परिवार (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Parivar (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
ज्योतिषियों ने मेरे पिता को बताया कि लड़के के ग्रह ऐसे पड़े हैं कि पुलिस इंस्पेक्टर बनेगा। अंग्रेज़ों के शासनकाल में गाँवों, कस्बों में मनुष्यता का सर्वोच्च शिखर पुलिस थानेदार होता था। वह राम भी होता था और कृष्ण भी । मर्यादा पुरुषोत्तम भी और लीलामय भी । मेरे फुफेरे भाई हेड कांस्टेबिल थे । मगर क्या रोब था। लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार नहीं थे। जो अधिकार साम्राज्यवादी सरकार ने दिए थे, उनकी भी जानकारी लोगों को नहीं थी । चेतना भी नहीं थी । इसीलिए पुलिस का इतना दबदबा था । मेरे पिता लकड़ी के कोयले का धंधा करते थे, और बाहर कोयला भेजने के लिए रेलवे वैगन जल्दी पाने के लिए स्टेशन मास्टर को घूस खिलाते थे । वे खुद बाहर से आते तो रेल टिकट नहीं लेते थे। मैं भी बिना टिकट आता था। मेरे पिता की घूस खाने वाले बाबू थे न सब । तो पिता की नज़र में आदर्श नौकरी रेलवे बाबू की !
घूस थानेदार भी खाता था और रेलवे स्टेशन मास्टर भी । देशी साहब भी और अंग्रेज़ साहब भी । मगर अंग्रेज़ साम्राज्यवादी के शोषण और भ्रष्टाचार में 'साफिस्टिकेशन' होता था- ब्लीडिंग व्हाइट विथ ग्रेस । 'ग्रेस' था। आज जैसा भौंडापन नहीं । अंग्रेज़ साहब यह नहीं कहता था : पिपरिया से एक बोरा अच्छी दाल लेते आना। नहीं, नहीं टू क्रूड ! These petty natives आई एम इंग्लिश ! तो साहब को बड़े लोग 'डाली' लगाते थे - डाली में फल, फूल, मेवे और इनके साथ रुपए । साहब बोलता था : "टोम सेठ गोपालदास अच्छा आदमी हाय । नाईस मेन ! हामको पसंड है। "
'ग्रेस' था साम्राज्यवादी में । इस तरह का - दें वाइसराय इन काउंसिल इज़ प्लीज़्ड टु कनफर्म दॅ सेंटेन्स ऑफ डेथ - प्लीज़्ड टु कनफर्म ! लंदन में छपे 'क्लासिफाइड डाक्यूमेंट्स' के पोथों में ऐसे नूमने मिलेंगे ।
क्या बनूँ, यह बात तब उठी जब मैं मैट्रिक में था। उसके पहले की पृष्ठभूमि बता दूँ । मेरे पिता तीन भाई थे । ब्राह्मण थे, पर पौरोहित्य नहीं करते थे । उनकी मौसी मालगुजार थी। यानी मालगुजार परिवार के थे, पर कानूनी हिस्सा मालगुजारी में नहीं था । इसका मतलब है कोई बुनियाद नहीं थी । मौसी ने खेती दे दी होगी । घर थे ही। यानी आश्रित थे । किसी कारण मौसी के बेटे से झगड़ा हुआ। मेरे बड़े दादा ने मुझे बताया कि इस मँझले श्यामलाल ने लट्ठ चला दिए और हम लोग गाँव से उखड़ गए।
बड़े दादा कहते थे : 'पास-पास पाँच-छः गाँव थे । हम ब्राह्मण हैं । वैसे ही मजे में रह लेते । '
