पता (कश्मीरी कहानी) : रूपकृष्ण भट्ट
Pata (Kashmiri Story) : Roop Krishen Bhat
आज रोशन सुबह से ही मायूस और बेकरार था। वह दिन भर कमरे में बैठा रहा। बिस्तर अभी तक बिछा हुआ ही था। न वह नहाया था, न शेव ही बनाई थी। बस यों ही बिस्तर पर लेटे-लेटे करवटें बदल रहा था। कुछ देर बाद सिरहाने पर सिर रखकर छत की ओर टकटकी बाँधे देखने लगा। उसी समय उसकी पत्नी तोषा कमरे में आ गई। उसने पति के सिर पर हाथ फेरा और कहा, "इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। इतना बड़ा शहर है, हमें कहीं-न-कहीं किराए का मकान मिल ही जाएगा। अगर कुछ न हो सका तो माइग्रेट कैप में जाकर रह लेंगे।" रोशन ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। मकान बदलने के खयाल से ही उसको घबराहट होने लगती थी, अब जबकि मकान मालिक ने घर बदलने का हुक्म दिया है, तब से चिंता और ज्यादा बढ़ गई है। मृत्यु के भय के समान घर बदलने का डर था! बार-बार एक जगह से दूसरी जगह जाना, बार-बार सामान बाँधना, बैलगाड़ी या टेंपो में सामान लादना कितना कष्टकर था। पूरे सामान को दूसरे मकान में खोलकर फिर से लगाना, कितना कठिन था तथा इससे भी ज्यादा कष्टकर होता था दफ्तर-दफ्तर जाकर पते बदलवाना-राशन-कार्ड, गैस, बच्चों का स्कूल कहाँ-कहाँ नहीं जाना होगा! फिर इसके बाद सभी मित्रों और रिश्तेदारों को जा-जाकर नए मकान का पता बताना होता था। इस सब में महीनों बीत जाते थे। पराया शहर, अनजान लोग, न किसी से जान-पहचान। पिछले नौ वर्षों में उसने यह सब करते-करते अब तक पाँच मकान बदले हैं।
इस समय रोशन को अपना शरीर एक बेजान लकड़ी के लट्ठे के समान लग रहा था। यह किसी भी तरह लुढ़काया जा सकता था। उसे अपना अस्तित्व मिटता हुआ नजर आ रहा था। उसकी बेकरारी बढ़ती गई। वह बेचैन हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और सिगरेट ढूँढने लगा। पूरी अलमारी छान मारी, मगर कुछ न मिला। जेबें टटोले, मगर एक भी सिगरेट नहीं मिला। रोशन की छटपटाहट देखकर संतोषा परेशान हो गई। "आग लगे इस सिगरेट को, देखो तो क्या हालत कर ली है अपनी! होंठ भी काले पड़ने लगे हैं।" रोशन ने उसे अनसुना कर दिया। जब उसे कमरे में कहीं से भी सिगरेट न मिला तो उसने ऐशट्रे टटोली। उसे सिगरेट का एक टोटा मिला। उसने उसे सुलगाया और कश खींचने लगा। कश खींचते-खींचते फिर से आकर बिस्तर पर बैठ गया। कमरे में धुआँ बिखरने लगा। तोषा झुंझलाई और दरवाजा झटककर कमरे से बाहर निकल गई।
जाते-जाते बोली, "जो करना है, करो! मेरी बात तो सुननी नहीं है, इसलिए मैं ही जाती हूँ...।" रोशन को तोषा का इस तरह बुदबुदाते हुए जाना, न अच्छा लगा, न बुरा। जब से ये लोग घर से बेघर हुए हैं, तब से ऐसा होता ही रहता है। रोशन सुबह का अखबार फिर से पढ़ने लगा और फिर वह खबर ढूँढने लगा, जिसमें लिखा था कि एक युवक वितस्ता में मरा हुआ मिला। उसकी लाश इतनी बिगड़ी हुई थी कि पहचानना मुश्किल हो रहा था।
रोशन को 'वितस्ता' शब्द धकेल-गाड़ी की तरह अतीत की ओर धकेल रहा था। उसे वितस्ता के घाट याद आने लगे, जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था। सोमयार घाट के पास ही उनका तिमंजिला मकान था, जिसकी दीवारें वितस्ता के किनारे पर टिकी थीं। वितस्ता एक विशाल नदी थी। घर के पिछले कमरे में बैठकर वह इस नदी के बहते पानी को घंटों देखा करता था। इस नदी की तरंगों में उसे पूरा जगत् नजर आता, समय की हलचल नजर आती और मौसम की धड़कन का अनुमान होता। घाट के साथ बँधे हुए डोंगे, उनमें रहनेवाले मल्लाह-मुल्लाहिन और उनके
