पथगामपुर की जमीन (कश्मीरी कहानी) : गुलशन मजीद

Pathgampur Ki Jameen (Kashmiri Story) : Gulshan Majeed

मजा (मजीद) आज ज्यों ही आँगन-द्वार के भीतर आया, आयशा के मुँह से जोर की हँसी फूट पड़ी। वह द्वार के ठीक सामने स्नान-घर के खुले पट के पीछे खड़ी थी। मजा दलदल से निकाली गई छोटी मछली की तरह कीचड़ से लथपथ था। उसने आयशा की हंसी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, अपितु नाक की सीध में चलकर कंधे पर लदा बोझ आँगन के एक कोने में छप्पर के नीचे उतार दिया। उसकी आयशा से कोई खास दिलचस्पी भी नहीं थी। वह उसके लिए बस एक बहाना थी। उसे सिर्फ इस बात से दिलचस्पी थी कि उसे एक कनाल जमीन मिलने वाली है जिसका फैसला आयशा के बाप पीर साहब से पहले ही हो चुका था। मजा की नजरें सिर्फ जमीन के इसी एक कनाल टुकड़े पर थीं और उसी के लालच में वह बुरी तरह फँस भी गया था।

“जाओ, बाबा तुम्हारा ही इंतजार कर रहा है।"
"मैं अभी आया नहीं कि..."
“अब आ गए ना? तुरंत चले जाओ!" आयशा ने आपनी आवाज ऊँची करके कहा।

मजा हाथ-मुँह धोकर भीतर चला गया। पीर साहब रोज की तरह तावीज लिख रहा था, जिन्हें तह करके तिकोना आकार देना मजा के जिम्मे था।

"तू किस जहन्नुम में चला गया था, बे? पीर साहब ने बिना सिर उठाए अपनी बलगमी आवाज़ में पूछा।
मजा खामोश रहा। वह पीर साहब के लिखे तावीज़ समेटने लगा।

"बोलता क्यों नहीं? तुझे किस बाढ़ में डूबने जाना था? इतनी बेताबी की वजह क्या थी? बदबख्त, रख दे ये तावीज़ नीचे!" पीर साहब सख्त गुस्से में था।
“जी, वह पथगामपुर की जमीन है ना? उसी...'

"देख रे गधे के सींग! पथगामपुर की जमीन अपने समय पर तुझे अपने-आप मिलेगी। तेरे जिम्मे जो काम है, तू सिर्फ उसे ही निपटा ले। बहुत तंग किया है तूने मुझे। समझ में नहीं आता कि तुझे क्या-क्या समझाऊँ। आज तो तू बाढ़ में बहने से बाल-बाल बचा। अगर अल्लाह ने उन बचानेवालों को नहीं भेजा होता तो तेरी लाश भी कहीं न मिलती।"

मजा को बहुत समय से अविश्वास ने घेर रखा था। उसे विश्वास ही नहीं होता था कि उसे एक कनाल ज़मीन मिलेगी। उसे जो कुछ भी बताया गया था उसके अनुसार पथगामपुर कहीं आस-पास ही होना चाहिए था, लेकिन काफी तलाश के बाद भी मजा उस गाँव का कोई अता-पता नहीं पा सका था। उसके दिल में जाने कैसे यह शक घर कर गया था कि यह पथगामपुर बड़ी नदी के उस पार ही होगा। इधर जब पिछले कई दिनों की अविरल वर्षा के कारण बड़ी नदी में बाढ़ आ गई तो उससे रहा नहीं गया। पथगामपुर की अपनी जमीन की हालत अपनी आँखों से देखने के लिए उसने बाढ़ के पानी के तेज बहाव की परवाह न करते हुए बड़ी नदी को तैरकर पार करने की कोशिश की। यह तो उसकी किस्मत ही अच्छी थी कि उसे बड़ी मुश्किल से बचा लिया गया। पीर साहब के आगबबूला होने की यही वजह थी।

"जी, असल में यह पथगामपुर ..." मजा फिर अपनी डफली बजाने लगा। "हाय रे नालायक कहीं के! ऐसी की तैसी तेरे पथगामपुर की! अहमक, पथगामपुर तो उसी पार है। तेरे नदी में कूदने से क्या वह इस पार आएगा?"
"मगर..."

“मजा! मैं कहता हूँ अपना मुँह बंद कर! कई दिनों से तू एक-एक से पूछ रहा है कि पथगामपुर कहाँ है पथगामपुर कहाँ है? दफा हो जा यहाँ से! और हाँ, जाकर आयशा को यहाँ भेज दे।"

मगर मजा नहीं उठा। वह पीर साहब के क्रोध से ही नहीं, उस क्रोध की सीमा से भी परिचित था-"जी, मैं खुद भी एक बार यह पचगामपुर देखना चाहता हूँ।"

"देख चूल्हे के चूहे! पथगामपुर उस जुजदान में है। मुद्दत पूरी होने पर तुझे वह अपने-आप मिल जाएगा। यही फैसला हुआ है और सचाई भी यही है।" पीर साहब ने उँगली से ताकचे की ओर इशारा किया जहाँ बहुत-से जुजदान रखे थे।

मजा खुद भी जानता था कि उसकी किस्मत का फैसला इन्हीं में से किसी एक जुजदान में महफूज है। इस फैसले की एक नकल उसके बाप को भी दी गई थी जिसे उसने पीर साहब पर भरोसा करके उसी के पास ही रखा था। फैसले की बात सही थी। पथगामपुर भी कोई झूठ नहीं था। मगर मजा के मन में बस एक ही गाँठ थी कि वह पथगामपुर है तो कहाँ है? उसका मन हर क्षण उसे ही तलाशता रहता था और इसलिए वह खुद पीर-परिवार के यहाँ बेगारी में लगा था। वह अपने काम, मेहनत और व्यवहार से पीर-परिवार को हर तरह से खुश रखना चाहता था। मगर न तो पीर-परिवार में कभी काम खत्म होता था और न ही मजा कभी काम से थकता था। उसका मन हमेशा उस पथगामपुर में ही भटकता रहता था जो उसे कहीं नजर नहीं आता था।

मजा की रात, उसका दिन सिर्फ पथगामपुर था। पथगामपुर को पाने के लिए ही वह सुबह की अजान से लेकर शाम की नमाज़ तक कड़ी मेहनत करता रहता था। पथगामपुर के ही सपने देखते-देखते मजा ने पहले अपना बचपन खोया, फिर आयशा को खोया और अंत में पथगामपुर भी खो डाला। अब तो घर में बस आयशा के बच्चे बचे थे। एक कोने में सिमटा पीर साहब ताबीज़ लिखते-लिखते आखिरी साँस का इंतजार कर रहा था। मजा तो बस काम करनेवाली बेजान मशीन बन गया था। काम पूरा करने के बाद वह अब भी खेतों, गाँवों और वीरानों में बिना किसी इरादे या मकसद के फिरता रहता था। दूर-दूर तक घूमने के बाद भी उसे पता नहीं चलता था कि वह कहाँ पहुँच गया। वह अक्सर अपने चीथड़ों की जेबें झाड़ता रहता था। उन्हें छुपाता था और तब उन्हें तावीज़ों की तरह तह करके रखता था। लेकिन थोड़ी देर बाद ही फिर से उनकी तह खोलता, जेबें झाड़ता और फिर से तह करके रखता। इस उधेड़बुन में यदि कोई अनजान-अपरिचित उससे पूछता कि पीर साहब कहाँ हैं तो वह बिना सिर उठाए झट से जवाब देता-“पथगामपुर में!"

(अनुवादक : हरिकृष्ण कौल)