आधी शताब्दी से पहले की बात है यह । तब ब्राह्मण को श्रद्धालु गाँववाले पाल लेते थे । पौरोहित्य न करें, सिर्फ चंदन लगाया करें तो भी पाल लेते थे । जनेऊ और चंदन बड़ी पूँजी थी। ये सुरक्षा कवच भी थे। बेचन शर्मा 'उग्र' ने किसी पौराणिक कहानी में लिखा है कि ब्राह्मण देवदत्त किसी स्त्री के घर से व्यभिचार करके निकला तो बाहर लोग लाठियाँ लिए मारने को खड़े थे । देवदत्त ने झट मिरजई में से जनेऊ निकालकर बताई तो लोगों ने कहा : 'जाने दो । ब्राह्मण है ।' शायद किन्हीं ने देवदत्त को अपने घर पधारने का निमंत्रण भी दिया हो। मैंने भी एक वाकया देखा था । लोग एक आदमी से कह रहे थे : 'काम तो तुमने ऐसा किया है कि तुम्हारे हाथ-पाँव तोड़ दिए जाएँ। पर तुम ब्राह्मण हो, तो छोड़ देते हैं।'
ब्राह्मण ने उच्चतम बौद्धिक स्तर पर और निम्नतम भिक्षाटन के स्तर पर धंधा जमाकर रखा था। इतिहास में ब्राह्मण ने चिंतन किया, तत्वज्ञान दिया । पर क्षत्रिय भी पीछे नहीं रहे । ब्राह्मण और क्षत्रिय का शस्त्र और शास्त्र दोनों में संघर्ष हुआ। तत्वचिंतन और दर्शन में क्षत्रिय पीछे नहीं थे । पर ये जो आश्रमवासी ऋषि चिंतन करते थे, उसका कोई उत्पादक उपयोग नहीं होता था । कारण, जो श्रम करके उत्पादन करते थे, उन्हें इन्हीं ब्राह्मणों ने नीची जाति का करार दे दिया था और उनसे कोई संपर्क नहीं था। चिंतन अलग और श्रम अलग। कोई तकनीक विकसित नहीं की उन चिंतकों ने । हल के फल तक तो कोई सुधार किया नहीं। इस पूरे ब्राह्मण संप्रदाय ने न कोई उत्पादन सीखा, न किया । ये समाज की आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति करते थे और समाज इन्हें सम्मान के साथ पाल लेता था। पर अध्यात्म अनुत्पादक है।
आगे जब सामंतवाद जम गया, तो ब्राह्मण देवता राजाश्रयी हो गए। सामंती शोषण के लिए उन्होंने विधि-विधान दिए, नीतियाँ बनाईं। तब ब्राह्मण के प्रवेश करते ही सामंत अपने आसन से उठकर विप्रदेव को प्रणाम करता था। सामान्य समाज में ब्राह्मण पौरोहित्य करते थे। पर जो जाति उत्पादन नहीं करती उसकी दुर्गति होती है। कभी पूजे जानेवाले ब्राह्मण आगे भिखमंगे हो गए और इस द्वार से उस द्वारं भगाए जाने लगे । जातिवाद और अस्पृश्यता को स्थापित करनेवाले ब्राह्मण देवता का बेटा अब जूतों की दुकान काम करता है और चमार अफसर को अपने हाथ से जूता पहिनाकर कहता है : 'यह आपको फिट बैठता है सर !' मैं कहता हूँ ब्राह्मण को भी यही फिट बैठता है ।
नीचे के पौरोहित्य के स्तर पर भी ब्राह्मण ने अच्छा जमाकर रखा था । तरह-तरह के पर्व, पूजा, अनुष्ठान, मुंडन, कनछेदन, लग्न आदि तो थे ही, ब्राह्मण ने अच्छा माल खाने की एक नई तरकीब ईजाद कर ली थी। दोपहर में हमारे दरवाजे पर पंडित जी रुके। मेरे पिता बरामदे में थे । पंडित ने पूछा : 'कौन जाति है ? ' पिता जी ने कहा : 'ब्राह्मण ।' पंडित जी बोले- 'तो बस जल पिला दो । आगे बढ़ जाएँगे । 