परिवार उसे अपनी खिड़की से दिखते थे। उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों को देखना उसे अच्छा लगता था, जैसे सुल्तान हाजी का नाव की नोक पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाना, साजा और जाना मौसी के छोटे-मोटे झगड़े, तसलीमा का गुलाम के साथ छिप-छिपकर मिलना व इश्क फरमाना आदि। वितस्ता में दिन भर कितने ही शिकारें पर्यटकों को सैर कराते हुए आते और जाते थे। डोंगों में रहनेवाले समुदायों के बच्चे नदी में नंगे ही नहाते और तैरते हुए नदी पार करते तो उन्हें तैरते हुए उस पार तक जाते देखना उसे अच्छा लगता था। बचपन से युवा अवस्था तक की कितनी ही यादें वितस्ता से जुड़ी हैं।
रोशन को मास्टर हमीदउल्ला की याद भी आने लगी, जो उसे पढ़ाने के लिए घर पर ही आते थे। उन्होंने नदी की ओर वाले कमरे में रोशन को नदी की कहानी सुनाई थी। उन्होंने उसे समझाया था कि जेहलम का असली नाम वितस्ता है। यह हिंदोस्तान की महत्त्वपूर्ण नदियों में से एक है। इसके बारे में ऋग्वेद और महाभारत में लिखा गया है। नीलमत पुराण में इस दरिया को 'नीलजा' कहा गया है, यानी नील की बेटी। नील कश्यप ऋषि का बेटा था। कश्यप ऋषि ने ही सतीसर से सारा पानी निकाल कर कश्मीर को बसाया था। फिर उन्होंने कश्मीर नील-नाग के हवाले किया और ईश्वर की आरधना में लीन हो गए। वितस्ता की यह कहानी रोशन ने मास्टर हमीद से ही सुनी थी, जो उसे अच्छी लगी थी।
मास्टर हमीद रोशन से अकसर कहा करते, "तुम नील-नाग की संतान हो, इसीलिए तुम वितस्ता के किनारे पर बसे हो। तुम वितस्ता से अलग रह ही नहीं सकते। यही तुम्हारी पहचान है। तुम हो सोहनलाल के बेटे रोशनलाल कौल सोमयार घाट पर वितस्ता के किनारे बसनेवाले। पुरातन समय से तुम्हारा घर यहीं है। तुम यहीं बसते रहे हो, यहीं बसते रहोगे। जब तक वितस्ता बहेगी, तब तक तुम्हारा यही पता होगा। तुम किस्मतवाले हो। तुम्हारा नाम सदा वितस्ता के साथ जुड़ा रहेगा। वितस्ता हर युग में बहती रहेगी और तुम्हारा वंश भी सदा वितस्ता के किनारे बसता रहेगा।" यह मास्टर हमीद की शिक्षा थी और आशीष भी।
रोशन को वह सलाम-डाकिया भी याद आया, जो गुलाम मल्लाह का पता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते परेशान हो गया था। उसका मनीऑर्डर लिये डाकिया न जाने कितने घाटों से गुजर कर आया था। पहले डल-गेट, फिर अमीरा कदल, उसके बाद गाव-कदल और आखिर में सोमयार का घाट। हाँफते सलाम ने जब रोशन को देखा था तो उसको कुछ उम्मीद नजर आई थी। “भई रोशन, ये हाजी लोग एक जगह टिकते तो हैं नहीं, आज इस घाट तो कल दूसरे घाट। जहाँ मरजी वहाँ अपना डोंगा लगा लेते हैं। तुम लोगों की तरह कोई पक्का पता-ठिकाना तो होता नहीं इनका। अब तू ही बता कि यह मनीऑर्डर दूं तो किसे दूँ? खुदा तेरा भला करे, मुझे राजा उसका पता ढूँढ़ दे।"
तोषा ने एकदम से दरवाजा खोला। रोशन ठिठक गया। अखबार उसके हाथों से गिर गया। तोषा ने फुरती से अखबर उठाकर बाथरूम में नल के नीचे रख दिया। आई तो नाराज होकर बोली, "त्राहि! त्राहि!! बुरा हो इस सिगरेट का। ऐसा भी क्या कि आपको होश ही नहीं रहा कि अखबार सुलगने लगा है। बिस्तरा जल जाता, सामान जल जाता, आपको कुछ हो जाता तो क्या होता?" रोशन जैसे किसी गहरी नींद से जागा। उसके शरीर में कंपन थी, चेहरे पर पसीने थे। उसका यह हाल देखकर तोषा घबरा गई, "हाय! यह क्या हुआ है आपको? आप ठीक तो हो न?" काँपती आवाज में रोशन ने उत्तर दिया, "मैं ठीक नहीं हूँ। मेरा पता खो गया है। तोषा, खो गया है पता मेरा!..."
(अनुवाद : गौरीशंकर रैणा)