पथ के दावेदार (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Path Ke Davedar (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अध्याय 4

थोड़ी दूर चलकर अपूर्व ने सौजन्यतापूर्वक कहा, “आपका शरीर इतना अस्वस्थ और दुर्बल है कि इस हालत में और आगे चलने की जरूरत नहीं है। यही रास्ता तो सीधे जाकर बड़े रास्ते से मिल गया है। मैं चला जाऊंगा।”

तनिक मुस्कराकर डॉक्टर ने कहा, “जाने से ही क्या चला जाया जा सकता है अपूर्व बाबू! सांझ को यह रास्ता सीधा था। लेकिन रात को पठान-हब्शी इसे टेढ़ा बना देते हैं। चले चलिए।”

“यह लोग क्या करते हैं, मारपीट?”

डॉक्टर बोले, “अपनी शराब का खर्च दूसरे के कंधो पर लादने के लिए यह लोग ऐसा करते हैं। जैसे आपकी यह सोने की घड़ी है। इसके दूसरी जेब में जाते समय आपत्ति उठने की सम्भावना है। ठीक है न?”

अपूर्व घबराकार बोला, “लेकिन यह तो मेरे पिताजी की है।”

डॉक्टर बोले, “लेकिन यह बात तो वह लोग समझना ही नहीं चाहते। लेकिन आज उन्हें समझना ही होगा।”

“यानी?”

“यानी, आज इसके बदले किसी को शराब पीने की सुविधा न मिल सकेगी।”

अपूर्व ने शंकित स्वर में कहा, “न हो, चलिए। किसी दूसरे रास्ते से घूमकर चला जाए।”

डॉक्टर खिलखिलाकर हंस पड़े। उनकी हंसी स्त्रियों की तरह स्निग्ध कौतुक भरी थी। बोले, “घूमकर? इस आधी रात को? नहीं-नहीं, इसकी जरूरत नहीं है, चलिए।” यह कहकर उस जीर्ण हाथ से अपूर्व का दायां हाथ थाम लिया। दबाव पड़ते ही अपूर्व के वर्षों के जिमनास्टिक और क्रिकेट-हॉकी खेलने से पुष्ट हाथ की हड्डियां मरमरा उठीं।

अपूर्व बोला, “चलिए, समझ गया। चाचा जी ने उस दिन आपकी बात चलने पर कहा था कि हम लोगों के गुप्त रजिस्टरों में लिखा है कि कृपा करने पर वह पांच-सात-दस पुलिस वालों की जीवन लीला केवल थप्पड़ मारकर समाप्त कर सकते हैं चाचा जी की उस मुख भंगिमा पर हम लोग खूब हंसते रहे थे। लेकिन अब सोच रहा हूं कि हंसना उचित नहीं था। आप सम्भवत: ऐसा कभी कर सकते हैं।”

डॉक्टर के चेहरे के भाव बदल गए। बोले, “चाचा जी की यह तो अतिशयोक्ति थी।”

सूनी गली को पार करके वह बड़ी सड़क के पास पहुंचे तो अपूर्व बोला, “अब लगता है कि मैं बेखटके जा सकूंगा। धन्यवाद।”

डॉक्टर ने रास्ते पर दूर तक नजर डालकर धीरे से कहा, “जा सकेंगे.... शायद....”

नमस्कार करके विदा होते समय अपूर्व अपने आंतरिक कौतुहल को किसी भी प्रकार रोक नहीं सका। बोला, “अच्छा सव्य.....।”

“नहीं, नहीं, सव्य नहीं.... डॉक्टर कहो।”

अपूर्व लज्जित होकर बोला, “अच्छा डॉक्टर साहब, हमारा यह सौभाग्य है कि रास्ते में कोई मिला नहीं। लेकिन मान लीजिए, अगर उनके दल में अधिक संख्या में लोग होते, तो भी क्या हम लोग संकट मुक्त थे।”

डॉक्टर बोल, “उनके दल में दस-पांच आदमी ही तो रहते हैं।”

“दस हों या पांच, हमें भय नहीं था?”

डॉक्टर मुस्कराकर बोले, “नहीं।”

मोड़ पर पहुंचकर अपूर्व ने पूछा, “अच्छा, क्या सचमुच ही आपकी पिस्तौल का निशाना कभी खाली नहीं जाता?”

डॉक्टर हंसते हुए बोले, “नहीं, लेकिन क्यों, बताइए तो? मेरे पास तो पिस्तौल है नहीं।”

अपूर्व बोला, “बिना लिए ही निकल पड़े? आश्चर्य है। डॉक्टर साहब मेरा डेरा यहां से लगभग एक कोस होगा या नहीं?”

“अवश्य होगा।”

“अच्छा नमस्कार। मैंने आपको बहुत कष्ट दिया।” वह फिर बोला, “अच्छा यह भी हो सकता है कि वे लोग आज किसी दूसरे रास्ते पर खड़े हों।”

डॉक्टर बोले, “कोई आश्चर्य तो है नहीं।”

“नहीं भी है। है भी। अच्छा नमस्कार। लेकिन मजा तो देखिए, जहां वास्तव में आवश्यकता है वहां पुलिस की परछाई तक नहीं। यही है उन लोगों का कर्त्तव्य बोध। क्या हम लोग इसलिए मर-मर कर टैक्स देते हैं। सब बंद कर देना चाहिए....क्या कहते हैं आप?”

“इसमें संदेह नहीं,” कहकर डॉक्टर साहब हंस पड़े, बोले, 'चलिए बात-चीत करते-करते आपको कुछ दूर और पहुंचा दूं।”

अपूर्व लज्जा भरे स्वर में बोला, “मैं बहुत डरपोक आदमी हूं डॉक्टर साहब। मुझमें तनिक भी साहस नहीं है। दूसरा कोई होता तो इतनी रात आपको कष्ट न देता।”

उसकी ऐसी विनम्र, अभिमान रहित सच्ची बात सुनकर डॉक्टर साहब अपनी हंसी के लिए स्वयं ही लज्जित हो गए। स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, “साथ चलने के लिए ही तो मैं आया हूं अपूर्व बाबू! नहीं तो प्रेसीडेंट मेरे हाथ में इस चीज को नहीं सौंपतीं” यह कहकर उन्होंने बाएं हाथ की काली मोटी लाठी दिखा दी।

“क्या वह आपको आदेश दे सकती है?”

डॉक्टर हंसकर बोले, “अवश्य दे सकती हैं।”

“लेकिन किसी दूसरे को भी तो मेरे साथ भेज सकती थीं।”

“इसका अर्थ होता, सबको दल बनाकर भेजना। उससे तो यही व्यवस्था ठीक हुई अपूर्व बाबू!” डॉक्टर ने कहा, “वह हमारे दल की प्रेसीडेंट हैं। उनको सब कुछ समझकर काम करना पड़ता है। जहां छुरेबाजी होती है वहां हर किसी को नहीं भेजा जा सकता। अगर मैं न होता तो आज रात को रुकना पड़ता। वह आपको आने न देतीं।”

“लेकिन अब इसी रास्ते से आपको अकेले ही लौटना पड़ेगा।”

डॉक्टर बोले, “पडेग़ा ही।”

अपूर्व और कुछ नहीं बोले। पंद्रह मिनट और चलकर पहले पुलिस स्टेशन को दाईं ओर छोड़कर बस्ती में कदम रखते ही अपूर्व ने कहा, “डॉक्टर साहब, अब मेरा डेरा अधिक दूर नहीं है। आज रात यहीं ठहर जाएं तो क्या हानि है।”

डॉक्टर हंसते हुए बोले, “हानि तो बहुत-सी बातों में नहीं होती अपूर्व बाबू! लेकिन बेकार काम करने की हम लोगों को मनाही है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, इसलिए मुझे लौट जाना पडेग़ा।”

“क्या आप लोगा बिना प्रयोजन कोई भी काम नहीं करते?”

“करने का निषेध है। अच्छा, अब मैं चलता हूं अपूर्व बाबू!”

एक बार मुड़कर पीछे के अंधेरे से भरे रास्ते को देखकर अपूर्व इस व्यक्ति के अकेले लौट जाने की कल्पना से सिहर उठा। बोला, “डॉक्टर साहब लोगों की मर्यादा की रक्षा करने की भी क्या आप लोगों को मनाही है?”

डॉक्टर ने आश्चर्य से पूछा, “अचानक यह प्रश्न क्यों?”

अपूर्व ने क्षुब्ध अभिमान के स्वर में कहा, “इसके अतिरिक्त और क्या कहूं, बताइए? मैं डरपोक आदमी हूं। दलबध्द गुंडों के बीच से अकेला ही जा सकता। लेकिन मुझे निरापद पहुंचाकर उसी संकट के बीच से यदि आप अकेले लौटेंगे तो मैं मुंह दिखाने के योग्य नहीं रहूंगा।”

बड़े स्नेह से उसके दोनों हाथ पकड़कर डॉक्टर ने कहा, “अच्छा चलिए, आज रात आपके डेरे पर ही चलकर अतिथि बनकर रहूं। लेकिन यह सब बखेड़ा क्यों मोल ले रहे हो भाई।”

अपूर्व इस बात को ठीक अर्थ नहीं समझ सका। लेकिन दो-चार कदम आगे बढ़ते ही, हाथ में न जाने किस प्रकार का खिंचाव अनुभव करके घूमकर बोला, “आपका जूता शायद काट रहा है डॉक्टर साहब! आप लंगडा रहे हैं।”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “यह कुछ नहीं है। लोगों के घरों के पास पहुंचते ही मेरे पैर अपने आप लंगड़ाने लगते हैं। गिरीश महापात्र का चलना याद है न?”

