Pati-Patni (Hindi Story) : Amrit Rai

पति-पत्नी : अमृत राय (कहानी)

दौड़ती रेल में एक श्यामवर्ण पति-पत्नी अपने तीन बच्चों के साथ चले जा रहे हैं। रात का सफ़र है, तीसरा पहर। बच्चे सो चुके हैं। डिब्बे में निस्तब्धता है। केवल पति-पत्नी धीमे स्वर में कभी-कभी बात कर लेते हैं। पति मितभाषी है, कारण वह उधेड़बुन वाला आदमी है और अपने में ही समाया रहता है। उमर है तीस साल। पति मितभाषी है और पत्नी को अजब-सा लग रहा है। वह बहुत बोलने को आतुर है। पर उसकी आतुरता के लिए कहीं कोई बहाव न होने से वह खिन्न जान पड़ती है।

संयोग की बात, गाड़ी अभी पहुँची एक स्टेशन पर, जो देखने में बड़ा मालूम होता था, क्योंकि वहाँ पर थीं सूरज से होड़ करने वाली बिजली की बत्तियाँ। गाड़ी खड़ी होने के साथ एक घनी दाढ़ी-मूछों वाला आदमी, जो देखने में ग़रीब और दग़ाबाज़ दोनों ही मालूम होता था, डब्बे में सवार हुआ। लम्बा, छरहरा, पुष्ट स्नायुओंवाला जिस्म, गहरी धँसी हुई आँखें और स्याह रंग।

पत्नी ने उसे देखा और जैसे बिजली कौंध गयी। बाहर झड़ी लगी हुई थी और यह आदमी भीगता हुआ डब्बे में दाखिल हुआ था। वह जल्दी में अपना सामान इन्हीं दम्पति की बर्थ पर रखकर वहीं बैठा गया।

पत्नी के अन्दर तूफान का एक दौर शुरू हुआ–उँहुक, यह वो कैसे हो सकता है? हरगिज नहीं। उसे तो कभी दाढ़ी थी भी नहीं। दूसरे यहाँ, इस जगह, इस तरह–नहीं यह कभी नहीं हो सकता। पर कैसे कहें, चेहरा-मोहरा तो एक़दम उसी-सा है, दाढ़ी से कहीं असलियत छिपती थोड़े ही है, और वह रहा बाँयें कानवाला बड़ा-सा मसा, उसकी ख़ास चीज़। इसे लेकर मैंने कितने दफा चुटकी नहीं ली है!

लेकिन आज इतनी विपरीत शक्ल में, ऐसे विपरीत स्थान में, घनी बारिश में यों अचानक मेल हो जायगा! कौन जाने उसी से मिलता कोई दूसरा हो, कोई मोहर तो लगी नहीं है? लेकिन आँखें तो धोखा खाती नहीं जान पड़तीं। अरे जाने भी दो–पर जाने कैसे दूँ? यों अचानक फिर मेल हो जायगा, यह तो कभी हमने न सोचा था, विश्वनाथ उस वक़्त भी नहीं जब तुम मुझसे आखिरी बार मिलकर परदेश चले गये थे। आओ, परिचय तो लूँ ही।

यह सब घूम गया पलक भाँजते। पति अब तक ऊँघ-ऊँघ कर गिरा जा रहा था। पत्नी यानी रेवती ने एक ओर पति से लेट जाने को कहा और दूसरी ओर मुखातिब हुई आगंतुक की ओर। यह पुरुष भी शायद कुछ देर से अपनी घनी भौहों के बीच से इस नारी को निहार रहा था। चकित। स्तंभित। थकित। उच्छवसित।

रेवती ने आगन्तुक से झिझकते हुए पूछा–माफ कीजिएगा, आपका चेहरा...

आगंतुक ने उल्लसित होकर, फिर अपने ही उल्लास पर स्वयं झेंप कर संयत होते हुए कहा–हाँ, हाँ। ठीक तो। तुम रेव...

