पत्नी का सम्मान करो : असमिया लोक-कथा
Patni Ka Sammaan Karo : Lok-Katha (Assam)
किसी गाँव में एक बूढ़ा दंपती रहता था। एक दिन बूढ़ा फसल लगाने के लिए जंगल साफ कर रहा था, एक घायल हिरण उसके खेत के बीचों बीच से भागने लगा। उसे एक शिकारी ने गोली मारी थी। जब हिरण उसके करीब से गुजरने लगा तब बूढ़े ने फूर्ति से अपनी कुदाल से उसके सिर पर मारा। हिरण वहीं ढेर हो गया। बूढ़े ने मृत हिरण को तुरंत झाड़ियों में छुपा दिया। शिकारी हिरण को ढूँढते हुए बूढ़े के पास आया और पूछने लगा”दादा जी, क्या आपने एक घायल हिरण को देखा?”
बूढ़े व्यक्ति ने उसे बातों में उलझाने के उद्देश्य से एक बधिर की तरह उत्तर दिया- “मेरी खेत की सीमाएँ? खैर, पूरब की सीमा यहाँ है और वहाँ पर पश्चिम की!
शिकारी ने कहा- “नहीं मैं खेत की सीमा नहीं, एक घायल हिरण के बारे में पूछ रहा हूँ।”
बूढ़े ने उत्तर दिया- “मुझे पता है कि तुम्हारा क्या मतलब है, यही न कि इस बार फसल अच्छी होगी कि नहीं। मैं यह कैसे कह सकता हूँ?”
“नहीं मैं फसल के बारे में नहीं घायल हिरण के बारे में पूछ रहा हूँ”-शिकारी ने खीझकर कहा।
बूढ़े आदमी ने कहा- “मैं अब और नहीं रुक सकता। अंधेरा घिर आया है और मुझे भूख भी लगी है। मैं घर जा रहा हूँ।”
इतना कहते हुए वह घर की ओर चल दिया। शिकारी खुद से बुदबुदाते हुए कहने लगा- “किस मूर्ख से पाला पड़ा है। बूढ़े के चक्कर में मैंने हाथ आए शिकार को गँवा दिया।” उसने भी अपना रास्ता ले लिया।
रात को खाना खाते वक्त बढे आदमी ने अपनी पत्नी से कहा- “कल सुबह तुम मुझे जल्दी नास्ता दे देना। मैं एक हिरण मार कर जंगल में छुपा आया हूँ। सवेरे जाकर मुझे उसकी बोटी-बोटी काटकर उसे घर ले आना है।”
पत्नी ने उसे सुबह जल्दी नाश्ता दिया और काम पर भेज दिया। बूढ़ा खेत में चला गया। उसने मरे हिरण के शरीर को कई टुकड़ों में काट डाला। जब सारा शरीर बोटियों में तब्दील हो गया तो उसने मांस के टुकड़ों पत्नी और उसके नाम पर दो हिस्सों में बराबर की अनुपात में बाँटना चाहा। पहले उसने अपना हिस्सा लगाना शुरू किया। अपने दैनिक कामों के आधार पर एक-एक बोटी गिनती करते हुए अपना हिस्सा अलग करने लगा- “यह सुबह मुँह धोने के लिए, यह तंबाकू चबाने के लिए, यह मवेशियों को खेतों में भगाने के लिए, यह टुकड़ा खेत जोतने के लिए”… इस तरह उसने अपने दैनिक कामों के आधार पर अपने हिस्से का मांस अलग किया। फिर उसने अपनी बूढ़ी पत्नी का हिस्सा लगाया- “यह सुबह मुँह धोने के लिए, यह तंबाकू चबाने के लिए, कपास की कताई के लिए, यह कपास की धुनाई के लिए, यह कपड़ा बुनाई के लिए, यह खाना बनाने के लिए, यह कुँए से पानी निकालने के लिए…।”
गिनती करने पर उसने पाया कि पत्नी के हिस्से में उसके हिस्से से कहीं अधिक मांस आ गया है। यह देखकर वह क्रोधित हो गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि एक महिला का हिस्सा पुरुष के हिस्से से बड़ा कैसे हो सकता है? उसने दो हिस्सों में बँटे मांस के टुकड़ों को फिर से एक किया और नये सिरे से विभाजन करना शुरू किया। इस बार फिर उसने अपना हिस्सा अपने दैनिक कामों के आधार पर अलग किया और पत्नी का बाद में। इस बार उसका हिस्सा पत्नी के हिस्से से बड़ा हो गया। वह संतुष्ट नहीं हुआ। उसने फिर से सभी गोस्त को एक साथ मिलाया। हर बार एक हिस्सा ज्यादा और एक कम बैठता। कभी उसका हिस्सा भारी होता तो कभी पत्नी का। उसने बार-बार विभाजित किया, लेकिन एक बार भी हिसाब बराबर नहीं बैठा। हिस्से के बँटवारे के चक्कर में दिन ढल गया। शाम हो गई।
दिन ढलने पर भी जब पति घर नहीं लौटा तो पत्नी आग बबूला हो गई। वह ढंकी का मसल लेकर उसकी तलाश में निकल पडी। उसने उसे खेत में हिरण के मांस के ढेर के बीच बैठा पाया। बार-बार अलग करने और मिलाने के कारण मांस गंदा हो चुका था। बूढ़ी औरत ने चुपके से मूसल पति के पीठ पर दे मारी। जिस पर बूढ़ा चीखते हुए कहने लगा- “मुझे साँप ने काट लिया।” यह कहते हुए वह वहाँ से भाग गया। पत्नी ने तुरंत मांस के कुछ टुकड़े उठाकर एक कपड़े में बाँध लिए और घर की ओर चल दी। रात के खाने में उसने वही मांस बनाया। पति जब खाने के लिए बैठा तो मांस देखकर पत्नी से पूछा- “मांस कहाँ से आया?”
पत्नी ने कहा- “तुम्हारे आने में देर हो रही थी इसलिए एक मुर्गे को मारकर पका लिया। तुम्हारे बँटवारे के इंतजार में बैठी रहती तो रात का खाना ही नहीं बनता।” पत्नी ने चतुराई से अपना काम निकाल लिया। बूढ़ा सोचने लगा, मुझे इसके हिस्से में मुर्गी मारने वाले काम को भी शामिल करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने पर इसका हिस्सा अधिक हो जाएगा। क्या करूँ? लेकिन यह सच है कि वाकई में औरत का काम पुरुष से कहीं अधिक होता है। वह मसीबत में भी तरंत फैसला करके कोई रास्ता निकाल लेती है। उसका यह हिस्सा भी गिनती में आना चाहिए।
उस दिन से पति ने मान लिया कि परिवार चलाने के लिए पत्नी को उससे कहीं अधिक कामों में खटना पड़ता है। इसलिए वह सम्मान की अधिकारिणी है।
उधर बूढ़ी सोच रही थी, बूढ़ा बुद्ध का बुद्ध बना रहेगा। इसे कभी अकल नहीं आएगी।
(साभार : डॉ. गोमा देवी शर्मा)