परसु परसा परसराम : हरियाणवी लोक-कथा

Parsu Parsa Parasram : Lok-Katha (Haryana)

भारतीय समाज में ‘नामकरण’ का बहुत महत्व है और वैश्य समाज में नाम का रूप माया यानि लक्ष्मी या धन-पैसे के अनुरूप बदलता रहता है। तभी तो कहावत बनी- ‘माया तेरे तीन नाम परसु-परसा-परसराम’ यानि ज्यों-ज्यों आर्थिक स्थिति दृढ़ होती गई, परसु-परसा फिर सेठ परसराम कहलाया। एक दिन हुआ कुछ यूं कि दो देवियां, जो यूं तो सगी बहनें थीं मगर कई बार सगी बहनों में भी रंग-रूप, धन-दौलत या फिर शक्ति के कारण अहंकारवश सौतिया डाह पैदा हो जाती है। तो हमारी इन दो देवियों में भी एक बार ऐसा ही झगडा उत्पन्न हो गया। अब इनमें एक का नाम था लिछमी। जी आप लक्ष्मी देवी मान लें मगर हरियाणा में इन्हें लिछमी देवी ही कहा-बोला जाता है। दूसरी का नाम था दलिदरी। देवी जी दरिद्रा। लिछमी और दलिदरी यूं तो सगी बहनें थीं और एक साथ ही जन्मी थीं। जी आंग्ल भाषा के मुताबिक ट्विंस थीं। आमतौर पर ट्विंस शिशु एक-दूसरे के बहुत नजदीक होते हैं। एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। मगर जनाब अपवाद भी होते हैं। तो एक बार दोनों में ठन गई। लिछमी कहे, मैं बड़ी। दलिदरी कहे, मैं बड़ी। लिछमी कहे, मैं जिसे चाहूं परसु से परसराम बना दूं। बस तू-तू मैं-मैं इतनी बढ़ी कि दोनों ने कहा, चलो किसी को न्यायाधीश बनाकर पूछते हैं। रात हो गई, गांव में सभी सो रहे थे। हां, सेठ परसराम तेल का दीया जलाकर बहीखाता मिलान कर रहा था। दोनों देवियां वहां जा पहुंची। सेठ अकबका कर उठा। माता लिछमी को पहचान कर प्रणाम किया। फिर देवी दलिदरी का भयानक अशोभनीय रूप देखकर डर गया और डरते-डरते गिर पड़ा और पड़े-पड़े ही प्रणाम किया। दलिदरी देवी ने लिछमी की तरफ मुस्कुराकर देखा। मानो कह रही हो, लो तुम्हें केवल प्रणाम किया। मुझे तो दण्डवत प्रणाम किया है।

सेठ परसराम अभी असमंजस में था कि दोनो देवियों ने अपनी समस्या उसके सामने रख दी और कहा अब तुम कहो, “मैं यानि दलिदरी, तुम्हें अच्छी लगती हूं या लिछमी।”

सेठ ने सोचा, बुरे फंसे। अगर दलिदरी देवी को अच्छा बतलाता हूं तो देवी लिछमी रूठकर चली जाएगी और लिछमी को अच्छा बतलाया तो दलिदरी घर-द्वार पर कब्जा कर दिवाला निकलवा देगी।

मगर कहते हैं, हर जाति के व्यक्ति की अपनी अलग बुद्धि होती है। ब्राह्मण तो खैर ज्ञानी-पंडित जाने क्या-क्या होते ही हैं पर साधारण-सा जाट भी किसानी करते-करते भी अपनी जट्ट विद्या से बड़े-बड़े बुद्धिमानों को पटकनी दे देता है। अपना सेठ परसुराम तो परसु से परसा, फिर सेठ परसराम बना ही अपनी बुद्धि के कौशल से था। तो उसने फौरन अपनी वाणिज्यिक बुद्धि की टोपी ओढ़कर कहा, “माता! आप दोनों मुझसे 10-10 हाथ की दूरी पर खड़े हो जाएं। जिससे मैं आपके पूरे रूप के दर्शन कर सकू। एक मेरे बाईं ओर खड़ी हो जाएं, दूसरी दाईं ओर।” दोनों जब खड़ी हो गईं तो परसुराम ने चश्मा लगाकर पहले लिछमी पर, फिर दलिदरी पर नजर डाली। फिर लिछमी, फिर दलिदरी। वह जब 5-6 बार ऐसा कर चुका तो दलिदरी ने कहा, “क्यों देर लगा रहा है।”

परसुराम ने डरते-डरते कहा, “माता! ठीक तरह से देख रहा हूं, जिससे सही न्याय कर सकू।” फिर बोला, “माता लिछमी! दीपक आपसे दूर है तो थोड़ा दो कदम मेरी तरफ आगे बढ़ आएं।” लिछमी आगे बढ़ी। फिर उसने दलिदरी की ओर देखते हुए कहा, “माता! दीपक की रोशनी आप पर ज्यादा पड़ने से मेरी आंखें चुंधियां रही हैं। सो आप दो कदम पीछे की ओर हट जाएं। ऐसा उसने 2-3 बार किया यानि लिछमी को अपनी ओर और दलिदरी को अपने से दूर सरका दिया। फिर माथे का पसीना पौंछते हुए बोला, “मां लिछमी! आप तो आते हुए अच्छी दिखती हैं और माता दलिदरी! आप जाते हुए अच्छी लगती हैं। दोनों देवियों ने खुश होकर प्रस्थान किया तो परसराम की सांस में सांस आई। यानि बुद्धिमान व्यक्ति बुद्धि का सही प्रयोग कर मुसीबत को टाल सकता है।

(डॉ श्याम सखा)

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