अपूर्व बोला, “आपको चलना नहीं पड़ेगा, डॉक्टर साहब!

डॉक्टर मुस्कराकर बोले, “लेकिन आपकी मर्यादा।”

“आपसे मर्यादा की क्या बात है। मैं तो आपकी चरण-धूलि के बराबर भी नहीं। आपके अतिरिक्त किसमें साहस है?”

इस रास्ते से अकेले चलने में इस व्यक्ति के लिए क्या कठिनाई है? पुलिसवाले जिसे सव्यसाची के नाम से जानते हैं उनकी राह दस-बारह गुंडे मिलकर भला कैसे रोक सकते हैं?”

डॉक्टर ने हंसी छिपाकर भले आदमी की तरह कहा, “इससे तो यही उचित होगा कि हम दोनों ही फिर एक साथ लौट चलें। मुझे अकेला देखकर अगर कोई आक्रमण करने का साहस करे भी तो आपके साथ रहने से इसकी सम्भावना नहीं रहेंगी।”

अपूर्व बोला, “फिर लौट चलूं?”

“हानि ही क्या है? अकेले जाने में मुझे जो शक है, वह तो न रहेगी।”

“मैं ठहरूंगा कहां?”

“मेरे यहां।”

ऑफिस से लौटने पर अपूर्व को आज भोजन भी नहीं मिला था। बड़े जोर की भूख लग रही थी। कुछ लज्जित होकर बोला, “देखिए, अभी तक मैंने कुछ खाया भी नहीं है। आपके लिए....”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “चलिए न, आज भाग्य की परीक्षा करके देख ली जाए। लेकिन एक बात है, तिवारी को बहुत चिंता होगी।”

तिवारी की चर्चा होते ही अपूर्व के मन में अचानक एक हिंस्र प्रतिशोध की भावना जाग उठी। क्रुध्द होकर बोला, “मर जाए सोचते-सोचते। चलिए, लौट चलें।”

दोनों फिर सुनसान रास्ते से लौट पड़े।

लेकिन इस बार उसे डर की बातें ही याद नहीं आईं। पुलिस स्टेशन पार करके अचानक पूछ बैठा, 'डॉक्टर साहब, आप एनार्किस्ट हैं?”

“आपके चाचा जी क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि आप एक भयानक एनार्किस्ट हैं।”

“मैं सव्यसाची हूं इस संबंध में आपको संदेह नहीं?”

“नहीं।”

“एनार्किस्ट से आप क्या अर्थ लगाते हैं?”

“राजद्रोही-अर्थात जो राजा का शत्रु हो।”

डॉक्टर बोले, “हमारे राजा विलायत में रहते हैं। लोग कहते हैं, बहुत ही भले आदमी हैं। मैंने अपनी आंखों से उन्हें कभी नहीं देखा। उन्होंने भी मेरी कभी कोई हानि नहीं की। फिर उनके प्रति शत्रुता का भाव मेरे मन में क्यों होगा?”

अपूर्व बोला, “जिन लोगों के मन में आता है उनमें भी वह किस प्रकार आता है, बताइए तो? उनका भी तो उन्होंने कभी अनिष्ट नहीं किया।”

डॉक्टर बोले, “इसीलिए तो आप जो कुछ कह रहे हैं सत्य नहीं है।”

इसे अस्वीकार करने से अपूर्व चौंक पड़ा। अविश्वास करने का उनमें साहस नहीं था। कुछ सोचकर बोला, “राजा भले ही न हो, राज कर्मचारियों के विरुध्द जो षडयंत्र है वह तो असत्य नहीं है डॉक्टर साहब!”

कर्मचारी राजा के नौकर हैं, वेतन पाते हैं, और आज्ञापालन करते हैं, एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। लेकिन इस सहज को जटिल और विराट को सूक्ष्म करके जब देखने की चेष्टा करता है तभी व्यक्ति सबसे बड़ी भूल करता है। इसलिए उन लोगों पर आघात करने को एक शक्ति के मूल में आघात करना कहकर कुछ लोग आत्मवंचना करते हैं, इतनी बड़ी सांघातिक व्यर्थता दूसरी नहीं है।”

अपूर्व बोला, “लेकिन यह व्यर्थ काम करने वाले लोग क्या भारत में नहीं हैं?”

“हो सकते हैं।”

“अच्छा डॉक्टर साहब, सब लोग कहां रहते हैं और क्या करते हैं?” अपूर्व ने पूछा।

उसकी उत्सुकता और व्यग्रता देखकर डॉक्टर केवल मुस्करा दिए।

अपूर्व बोला, “हंस क्यों दिए?”

डॉक्टर बोले, “आपके चाचा होते तो समझ जाते। आपको विश्वास है कि मैं एनार्किस्टों का नेता हूं। मेरे ही मुंह से उत्तर की आशा करना क्या उचित होगा। अपूर्व बाबू!”

अपनी बुध्दिहीनता पर अपूर्व अप्रतिभ होकर बोला, “आशा करना पूरी तरह अनुचित हो जाता अगर आप मुझे आज अपने दल में भर्ती न कर लेते। सदस्यों का इतनी बात जान लेने का अधिकार है। इससे अधिक जानने की उसे जरूरत नहीं है।”

“अधिकार है” कहकर डॉक्टर हंस पड़े, “विद्रोही दल के खाते में जिसका नाम लिखा गया है उसके प्रश्न का यही उत्तर है; इससे अधिक जानने की जरूरत नहीं है।”

अपूर्व तीखे स्वर में बोला, 'दल के खाते में झटपट नाम लिख लेने से ही तो कुछ नहीं होता। उसका फलाफल भी तो समझाना पड़ता है।”

“लेकिन उन लोगों ने क्या ऐसा नहीं किया है?”

“कुछ भी नहीं। 'पथ के दावेदार,' दावे का इतना ठाट-बाट है, यह कौन जानता था और आप भी थे। नाम लिखने के पहले आपको भी तो जान लेना उचित था कि मेरा वास्तविक उद्देश्य क्या है?”

डॉक्टर तनिक लज्जित होकर बोले, “महिलाओं ने ही यह सब आयोजन किया है। वह ही जानती हैं-किसे सदस्य बनाएं, किसे नहीं। वास्तव में मैं इन लोगों की सभा की कोई विशेष बात नहीं जानता अपूर्व बाबू!'

अपूर्व समझ गया कि यह भी परिहास ही है। उत्कंठा और आशंका से क्रुध्द होकर बोला, “छिपा क्यों रहे हैं। डॉक्टर साहब! सुमित्रा को ही अध्यक्ष बनाइए और जिसे जो चाहे बना दीजिए। यह दल आपका है और आप ही इसके सब कुछ हैं, इसमें संदेह नहीं। पुलिस की आंखों में आप धूल झोंक सकेंगे, लेकिन मेरी आंखों को धोखा नहीं दे सकते, यह समझ लीजिए।”

डॉक्टर ने आंखें फाड़कर कहा, “मेरे दल का अर्थ एनार्किस्टों का दल ही तो है। आप व्यर्थ ही शंकित हो उठे हैं अपूर्व बाबू! आदि से अंत तक आपने गलत समझा है। यह लोग जीवन-मरण के खेल में शामिल हैं। वह लोग आपके जैसे कायर आदमी को अपने दल में क्यों शामिल करेंगे? वह क्या पागल हैं?”

अपूर्व लज्जा से लाल हो उठा, लेकिन उसकी छाती पर का भारी बोझ हट गया।

डॉक्टर ने कहा, 'पथ के दावेदार' नाम रखकर सुमित्रा ने इस दल की स्थापना की है। जीवन-यात्रा में, पथ पर चलने का मनुष्य को कितना बड़ा अधिकार है, संस्था के सदस्य अपना पूरा जीवन लगाकर यही बात हर मनुष्य को बता देना चाहते हैं। सुमित्रा के अनुरोध पर जितने दिन यहां रहूंगा इस दल को सुसंगठित करने का प्रयत्न करूंगा। इसके अतिरिक्त मेरा कुछ संबंध नहीं। यह है समाज सुधारक। लेकिन समाज-सुधार के लिए घूमने को न तो मेरे पास समय है न धैर्य। हो सकता है कुछ दिन यहां रहूं। हो सकता है कल ही चलता बनूं। फिर जीवन भर भेंट न हो। मेरे जीने या मरने का समाचार भी सम्भव है आप तक न पहुंचे।”

यह वचन शांत और धीमे थे। उच्छ्वास का आवेग उनमें नहीं था। सव्यसाची का जो विवरण उसने चाचा जी से सुना था वह अपूर्व को याद आ गया। लेकिन तभी याद आया-वह तो पत्थर है उसके लिए पीड़ा का अनुभव कैसा?

उसने पूछा, “सुमित्रा कौन है? आपसे कैसे परिचय हुआ?”

डॉक्टर थोड़ा हंस दिए। उत्तर न मिलने पर अपूर्व स्वयं समझ गया कि पूछना ठीक नहीं हुआ?

कुछ पल मौन रहकर डॉक्टर बोले, “आपकी कृपा से आज रास्ता निर्विघ्न है। लेकिन अकसर होता नहीं। लेकिन आप क्या सोच रहे हैं, सुनूं तो?”