'पिता जी ने कहा : 'दोपहर हो गई है। भोजन भी कर लीजिए ।' पंडित ने पूछा : 'कौन ब्राह्मण हैं आप ?' पिता जी ने कहा : 'जिझौतिया । ' पंडित जी ने कहा : 'हम कान्यकुब्ज हैं। कच्चा भोजन तो कर नहीं सकते गैर जाति में । पक्का भोजन ज़रूर कर लेंगे।' कच्चा भोजन यानी दाल, रोटी, सब्जी और पक्का भोजन यानी पूड़ी, हलवा, मिठाई । पक्का भोजन ब्राह्मण तेली, बनिया, कुर्मी के घर कर लेता है। अगर दक्षिणा की रकम बड़ी हो तो भंगी के घर भी पक्का भोजन कर ले। माल खाने की क्या बढ़िया तरकीब निकाली ब्राह्मण देवता ने ।
परिवार के बारे में मुझे बहुत कम याद है। हाँ, वे मेरे लठैत चाचा `श्यामलाल याद हैं क्योंकि मैंने उन्हें घोर अक्खड़ता और कारुणिक टूटन दोनों स्थितियों में देखा । जवानी में विधुर हो गए। एक लड़की थी, जिसे वे मेरे पिता के पास छोड़कर गायब हो गए थे। आवारा प्रवृत्ति के थे । लठैत थे । कटोरे में तिल का तेल भरकर उसमें लाठी का सिरा डुबाकर उसे दीवार से टिकाते थे । कहते थे : 'लाठी तेल को पी जाएगी ।' लट्ठ को वे 'दुख भंजन' कहते थे । कोई बड़ी लड़ाई उन्होंने नहीं लड़ी। लट्ठ कम चलाते थे, रंग ज़्यादा बाँधते थे । उनकी बड़ी इच्छा यह थी कि वे पुलिसवाले माने जाएँ। वे खाकी कमीज पहनते थे । पुलिस विभाग में पुराने 'फुलबूट' बहुत सस्ते में पुलिसवालों को ही बेच देते हैं । उनके भानजे हैड कांस्टेबिल खरीद लेते थे । हमारे दादा वे फुलबूट पहनते, खाकी शर्ट पहनते और सिर पर तिरछी खाकी टोपी सजाते थे । इस तरह वे बस्ती में हाथ में 'दुख भंजन' लेकर घूमते थे। किसी से कहते : 'हवालात में सड़ा दूँगा । ' किसी से कहते : 'ज़िंदगी भर जेल में चक्की चलवाऊँगा ।' और पुरातत्ववेत्ताओं का ख्याल रखकर कहते : 'जमीन में ऐसा गाइँगा कि हज़ार साल तक नहीं मिलेगा ।' अधिकतर लोग उनकी भभकियाँ जानते थे । कुछ पर रोब भी गालिब हो जाता ।
वे कहाँ रहते थे, हमें पता नहीं । आवारा थे । हरफनमौला थे। कहीं मंदिर के पुजारी बन जाते, कहीं किसी सेठ के यहाँ उधारी वसूलनेवाले । कभी हमारे पास आकर कुछ दिन रहते। एक बार तीन साल मेरे पिता के कोयले के भट्टों की देखरेख करते रहे । मेरे पिता के मित्र पोस्ट मास्टर मेहता जी ने मेरे पिता से कहा : 'श्यामलाल तो भट्टों पर बड़ी मुस्तैदी से काम कर रहे हैं।' पिता जी ने कहा: 'हाँ, दो रेजा (मज़दूरनी) खूबसूरत हैं।'
