पटा-बनेठी (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Pata-Banethi (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

1

उस दिन मैं फँस ही गया।

लेकिन अगर महज इतनी ही सी बात होती तो मुझे इतना दुःख न होता । मुझे दुःख तो इस बात का है कि मेरी वजह से एक बननेवाली गृहस्थी छूट गई, एक बसनेवाली दुनिया उजड़ गई।

बात यों हुई कि मैं उस दिन घर में लड़ पड़ा था । लड़ाई किस बात पर हुई थी, यह तो इस समय याद नहीं, लेकिन लड़ाई जरूर थी, और प्रथा के अनुसार मैंने अपनी श्रीमतीजी के तर्कों का उत्तर अपने हाथों से दिया था। मैं जानता हूँ कि मेरी यह हरकत सभ्य समाज में बुरी समझी जाएगी, लेकिन मैं यह विश्वास दिलाता हूँ कि इन अवसरों पर खुजली मेरे हाथों को नहीं होती, वह श्रीमतीजी के गालों को होती है।

बहरहाल मैं बरामदे में बैठकर सोचने लगा-पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री है; और दुनिया में स्त्री है, पुरुष है - यानी यह दोनों हैं और बिना एक के दूसरे का काम नहीं चल सकता। तो जो कुछ है वह है - यानी - यानी - सिनेमा चलने का समय हो रहा है, निहायत शानदार पिक्चर लगी है, और चाय अभी तक नहीं मिली। अपनी इस बेहूदा हरकत के बाद चाय का अनशन घर में करना पड़ेगा। खैर चाय तो बाजार में किसी होटल से भी पी जा सकती है और सिनेमा देखना ही है, पिक्चर का आज आखिरी दिन है। लेकिन पैसे - वह तो श्रीमती के पास में हैं, महीने की तनख्वाह है और तनख्वाह मिलने के दिन ही वह कब्जा कर लेती हैं और फिर मुझे हरेक खर्च की कैफियत देकर उनसे पैसा माँगना पड़ता है। मेरे लिए यह सुविधाजनक है क्योंकि अगर तनख्वाह मेरी जेब में हो तो जो यार-दोस्त दस-पाँच दिन में ही रकम हमसे वसूल कर ले जाएँ। तो भला बताइए कि मैं उस वक्त अपनी श्रीमतीजी से पैसे माँग सकता था ? अभी तक आप मेरी श्रीमतीजी को जानते नहीं । श्रीमतीजी स्त्री हैं, और स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है।

यकीन दिलाता हूँ कि मुझे उस समय पंडित त्रिवेणीलाल का आना जरा भी नहीं अखरा । पंडित त्रिवेणीलाल मेरे मित्र हैं लेकिन न जाने क्यों इधर कुछ दिनों से मुझे उनकी शक्ल देखते ही कुछ अजीब सी उलझन होने लगती है। वह वकील हैं या यों कहिए वह वकील थे तो बेजा न होगा क्योंकि आजकल वकील वह नाम मात्र के हैं, नेता और समाज-सुधारक वे सबसे पहले हैं। और नेता तथा समाज-सुधारक- इन दोनों से ही मैं घबराता हूँ क्योंकि तन-मन-धन इनमें यह पहले को छोड़कर बाकी दो को वसूल करने की कोशिश किया करते हैं, यानी मन वसूल कर लेते हैं दिमाग चाट कर और धन वसूल कर लेते हैं, चन्दा माँग कर और कभी-कभी इस उपेक्षित तन को भी ऊब कर मन और धन के साथ एक चपत के रूप में देने की तबीयत होती है, लेकिन ऐसे अवसरों पर मैंने बड़े संयम के साथ काम लिया है।

पंडित त्रिवेणीलाल एक महिला - विद्यालय के सेक्रेटरी के रूप में समाज- सुधारक हैं और हिन्दू महासभा के सेक्रेटरी के रूप में नेता हैं। और मैं कांग्रेसमैन हूँ, लिहाजा हिन्दू महासभा के सेक्रेटरी पंडित त्रिवेणीलाल से मेरा गहरा मतभेद है।