अपूर्व बोला, “सोचता तो बहुत कुछ हूं। लेकिन....उसे छोड़िए। अच्छा आपने कहा, 'मनुष्य का पथ पर निर्विघ्न चलने का अधिकार।' जिस प्रकार आज हम लोग पथ पर निर्विघ्न चल रहे हैं-ऐसा ही न?”

डॉक्टर हंसकर बोले, “हां, कुछ-कुछ ऐसा ही।”

अपूर्व ने कहा, “जो स्त्री पति को छोड़कर पथ के दावेदारों के सदस्य बनने आई है, वह भी मैं अच्छी तरह नहीं समझ सका।”

“मैं भी ठीक प्रकार से समझ गया हूं-कह नहीं सकता। उन सब बातों को सुमित्रा ही अच्छी तरह जानती है?”

अपूर्व ने पूछा, “उसके पति शायद नहीं हैं?”

डॉक्टर चुप हो रहे। अपूर्व को लज्जा से फिर याद आया कि वह कोई उत्तर नहीं देंगे। डॉक्टर के मुंह की ओर देखकर उसे लगा मानो इस आश्चर्यमय व्यक्ति के अशांत जीवन के एक गोपनीय भाग को अचानक उसने देख लिया है, उसने स्पष्ट देखा-उस भीषण रूप से सतर्क व्यक्ति की आंखों पर एक धुंधला-सा जाला छा गया था।

अपूर्व ने और कुछ नहीं पूछा। चुपचाप चलने लगा।

अचानक डॉक्टर ने हंसकर पूछा, “देखिए अपूर्व बाबू, आपसे मैं सच कहता हूं, स्त्रियों की यह प्रणय जनित मान-अभिमान की बातें-मैं कुछ नहीं समझता। इनमें बेकार ही समय नष्ट होता है। इतना समय मेरे पास कहां है!”

अपूर्व के प्रश्न का यह उत्तर नहीं था। वह चुप ही रहा।

डॉक्टर बोले, “चुप क्यों हो? बातचीत क्यों नहीं करते?”

“क्या कहूं, बताइए।”

डॉक्टर बोले, “देखिए अपूर्व बाबू, भारती बहुत अच्छी लड़की है। जैसी बुध्दिमती है वैसी ही कर्मठ और शिष्ट भी।”

यह बात भी बेकार थी। लेकिन अपूर्व ने यह भी नहीं पूछा कि आप उससे कितने दिनों से परिचित हैं और किस प्रकार? वह बोला, “हां।”

लेकिन डॉक्टर शायद अपनी अंतिम बात का ही सूत्र पकड़कर बोले, “आपके विषय में उन्होंने बताया था कि आप भयंकर हिंदू हैं-एकदम कट्टर। भारती ने कहा था कि उसने इतने कट्टर हिंदू की भी जात बिगाड़ दी हैं।”

अपूर्व बोला, “हो सकता है।”

उसकी तर्क करने की इच्छा नहीं थी। रास्ता भी लगभग समाप्त हो चला था। गली के मोड़ पर डॉक्टर ने जैसे अपने सुस्त मन को एकाएक झकझोर कर जगा दिया। बोले, “अपूर्व बाबू?”

स्वर की तेजी से सचेत होकर अपूर्व ने सतर्क होकर कहा, “कहिए।”

डॉक्टर बोले, “मेरे यहां रहने की कोई आवश्यकता नहीं। मेरे चले जाने पर अपना संकोच छोड़कर सुमित्रा की सहायता कीजिएगा। ऐसी स्त्री आप सारे संसार में भी न पा सकेंगे। इसका 'पथ का दावेदार' कहीं निरादर तथा अवहेलना से मर न जाए।”

“तो फिर आप छोड़कर क्यों जा रहे हैं?”

“यहां से चले जाना ही मंगलमय है। मेरी सहायता की आप लोगों को जरूरत नहीं। सब लोग मिलकर इसे संगठित कीजिए। इसी के द्वारा देश का सबसे बड़ा कल्याण होगा।”

“नवतारा की घटना पर तो मैं विश्वास नहीं कर सकता डॉक्टर साहब।”

“लेकिन सुमित्रा पर तो करेंगे? विश्वास के लिए इतना ऊंचा स्थान और कहीं नहीं मिलेगा। अपूर्व बाबू! मैंने पहले ही बता दिया है कि स्त्रियों की बातें मैं बिल्कुल समझ नहीं सकता। लेकिन जब सुमित्रा कहती है कि विघ्न-बाधा हीन स्वतंत्र जीवन-यात्रा का मानव को अधिकार है तब इस दावे की किसी भी युक्ति से अवहेलना नहीं की जा सकती। केवल मनोहर के ही नहीं, अनेक लोगों के निर्दिष्ट मार्ग पर चलने से नवतारा का जीवन निर्विघ्न हो जाता- यह मैं जानता हूं। और जिस पथ को उसने स्वयं चुना है वह भी निरापद नहीं है। लेकिन स्वयं विपत्ति में डूबे रहकर मैं भी भला किस बूते पर उस पर विचार करूं, बताइए तो? सुमित्रा कहती है, इस जीवन को निर्विघ्न बिता पाना ही क्या मनुष्य का चरम कल्याण है? मनुष्य के विचार और प्रवृत्ति ही उसके कर्त्तव्य को निर्धारित करते हैं। लेकिन दूसरों के द्वारा निर्धारित विचारों और प्रवृत्ति के द्वारा जब वह अपने स्वाधीन विचारों का मुंह बंद कर देता है तब उससे बढ़कर आत्महत्या तो मनुष्य के लिए कुछ हो ही नहीं सकती। इस बात का कोई भी उत्तर मैं खोजने पर भी नहीं पा सकता हूं अपूर्व बाबू!”

“लेकिन यदि सभी अपने ही विचारों के अनुसार...?”

डॉक्टर ने बीच में ही रोककर कहा, “अर्थात अगर सभी अपने ही विचारों के अनुसार काम करना चाहें? उस दिशा में कैसा कांड होगा-यह बात आप एक बार सुमित्रा से पूछकर देखिए।”

अपने प्रश्न की त्रुटि समझकर अपूर्व उसे सुधारना चाहता था लेकिन समय नहीं मिला। डॉक्टर ने रोककर कहा, “लेकिन अब कोई तर्क नहीं चलेगा अपूर्व बाबू! हम लोग अब पहुंच गए। इस विषय में फिर कभी बात की जाएगी।”

अपूर्व ने देखा, वही लाल रंग का विद्यालय-उसके दो तल्ले के भारती के कमरे में उस समय भी रोशनी दिखाई दे रही थी।

डॉक्टर ने पुकारा, “भारती?”

खिड़की से झांककर भारती ने व्याकुल स्वर में पूछा, “विजय से आपकी भेंट हुई डॉक्टर साहब? वह आपको बुलाने गया है।”

डॉक्टर ने हंसकर कहा, “तुम लोगों को प्रेसीडेंट का आदेश ही तो है। लेकिन कोई भी आदेश इतनी रात गए किसी को भी उस रास्ते से भेज नहीं सकेगा। देख रही हो किसी को साथ लौटा लाया हूं।”

भारती ने ध्यान से देखकर अंधेरे में भी पहचान लिया, बोली, “ठीक नहीं किया। लेकिन आप शीघ्र जाइए। नरहरि ने शराब पीकर अपनी हेम के सिर पर कुल्हाड़ी मार दी है। बचेगी या नहीं, इसमें संदेह है। सुमित्रा दीदी वहीं गई हैं।”

डॉक्टर बोले, “अच्छा ही तो किया है। मरती हो तो मर जाए। लेकिन मेरे अतिथि....?”

भारती बोली, 'महिलाओं पर आपकी विशेष अनुकम्पा रहती है। लेकिन हेम के बजाय अगर नरहरि के साथ ऐसा हुआ होता तो आप अब तक दौड़े चले गए होते।”

“मान लो, दौड़ा चला जा रहा हूं। लेकिन मेरे अतिथि....?”

भारती दीपक लिए नीचे आ गई और द्वार खोलकर बोली, “अब आप देर मत कीजिए।”

“लेकिन क्या इनको ईसाई आतिथ्य स्वीकार होगा? इनको छोड़कर कैसे जाऊं भारती? उसे तुम लोगों ने अस्पताल भेजने की व्यवस्था क्यों नहीं की?”

भारती नाराज होकर बोली, “जो कुछ करना हो कीजिए। आपके पैर पड़ती हूं, देर न कीजिए। इनको मैं संभाल लूंगी। मुझे अभ्यास है। कृपया आप फौरन चले जाइए।”

अपूर्व कुछ कहना ही चाहता था लेकिन उससे पहले ही डॉक्टर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गए।


सीढ़ियां चढ़कर अपूर्व भारती के कमरे में पहुंचा और अच्छी तरह देखकर एक आराम कुर्सी बिछाकर लेट गया।

कुछ देर बाद जब भारती ने ऊपर आकर तिपाई पर दीपक रखा तो अपूर्व को एकाएक लज्जा का अनुभव हुआ। यह कोई नई बात नहीं थी। इससे पहले भी उन दोनों ने एक कमरे में रात बिताई है, लेकिन आज यह लज्जा क्यों? वह मन-ही-मन इसका कारण खोजने लगा तो सहसा उसे तिवारी की याद आ गई। भारती ने उसे जगाने का प्रयास नहीं किया। लेकिन पुराने मकान के दरवाजे-खिडकियां बंद करने में जो खटपट की आवाज हुई, यह वास्तविक नींद के लिए अत्यंत विघ्नकारक थी। अपूर्व उठ बैठा। आंखें मलकर जंभाई लेते हुए बोला, “ओह, इतनी रात को फिर लौट आना पड़ा।”

“जाते समय यह बात बताकर क्यों नहीं गए? सरकार जी से कहकर आपके लिए भोजन मंगवाकर रख लेती?”