दादा अपने पुलिसवाले भानजे से खूब गप्प करते थे। अपने कारनामे सुनाते थे। मैं पढ़ने का बहाना किए सुनता रहता था। एक दिन बता रहे थे : 'सेठ के छोटे-से लड़के के गुदा स्थान से ऊपर मैंने एक घान खोंस दी। घान दोनों तरफ से गड़ती थी और लड़का रोता था । सेठ-सेठानी जब घंटे भर तक तंग हो गए और लड़के का चीखना बंद नहीं हुआ, तब मैंने कहा: 'सेठ जी, यह प्रेतबाधा है। मुझे प्रेत उतारना आता है । आप लोग सब कमरे से बाहर चले जाइए। मैं प्रेत उतारता हूँ। मैंने कमरा बंद किया। ज़ोर-ज़ोर से अंट-शंट जैसा बोलता रहा-उतर साले ! भाग साले ! प्रेत के बच्चे ! हनुमान विक्रम बजरंगी ! और मैंने घान निकाल दी। बच्चे ने रोना बंद कर दिया। दरवाज़ा खोला । बच्चा माँ की गोद में किलकारी मारने लगा। अब तो मैं बड़ा 'गुनिया' माना जाने लगा । सेठ ने पूरे कपड़े दिए और ग्यारह रुपए भेंट ।'
कई साल बाद सन् 1960 में जबलपुर में घर के सामने रिक्शा रुका और उसमें से उतरे हमारे दादा । वे 80 साल से ऊपर थे, मगर तगड़े थे। फुर्ती वैसी ही थी । 4-6 किलोमीटर यों ही चल लेते थे । पर दोनों आँखों में मोतियाबिंद था । कहने लगे : 'बेटा, ऑपरेशन कराके मेरी आँखें ठीक करा दे ।' पर डॉक्टरों ने मुझसे कहा कि कोई आशा नहीं है।
मेरे साथ तब मेरी छोटी विधवा बहिन और उसके चार बच्चे भी थे। दादा सोचते थे- मैंने कभी लड़के-लड़की के लिए कुछ नहीं किया। पैसा मेरे पास है नहीं । ये क्यों मेरी सेवा करेंगे। इन्हें भ्रम पैदा करना चाहिए कि मेरे पास बहुत धन है । अपनी समझ के हिसाब से वे झूठा भरोसा देते थे : 'बेटा, पिछली बार जब मैं यहाँ रहा था, तब एक सोने की ईंट अमुक के पास मैंने रख दी थी । और दस हज़ार रुपए मेरे फलाँ के पास जमा हैं। मुझे इनके पास ले चल । मैं अपना सोना और रुपया ले आऊँगा। मैं जानता था कि यह झूठ है । वे अर्द्ध-विक्षिप्त भी हो गए थे।
आखिर उनके बहुत हठ करने पर मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ । हम उन्हें आशा देते थे कि पट्टी खुलने पर साफ़ दिखेगा । एक दिन पट्टी खुली । आँखें खुलीं । हमने पूछा : 'हाथ दिखता है ? पाँचों अँगुलियाँ दिखती हैं ? हम दिखते हैं ?' उन्होंने अपने को और हमें धोखा दिया। बोले : 'हाँ, अब दिखता · हैं।' फिर फफककर रोने लगे और बोले : 'बेटा, मैं अंधा हो गया ।'
उनकी जीने की इच्छा उसी क्षण खत्म हो गई। वे रोज़ स्नान करके पूजा करते और तब भोजन करते थे। उस दिन से उन्होंने नहाना और पूजा करना • छोड़ दिया। बिलकुल चुप पड़े रहते। 7-8 दिनों में वे मर गए। मरने के पहले कई बार बोले : 'अच्छा है। बेटा भी यहीं है। बेटी भी यहीं है। बच्चे भी यहीं हैं । मेरे सभी मेरे पास हैं।' उन्होंने अटकल से मेरे, मेरे छोटे भाई के तथा बहिन के सिर पर हाथ रखा । बोलते गए : 'बेटा शंकर है, ये गौरी का बेटा है, ये सीता बेटी है।' जीवन भर के निर्मोही का अंतिम मोह था यह । उन्होंने प्राण त्याग दिए ।
लोगों ने कहा- श्राद्ध करो, पिंडदान करो सद्गति के लिए। मैंने कहा कि 'सद्गति और दुर्गति उसकी होती है और स्वर्ग या नरक वह जाता है, जो सत्कर्म या दुष्कर्म करे । हमारे दादा ने ज़िंदगी भर कुछ किया ही नहीं । 'अकर्म योगी' थे। सीधे स्वर्ग पहुँच गए होंगे।