रेवती ने सिर झुकाकर नौ बरस के अपने पुराने साथी को उत्तर दिया और कुछ काल तक विभ्रम में चुप रही। फिर कहा–मिले खूब। तुम यहाँ?

जब रेवती का विश्वनाथ कह रहा था ‘न पूछो’, रेवती झकझोरकर जगा रही थी पति को। परिचय कराने के लिए अपने पुराने साथी विश्वनाथ से। पति जागा, आँख मलते हुए बुरी तरह निंदासा, बदन तोड़ता बाल सँभालता हुआ। परिचय। पति विश्वनाथ से मिलकर बहुत खुश हुआ है लेकिन विश्वनाथ पति से मिलकर गड़बड़ी में पड़ गया है। नहीं जानता क्या कहे? वह रेवती का पति जो है। रेवती का...उस रेवती का... लेकिन वह कोई बेहूदा बात अभी नहीं सोचना चाहता। अभी तो वह आज़ाद होकर बात करेगा, मुलाक़ातें बात करने के लिए ही होती हैं। लेकिन यह खूब ही है कि रेवती के पति को नींद चैन नहीं लेने देती। चलो दायित्व घटा। उसी वक़्त पति ने कहा रेवती से– ‘मैं तो सोता हूँ जाग नहीं पाता।’ फिर मुस्कराते हुए, विश्वनाथ से– ‘मुझे आप माफ करेंगे। ‘विश्वनाथ को न जाने क्यों उसके सोने से तनाव कम होने की आशा बँधती है और वह बड़ी आजिज़ी से कह जाता है–‘नहीं-नहीं। ठीक तो है। इसमें कौन-सी बात है। ठीक तो है। आप सोये न होंगे। फिर सफ़र की थकान...

रेवती का पति सो गया। रेवती उठ बैठी। विश्वनाथ भी कान थोड़ा और पास ले आया। अब वे और भी निश्चिन्त होकर बोल सकेंगे, बात कर सकेंगे। दो बहुत पुराने दोस्त मिले हैं आज। सो भी अचानक। बाँध अगर ढह चले, तो अचरज क्या?

लेकिन रेवती का पति सो ही रहा है, सो रहा है...

बाहर उसी तरह पानी बरस रहा है, उसी तरह अँधेरा है, उसी तरह बिजली काँपती है। दोनों साथियों के पास अगणित सवाल पूछने को हैं। कितने सवाल इन नौ सालों में कुकुरमुत्तों की तरह नहीं जमा हो गये हैं! विश्वनाथ के पास कम, रेवती के पास ज़्यादा। विश्वनाथ तो सवाल पूछने में नहीं रहता। वक़्त की बरबादी। वह तो आगे बढ़ जाता है। रेवती अलबत्ता पीछे फिर-फिरकर झाँकती है। अँधेरे में आँख गड़ाती है। रोशनी न होने से खीझती है। लेकिन विश्वनाथ है तो रोशनी देने के लिए। इन चार घंटों में जितनी रोशनी चाहो, वह मुक्त होकर दे सकता है। फिर तो वह अपने स्टेशन पर उतर जायगा ही। अब जब मौक़ा होने पर वह पीछे फिर कर सब कुछ देख लेना चाहती है, तो पाती है देख सिर्फ़ एक धुँधला बिन्दु–नौ बरस पहले की एक रात का तीसरा पहर, बारिश, बिजली, हवा-तूफान। गाँव के तालाब के किनारे दो व्यक्ति। इससे आगे रेवती चेष्टा करके भी नहीं देख पाती। और यह विश्वनाथ तो आज और उलझन ही पैदा कर रहा है। अचकचाहट। न जाने कैसा है यह?

