर्ती
Patra Vahak (Bangla Story) : Shibram Chakraborty
हर्षवर्धन के ऑफिस से लौटते ही उनकी पत्नी ने आगे बढ़ कर कोट उतारा। फिर कोट के पॉकेट की ओर देख कर चिल्ला पड़ी - 'आज भी तुमने चिठ्ठी नहीं डाली? आज भी भूल गए? तुम तो सत्यानाश कर डालोगे। ऐसी भयंकर भूल से कब तक संसार चलेगा?'
उत्तर मिला - 'संसार मैं कहा चलाता हूँ? संसार चलाने वाली तो तुम हो।'
'बस, बस बहुत हुआ। देखो कल जरूर डाल देना। बहुत ही जरूरी चिठ्ठी है। कल तुम न भूलो इसकी व्यवस्था मैं कर दूंगी।'
'चिठ्ठी माँ को न लिख कर मुझे लिखी होती तो ये सारा झंझट ही मिट गया होता। पॉकेट रहने से ही काम चल जाता।‘ पुरानी बातें याद आने लगी उन्हें। शादी के बाद मैके से जब पत्नी उनके पास चिट्ठियां भेजा करती थी, उन चिट्ठियों का जैसे कोई अर्थ नहीं था, उसके बादवाली चिट्ठियों में भी केवल अर्थ की ही पुकार। 'रुपये भेजो, रुपये भेजो की ध्वनि।' पॉकेट में रहते-रहते वह चोबी के घर जाकर साफ़ हो जाती, और फिर उनका अर्थ भी साफ़ हो जाता।
दूसरे दिन ऑफिस जाते समय पति को कोट पहनाते हुए श्रीमतीजी ने पुनः स्मरण दिलाया-'चिठ्ठी डालने की बात आज याद रहेगी न?'
चिठ्ठी डालनी है, चिठ्ठी डालनी है, जपते-जपते गल्ली के मोड़ तक पहुँचते ही पीछे से एक लड़के ने कहा - 'चिठ्ठी की बात याद है दादा?'
'कौन सी चिठ्ठी?'
'भाभी की चिठ्ठी की बात पूछ रहा था, लेटर बॉक्स में डालने की बात याद दिला रहा था।'
'अच्छा, भाभी ने धीरे से तुम्हारे कान में वह कह दिया था?’ कहकर वह गुस्से से चले गए।
अभी थोड़ी ही दूर गए थे कि पीछे से किसी सज्जन ने पुकारा - 'जरा रुक जाइये दादा।'
'मुझे बुला रहे है आप?'
'हाँ, कोई गति हो पायी है?'
'किस की?'
'उस चिठ्ठी की?'
'किसकी चिठ्ठी? ऑफिस की कोई ...?'
'नहीं नहीं ऑफिस की नहीं। आपकी श्रीमतीजी की चिठ्ठी की बात मैं कह रहा था। उसे लेटर बॉक्स में डाली है या नहीं?'
'डाली है या नहीं यह मैं सोचूंगा, आप को इतना सिरदर्द क्यों है?' आश्चर्य! इतने में पूरे मोहल्ले भर में चिठ्ठी डालने की बात फ़ैल कैसे गयी? किसी तरह मोहल्ले से बाहर जा कर उन्होंने संतोष की सांस ली थी कि पल्टन के पल्टन लड़के 'चिठ्ठी याद से डालियेगा, भूलियेगा मत।' चिल्लाते-चिल्लाते उनकी बगल से होकर निकल गए।
अब उनके आश्चर्य की सीमा न थी। लेकिन खड़े होकर इन बातों को सोचने की फुर्सत ही कहां थी उन्हें? ऑफिस की देर भी हो रही थी। सामने ट्राम के आते ही झटपट चढ़ गए। अभी वह सीट पर ठीक से बैठ भी नहीं पाए थे कि पीछे से किसी सज्जन ने उनके कंधे पर हाथ रखा, बोले - 'बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ? चिठ्ठी डाल दी है आपने?'
अब तो उनका पारा चरम सीमा पर चढ़ गया। यह क्या? सभी सियारों की एक ही बोली? 'क्यों? क्या बात है? डालूं या न डालूं, उसमे आप का क्या मतलब है?'
'मेरा कोई मतलब नहीं है, पर कहना चाहिए इसलिए कहा। अब आप डालें या न डालें आप की मर्जी।'
'चिठ्ठी की बात आपको मालूम कैसे हुई? क्या आप मेरे मोहल्ले में रहते है? या आस-पड़ोस में? '
'नहीं नहीं, आप की पत्नी के अनुरोध से ही कह रहा हूँ।‘ उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इतनी देर में उसने इतने लोगों को बात कही कैसे? जरूर कोई रहस्य है इसमे।
ऑफिस के सामने ट्राम के रुकने पर वे उतर पड़े। ऑफिस में जाकर अपनी कुर्सी पर बैठते ही एक गिलास पानी मांगने के लिए नौकर को बुलाया। नौकर ने हाथ फैलाया - 'दीजिये बाबूजी।'
'क्या दूँ?'
'माताजी की चिठ्ठी डालने के लिए बुलाया है न?'
'किसने कहा? जा, भाग, जा तू यहाँ से।'
शाम को घर लौटते वक्त बस में फिर उन्हें लोगो ने चिठ्ठी डालने की याद दिलाई। एक ने आखिर कह ही डाला - 'अगर डाले न हो तो मुझे दीजिये, मैं सामने जी. पी. ओ. के पास उतर जाऊंगा। वह मैं डाल दूंगा।'
'पत्नी की चिठ्ठी मैं आपको क्यों दू?' क्रोध से हर्षवर्धन ने कहा। 'मैं खोलकर उसे पढूंगा नहीं, डरिये मत। कहीं आप भूल न जाएँ इसलिए कहा, और किसी मतलब से नहीं।'
'भूलूँ भी तो आप का क्या जाता है?'
किसी तरह से वे घर पहुंचे। सीडी पर ही गोवर्धन के साथ उनकी भेंट हो गयी। 'भाभी की चिठ्ठी आपने डाली है दादा?'
‘बड़ी चिंता है भाभी के चिठ्ठी के लिए। अपने आप जा कर डाल आ। यह लो, चिठ्ठी जा कर डाल दे।'
कहकर उन्होंने चिठ्ठी निकाल कर फेंक दी।
'घर के पास ही लेटरबॉक्स है, फिर भी एक चिठ्ठी नहीं डाल सकते हैं आप?' - कहकर वह चिठ्ठी लेकर चला गया।
पता चला श्रीमतीजी सिनेमा देखने गयी है। अपने कमरे में जा कर अपने आप ही कोट उतार कर जब वे टांगने लगे तो जैसे सारे रहस्य का उद्वग्न हो गया। कोट के पीछे एक कागज़ आलपिन से टंका हुआ था। उसमें बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था - 'कृपा करके मेरे पतिदेव को चिठ्ठी डालने की बात याद दिला दीजियेगा।‘
(अनुवाद : डॉ. शोभा घोष)