मेरे पिता जंगल नीलामी में लेते थे और लकड़ी का कोयला बनवाते थे । जहाँ जंगल लेते वहीं पास की बस्ती में रहने लगते । जंगल में कोयला बनाने के लिए बड़े-बड़े भट्टे लगाते थे। इस गाँव से उस गाँव हम लोग जाते रहे । बिच्छू का डेरा पीठ पर था ।
मेरे पिता मुझसे भी ऊँचे थे । तगड़े थे । कोशे का साफा बाँधते थे । झरटिदार मूँछें रखते थे । घोड़े पर सवारी करते थे । 'ठेकेदार साहब' कहलाते थे । वे घोड़े पर साथ बिठाकर मुझे भी जंगल ले जाते । मैं सिर्फ आठ साल का था। घोड़ा अपनी परछी में घास खा रहा था । न रस्सी, न लगाम, न जीन । मैं चबूतरे पर से उसकी नंगी पीठ पर बैठ गया। उसकी गर्दन के बाल पकड़ लिए और झटका लगते ही घोड़ा अपने रोज़ के परिचित जंगल के रास्ते पर चल पड़ा। सामने का मैदान पार कर लिया तो मुझे डर लगा। मैं उसे लौटाना चाहता था पर लौटाना मुझे आता नहीं था । घोड़ा दौड़ने लगा । मैंने उसे रोकने के लिए बाल ज़ोर से खींचे। इसे उसने और तेज़ दौड़ने का इशारा समझा। वह खूब तेज़ 'दौड़ने लगा । घबड़ाकर मैं उसकी गर्दन से चिपट गया। घोड़ा भाग रहा था और मैं चीख रहा था । आखिर मैं फिसलकर गिर पड़ा। मेरे गिरते ही घोड़ा रुक गया । मेरे पास आकर खड़ा हो गया। मुझे देखता रहा। मुझे घुटने में चोट आई थी । ज़रा देर बाद देखा कि मेरे पिता कुछ आदमियों के साथ दौड़ते आ रहे हैं । वे गुस्से में थे । पर मुझे पड़ा देखकर वे चिंतित हो गए । मुझे उसी घोड़े की पीठ पर बिठाकर घर लाया गया । यह मेरा पहला दुस्साहसिकता का काम था। आगे तो मैंने 'बहुत दुस्साहस के काम किए।
पिता का दबंगपन मुझे अच्छा लगता था। पर वे मेरे 'हीरो' नहीं थे। मैंने उनसे कुछ नहीं सीखा । इतनी ज़रूर मुझमें प्रेरणा आई कि आदमी को तगड़ा होना चाहिए। बल्कि तब वे बहुत बुरे आदमी लगते थे, जब हर इतवार को भट्टे पर काम करनेवाले गोंडों को डाँटते और गाली देते थे । वे उनके पैसे भी काट लेते थे और मुझे गोंडों के विवश पीड़ामय चेहरों को देखकर दुःख होता था। माँ-बाप मुझे प्यार बहुत करते थे । जंगल में रहने पर भी उन्होंने मेरी पढ़ाई में व्यवधान नहीं आने दिया। 5-6 किलोमीटर दूर प्राथमिक शाला तक एक गोंड मुझे कंधे पर बिठाकर ले जाता था । वहाँ तीन-चार घंटे रुकता और मुझे कंधे पर बिठाकर घर लौटा लाता। यह क्रम एक साल चला ।
दूसरा काम मेरे पिता ने अच्छा किया कि उसी अवस्था में मुझे 'रामचरित मानस' का कई बार पाठ करा दिया। सुबह 'रामचरित मानस' का पाठ और शाम को भगवान की आरती - यह नियम था । 'रामचरित मानस' की छोटी-मोटी दिलचस्प बातें ही समझ में आती थीं। 'सुंदरकांड' बहुत अच्छा लगता था । हनुमान मेरे हीरो थे। मुझे आधी 'रामचरित मानस' कंठस्थ हो गई थी। इससे मुझे आगे बहुत लाभ हुए ।