साफ़ बात यह है कि दोनों को फुर्सत नहीं है। दोनों इन अमूल्य क्षणों में भी अपनी-अपनी तसवीरों में उलझे हुए हैं, बेतहर, सिलसिला ख़त्म ही नहीं होता।

विश्वनाथ सामने की बर्थ की इस नारी को एक दशाब्दी पीछे ढकेल कर देखना चाहता है। रेवती : एक युवती। निखरा हुआ यौवन। झूलते हुए बाल। ताजा मुखड़ा। तालाब से नहा कर लौटते हुए विश्वनाथ से उसकी अकसर की मुठभेड़।

रेवती की माँ का रोना। मजबूरी। रुसवाई। विश्वनाथ भी भला इसे क्या कर सकता है? बात ज़्यादा आगे बढ़ गयी है। सभी उनके बारे में जानते हैं। कोई छिपाना नहीं हो सकता। रात को उनकी मिलने की जगहों में अब पहरा बिठाला रहता है। रेवती घास-फूस की तरह बढ़ रही है। उसकी शादी होना जरूरी है। पर विश्वनाथ से नहीं। यद्यपि बात बहुत आगे बढ़ गयी है। न रेवती, न विश्वनाथ ही मुँह दिखाने योग्य हैं। पर विश्वनाथ तो बेहया है और है पुरुष। इतनी दलील बहुत है। पर रेवती-सारी परीशानी तो उस पर है। उसने ग़लती की। भोगे। भोग तो रही ही है। पर विश्वनाथ भी एक़दम अछूता नहीं रह सकता। उसे भी नौकरी छोड़नी होगी। छोड़नी होती है। विश्वनाथ गाँव छोड़ कर आज रात चला जायगा। पन्द्रह मील पर स्टेशन है। क़रीब क़रीब पैदल ही जाना है। रेवती से मिलेगा। मिला। कुछ ज़्यादा कहना–सुनना नहीं हो सकता था। चुप्पी ही चुप्पी में दोनों बहुत कह जाते हैं। नारी की मजबूरी।

विश्वनाथ चला गया। उस रात। अगले सगुन में योग्य वर से रेवती की शादी हो जायगी। घास उगते देर नहीं लगती। गड़े मुर्दे उखड़ेंगे कैसे? उखड़ सकते हैं? हमेशा मुर्दे थोड़े ही बने रहेंगे। हो जायेंगे राख और पत्थर। तब? ठीक है। रेवती की माँ का रोना? उसकी बात दूसरी है।...

एक बरस और चला गया है। रेवती की शादी हो गयी है। लेकिन इस बिन्दु पर रेवती दर्द अनुभव कर रही है। उसकी माँ बिदाई की रात मर जो गयी थी। क्योंकि उसके जीने की सार्थकता अब नहीं रही। क्योंकि वह रेवती के लिए अब संपूर्ण इन्तज़ाम कर चुकी है। जीना क्योंकि अनर्गल है। इसलिए। पर रेवती दायित्व इतने सहज रूप से भुला नहीं पा रही है। न अभी न कभी। इसलिए दर्द। नुकीला। पैना।

रेवती की शादी हो गयी। योग्य वर से। उचित रूप में। और चाहिए ही क्या? लेकिन वह पिछले प्रेम प्रसंग के बारे में कुछ नहीं जानता। सो भी अच्छा ही है। जानने से शोक होता है। और वह हो भी तो गया पुराना क़िस्सा।

खिड़की के पार के दौड़ते हुए अँधेरे से रेवती की आँख उठकर पहुँचती है अपने पति पर, जो हाथ का तकिया लगाये सो रहा है। निर्द्वन्द्व। बेखबर। उसका पति। फिर विश्वनाथ पर, जो अजीब सूरत बनाये उस पल सोच रहा है–रेवती? आज विवाहित। वह देखो उसका पति। वह देखो उसके बच्चे, आज यों। जीवन–मीनार की सीढ़ियों को वह अकेला ही तय करने का आदी हो गया है। किसी को वह यह हक़ देने को तैयार नहीं है। यह सफ़र करने में जो यकायक मिल गयी है सो ठीक ही है। और बस। फिर वह सोच रहा है कि रेवती का सौंदर्य अब ढल रहा है। आकर्षण वह नहीं पाता और उसकी ओर बहुत गौर से निहारता है। रेवती विकल बैठी है। एक पहेली, अपने तई। न जाने क्यों? वह अपने मन से परीशान है। मिर्च का तीतापन उसे अपनी ओर खींचता है।