बरामदे पर कदम रखते ही उन्होंने मुझसे कहा- “यार कहो रमेश-जय रामजी की । "

और उनका स्वागत करने के लिए उठते हुए मैंने कहा- "आओ त्रिवेणीलाल- जय हिन्द।”

हम दोनों आमने-सामने बैठ गए। अपने पोर्टफोलियो से उन्होंने एक रसीद-बुक निकालते हुए कहा-“हाँ रमेश ! तुम्हें एक कष्ट देना चाहता हूँ।”

“जी, वह तो मैं रसीद बुक देखकर ही समझ गया। लेकिन साफ बतला दूँ कि मेरे पास एक भी पैसा नहीं है । मेरी सारी अमानत श्रीमतीजी के पास रहती है और वह कोपभवन में हैं। तो अगर उन्हें समझा सको तो उनसे दस रुपए वसूल कर लो पाँच तुम ले लेना और पाँच मुझे दे देना, सिनेमा जाना है । "

मैं जानता था कि दस रुपए क्या त्रिवेणीलालजी मेरी श्रीमती से दस पैसे भी वसूल नहीं कर सकते। लेकिन मैं त्रिवेणीलाल की हिम्मत का कायल- चौखट पर खड़े होकर उन्होंने आवाज देनी शुरू की -

“भाभीजी, अजी भाभीजी, मैं त्रिवेणीलाल हूँ।” और तब तक आवाज देते रहे जब तक आँसू पोंछकर, मुँह धोकर और साड़ी बदलकर श्रीमतीजी बरामदे में नहीं आ गईं। उनके आते ही त्रिवेणीलाल ने कहा- “भाभीजी, अगले सप्ताह महिला - विद्यालय का विशेष वार्षिक अधिवेशन मनाया जाएगा।”

“तो?” बड़ी रुखाई के साथ मेरी धर्मपत्नी ने उत्तर दिया।

“तो उसके लिए मैं आपको विशेष रूप से आमन्त्रित करने आया हूँ। और- और यह देखिए...”

“जी, और आपको चन्दा चाहिए, इसीलिए मुझे निमन्त्रण मिल रहा है। लेकिन अच्छी तरह सुन लीजिए, मैं एक पैसा नहीं दूँगी । मेरा कहना तो यह है कि महिला कॉलेज बिल्कुल बेकार की चीज है। स्त्री को पढ़ा-लिखा के होगा क्या? उसे तो पुरुषों की गुलामी करनी ही पड़ेगी, उसके अत्याचार सहने पड़ेंगे। मैं एक पैसा न दूँगी चन्दे में,” और यह कहकर श्रीमतीजी अन्दर लौटने को बढ़ीं।

लेकिन पंडित त्रिवेणीलाल इतनी आसानी से पराजित होनेवाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने कहा- “भाभीजी, पहले आप मेरी पूरी बात सुन लें तब अपना निर्णय दें। "

श्रीमतीजी को बैठ जाना पड़ा।

“बात यों है,” त्रिवेणीलाल ने अपना गला साफ करके आरम्भ किया, "इसमें कसूर शिक्षा का नहीं है बल्कि स्त्रियों की असहायावस्था का है। पुरुष स्त्री पर अत्याचार इसलिए करता है कि स्त्री निर्बल है। अगर स्त्री सबल हो जाए, यानी उसके रग-पुट्ठे मजबूत हो जाएँ, तो फिर देखें कि कोई पुरुष स्त्री पर कैसे अत्याचार करता है। और देखिए भाभीजी, भारतीय स्त्रियों की हालत बहुत ही गिरी हुई है। दिन-दहाड़े गुंडे उन पर प्रहार करते हैं और वह अपनी रक्षा नहीं कर पातीं। और इसलिए मैंने महिला - विद्यालय में बालिकाओं के लिए व्यायामशाला खोल दी है। "