“लौट आने की बात क्या मैं जानता था?”

भारती ने सहज स्वर में कहा, “मुझसे ही भूल हुई। भोजन के बारे में उनसे उसी समय कह देना चाहिए था। इतनी रात गए यह बखेड़ा उठाने की नौबत न आती। इतनी देर तक आप लोग कहां बैठे रहे?”

“उन्हीं से पूछिए कि तीन कोस का मार्ग चलना, बैठकर समय बिताना कहलाता है या नहीं?”

भारती बोली, “गोरख धंधे में पड़ गए थे, यही न। फिर चलना ही सार निकला,” यह कहकर खड़े होने के बाद जरा हंसकर बोली, “संध्या आदि अब भी करते हैं या नहीं? कपड़ा दे रही हूं। इन कपड़ों को उतार दीजिए।” यह कहकर आंचल समेत चाबियों का गुच्छा हाथ में लेकर एक अलमारी खोलती हुई बोली, “बेचारा तिवारी घबरा जाएगा। लगता है ऑफिस से लौटने पर एक बार भी डेरे पर जाने का समय नहीं मिला।”

अपूर्व क्रोध को दबाते हुए कहा, “अवश्य ही आप ऐसी अनेक वस्तुएं देख लेती हैं, जिन्हें मैं नहीं देख पाता, स्वीकार करता हूं इसे। लेकिन कपड़ा निकालने की जरूरत नहीं है। संध्या आदि का झंझट कहीं नहीं गया। इस जन्म में जाएगा-ऐसा भी समझ में नहीं आता। लेकिन आपके दिए कपडे से इसके लिए सुविधा नहीं होगी। रहने दीजिए। कष्ट मत कीजिए।”

“पहले देखिए तो कि मैं क्या देती हूं।”

“मैं जानता हूं। टसर रेशम। लेकिन मुझे जरूरत नहीं। मत निकालिए।”

“संध्या नहीं करेंगे?”

“नहीं।”

“सोएंगे क्या पहनकर? कोट-पतलून पहनकर?”

“हां।”

“खाना भी नहीं खाइएगा?”

“नहीं।”

“सच?”

अपूर्व ने बिगड़कर कहा, “आप क्या खेल कर रही हैं?”

भारती उसके चेहरे की ओर देखकर बोली, “खेल तो आप ही कर रहे हैं, क्या आप में शक्ति है कि भोजन न करके, उपवास करके रह सकें?”

यह कहकर उसने अलमारी खोली। टसर की एक सुंदर साड़ी निकालकर बोली, “एकदम पवित्र है। मैंने इसे कभी पहना नहीं है। उस छोटे कमरे में जाकर कपड़े बदल आइए। नीचे नल है। हाथ-मुंह धोकर संध्या-पूजा कर लीजिए।”

अचानक उसकी बातचीत का ढंग ऐसा बदल गया कि अपूर्व अवाक् रह गया। धीरे से बोला, “लाइए कपड़ा। मैं नीचे जाऊं, लेकिन मैं किसी के हाथ का भात न खा सकूंगा। यह कहे देता हूं।”

भारती कोमल होकर बोली, “सरकार जी अच्छे ब्राह्मण हैं। आचारहीन नहीं हैं। स्वयं रसोई बनाते हैं। सब खाते हैं उनके हाथ का। कोई भी आपत्ति नहीं करता। डॉक्टर साहब का खाना भी उन्हीं के यहां से आता है।”

अपूर्व का संदेह तब भी दूर नहीं हुआ। उदास मन से बोला, “जिस-तिस के हाथ की वस्तु से मुझे घृणा होती है।”

भारती हंसकर बोली, “जिस-तिस के हाथ की वस्तु खाने के लिए क्या मैं आपको दे सकती हूं? मैं उन्हीं से मंगवाऊंगी। तब तो आपको कोई आपत्ति नहीं होगी?” -यह कहकर वह हंस पड़ी।

अपूर्व नीचे चला गया। लेकिन उसके चेहरे का भाव देखकर भारती को यह समझने में देर नहीं लगी कि होटल का खाना खाने में उसे संकोच हो रहा है।

अपूर्व रेशमी साड़ी लपेटकर काठ की बेंच पर बैठा संध्या कर रहा था। भारती बाहर जाती हुई बोली, “सरकार जी को लेकर लौटने में मुझे देर नहीं लगेगी। तब तक आप नीचे ही रहिएगा।”

भारती को लौटने में देर हुई भी नहीं। अपूर्व संध्या-पूजा कर चुका था। भारती के साथ सरकार जी थे। उनके हाथ में भोजन का थाल था। धरती पर जल छिड़ककर फिर चौका ठीक करके थाल रख दिया।

उसके जाने पर भारती ने हाथ जोड़कर कहा, “यह म्लेच्छ का अन्न नहीं है। सब खर्च डॉक्टर साहब ने किया है। आप संकोच छोड़कर भोजन कीजिए।”

अपूर्व इस परिहास को प्रसन्नता से सहन न कर सका। वह किसी का छुआ अन्न नहीं खाता। होटल के भोजन में उसकी रुचि नहीं है। लेकिन व्यय किसी म्लेच्छ ने किया या ब्राह्मण ने, इसके लिए बेकार का कट्टरपन उसमें नहीं है। उसके बड़े भाइयों ने उसकी शुध्दाचारिणी मां को अनेक दु:ख दिए हैं। भली हो या बुरी हो, उसे माता की आज्ञा का उल्लंघन करने में अत्यंत पीड़ा होती है। भारती यह नहीं जानती-ऐसी बात नहीं है। फिर भी इस व्यंग्य से उसका मन दु:खी हो उठा। लेकिन कोई उत्तर न देकर वह आसन पर आ बैठा और भोजन करने लगा।

भारती कुछ दूर धरती पर बैठी रही। सहसा वह मन-ही-मन कुंठित हो उठा। ईसाई होने का कारण वह होटल के रसोईघर में नहीं गई थी। इतनी रात गए, सबका खाना-पीना हो चुकने के बाद जो कुछ बचा था, सरकार जी उसी को उठा लाए थे। उसे भारती ने देखा नहीं था।

कमरे में रोशनी पूरी न होते हुए भी उसे जो खाना दिखाई दिया उसे देखते ही स्तब्ध हो उठी। कितनी ही बार उसने अपने ऊपर वाले कमरे के फर्श के छेद से झांककर चोरी-छिपे इस व्यक्ति का भोजन करते देखा था। तिवारी की छोटी-से-छोटी गलती से ही इस चिड़चिड़े आदमी को भोजन बर्बाद होते भारती ने अनेक बार देखा था। वही व्यक्ति आज चुपचाप जब उस न खाने योग्य भोजन को खाने लगा तो वह चुप न रह सकी। व्याकुल होकर बोल उठी-”रहने दीजिए, रहने दीजिए-इसे खाने की आवश्यकता नहीं, आप इसे नहीं खा सकेंगे।”

अपूर्व विस्मित होकर बोला, “खा न सकूंगा? क्यों....?”

“नहीं, नहीं खा सकते।”

“नहीं, खा सकूंगा? यह कहकर वह खाने ही जा रहा था कि भारती पास आकर बोली? आप तो खा सकेंगे लेकिन मैं खिला नहीं सकूंगी, खाकर बीमार पड़ने पर इस देश में मुझे ही तो भरना पड़ेगा। उठिए।”

अपूर्व ने उठकर पूछा, “तो मैं क्या खाऊंगा?” यह कहकर उसने भारती की ओर इस तरह देखा कि उसकी असहाय भूख की बात भारती से छिपी न रह सकी।

अपूर्व शांत आज्ञाकारी बालक के समान हाथ धोकर ऊपर की मंजिल पर चला गया। कुछ देर बाद ही सरकार जी और उनके होटल के सहयोगी आ गए। एक आदमी के हाथ में फरूही की डाली और दूध की कटोरी थी, दूसरे के हाथ में थोड़े से फल और जल का लोटा था। यह आयोजन देख, वह मन-ही-मन प्रसन्न हो उठा। प्रसन्न होकर उसने खाने में मन लगाए। दरवाजे के बाहर सीढ़ी के पास खड़ी भारती देखती रही।

अपूर्व बोला, “कमरें में आ जाइए। काठ के फर्श का स्पर्श-दोष मानने से बर्मा में नहीं रहा जा सकता।”

भारती हंसकर बोली, “यह क्या कह रहे हैं? आप तो बहुत उदार हो गए हैं।”

अपूर्व ने कहा, “वास्तव में इसमें कोई दोष नहीं है। डॉक्टर साहब ने कहा, 'चलिए, लौट चलें,' मैं लौट आया। यहां शराबियों की वजह से खून-खराबी हो गई है, यह कौन जानता था।”

“जानते तो क्या करते?”