रेवती आज अपने तीन बच्चों और ढले हुए सौंदर्य के बावदूद दस साल लाँघकर वहाँ पहुँच जाना चाहती है जहाँ उसमें मार्दव है और यह विश्वनाथ उसके आकर्षण की डोर में जकड़ा हुआ है। उसकी शादी अभी नहीं हुई है। और यह है उसका गाँव।

उसकी साँस तेज़ चलने लगती है।

तभी विश्वनाथ कहता है–तुम तो बहुत बदल गयीं, रेवती ?

रेवती क्या कहे? उसके पास कहने को क्या है? जो है सो विश्वनाथ तो देख ही रहा है। फिर भी–और तुम? वह दाढ़ी की उलझन, पेशानी की यह शिकन, आँखों की यह कालिख?

विश्वनाथ दोनों फ़रीक़ों की ओर से जवाब दे डालता है–यह तो उम्र है वक़्त। भट्टी। शिद्दत। सुलगन।

फिर चुप्पी। फिर बेकली। और फिर रेवती का पति सो रहा है। अजीब बात है। मानों उसे सोना छोड़ दूसरा काम नहीं है। रेवती अपने से कहती है, उसका यह सोना अच्छी बात नहीं है, कितनी बेढ़ंगी चीज़! लेकिन वह तो आखिर सो ही रहा है। गोया इस अजीब ढंग से वह रेवती से कह रहा है–झिझक तज। मैं तो सोऊँगा ही।

यहीं बात ख़त्म थोड़े ही हो जाती है। और बहुतेरी बातें होती हैं जिनमें से कुछ विश्वनाथ की दाढ़ी में उझल कर रह जाती हैं और कुछ रेवती समझ सकने की कूवत अभी नहीं रखती। और विश्वनाथ तो आगे ही देखता है। देखता है–पति सो रहा है, पत्नी आकुल है, और निस्तब्धता पहरा दे रही है। वह और आगे देखेगा। रेवती के मुखड़े पर चढ़ती हुई लाली। उसकी बुझती-सुलगती आँखें जिनमें वह कुछ पढ़ता है। पर उसकी आँख कमज़ोर हैं। उतनी दूर से वह पढ़ नहीं पाता... नजदीक से साफ़ दिखेगा।

और जब रेवती अपने होंठ उसे निछावर करती है, उसे लगता है कि उस क्षेत्र में जैसे एक मकड़ा अपने पंजे सिकोड़ कर एक गुदगुदी भरी चुभन के साथ डोल रहा है। रेवती का मन कुछ और होता है, न जाने कैसा...पर मुसकराये बिना उससे रहा नहीं जाता।

रेवती अपने बिस्तर पर पड़ी सोच रही है।

‘कल की वह शाम, आज की यह रात। उंह! वैषम्य ही नियम है जाने भी दो–चुम्बन को मान क्यों न लूँ? पर...?’

वह सारा इतिहास सकारना चाहती है, उद्धेग-ज्वार है। पर वह संभवतः मुस्कराने को छोड़ दूसरा कुछ नहीं कर सकती। वह नारी है। मकड़ा चाहे तो चलता रहे।

जब वह मुस्कराती है, समझदार पति किताबों के मुताबिक इसे आसक्ति का चिन्ह मानता है और अपने पौरुष पर निहाल हो जाता है। वह दूसरा क्या करे? रात भीग चुकी है। चुप रेवती ग़ौर करके देखती है। और जिस सारी सहूलियत से उसने रेंगते हुए उन मकड़ों को बखूबी झेल लिया है, उसे याद करके पसीने-पसीने हो जाती है। सर का खून माथे में उतर आता है। वह हाँफती है। रात और भीग जाती है।

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