“व्यायामशाला-महिलाओं के लिए व्यायामशाला!” मैंने आँखें फाड़कर पूछा।

“जी हाँ, व्यायामशाला ! और यही नहीं, लड़कियों को तलवार चलाने और लाठी चलाने की शिक्षा दी जाती है। रमेश - सरकार से लिखा-पढ़ी कर रहा हूँ - जल्दी ही उन्हें बन्दूक और राईफल चलाने की शिक्षा देने का प्रबन्ध हो जाएगा।" और अब उन्होंने मेरी श्रीमतीजी से ओज-भरे स्वर में कहा- “भाभीजी, आप जरूर आइएगा। देखिएगा कि हम स्त्री को क्या से क्या बना रहे हैं। मजाल है कि अब हमारी हिन्दू गृह- देवियों पर गुंडे हमला कर सकें। हमारी वीरांगनाएँ देश की गौरव बनेंगी - हजारों-लाखों-करोड़ों लक्ष्मीबाई यहाँ पैदा होंगी। "

पंडित त्रिवेणीलाल के लेक्चर का असर पड़ा। हम दोनों साथ-साथ घर से चले, सड़क पर जाकर पाँच रुपए उन्होंने मुझे दिए और पाँच रुपए खुद लेकर उन्होंने कहा-“देखो रमेश, आना जरूर ! तुम्हें व्याख्यान भी देना होगा । "

2

मेरे एक मित्र हैं और मेरे मित्र के एक सुपुत्र हैं । मित्र पहले कभी बड़े जमींदार थे, अब उनके पास बहुत बड़ा फॉर्म है और उनके सुपुत्र एम.ए. के विद्यार्थी हैं। ये सुपुत्र मुझे बहुत मानते हैं क्योंकि साहित्य में उन्हें किसी कदर दिलचस्पी है और वह मुझे चचा कहते हैं।

एम.ए. का इम्तहान देकर यह इलाहाबाद से अपने पिता के फार्म पर लौट रहे थे तो दो-एक दिन के लिए वह मेरे यहाँ उतर पड़े। दो महीने बाद इनकी शादी होनेवाली थी, और जिस लड़की से शादी होनेवाली थी वह यहाँ महिला- विद्यालय में ही पढ़ती थी । और मैं समझता हूँ कि यह हजरत अपनी होनेवाली बीवी को भी देखना चाहते थे क्योंकि बात-बात में इन्होंने इसका इशारा मुझसे किया था।

यहाँ थोड़ा सा अपने भतीजे के सम्बन्ध में और बतला देना उचित होगा। कसरती बदन, हृष्ट-पुष्ट जवान, फुटबाल कैप्टेन और पता नहीं फुटबाल का कैप्टेन बने रहने के लिए या स्वयं में दिमाग की कमी होने के कारण यह तीन साल से एम. ए. पास होने का नाम नहीं ले रहे थे। बाप लखपती आदमी वह सुपुत्र से फार्मिंग कराना चाहते थे, लिहाजा उन्हें भी इस बात की चिन्ता नहीं थी कि बेटा इम्तहान पास करे ही। कह दिया करते थे - " अभी खेलने - खाने की उम्र है, कर लेने दो मौज। आखिरकार करनी पड़ेगी खेती ही । "

महिला - विद्यालय के वार्षिक अधिवेशन के दिन श्रीमतीजी मय अपने बच्चों व नौकर के अपनी समझ में दस रुपया देनेवाली सम्मानित महिला की हैसियत से, घर वास्तव में मेरी श्रीमती होने के नाते दोपहर के बाद ही महिला- विद्यालय में पहुँच गईं। निर्धारित समय पर मैं भी अपने भतीजे के साथ वहाँ पहुँचा और हम दोनों सबसे आगे बिठलाए गए।

