पतिव्रता पत्नी : उत्तर प्रदेश की लोक-कथा
Pativrata Patni : Lok-Katha (Uttar Pradesh)
सुशीला नामक स्त्री बृजक्षेत्र के एक गाँव में रहती थी। वह अपने पति से अत्यंत प्रेम करती थी और उसका जीवन पति के प्रति समर्पित था। भोर उसके चरण स्पर्श से उसका दिन आरंभ होता और रात उसके चरण दबाते समाप्त होती। पति दर्शन के बिना वह अन्न तो क्या जल भी ग्रहण नहीं करती थी। वह अपने गाँव में ही नहीं संपूर्ण बृजक्षेत्र में पतिव्रता के रूप में जानी जाती थी। जब पतिव्रता स्त्री की बात निकलती, तो सुशीला का महिमा-मंडन किया जाता। सुशीला को भी यह बात ज्ञात थी और वह इससे अति-प्रसन्न थी।
एक बार वह अपनी एक सहेली के घर गई। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि उसकी सहेली के घर में तरह-तरह के व्यंजन बने हुए हैं। उन व्यंजनों की खुशबू पूरे घर में फैल रही थी। सुशीला ने अपनी सहेली से पूछा, “सखी! क्या बात है, आज कोई विशेष आयोजन है क्या?”
सहेली बोली, “नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।”
सुशीला ने कहा, “तो अवश्य तुमने अपने पति के लिए बनाये होंगे।”
सहेली बोली, “नहीं! वो तो परदेश गए हुए हैं। ये सब तो मैंने अपने लिए बनाया है।”
यह सुनकर सुशीला चकित रह गई। बोली, “सखी! कैसी स्त्री हो तुम? तुम्हारा पति परदेश में है और तुम उनकी अनुपस्थिति में ऐसे व्यंजन पकाकर खा रही हो। पतिव्रता स्त्री को तो पति के दर्शन किये बिना जल तक ग्रहण नहीं करना चाहिए। मुझे ही देख लो, मैं जब तक उनका मुख न देख लूं, अन्न-जल ग्रहण नहीं करती।” ।
इस बात पर सहेली तुनककर बोली, “सुशीला बहन! यदि पति के न होने पर मैं व्यंजन खा रही हूँ। इसका अर्थ कदापि ये नहीं है कि मैं उनसे प्रेम नहीं करती। मैं उनके सामने भी खुश रहती हूँ, खाती-पीती हूँ और उनके पीछे भी। व्यर्थ का ढकोसला मुझसे नहीं होता। न ही मेरे पति चाहते हैं कि मैं उन ढकोसलों को मानूं। वे मुझे स्वस्थ देखना चाहते हैं और कहते हैं कि मैं इसलिए तो नहीं कमाता कि तुम भूखी रहो। हम एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और उसे जताने के लिए हमें अन्न-जल त्याग करने की आवश्यकता नहीं है।”
सहेली का दो-टूक उत्तर सुनकर सुशीला को बुरा लगा। वह प्रतिकार किये बिना न रह सकी और बोली, “तुम्हारे अनुसार जो सही हो, वो करो। किंतु मैं कहूंगी कि यह पतिव्रता धर्म नहीं है। शास्त्रों के अनुसार पतिव्रता स्त्री को पति का मुख देखे बिना, उसके खाये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करना चाहिए।’
इसके बाद वह अपने घर चली आई। घर आकर उसने सारी बात अपने पति को बताई और पूछा कि बताओ क्या मैं गलत हूँ? पति सुशीला की अपने प्रति कर्तव्य-परायणता और प्रेम से अभिभूत था। किंतु, यह भी सोचा करता था कि पति के दर्शन बिना अन्न-जल ग्रहण न करना व्यावहारिक नहीं है। यदि पति एक माह के लिए कहीं चले जाये, तो बिना अन्न-जल के स्त्री जीवित कैसे रहेगी? इसलिए उसे लगता था कि कहीं सुशीला का यह व्यवहार मात्र ढोंग तो नहीं! उस दिन उसने निश्चय किया कि वह सुशीला की परीक्षा लेगा।
उसके बाद से वह सुशीला को परखने लगा। कभी वह खेत से देर से लौटता। कभी स्नान करने में विलंब करता, कभी परोसा हुआ भोजन छोड़कर काम का कोई बहाना कर घर से निकल जाता। सुशीला हर बार उसकी परीक्षा में खरी उतरती। एक दिन पति ने सुशीला से कहा, “आज मेरा पुए और खीर खाने का मन है। तुम झटपट ये दोनों व्यंजन तैयार करो, मैं खेत से आता हूँ।”
कहकर वह घर से निकल गया। सुशीला पुए और खीर बनाने में जुट गई। जब पुए और खीर तैयार हो गये, तो उसकी खुशबू से सुशीला के मुँह से लार टपकने लगी। मगर उसका पति घर पर नहीं था, इसलिए वह दरवाजे पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगी। आधा दिन बीतने के बाद उसका पति आया, तो उसने कहा, “जाओ झटपट स्नान कर लो, पुए और खीर मैंने कब से तैयार कर रखे हैं।”
पति सुशीला की परीक्षा लेने को आतुर था। वह बोला, “तनिक मैं अपने एक मित्र के घर से होकर आता हूँ।” और फिर घर से चला गया।
सुशीला का भूख से बुरा हाल था। मगर वह अपने पति को रोक नहीं सकती थी। वह फिर उसकी प्रतीक्षा में बैठ गई। उसका पति शाम को वापस आया, तो सुशीला बोली, “अब झटपट नहा लो, सुबह से पुए और खीर बनाकर रखी है, कब खाओगे?”