“मेरे लिए आपको इतना कष्ट उठाना पडेग़ा, यह जानता तो कभी न लौटता।”

भारती बोली, “सम्भव है। लेकिन मैंने तो सोचा था कि आप स्वयं अपनी इच्छा से लौट आए हैं।”

अपूर्व का चेहरा लाल पड़ गया। मुंह का ग्रास निगलकर बोला, “कभी नहीं, कभी नहीं। कल डॉक्टर बाबू से पूछकर देख लेना।”

“पूछताछ की क्या जरूरत है? आप क्या झूठ बोलेंगे?”

उत्तर सुनकर अपूर्व जल उठा। उसके लौटने पर भारती ने जो विचार प्रकट किया उसे याद करके बोला, “झूठ बोलना मेरा स्वभाव नहीं है। आप विश्वास नहीं कर सकतीं?”

“मैं क्यों विश्वास करूंगी?”

“मैं यह नहीं जानता। जिसका जैसा स्वभाव होता है....” कहकर मुंह नीचा करके भोजन करने लगा।

“आप बेकार ही नाराज हो रहे हैं। डॉक्टर साहब के कहने से न आकर अपनी इघ्छा से ही आ जाने में क्या दोष है? वह जो आप स्वयं खोजते हुए मेरे पास आए उसमें भी क्या दोष था?”

“संध्या को हाल-चाल जानने के लिए आना और आधी रात को लौटकर आना, दोनों में अंतर है।”

भारती बोली, “नहीं है। इसीलिए तो मैंने आपसे पूछा था कि अगर बताकर गए होते तो खाने-पीने की इतनी परेशानी न होती। सब कुछ ठीक-ठाक करके रखवा दिया होता।”

अपूर्व चुपचाप भोजन करने लगा। जब भोजन समाप्त हो गया तो अचानक मुंह ऊपर उठाकर देखा.... भारती स्निग्ध होकर और कौतुक भरी नजरों से चुपचाप उसकी ओर देख रही है। बोली, “देखिए तो, खाने में कितना कष्ट हुआ।”

“आज आपको न जाने क्या हो गया है। सीधी-सी बात भी समझ नहीं पा रहीं।”

“और ऐसा भी तो हो सकता है कि बात सीधी-सादी न हो सकने के कारण समझ में न आ रही हो,” कहकर भारती खिलखिलाकर हंस पड़ी।

अपूर्व भी हंस पड़ा। उसे संदेह हुआ कि इतनी देर से भारती शायद उसे झूठमूठ ही परेशान कर रही थी।

जल समाप्त हो गया था। खाली गिलास देखकर भारती व्यग्र हो उठी “यह जो....?”

“क्या और जल नहीं है?”

“है तो,” कहकर भारती क्रुध्द होकर बोली, “इतना नशा करने से मनुष्य को याद नहीं रहता। पीने के पानी का लोटा शिबू नीचे के नल पर ही छोड़ गया। अब आप हाथ धोकर पी लीजिए। लेकिन क्रोध मत कीजिए, यह कहे देती हूं।”

अपूर्व ने हंसते हुए कहा, “इसमें क्रोध करने की क्या बात है?”

भोजन के समय पीने भर को जल न मिलने पर बड़ी अतृप्ति होती है। लगता है पेट नहीं भरा। लेकिन इसीलिए कुछ छोड़कर उठ जाने से भी तो काम नहीं चलता। अच्छा जाऊं, जल्दी से शिबू को बुला लाऊं।”

भोजन समाप्त हो चुका था। फिर भी जबर्दस्ती दो-चार कौर मुंह में ठूंसकर जब वह उठकर खड़ा हुआ तो उसे लज्जा महसूस होने लगी। बोला, “मैं सच कह रहा हूं, मुझे किसी प्रकार की असुविधा नहीं हुई। मैं हाथ धोने के बाद पानी पी लूंगा।”

भारती हंसकर बोली, “मैं रोशनी दिखाती हूं। आप नीचे चलकर मुंह धो लीजिए। जल का लोटा सामने ही रखा है। भूल न जाइएगा।”

हाथ-मुंह धोकर अपूर्व जब ऊपर आया तो देखा कि उसकी जूठन हटाकर भारती ने जगह साफ कर दी है। एक ओर छोटी तिपाई पर तश्तरी में इलायची-सुपारी आदि रखी है। भारती के हाथ से तौलिया लेकर हाथ-मुंह पोंछकर, इलायची-सुपारी मुंह में डालकर वह आराम कुर्सी पर आ बैठा। बोला “ओह इतनी देर के बाद शरीर में जैसे प्राण आ गए। कितनी जोर की भूख लगी थी।”

फिर दीपक के प्रकाश में भारती का चेहरा देखकर बोला, “देख रहा हूं आपको भी सर्दी लग रही है।”

“नहीं तो.... कहां?”

“नहीं क्यों? गला भारी है, आंखें सूजी हुई हैं। ठंड बहुत है। अब तक इस ओर मेरा ध्यान नहीं गया था।”

भारती ने उत्तर नहीं दिया।

अपूर्व बोला, “ठंड का अपराध क्या है? इतनी रात गए दौड़-धूप जो करनी पड़ी है।”

कुछ रुककर फिर बोला, 'लौटकर मैंने आपको व्यर्थ ही कष्ट दिया, लेकिन कौन जानता था कि डॉक्टर साहब बुलाकर अंत में आफत आपके गले मढ़कर स्वयं खिसक जाएंगे। भुगतना तो आपको पड़ा।”

भारती बोली, “यही हुआ। लेकिन जब भगवान ने बोझा खींचने का काम सौंपा है तो फिर नालिश किससे करने जाऊं?”

अपूर्व आश्यर्च से बोला, “इसका क्या अर्थ है?”

भारती उसी तरह काम करते-करते बोली, “अर्थ मैं नहीं जानती। लेकिन देख रही हूं कि जब से आपने बर्मा में पांव रखा है तब से मैं ही बोझ ढो रही हूं। पिताजी से झगड़ा आपने किया, दंड मैंने भोगा। घर पर पहरेदारी के लिए तिवारी को आपने छोड़ा, उसकी सेवा करते-करते मर मिटी मैं। भय लग रहा कि कहीं सारा जीवन आपका बोझ ही न ढोना पड़े।.... रात हो गई, सोइएगा कहां?”

“मैं क्या जानूं?”

भारती बोली, “होटल में डॉक्टर साहब के कमरे में आपके लिए बिस्तर ठीक करने को कह आई हूं। शायद व्यवस्था हो गई हो।”

“वहां मुझे कौन ले जाएगा? मुझे तो पता नहीं।”

“मैं चलती हूं।”

“चलिए,” कहकर अपूर्व उठ खड़ा हुआ। फिर कुछ संकोच के साथ बोला, “लेकिन तकिया और बिछौने-चादर लेता जाऊंगा। दूसरे के बिछौने पर मैं सो नहीं पाऊंगा।”

यह कहकर बिछौना उठाने जा रहा था कि भारती ने रोक दिया। इतनी देर के बाद उसका गम्भीर चेहरा हंसी से खिल उठा। लेकिन उसे छिपाने के लिए मुंह फेरकर धीरे से बोली, “यह भी तो दूसरे का ही बिछौना है अपूर्व बाबू! इस पर बैठने में आपको घृणा का अनुभव न होता हो तो भारी आश्चर्य है। लेकिन अगर ऐसी ही हो तो आपको होटल में सोने की जरूरत ही क्या है। आप यहीं सोइए।”

“लेकिन आप कहां सोएंगी? आपको कष्ट होगा।” भारती बोली, “नहीं,” फिर उंगली से दिखाकर कहा, “उस छोटे से कमरे में कुछ बिछाकर मैं अच्छी तरह सो सकूंगी। केवल काठ के फर्श पर हाथ को ही तकिया बनाकर तिवारी के पास कितनी ही रातें बितानी पड़ी थीं।”

एक महीने पहले की बात याद करके अपूर्व बोला, “एक रात मैंने भी देखा था।”

भारती ने हंसते हुए कहा, “यह बात आपको याद है? आज उसी तरह फिर देख लेना।”

“तब तो तिवारी बहुत बीमार था। लेकिन अब लोग क्या सोचेंगे?”

“सोचेंगे क्या? दूसरों के बारे में व्यर्थ की कुछ सोचने का छोटा मन यहां किसी का नहीं है।”

“लेकिन नीचे की बेंच पर भी तो मैं सो सकता हूं?”

भारती बोली, “तब, जब मैं सोने दूं। इसकी आवश्यकता नहीं है। मैं आपके लिए अस्पृश्य हूं। इसलिए आपसे मुझे कोई हानि पहुंच सकती है, यह भय नहीं है।”

अपूर्व आवेग से बोला, “मुझसे आपका कभी अकल्याण हो सकता है, यह भय मुझे भी नहीं है। लेकिन किसी को अस्पृश्य कहने से मुझे सबसे अधिक पीड़ा होती है। अस्पृश्य शब्द में घृणा का भाव है। लेकिन आपसे तो घृणा नहीं करता। हम लोगों की जाति अलग है, इसलिए आपका छुआ मैं खा नहीं सकता। लेकिन इसका कारण क्या घृणा है? यह झूठ है। इसके लिए आप मन-ही-मन मुझसे घृणा करती हैं। उस दिन भोर में ही मुझे अथाह सागर में डालकर जब आप चली आईं उस समय की आपकी मुखाकृति मुझे आज भी याद है। उसे मैं जीवन भर न भूल सकूंगा।”

“सब कुछ चाहे भूल जाएं लेकिन मेरा यह अपराध न भूलिएगा।”

“कभी नहीं।”

“मेरी उस मुखाकृति में क्या भावना थी? घृणा?”