कार्यवाही आरम्भ हुई 'वन्दे मातरम्' के गान के साथ और फिर हुए व्याख्यान | मुझे भी व्याख्यान देना पड़ा। अब लड़कियों के व्यायाम का प्रदर्शन आरम्भ हुआ। डंड - बैठक, डम्बिल - मुग्दर, सभी तरह की कसरतें हुईं। उपस्थित महिलाओं एवं पुरुषों ने हर्ष से तालियाँ पीटीं । मेरे भतीजे ने मुझसे कहा -“चचा, वाकई हिन्दुस्तान में बड़ी तरक्की हो रही है। ” लेकिन मैं खामोश ही रहा ।

इतने ही में दो लड़कियाँ हाथ में लाठियाँ लिये हुए स्टेज पर आ गईं, चारों तरफ सन्नाटा फैल गया और लाठियाँ चलने लगीं।

किस जोर के साथ वार हो रहे थे और किस सफाई के साथ वार बचाए जा रहे थे। चारों तरफ वाह-वाह हो रही थी, लोगों की साँस ऊपर की ऊपर और नीचे-की-नीचे। और मेरे 'भतीजे' बड़े गौर से यह द्वन्द्व-युद्ध देख रहे थे। बीच-बीच में बड़े जोश के साथ - 'शाबाश!' - 'वह मारा-' 'खूब बचाया।' के नारे भी लगाते जाते थे। मैंने एकाध बार उन्हें टोका भी कि इतना शोर न करें तो उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- “वाह चचा! आज तबीयत खुश हो गई। इस खुशी को जाहिर करने से कोई मुझे कैसे रोक सकता है!”

व्यायाम-प्रदर्शन समाप्त हो गया । तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्टेज पर परदा गिरा, एनाउंसर ने पुकारा, “अब सांस्कृतिक कार्यक्रम होगा। पाँच मिनट तक आप लोग प्रतीक्षा कीजिए।”

लेकिन मैं अपने भतीजे की याददाश्त को दाद देता हूँ। इस प्रदर्शन के उत्साह और उमंग में उन्हें यह बात नहीं भूली कि उनकी भावी पत्नी महिला- विद्यालय में पढ़ती है और उसे देखना उनका मुख्य उद्देश्य है। परदा गिरते ही उन्होंने मुझसे कहा- “ चचा कहिए अब पता लगाया जाय अपनी होनेवाली के सम्बन्ध में?"

"जरूर - अभी पाँच मिनट का वक्त है। "

इस बीच में लड़कियों का एक गिरोह स्टेज से उतरकर दर्शकों की कुर्सियों के पास खड़ा हो गया। एक लड़की जो पिछले पटा-बनेठी के प्रदर्शन में भाग लेकर आई थी पास में ही खड़ी थी। उसकी लाठी अब भी उसके हाथ में थी । हृष्ट-पुष्ट, लम्बी सी लड़की, रंग सुनहरा, आँखें बड़ी-बड़ी, चेहरे पर भरपूर स्वास्थ्य की लाली। भतीजे साहब ने उससे पूछा - "आपके विद्यालय में माया नाम की कोई लड़की बी.ए. में पढ़ती है?"

वह लड़की तनकर खड़ी हो गई और उसने अपनी लाठी कसकर पकड़ते हुए कहा - "जी हाँ मैं ही हूँ महामाया! आपको मैं नहीं पहचानती, कहिए, आपको मुझसे क्या काम है?"