पति कुछ देर थका होने का बहाना कर आना-कानी करता रहा। किंतु सुशीला के बार-बार जोर डालने पर वह लोटा, बाल्टी और रस्सी लेकर कुएं पर स्नान करने चला गया। सुशीला प्रसन्न थी कि अब उसे पुए और खीर खाने को मिलेगी। कुछ देर बाद उसे पति के पैरों की आहट सुनाई पड़ी और उसका हृदय पुए और खीर के बारे में सोचकर प्रफुल्लित हो उठा। किंतु तभी घर के देहरी पर उसके पति का पैर फिसला और वह गिर पड़ा। सुशीला दौड़कर उसके पास गई और उसे उठाने का प्रयास करने लगी। उसका पति चारों खाने चित्त था, उसकी आँखें फैल चुकी थी। कुछ ही देर में सुशीला को समझ आ गया कि अब उसका पति नहीं रहा।
उसका हृदय द्रवित हो गया। वह दहाड़ मारकर रोना चाहती थी, तभी उसे पुए और खीर का ध्यान आया, जिसे खाने के लिए वह सुबह से प्रतीक्षारत थी। उसने सोचा कि पति तो जीवित नहीं। रोने-धोने से भी जीवित न हो पायेंगे। पड़ोसी अवश्य जुट जायेंगे। फिर पुए और खीर खाने का अवसर प्राप्त नहीं हो पायेगा। इसलिए ऐसा करती हूँ कि पहले पुए और खीर खा लेती हूँ, फिर रोना-धोना करूंगी।
यह विचार आते ही वह झटपट रसोईघर में गई और पुए और खीर उडाने लगी। उसका पति वास्तव में मरा नहीं था. बल्कि उसकी परीक्षा ले रहा था। वह चुपके-चुपके सुशीला को देखता रहा। मन भरकर खाने के बाद सुशीला मुँह धोकर लंबा-सा चूंघट ओढ़कर पति के पास गई और उसे सीने से लगाकर दहाड़ मारकर रोने लगी। वह कहते चली जा रही थीः
“तुम तो चले परमधाम कुँ, हम हूँ सूं कुछ बक्खौं (कहो)”
उसका पति कुछ देर तक उसका नाटक देखता रहा। फिर अगली बार जब सुशीला ने कहा “तुम तो चले परमधाम कू, हम हूँ तूं कुछ बक्खौं (कहो)”, तो पति ने उत्तर दिया :
“खीर सड़ोपा करि तौ पुअनूं कू तौ चक् खौ।”
यह सुनकर सुशीला हक्की-बक्की रह गई। उसे समझ आ गया कि उसका पति जीवित है और मरने का नाटक कर रहा है। उसके बाद उसने लज्जा से सिर झुका लिया और सोचने लगी कि क्यों मैंने अपनी जिव्हा पर नियंत्रण नहीं रखा। किंतु, अब उसके पतिधर्म की पोल खुल चुकी थी। उस दिन के बाद से उसने कभी अपने पतिव्रता होने का ढोल नहीं पीटा। (साभार : प्रियंका वर्मा)