“अवश्य ही।”

भारती हंस पड़ी। बोली, “अर्थात मनुष्य का मन समझने की बुध्दि आपकी अत्यंत तीक्ष्ण है। है या नहीं? लेकिन अब जरूरत नहीं है। आप सो जाइए। मुझे तो रात को जगने का अभ्यास है। लेकिन आप और अधिक जागेंगे तो मुझे भुगतना होगा,” कहकर वह पास की कोठरी में चली गई।

भारती चली गई लेकिन अपूर्व की आंखों में नींद की छाया तक न थी। कमरे के एक कोने में टंगी हुई बत्ती टिमटिमा रही थी। बाहर रात का अंधकार छाया हुआ था। उसका सम्पूर्ण शरीर मानो रोम-रोम में यह अनुभव करने लगा कि कमरे में इस बिस्तर पर, इस नीरव रात में इसी प्रकार चुपचाप सो रहने की तरह सुन्दर वस्तु तीनों लोक में नहीं है।

प्रात:काल उसकी नींद भारती के पुकारने पर टूटी। आंखें खोलते ही उसने देखा- वह उसके पैरों के पास खड़ी है।

“उठिए, क्या ऑफिस नहीं जाना है।”

“जाना तो है। देख रहा हूं, आप नहा भी चुकी हैं।”

“आपको भी सारे काम जल्दी निपटा लेने चाहिए। कल अतिथि-सत्कार में काफी त्रुटि हुई। लेकिन आज हमारी प्रेसीडेंट का आदेश है कि आपको अच्छी तरह खिलाए-पिलाए बिना किसी भी तरह से न जाने दिया जाए।”

अपूर्व ने पूछा, “कल वाली स्त्री बच गई?”

“उसे अस्पताल भेज दिया गया। बचने की आशा तो है।”

उस स्त्री को अपूर्व ने कभी देखा नहीं था। फिर भी उसके कुशल-समाचार से उसने बड़ी राहत महसूस की। आज किसी का कोई भी अकल्याण मानो वह सह नहीं सकेगा। उसे ऐसा महसूस हुआ।

स्नान, संध्या-पूजा आदि समाप्त करके, कपड़े पहनकर तैयार होकर जब वह ऊपर पहुंचा तो लगभग नौ बज चुके थे। इसी बीच चौका ठीक करके सरकार जी भोजन रख गए। अपूर्व ने आसन पर बैठकर पूछा, “आपकी प्रेसीडेंट से तो मेरी भेंट नहीं हुई। क्या उनके अतिथि-सत्कार की यही रीति है।”

“आपके जाने से पहले भेंट हो जाएगी। आपके साथ उनको शायद कुछ जरूरी काम भी है।”

“और डॉक्टर साहब-जो मुझे बुलाकर लाए हैं? शायद वह अभी बिछौने पर ही पड़े हैं।”

“बिछौने पर लेटने का उन्हें समय ही नहीं मिला। अभी-अभी अस्पताल से आए हैं। सोने, न सोने किसी का भी उनके निकट कोई मूल्य नहीं है।”

अपूर्व ने पूछा? “इससे क्या वह बीमार नहीं पड़ते?”

“मैंने तो देखा नहीं। लगता है सुख-दु:ख दोनों ही उनसे हार मान कर भाग गए हैं। सामान्य मनुष्य के साथ उनकी तुलना नहीं की जा सकती।”

“उनके प्रति आप सब लोगों की अपार श्रध्दा है।”

“श्रध्दा है। श्रध्दा तो अनेक लोगों को अनेक चीजों पर होती है।” कहते-कहते उसका कंठ स्वर अचानक भारी हो उठा। बोली, “उनके जाते समय जी चाहता है कि रास्ते की धूल पर लेटी रहूं। वह छाती के ऊपर पैर रखकर चले जाएं। इच्छा होती है लेकिन आशा कभी पूरी नहीं होती अपूर्व बाबू!” यह कहकर उसने मुंह फेरकर झटपट आंखों के दोनों कोने पोंछ डाले।

अपूर्व ने कुछ नहीं पूछा। चुपचाप भोजन करने लगा। उसे बार-बार याद आने लगा कि सुमित्रा और भारती के समान इतनी पढ़ी-लिखी और बुध्दिमती नारियों के हृदय में जिस व्यक्ति ने इतनी ऊंचाई पर सिंहासन बना लिया है। भगवान ने उसे किस धातु का बनाकर इस संसार में भेजा है। उसके द्वारा वह कौन-सा असाधारण कार्य सम्पन्न कराएंगे?

ऑफिस के कपड़े पहनकर तैयार होकर उसने कहा, “चलिए, डॉक्टर साहब से भेंट कर आएं।”

“चलिए, उन्होंने आपको बुलाया भी है।”

सरकार जी के जीर्ण-शीर्ण होटल के एक बहुत ही भीतरी कमरे में डॉक्टर साहब रहते हैं। रोशनी नहीं है, हवा नहीं है। आस-पास गंदा पानी जमा हो जाने से बदबू फैल रही है। अत्यंत पुराने तख्तों पर पैर रखने से लगता है कि कहीं टूट कर न गिर पड़े। ऐसे ही एक गंदे तथा भद्दे कमरे में रास्ता दिखाती हुई भारती उसे ले गई तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उस कमरे में पहुंचकर कुछ देर तक तो अपूर्व को कुछ दिखाई ही नहीं दिया।

डॉक्टर साहब ने स्वागत करते हुए कहा, “आइए, अपूर्व बाबू!”

“ओह कैसा भयानक कमरा आपने ढूंढ़ निकाला है डॉक्टर साहब?”

“लेकिन कितना सस्ता है। दस आने महीना किराया है-बस।”

“अधिक है, बहुत अधिक है। दस पैसे ही उचित होता।”

डॉक्टर साहब बोले, “हम दु:खी लोग किस तरह रहते हैं, आपको आंखों से देखना चाहिए। बहुतों के लिए तो यही राज महल है।”

“तब तो भगवान मुझे महल से वंचित ही रखें।”

“सुना है, कल रात आपको बहुत कष्ट उठाना पड़ा। क्षमा कीजिएगा।”

“क्षमा तभी करूंगा जब आप यह कमरा छोड़ देंगे, इससे पहले नहीं।”

डॉक्टर हंस पड़े। बोले, “अच्छा ऐसा ही होगा।”

अब तक अपूर्व ने देखा नहीं था। उसे एक मोढ़े पर बैठी सुमित्रा को देखकर आश्चर्य हुआ। “आप यहां हैं? मुझे क्षमा करें, आपको मैंने देखा ही नहीं था।”

“अपराध आपका नहीं, अंधकार का है अपूर्व बाबू!”

अपूर्व ने धीरे से कहा, “डॉक्टर साहब, आज आपका पहनावा कैसा है? क्या कहीं बाहर जा रहे हैं?”

डॉक्टर के सिर पर पगड़ी, बदन पर लम्बा कोट, ढीला पाजामा, पैरों में रावलपिंडी का नागौरी जूता। सामने चमड़े के बंधे कई गट्ठर थे। बोले, “मैं तो अब जा रहा हूं अपूर्व बाबू! यह सभी लोग.... रहेंगे। आपको देखभाल करनी होगी। इससे अधिक आपको कुछ कहना मुझे आवश्यक नहीं जान पड़ता।”

अपूर्व घबराकर बोला, “अचानक कैसे जा रहे हैं? कहां जाना है?”

डॉक्टर ने शांत स्वाभाविक स्वर में कहा, “हम लोगों के शब्दकोश में क्या 'अचानक' शब्द होता है अपूर्व बाबू? मामो के रास्ते में जाना है। उसके भी और उत्तर में। कुछ सच्ची जरी का माल है। सिपाही अच्छे दामों में खरीद लेते हैं।” यह कहकर वह हंस पड़े।”

सुमित्रा बोल उठी, “उन लोगों को पेशावर से एकदम हटाकर मामो लाया गया है। तुम जानते हो, उन लोगों पर कैसी बुरी निगरानी रहती है। तुमको बहुत से लोग पहचानते हैं। यह मत सोच लेना कि सबकी आंखों में धूल झोंक सकोगे। इधर कुछ दिनों तक न जाने से क्या काम नहीं चलेगा?”

अंतिम वाक्य कहते समय उसका स्वर कुछ विचित्र-सा सुनाई पड़ा।

डॉक्टर ने कहा, “तुम तो जानती ही हो कि न जाने से काम नहीं चलेगा।”

सुमित्रा ने फिर कुछ नहीं कहा। लेकिन क्षण भर में अपूर्व सारी घटना समझ गया। उसके समूचे शरीर में आग-सी जलने लगी। किसी प्रकार पूछ बैठा, “मान लीजिए, यदि उनमें से कोई पहचान ही ले, यदि पकड़ ले?”