वाह रे मेरे भतीजे ! किस खूबी के साथ उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “आपके भाई प्रभानाथजी का मैं मित्र हूँ- आपके गुण गाते हुए वह नहीं अघाते! तो आपके दर्शन करने की इच्छा हो गई थी । "

“तो अब आपने कर लिए मेरे दर्शन! मेरे भाई की आवारा लोगों की दोस्ती है - इसका मुझे दुःख है; अबकी जब मुझे मिलेंगे तब मैं उन्हें आड़े हाथों लूँगी।” और वह वहाँ से हट गई।

इस प्रदर्शन से लौटकर पहला काम जो मेरे भतीजे ने किया वह एक पत्र लिखना था जो अपने होनेवाले श्वसुर के नाम लिखा गया था। पत्र लिखकर उन्होंने मुझे दिखाया - पत्र इस प्रकार है :

महोदय,

पहले मैं आपको अपना थोड़ा सा परिचय दे दूँ, फिर मैं काम की बात लिखूँगा।

आपने मुझ पर बड़ी कृपा करके मुझ नालायक को - क्योंकि एम. ए. में तीन साल से फेल हो रहा हूँ-अपना दामाद बनाने का निर्णय किया है। दो महीने बाद मेरा विवाह होनेवाला है। तो इतना परिचय काफी होगा।

इतना और बतला दूँ कि मैं हृष्ट-पुष्ट तन्दुरुस्त आदमी हूँ। मेरी ऊँचाई पाँच फुट ग्यारह इंच है और मैं अपनी यूनिवर्सिटी में फुटबाल का कप्तान हूँ।

यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि मैं काफी बिगड़ैल व गुस्सैल भी हूँ। फुटबाल - फील्ड पर खेल के समय अक्सर विपक्षियों के साथ मेरी घूँसेबाजी हो जाया करती है और कभी-कभी तो दो-चार के लिए मैं अकेला काफी साबित हुआ हूँ।

मुझे यहाँ महिला - विद्यालय में आपकी सुयोग्य सुपुत्री के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह अनिन्द्य - सुन्दरी है - यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। लेकिन कल ही मुझे आपकी सुपुत्री के पटा-बनेठी के हाथ देखने को मिले, और मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि उसकी बहादुरी तथा उसके साहस से मेरे छक्के छूट गए।

अब मैं काम की बात पर आता हूँ। मैंने बहुत गौर किया और मैं अपने आपको आपकी सुपुत्री का 'धर्म-पति' बनने के सर्वथा अयोग्य पाता हूँ। इसका कारण भी मैं आपको बतला देना उचित समझता हूँ।

मैंने कहा न कि आदमी मैं गुस्सैल हूँ और किसी कदर हथ - छुट भी । लिहाजा आपकी सुपुत्री से मेरा झगड़ा कभी-न-कभी अवश्य होगा और ऐसी हालत में मेरा हाथ भी अपनी आदत के अनुसार छूटेगा ।

यहाँ मैं यह भी बतला दूँ कि मैंने जिन्दगी में लाठी कभी नहीं चलाई। पटा-बनेठी के हाथों से मैं अपनी रक्षा किसी हालत में नहीं कर सकता। और मैं यह भी जानता हूँ कि आपकी वीर और बहादुर सुपुत्री अपनी शिक्षा का उपयोग अवश्य करेगी। लिहाजा उसकी लाठी और पटा-बनेठी के हाथों से मेरी खोपड़ी सुरक्षित नहीं रह सकती। सुधार घर से ही शुरू होते हैं और बाहर के गुंडे की खोपड़ी तोड़ने के पहले उसे घर के अन्दरवाले गुंडे की खोपड़ी तोड़ने का मौका मिलेगा। और आप समझ ही सकते हैं कि अपनी खोपड़ी तुड़वाने के लिए कोई समझदार आदमी तैयार नहीं होगा।

यहाँ मैं आपको एक अमूल्य सलाह देना चाहता हूँ। आप अपनी सुपुत्री का विवाह किसी ऐसे योग्य वर के साथ करें जो मरियल हो, दब्बू हो और आपकी सुपुत्री का फरमाबरदार नौकर बन सके। उस हालत में अपने पति की तथा अपनी रक्षा करने के लिए आपकी सुपुत्री अपने पटा-बनेठी के हाथों का सार्थक उपयोग कर सकेगी।

- आपका चरण- सेवक

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