डॉक्टर बोले, “सम्भव है... पकड़ लेने पर फांसी दे देंगे। लेकिन अब दस बजे की ट्रेन छूटने में देर नहीं है अपूर्व बाबू! मैं जा रहा हूं।” यह कहकर उन्होंने फीते से बंधे बहुत बड़े पुलिंदे को बड़ी आसानी से पीठ पर रखा और चमड़े का बैग हाथ में उठा लिया।

अभी तक भारती ने एक शब्द भी नहीं कहा था। बिना कुछ बोले पैरों में गिरकर प्रणाम कर लिया। सुमित्रा ने भी प्रणाम किया। लेकिन पैरों के पास नहीं एकदम पैरों के ऊपर गिरकर।

डॉक्टर ने कमरे के बाहर आकर अपूर्व के हाथ को पिछली रात की तरह अपनी मुट्ठी में भींचकर कहा, “मैं अब जा रहा हूं अपूर्व बाबू!-मैं ही सव्यसाची हूं।”

अपूर्व का चेहरा एकदम सूख गया। गले से एक शब्द भी नहीं निकला, लेकिन आंखों के पलकों के गिरते-गिरते उसके पैरों के पास स्त्रियों की तरह धरती पर गिरकर प्रणाम किया। डॉक्टर ने उसके सिर पर हाथ रखा और दूसरा हाथ भारती के सिर पर रखकर धीमे स्वर में क्या कहा सुनाई नहीं दिया। फिर वह तेजी से बाहर निकल गए।


भारती और अपूर्व दोनों ने पीछे की ओर के बंद दरवाजे की ओर मुड़कर देखा, लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं। दोनों चुपचाप होटल से बाहर आने लगे तो भारती ने कहा, “चलिए अपूर्व बाबू, हम लोग अपने कमरे में चलें।”

“लेकिन मेरा तो ऑफिस का समय....।”

“रविवार को भी ऑफिस?”

“रविवार?.... यह बात है?” अपूर्व प्रसन्न होकर बोला, “यह बात सवेरे याद आ जाती तो नहाने-खाने के लिए इतना घबराने की जरूरत ही न पड़ती। आपको इतनी बातें याद रहती हैं लेकिन इस बात को भूल गईं।”

“ऐसा ही हुआ है लेकिन कल रात को आपका निराहार रहना मैं नहीं भूली।”

अपूर्व बोला, “देर करने के लिए अब समय नहीं है। बेचारा तिवारी परेशान हो रहा होगा।”

भारती बोली, “नहीं हो रहा। आपके जागने से पहले ही उसे आपकी कुशलता की सूचना मिल चुकी है।”

“उसे क्या पता कि मैं यहा हूं?”

“पता है। मैंने आदमी भेज दिया था।”

यह सुनकर अपूर्व के मन पर से भारी बोझ उतर गया। तिवारी और जो कुछ भी क्यों न करे, लेकिन भारती के मुंह से निकली बात पर मर जाने की स्थिति में भी अविश्वास नहीं करेगा। प्रसन्न होकर अपूर्व बोला, “आपकी नजर चारों ओर रहती है। घर पर भाभी को भी देखा है। मां को भी देखा है लेकिन हर ओर जिसकी दृष्टि रहे, ऐसा कोई नहीं देखा। सच कहता हूं, आप जिस घर की स्वामिनी होंगी उस घर के लोग आंखें मुंदकर दिन बिताएंगे। किसी को कभी कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा।”

भारती के चेहरे पर बिजली-सी दौड़ गई। अपूर्व ने इसे नहीं देखा। वह पीछे-पीछे आ रहा था।

“इस पराए देश में आप न होती तो मेरी क्या दशा होती बताइए तो? सब कुछ चोरी हो जाता। शायद तिवारी कमरे में ही मर जाता। ब्राह्मण के लड़के को डोम-मेहतर खींचकर उठाते। मैं भी क्या रह पाता? नौकरी छोड़कर शायद चला जाना पड़ता। उसके बाद वही स्थिति। भाभियों की गर्जना और मां की आंखों के आंसू। आप ही तो सब कुछ हैं। सब कुछ बचा दिया आपने।”

“फिर भी आपने आते ही मेरे साथ झगड़ा मचा दिया था।”

अपूर्व लज्जित होकर बोला, “सारा दोष तिवारी का ही है। लेकिन मां यह सुनकर आपको कितना आशीर्वाद देंगी, यह आप नहीं जानतीं?”

“कैसे जानूं? मां के आने पर उन्हीं के मुंह से तो सुन पाऊंगी।”

“मां आएंगी, इस बर्मा में? यह आप क्या कह रही हैं?”

भारती ने बल देकर कहा, “क्यों नहीं आएंगी। कितनों ही की मां आए दिन आ रही हैं। यहां आने से क्या किसी की जाति चली जाती है?”

अपूर्व जाकर आराम कुर्सी पर बैठ गया। भारती बोली, “भाभियां मां की अच्छी तरह सेवा नहीं करतीं। आपको बहुत दिनों तक विदेश में नौकरी करके रहना पड़े तो उनकी सेवा कौन करेगा?”

“मां कहती हैं, छोटी दुल्हन उनकी सेवा करेगी।”

भारती बोली, “अगर वह भी सेवा न करे तो? आप रहेंगे विदेश में, बड़ी बहुओं की देखा-देखी यदि वह भी उनकी तरह मां की सेवा न करके उन्हें कष्ट देने लगे तो क्या कीजिएगा?”

अपूर्व भयभीत होकर बोला, “ऐसा कभी नहीं हो सकता। कुलीन ब्राह्मण वंश से आकर किसी प्रकार भी वह मेरी मां को कष्ट नहीं देगी।

“कुलीन ब्राह्मण वंश.....” भारती मुस्कराकर बोली, “अब रहने दीजिए। अगर जरूरत पड़ी तो वह कहानी किसी दूसरे दिन आपको सुनाऊंगी। केवल मां की सेवा के लिए ही जिससे विवाह करके आप छोड़कर चले आएंगे, उसके प्रति क्या यह आपका अन्याय नहीं होगा?”

“अन्याय तो अवश्य होगा।”

“और इस अन्याय के बदले में आप स्वयं न्याय की अपेक्षा करेंगे?”

कुछ पल मौन रहकर अपूर्व बोला, “लेकिन इसके अतिरिक्त मेरे पास और उपाय ही क्या है भारती?”

“उपाय नहीं भी और हो भी सकता है। लेकिन असम्भव बात की आशा आप बहुत बड़े कुलीन घर की बेटी से भी नहीं कर सकते। इसका परिणाम कभी शुभ नहीं होगा। आपकी निर्ममता के बदले में वह जितना ही अपना कर्त्तव्य-पालन करेगी आप उसके सामने उतने ही छोटे हो जाएंगे। पत्नी के सामने अश्रध्देय होने की अपेक्षा बड़ा दुर्भाग्य संसार में कुछ और नहीं है।”

इस बार अपूर्व निरुत्तर-सा हो गया। मित्र-मंडली में शास्त्र के अनुसार नारी को आधुनिकता के विरुध्द शास्त्र ग्रंथों से प्रमाण उध्दृत करके उन लोगों को स्तब्ध कर दिया है। लेकिन इस ईसाई लड़की के आगे उसका मुंह नहीं खुला। वह इतना ही कह सका, “कोई नहीं।”

भारती हंसकर बोली, “एकदम कोई नहीं, यह बात नहीं है। कुलीन घर की न होकर कहीं भी कोई हो सकती है जो आपके लिए अपने-आपको सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। लेकिन उसे आप खोज कहां पाएंगे?”

अपूर्व अपने आप में ही डूबा रहा। भारती की बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। बोला, “यही तो बात है।”

भारती ने पूछा, “आप घर कब जाइएगा?”

“क्या पता, मां कब चिट्ठी भेजती है। बाबू जी के साथ मतभेद होने के कारण मां ने जीवन में कभी सुख नहीं पाया। उस मां को अकेली छोड़ आने के लिए मेरा मन कभी तैयार न होता।” फिर भारती की ओर देखकर बोला, “देखिए, बाहर से देखने में हम लोगों की अवस्था कितनी ही अच्छी क्यों न हो लेकिन भीतर से बहुत खराब है। भाभियां किसी भी दिन हम लोगों को अलग कर सकती हैं। वहां जाकर शायद फिर लौटकर न आ सकूं।”

भारती बोली, “आपको आना ही पडेग़ा।”

“मां को छोड़कर कब तक अलग रहूंगा?”

“उन्हें सहमत करके साथ ले आइए। वह आएंगी।”

अपूर्व हंसकर बोला, “कभी नहीं। मां को आप नहीं जानतीं। अच्छा मान लो, वह आ जाएं, तो उनकी देख-भाल कौन करेगा?”

“मैं करूंगी!”

“आप करेंगी? आपके घर में कदम रखते ही मां बर्तन उठाकर फेंक देंगी।”

भारती बोली, “कितनी बार फेंक देंगी। मैं रोज कमरे में जाऊंगी।

दोनों हंस पड़े। भारती ने सहसा गम्भीर होकर कहा, “आप भी तो बर्तन फेंकने वालों के दल के ही हैं। लेकिन फेंक देने से ही सारा बखेड़ा समाप्त हो जाता तो संसार की सारी समस्याएं सुलझ जातीं। विश्वास न हो तो तिवारी से पूछ लीजिएगा।”

अपूर्व बोला, “यह तो सच है। वह बर्तन तो फेंक देगा लेकिन साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी बहेंगे। आपके लिए उसके मन में अपार भक्ति है। थोड़ा-सा सिखाने-पढ़ाने से वह ईसाई भी बन सकता है।”

भारती बोली, “संसार में कब क्या हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता, न नौकर के संबंध में और न...” यह कहकर उसने हंसी छिपाने के लिए मुंह नीचा किया तो अपूर्व का चेहरा लाल हो उठा। बोला, “पर यह तो निश्चित है कि नौकर और मालिक की बुध्दि में कुछ अंतर रह सकता है।”

भारती बोली, “अंतर तो है। इसीलिए मालिक के सहमत होने में देर हो सकती है।”

परिहास समझ अपूर्व प्रसन्न होकर बोला, “क्या आप ऐसा सोच सकती हैं?”

“हां, सोच सकती हूं।”

अपूर्व बोला, “लेकिन मैं तो प्राण जाने पर भी धर्म का त्याग नहीं कर सकता।”

भारती बोली, “प्राण जाना क्या वस्तु है, आप यही तो नहीं जानते। तिवारी जानता है, लेकिन इस विषय पर बहस करने से अब क्या लाभ है? आपकी तरह अंधकार में डूबे व्यक्ति को प्रकाश में लाने की अपेक्षा अधिक आवश्यक काम अभी मुझे करने बाकी हैं। आप थोड़ी देर सो रहिए।”

अपूर्व बोला, “मैं दिन में कभी नहीं सोता।”

भारती बोली, “मुझे तो मुट्ठी भर अन्न पकाकर खाना पड़ता है। सो नहीं सकते तो मेरे साथ नीचे चलिए। मैं क्या रसोई पकाती हूं, किस तरह पकाती हूं, यही देखिए। जब एक दिन मेरे हाथ का खाना ही पड़ेगा तो अनजान रहना उचित नहीं।” यह कहकर खिलखिलाकर हंस पड़ीं।

अपूर्व बोला, “मैं मर जाने पर भी आपके हाथ का नहीं खाऊंगा।”

“मैं जीवित रहते खाने की बात कह रही हूं,” कहकर हंसती हुई नीचे चली गई।

अपूर्व चिल्लाकर बोला, “तब मैं अपने डेरे पर चला जाता हूं, तिवारी परेशान होगा।”

लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। आलस्य आ जाने के कारण वह आराम करने लगा।


“उठिए, दिन बहुत बीत गया।”

अपूर्व आंखें मलकर उठ बैठा। देखकर बोला, “तीन-चार घंटे हो गए, मुझे जगा क्यों नहीं दिया?”

“जाइए, हाथ-मुंह धो आइए। सरकार जी जलपान की थाली ले आए हैं।”

नीचे से हाथ-मुंह धोकर आने के बाद अपूर्व जलपान करके सुपारी-इलायची आदि मुंह में रखकर बोला, “अब मुझे छुट्टी दीजिए। मैं अपने डेरे पर जाऊं।”

भारती बोली, “यह नहीं होगा। तिवारी को मैंने सूचना पहुंचा दी है, वह घर पर स्वस्थ है। कोई चिंता नहीं। आज सुमित्रा देवी अस्वस्थ हैं, नवतारा अतुल बाबू को लेकर उस पार गई है। आप मेरे साथ चलिए। आपके लिए प्रेसीडेंट का यही आदेश है। यह धोती मैंने ला दी है। उसे आप पहन लीजिए।”

“कहां जाना होगा?”

“मजदूरों के घर। आज रविवार के दिन वहां काम करना है।”

“लेकिन वहां किसलिए?”

भारती ने हंसकर कहा, “आप इस संस्था के माननीय सदस्य हैं। निश्चित स्थान पर न जाने से काम का ढंग नहीं समझ पाएंगे।”

“चलिए,” अपूर्व तैयार हो गया।

अलमारी से एक चीज निकालकर भारती ने छिपाकर उसकी जेब में रख दी। अपूर्व बोला, “यह क्या है?”

“पिस्तौल है।”

“पिस्तौल क्यों?”

“आत्मरक्षा के लिए।”

“इसका लाइसेंस है?”

“नहीं।”

“अगर पुलिस पकड़ लेगी तो दोनों की ही आत्मरक्षा हो जाएगी। कितने साल की सजा मिलेगी, जानती हो?”

“नहीं, चलिए।”

अपूर्व बोला, “दुर्गा श्रीहरि! चलिए।”

लम्बा रास्ता चलकर, एक कारखाने के सामने पहुंचा वह लोग फाटक के कटे दरवाजे से निकलकर अंदर चले गए। अंदर कारीगरों और मजदूरों के रहने के लिए टूटे-फूटे काठ और टीनों की लम्बी बस्ती थी।

भारती बोली, “आज काम का दिन होता तो यहां मार-पीट खून-खराबा हो रहा होता।”

“यह तो छुट्टी के दिन की भीड़ से ही अनुभव कर रहा हूं।”

सामने एक मद्रासी महिला पर्दा खिसकाकर पाखाने जा रही थी। पर्दे की हालत देखकर अपूर्व लज्जा से लाल होकर बोला, “पथ के दावे करने हों तो कहीं और चलिए। मैं यहां खड़ा नहीं रह सकता।”

प्रत्युत्तर में भारती हंस पड़ी।

कई घरों को पार करके दोनों एक बंगाली मिस्त्री के घर में प्रवेश किये। उस आदमी की उम्र काफी हो चली है। कारखाने में पीतल ढालने का काम करता है। शराब पीकर, काठ के फर्श पर लेटा मुंह बिगाड़कर किसी को गालियां दे रहा था।

भारती बोली, “माणिक किस पर नाराज हो रहे हो? सुशीला दो दिन से पढ़ने क्यों नहीं गई?”

माणिक किसी तरह उठकर बैठ गया। पहचानकर बोला, “बहिन जी, आओ बैठो। सुशीला तुम्हारे स्कूल में कैसे जाए, बताओ। रसोई-पानी, बर्तन मांजने से लेकर लड़के को संभालने तक का काम। छाती फटी जा रही है बहिन जी। उस साले को अगर मार न डालूं तो मैं वैवर्त समाज से खारिज। बड़े साहब के पास ऐसी अर्जी भेजूंगा कि साले की नौकरी ही छूट जाएगी।”

भारती हंसकर बोली, “वही करना। और अगर कहो तो सुमित्रा दीदी से कहकर तुम्हारी अर्जी लिखवा दूंगी। लेकिन कल तो फायर मैदान में हमारी मीटिंग है। याद है न?”

तभी दस-ग्यारह वर्ष की एक लड़की आई। उसने शराब फर्श पर रखकर कहा, “घोड़ा मार्का शराब नहीं मिली, टोपी मार्का ले आई हूं। चार पैसे बाकी बचे हैं बाबूजी। रमिया ने शराब में धुत होकर मुझसे क्या कहा था, जानते हो?”

पिता ने रमिया का नाम लेकर एक भद्दी गाली दी।

भारती बोली, “वहां तुम मत जाना सुशीला। तुम्हारी मां कहां है?”

मां? मां परसों रात को ही यदु चाचा के साथ चली गई। लाईन के बाहर किराये के एक मकान में रहती है....।”

लड़की और भी कुछ कहने जा रही थी कि बाप गरजकर बोला, “रहने दूंगा? ब्याही औरत है, रखैल नहीं।” कहकर उसने नई बोतल की टोपी तोड़ डाली।

अचानक भारती की साड़ी का छोर खींचकर अपूर्व बोला, “चलिए यहां से।” इससे पहले उसने भारती को कभी छुआ तक नहीं था।

“थोड़ी देर और ठहरिए।”

“नहीं बिल्कुल नहीं,” वह उसे जबर्दस्ती बाहर ले आया।

कमरे में माणिक बोतल खोलकर गर्व से बोला, “खून करके अगर फांसी पर भी चढ़ना पड़े तो भी अच्छा है। मैं जेल या फांसी किसी से भी नहीं डरता।

अपूर्व अग्निपिंड की तरह दहक उठा, “हरामजादा, पाजी, लुच्चा, बदमाश-नरककुंड बना रखा है। यहां आपको कदम रखने में घृणा नहीं हुई?”

भारती बोली, “नहीं। इस नरककुंड का निर्माण इन लोगों ने नहीं किया।”

अपूर्व बोला, “इन्होंने नहीं तो क्या मैंने किया है। लड़की की बात सुनी? उसकी मां तीर्थयात्रा करने गई है। निर्लज्ज, बेहया, शैतान! फिर कभी यहां आइएगा तो अच्छा न होगा।”

भारती हंसकर बोली, “मैं म्लेच्छ हूं। मेरे यहां आने में क्या दोष है?”

अपूर्व क्रुध्द होकर बोला, “दोष नहीं है? ईसाई के लिए क्या अपने समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं है?”

“मेरा कौन है जिसके प्रति उत्तरदायित्व दिखाऊं? किसके सिर में मेरे लिए पीड़ा होती है?”

“यह आपकी चालाकी है। घर लौट चलिए।”

“मुझे पांच जगह और जाना है। आपको अच्छा न लगता हो तो आप लौट जाइए।”

“यह कहने से ही क्या मैं आपको छोड़कर जा सकता हूं?”

“ऐसी बात है तो मेरे साथ चलिए। मुनष्य पर मनुष्य के अत्याचार आंखें खोलकर देखने चलिए। केवल छुआछूत फैलाकर, अपने आप साधु बनकर सोचते हैं कि पुण्य संचय करके एक दिन स्वर्ग जाएंगे, ऐसा सोचिएगा भी नहीं।”

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